Monthly Archives: July 2009

निष्ठावान बनो ! – पूज्य बापू जी


यदि निष्ठा दृढ़ हो तो कठिन-से-कठिन कार्य भी पूर्ण हो सकता है । इसी जन्म में परमात्मा के समग्र स्वरूप को पाने का दृढ़ संकल्प हो, अनन्य भाव हो तो वह भी पूर्ण हो जाता है । मनुष्य के पास दुःख मिटाने के लिए, शांति पाने के लिए, सफलता पाने के लिए उसकी निष्ठा पर्याप्त है ।

महाराष्ट्र में कराड़ है । वहाँ एक भगवद्भक्त सखूबाई हो गयी । सखूबाई बड़ी सुशील, नम्र और सरलहृदया थी पर उसके सास-ससुर और पति उतने ही कर्कश व कठोर थे । वे सखू को खूब सताते थे ।

चाहे कैसी भी परिस्थिति हो लेकिन अपना दृढ़ संकल्प उन परिस्थितियों को बदल देता है । दुनिया के लोग चाहे आपके साथ कैसा ही व्यवहा करें लेकिन आप अपने साथ जुल्म नहीं करते तो उनका जुल्म आपको मिटा नहीं सकता । अपनी निष्ठा और विश्वास दृढ़ होना चाहिए । पत्नी की निष्ठा है कि ‘मैं पतिपरायण रहूँगी’ लेकिन साड़ी फट जाय और पड़ोसी के यहाँ साड़ी की भीख माँगने जाय तो यह पति में निष्ठा नहीं है । एक भक्त है और उससे कीड़ी मर गयी तो भगवान अच्युत का सुमिरन कर ले । यह उसकी निष्ठा है कि चलो, कीड़ी के मरने का पाप नष्ट हो गया । लेकिन भक्त कर्मकांडी बने और सोचे कि ‘गंगा नहायेंग, उपवास करेंगे तब मेरा पाप मिटेगा’ तो यह उसकी विचलित निष्ठा है । योगी है, अगर उससे कीड़ी मर गयी तो उसने प्राणायाम क लिया, सोचा, ‘कीड़ी का शरीर बदला, आत्मा तो अमर है और मैंने जानबूझकर नहीं मारा’ तो ठीक है, लेकिन योगी गंगा नहाने जाय अथवा उपवास करने लगे तो उसकी योगनिष्ठा उसको तारेगी नहीं । तत्त्वज्ञानी है, चलते-चलते कीड़ी मर गयी तो वह भी प्राणायाम करने लग जाय तो उसकी निष्ठा से वह गिरा है । तत्त्ववेत्ता है तो तत्त्ववेत्ता की निष्ठा है कि ‘तत्त्व तो ज्यों-का-त्यों है, कीड़ी की आकृति बनती बिगड़ती है । ॐॐ….’ पूरा हो गया ।

अपनी निष्ठा अपना कल्याण करने के लिए पर्याप्त है । सखूबाई की निष्ठा देखो । कितना-कितना जुल्म होता था लेकिन वह अपनी निष्ठा से विचलित नहीं होती थी । ‘भगवान मेरे हैं और मेरी उन्नति के लिए यह लीला रच रहे हैं । सुख-दुःख सब भगवान की देन है ।’ – ऐसी सखूबाई की निष्ठा थी ।

प्रह्लाद की निष्ठा देखो । पिता कितना कष्ट देता है पर प्रह्लाद की निष्ठा है कि ‘मेरा हरि सर्वत्र है, वह मेरा रक्षक है’ तो अग्नि ने प्रह्लाद को नहीं जलाया लेकिन जिसे वरदान था वह होलिका जल मरी ।

‘मेरी गाँधी जी के प्रति निष्ठा है । मैं गाँधी जी का अनुसरण करता हूँ । उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानता हूँ’- ऐसा बोलना अलग बात है । यह भाषणबाजी करके जनता को उल्लू बनाना अलग बात है लेकिन गाँधी जी के प्रति निष्ठा है तो गाँधी जी के आचरण जैसा अपने जीवन का कोई एक आचरण तो बताओ ! गाँधी जी कितने सत्यप्रिय थे ।

निष्ठा तो शबरी भीलन की थी । गुरु जी ने कह दियाः ‘शबरी ! राम जी के पास तुझे नहीं जाना पड़ेगा, तू आश्रम की सेवा करना, राम जी अपने-आप तेरे पास आयेंगे ।’ शबरी जब गुरु के आश्रम में आयी थी तब सोलह साल की थी । अब वह अस्सी साल की बुढ़िया हो गयी, सब लोग उसको पागल बोलते, कुछ-का-कुछ बोलते लेकिन शबरी की निष्ठा ने राम जी को अपने द्वार पर ला दिया और जूठे बेर खिलाकर दिखा दिया । इसका नाम है निष्ठा !

