संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
‘श्रीरामचरितमानस’ में आता हैः
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।
यदि तुम विदेश जाना चाहो तो तुम्हारे पास पासपोर्ट होगा तब वीजा मिलेगा। वीजा होगा तब टिकट मिलेगी। फिर तुम हवाई जहाज में बैठकर अमेरिका जा सकोगे।
यदि नौकरी चाहिए तो प्रमाणपत्रों की जरूरत पड़ेगी। अगर व्यापार करना हो तब भी धन की जरूरत पड़ेगी। किंतु भक्ति में ऐसा नहीं है कि ‘तुम इतनी योग्यता प्राप्त करो तब भक्ति कर सकोगे….’
तुम्हारे पास कोई योग्यता, कोई प्रमाणपत्र न हो तो भी तुम भक्ति जब चाहो कर सकते हो। ईश्वर का ऐश्वर्य इसी में है कि वह तुम्हारी योग्यता देखकर तुम्हें स्वीकार नहीं करता वरन् स्वीकार करना उसका स्वभाव है, उसका ईश्वरत्व है। अगर तुम सोच लेते हो कि ‘मैं इतने साल तक भक्ति करूँगा तब भगवान मिलेंगे….’ समय-मर्यादा की अड़चन तुम्हारी ओर से है, ईश्वर की तरफ से नहीं हैं।
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।
जैसे, विभीषण आया तो सुग्रीव ने श्रीराम जी से कहा कि ‘यह शत्रु का भाई है, अतः इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।’ किंतु शत्रु का भाई है इसलिए उसे स्वीकार न करें तो ईश्वर का ईश्वरत्व किस बात का ? अगर भगवान केवल भक्तों को ही स्वीकारें और अभक्तों को न स्वीकारें तो कामी, क्रोधी, पापी वगैरह कहाँ जायेंगे ?
श्रीराम जी ने कहाः ‘मेरा तो प्रण है शरणागत के भय को हर लेना – मम पन सरनागत भयहारी। जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या का पाप लगा हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव मेरे सम्मुख होता है तो उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।’
कोटि विप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।
सनमुख होई जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। श्री रामचरित. सुंदरकांडः 43.1
ईश्वर से यह नहीं होता कि योग्य को ही स्वीकारें। वरन् जो भी उनका होना चाहता है, उसके लिए ईश्वर के द्वार सदा खुले हैं।
शर्त यह है कि हम यह न मानें कि ‘हम पापी हैं… हमारे कर्म ऐसे हैं… हमको भगवान स्वीकार करेंगे कि नहीं ?’ अपने कर्मों को याद करके अपने को प्रभु का मानो और प्रभु को अपना मानो तो काम बन जायेगा….
पहली बात यह है कि अपने कर्म का कर्त्ता न मानें। दूसरी बात है कि कर्म में अपना स्वतंत्र ज्ञान नहीं होता। कर्म को पता नहीं होता कि वह कर्म है। कर्म स्वयं जड़ है, आपकी भावना के अनुसार उसका परिणाम होता है। कर्म करके कुछ पा लूँगा ऐसा विचार किया तो कर्म करने पड़ेंगे। क्रिया से जो कुछ मिलेगा वह मेहनत करवायेगा और अंत में थका देगा। पर भाव से जो मिलेगा वह मेहनत नहीं करवायेगा वरन् प्रेम उभारेगा और थकान मिटायेगा तथा जीवन को रसमय बनायेगा।
‘मैं इतना जप रोज करूँगा…. तब कहीं पवित्र होऊँगा और फिर भगवान मेरा जप स्वीकार करेंगे अथवा मैंने इतने अच्छे कर्म किये परंतु बीच में इतने बुरे कर्म किये इसलिए मेरा सब कुछ खो गया।’ ऐसा सोचोगे तो ऐसा ही दिखेगा, ऐसा ही होगा।
प्रयत्न करना चाहिए कि शास्त्र विरुद्ध कर्म न हों परन्तु स्मृति अपने कर्मों की नहीं, भगवान के स्वरूप की करनी चाहिए। भगवान ज्ञानस्वरूप हैं, भगवान चैतन्यस्वरूप हैं, भगवान आनंदस्वरूप हैं, भगवान हमारे परम हितैषी हैं, भगवान हमारे परम सुहृद हैं….. – ऐसा मानने से भगवत्प्रीति बढ़ती जायेगी।
ईश्वर में, शास्त्र में, गुरु में तथा अपनी आत्मा में जितनी श्रद्धा होगी, जितनी दृढ़ता होगी, उतना ही बल बढ़ता जायेगा।
एक पंडित जी प्रतिदिन किसी गाँव में कथा करने जाते थे। उसी गाँव में एक ग्वालिन प्रतिदिन नदी पास से दूध बेचने आती थी। दूध बेचने के लिए जाते-जाते वह ग्वालिन कथा के एक दो शब्द सुन लिया करती थी। एक बार कथा के ये शब्द उसके कान में पड़ गये कि ‘राम नाम से पत्थर भी तर जाते हैं।’
कहा गया है कि विश्वासो फलदायकः। ‘विश्वास से फलदायक होता है।’
ग्वालिन का विश्वास भी गजब का था। वह दूध बेचकर जब घर वापस जाने के लिए नदी तट पर आयी, तब सोचने लगीः ‘जब राम नाम से पत्थर तक तैर सकते हैं तो मैं तो मनुष्य हूँ। मैं क्यों नहीं तैर सकती ? नाव वाले को व्यर्थ में दो पैसे क्यों दूँ ?’ ऐसा दृढ़ निश्चय और विश्वास करके राम नाम लेते हुए उसने नदी में पैर रखा और चलकर नदी के उस पार पहुँच गयी ! अब वह प्रतिदिन दूध बेचने आती तो राम नाम जपते-जपते नदी पर चलकर ही आने लगी !