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास ।

प्रह्लाद की निष्ठा से नृसिंह भगवान प्रकट हो गये । ध्रुव की निष्ठा से उसकी 5 साल की उम्र में भगवान नारायण प्रकट हो गये । समर्थ रामदास जी के भाई रामी रामदास को माँ ने कहाः ‘बेटा ! तू हनुमान जी की ओर एकटक देख और निष्ठा से जप कर तो हनुमान जी प्रकट हो जायेंगे ।’ बेटे ने माँ के वचन में निष्ठा रखी और आठ साल की उम्र में हनुमान जी को प्रकट करके दिखा दिया । ऐसे ही शिवाजी महाराज की अपने गुरु जी में, अपने धर्म में, अपनी प्रजा के प्रति कैसी निष्ठा थी ! सुबह जब मैं घूमने जाता हूँ तो देखता हूँ कि गरीब लोग जिनके झोंपड़े का ठिकाना नहीं, कच्ची सड़क पर भारत की गरीब माताएँ अपने बच्चों को लेकर सोयी हैं तो मेरे दिल में बहुत पीड़ा होती है । देशवासियों का खून चूस-चूसकर चोर लोगों ने स्विस बैंक में अरबों-खरबों रूपये रखे हैं । अगर सरकार हिम्मत कर विदेश से वह पैसा लाकर भारत को कर्जमुक्त करे और इऩ गरीब-गुरबों को मकान बनाकर दे तो कितना अच्छा हो !

पंढरपुर प्रसिद्ध तीर्थ है । हर वर्ष लाखों नर-नारी कीर्तन करते हुए पंढरीनाथ श्रीविट्ठल भगवान के दर्शनार्थ जाते हैं । कुछ यात्री कराड़ से पंढरपुर के मेले में जा रहे थे । यात्रियों को जाते देख सखूबाई के मन में भी पंढरीनाथ के दर्शन की इच्छा जाग उठी । उसने सोचा कि ‘सास-ससुर आदि तो आज्ञा मिल नहीं सकती ।’ अतः घड़ा वहीं रखके यात्रियों के साथ चल दी । उसकी पड़ोसन, जो नदी पर पानी भरने आयी थी, उसने यह खबर उसकी सास को सुनायी तो सास ने अपने बेटे को भड़काकर भेजा । वह उसे मारते, घसीटते हुए घर ले आया और एक कोठरी में बंद कर दिया । तीनों ने पक्का कर लिया कि ‘जब तक पंढरपुर का मेला होता है तब तक सखू को बाँधकर रखेंगे और कुछ भी खाने पीने को नहीं देंगे ।’ लेकिन सखूबाई यह नहीं कहती कि ‘भगवान ! मैं तुम्हारी भक्ति करती हूँ और तुमने मेरे लिए क्या किया ?’ निष्ठा नहीं तोड़ती । सखूबाई को बाँध दिया गया तो वह कहती हैः ‘मेरे विट्ठल ! अब मैं क्या करूँ ? हे दीनानाथ ! मैं न तुम्हारा पूजा पाठ जानती हूँ, न भक्ति जानती हूँ, मैं तो इतना ही जानती हूँ कि अब तुम्हारे सिवा मेरा कोई नहीं है । हे प्रभु ! मैं तो केवल आपकी हूँ ।’

प्रार्थना करते-करते शाँत हो जाते हैं तो अंतर्यामी की लीला शुरु होती है । भगवान तो सर्वसमर्थ हैं । वे स्त्रीरूप धारण कर वहाँ प्रकट हो गये  और बोलेः “बाई ! तू पंढरपुर नहीं जायेगी ?”

सखू ने कहाः “जाना तो चाहती हूँ पर बँधी पड़ी हूँ ।”

स्त्रीरूपधारी भगवान उसे खोलते हुए बोलेः “अब तू शीघ्र पंढरपुर चली जा ।”

इस प्रकार भगवान ने सखू को पंढरपुर पहुँचा दिया और आप सखू का रूप धर के उस कोठरी में स्वयं बँध गये और ज्यों-का-त्यों ताला लगा लिया । सखूबाई तो पंढरपुर पहुँची और परमात्मा सखूबाई के रूप में बँधे हैं, कैसी निष्ठा है !

जहाँ सखू वेशधारी भगवान बँधे थे वहाँ आकर सखू के सास-ससुर और पति दिन में दो-चार बार गालियाँ सुनाते लेकिन भगवान पर दृष्टि पड़ते-पड़ते उनके अंतःकरण में सत्त्वगुण जाग उठा । वे तीनों पश्चाताप करने लगे । उसके बंधन काटकर क्षमा माँगने लगे । जुल्मी जुल्म करता है लेकिन निष्ठावान की कृपा से जुल्मी का हृदय बदलता है ।

भगवान वे सभी गृहकार्य करने लगे जो सखू करती थी – भोजन बनाना, भोग लगाना, सास-ससुर को खिलाना… उन्हें तो आनंद आने लगा । तीनों विचार करने लगे कि ‘हमने तो गलती की जो सखू को इतना कष्ट दिया ।’