महीना पूरा हुआ। उसके पास थोड़े-से पैसे इकट्ठे हो गये। उसने सोचा कि जिन पंडित जी की कथा से मुझे इतना फायदा हुआ है, उन्हें एक बार भोजन तो करवा दूँ। उसने पंडित जी से अपने घर चलकर भोजन करने की प्रार्थना की। पंडित जी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। समय और तिथि निश्चित हो गयी।
नियत दिन और समय पर ग्वालिन पंडित जी को लेने आयी। दोनों नदी के तट पर पहुँचे तो देखा कि नाव नहीं है। पंडित जी ने कहाः
“यहाँ तो कोई नाव ही नहीं दिखाई दे रही, उस पार कैसे पहुँचेंगे ?”
ग्वालिन ने कहाः “अरे, पंडित जी ! आप ही ने तो कहा था कि राम नाम से पत्थर तक तैर सकते हैं तो आपके लिए नदी को पार करना कौन-सी बड़ी बात है ? चलिये, मेरे साथ चले-चलिये।”
यह कहकर ग्वालिन तो बड़ी आसानी से पानी पर चलने लगी परंतु पंडित जी किनारे पर ही खड़े रह गये। तब उन्हें हुआ कि मैंने इतने शास्त्र पढ़े, कथाएँ कीं, किंतु शास्त्रों का सार, कथाओं का सार तो इस ग्वालिन ने पाया।
ग्वालिन ने तो केवल दो वचन ही सुने थे कि ‘राम नाम से तो पत्थर भी तर जाते हैं’। उसने उन वचनों पर विश्वास किया तो पानी पर चलना उसके लिए आसान हो गया। ऐसे ही हमें शास्त्र वचनों, गुरु वचनों पर विश्वास हो जाये तो हम भी भवसागर से आसानी से पार हो सकते हैं। जरूरत है तो केवल अटल विश्वास की….
परिस्थितियों से हार न मानें, इनसे चिपके नहीं और इनसे घबराये भी नहीं। तटस्थ हो जायें। अपने भगवत् तत्त्व के साथ एकाकार होकर परिस्थितियों को गुजरने दें। ‘भगवान मेरे साथ हैं और मैं भगवान का हूँ’ – यह विश्वास जितना पक्का करोगे भगवान उतने जल्दी प्रकट होंगे। ईश्वर के रास्ते जाने का एक बार दृढ़ संकल्प कर लिया तो फिर उसको छोड़े नहीं।
बरसात के दिनों में फालतू घास जल्दी उग जाती है परंतु गुलाब के फूल जहाँ-तहाँ नहीं उगते। गुलाब के फूल खिलाने हैं तो कलम लगानी पड़ती है, निराई-गुड़ाई करनी पड़ती है, खाद-पानी देना पड़ता है, देखभाल करनी पड़ती है तब गुलाब खिल पाता है।
ऐसे ही फालतू विचार जल्दी आ जाते हैं, व्यर्थ कर्म भी जल्दी हो जाते हैं किंतु श्रेष्ठ कर्म करने में दृढ़ता रखनी पड़ती है। श्रेष्ठ विचार के लिए सत्संग करना होता है। सत्संग से जो श्रेष्ठ विचार मिलें उन्हें पकड़े रखें, सुना-अनसुना न करें। जैसे गुलाब की कलम लगाते हैं तो उसकी देखभाल करते हैं, ऐसे ही विचारों की कलम लग जाये तो उसकी सँभाल करनी चाहिए। बगीचे में तो फूल खिलते हैं, सुगंध देकर मुरझा जाते हैं परंतु यहाँ तो हृदय खिलेगा और परमात्मतत्त्व का अमिट अनुभव होने लगेगा।
तीसरी बात है कि कभी यह न समझें कि ‘ईश्वर कहीं दूसरी जगह पर है…. अभी नहीं है बाद में मिलेगा…. यहाँ नहीं है, कहीं जाने के बाद मिलेगा…..।’ नहीं, ईश्वर तो तुम्हारा आत्मा होकर बैठा है, वह सर्वत्र और सदा है। आरंभ में होता है कि ‘वह कहीं है और मैं कहीं हूँ और मैं उसका हूँ’। जब भक्ति और बढ़ती है, सत्संग और शास्त्र विचार करता है तो ‘मैं’ पना मिट जाता है और वह कहने लगता है कि ‘मैं वही हूँ, वह मैं हूँ।’
चौथी बात है कि यह सदा याद रखें कि यह शरीर सदा नहीं रहेगा। एक दिन श्मशान में जायेगा परंतु मेरी आत्मा परमात्मा का सनातन अंश है और सदा रहेगी। इस प्रकार की जो समझ है वह शरीर की ममता हटा देगी, शरीर से आसक्ति हटा देगी।
शरीर की आसक्ति रखने से आलस्य बढ़ता है, इन्द्रियों में विलासिता आ जाती है, मन असंयमी हो जाता है और बुद्धि के दोष बढ़ जाते हैं।
‘शरीर तो पंचभूतों का है’ – ऐसी मान्यता दृढ़ हो जाये तो शरीर का आलस्य चला जाता है। मन की विलासिता और इन्द्रियों का उच्छ्रंखलपना नियंत्रित हो जाता है और बुद्धि में समता आने लगती है।
देह को ‘मैं’ मानोगे तो भोग-वासना पीछा नहीं छोड़ेगी। सूक्ष्म शरीर को ‘मैं’ मानोगे तो विचार और सिद्धान्त में पकड़ होगी। कारण शरीर को ‘मैं’ मानोगे तो अवस्था में पकड़ होगी परंतु सच्चिदानंद-स्वरूप परमात्मा में ‘मैं’ और ‘मेरा’ पन होगा तो हर हाल में खुश…।
फिर तो भगवान का भजन करते हो तब भी भगवान तुम्हारे और नहीं करते हो तब भी भगवान तुम्हारे हैं। मन नाचता है तब भी तुम भगवान के और मन शांत रहता है तब भी तुम भगवान के हो जाते हो।
जैसे, पत्नी ससुराल में हो तब भी, मायके में हो या घर में हो, बाजार में हो तब भी पति की ही है। पति की सेवा करती है तब भी पति की है और किसी दिन सेवा नहीं करती है तब भी पति की ही है। वैसे ही जीव भगवान का है। भजन होता है तब भी भगवान तुम्हारे हैं और नहीं होता है तब भी भगवान तुम्हारे ही रहते हैं।
जब तुमने सच्चे दिल से भगवान को अपना मान लिया तो वह तुम्हारा क्यों नहीं होगा ?
तुम तो एकमात्र उस भगवान का ही आश्रय लो। ईश्वर की ओर चलने में जहाँ सहयोग मिलता हो, उत्साह बढ़ता हो, वह जगह छोड़े नहीं और ईश्वर से विमुख करने वाला वातावरण हो वहाँ जाये नहीं।
‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता हैः “हे राम जी ! यदि आत्मतत्त्व की जिज्ञासा में हाथ में ठीकरा ले चांडाल के घर से भिक्षा ग्रहण करे वह भी श्रेष्ठ है, पर मूर्खता से जीना व्यर्थ है।”
बड़े-बड़े ऐश्वर्य से भी वह अवस्था अच्छी है, क्योंकि बड़े-बड़े ऐश्वर्य भोगकर भी आखिर नरकों में जाना पड़ेगा।
सुख-सुविधाएँ, गाड़ी-बँगले आदि का कुछ भी मूल्य नहीं है। इनको पाने का यत्न करने में प्राणी अपना सारा समय-शक्ति गँवा देता है, जबकि भगवत् भाव का, भगवत् शांति का, भगवत् माधुर्य का जो सुख है वह यहाँ भी सुख देता है और अंत में सुखस्वरूप ईश्वर से मिला देता है। इसलिए प्रयत्न करके भगवत् भाव को, भगवत् ज्ञान को, भगवत् ध्यान को और भगवत् तत्त्व को आत्मसात करना चाहिए।
….और यह कठिन नहीं है। ‘कठिन है-कठिन है’ सोचते हैं तो कठिन हो जाता है। अन्यथा यह कठिन नहीं है। देर वाला काम नहीं है। ऐसा नहीं है कि कोई चीज और लाकर देनी पड़ेगी….। इसे न कहीं से लाना है, न बनाना है। यह तो हाजरा हुजूर है इसे केवल जानना है, बस।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 15-18, अंक 117
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