इधर मेला पूरा हुआ । सखू ने सोचा, ‘अब जाऊँगी तो घरवाले क्या पता मेरा क्या हाल करेंगे ।’ उसे पता ही नहीं था कि उसके लिए कोई बँधा है । उसने सोचा, ‘उस नरक से तो यहीं मर जाना अच्छा है ।’ उसने प्रतिज्ञा की कि ‘अब मैं इस देह से घर नहीं जाऊँगी ।’ सखू भगवान के ध्यान में मग्न हो गयी और वहीं कुछ समय बाद प्रभु के ध्यान-ध्यान में सखू के प्राण निकल गये । दैवयोग से कराड़ के निकट के किवल ग्राम के एक ब्राह्मण ने उसे पहचान लिया और अपने साथियों को बुलाकर वहीं उसकी अंत्येष्टि कर दी ।

इधर जब भगवान को सखूवेश में बहुत दिन हो गये तो रुक्मिणी जी ने देखा कि ‘सखू तो मर गयी और मेरे स्वामी उसकी जगह बहू बन बैठे हैं । अब मैं क्या करूँ ?’ उन्होंने श्मशान में जाकर सखू की हड्डियाँ इकट्ठी कीं और अपनी योगशक्ति से उनमें प्राणों का संचार कर सखूबाई को खड़ा कर दिया । जो आद्यशक्ति समस्त ब्रह्माण्ड की रचना करने वाली है, उनके लिए सखू को जीवित करना कोई बड़ी बात नहीं थी ।

रुक्मिणी जी ने कहाः “सखू ! तुमने कहा था कि ‘इस शरीर से नहीं जाऊँगी’ तो वह शरीर तो जल गया । अब मैंने तेरा नया शरीर बनाया है, तू अपने घर जा।” अपरिचित देवी की बात सुनकर सखू कराड़ पहुँच गयी ।

इधर भगवान घड़ा लेकर नदीतट पर पानी भरने आये और सखू को देखकर बोलेः “बहन ! तू बहुत दिनों के बाद आयी है । ले अब तू अपना घड़ा सँभाल, मैं जाती हूँ ।” देखते-ही-देखते भगवान अंतर्धान हो गये ।

तुम क्या समझते हो निष्ठा की लीला ! इस कथा-वार्ता को पढ़-सुनकर जो लोग अपनी निष्ठा दृढ़ करेंगे वे भक्ति में सफल होंगे, ज्ञानी ज्ञान में सफल होंगे, सेवक सेवा में सफल होंगे, कर्मी कर्म में सफल होंगे, निष्ठा फलदायी होगी । इस कथा को वरदान मिल गया । अपनी-अपनी निष्ठा व्यक्ति को कल्याण के आखिरी शिखऱ तक पहुँचा देती है ।

इस आत्मा में अनेक रूप धारण करने की शक्ति है । सपने में तो ऐसा होता ही है, जाग्रत में भी निष्ठा के बल से होता है । तुम्हारे यही आत्मभगवान सखू भी बन सकते हैं, नरसिंह भी बन सकते हैं, कृष्ण-कन्हैया और राम बनकर भी प्रकट हो सकते है । हे मानव ! तुम्हारे आत्मा-परमात्मा में कितना सामर्थ्य है तुम्हें पता नहीं । तुम्हारा सच्चिदानंद परमात्मा सत्ता, सामर्थ्य, सौंदर्य और आनंद से भरा है । उसकी प्रीति, स्मृति और उसमें विश्रांति पाकर निरहंकार, निर्मम, निर्दुःख हो जाओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 9-11 अंक 199

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सदोष और निर्दोष सुख


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

जिन-जिन लोगों ने पूर्व समय में मनुष्य जन्म पाकर समय, शक्ति का सदुपयोग नहीं किया है वे ही अभी वृक्ष, कीट-पतंग आदि योनियों में दुःखी, परेशान होते दिखायी देते हैं ।

भगवान ने हमें दुःखी बनाने के लिए थोड़े ही पैदा किया था ? शुद्ध सुख में हमारी गति हो जाय इसीलिए तो मनुष्य जन्म दिया था और हमने उसका दुरुपयोग कर दिया, निर्दोष सुख न लिया । मनुष्य जितना ज्यादा सदोष (दोषमुक्त) सुख लेता है, उसे फिर उतना ही ज्यादा हलकी योनियों में जाना पड़ता है ।

हम सदोष सुख लेते-लेते इतने दोषी हो जाते हैं कि फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेना पड़ता है । जो बहुत विलासी होता है वह पेड़ बन जाता है, फिर कुल्हाड़े की मार, पक्षियों की चोंचें, आँधी-तूफान आदि सहता है और फरियाद करने की, कुछ कहने की क्षमता नहीं रहती । पशु बनो, जंतु बनो… क्यों ? क्योंकि मनुष्य जन्म मिला था जिस निर्दोष सुख को लेने के लिए, उस सुख के लिए तो कुछ किया नहीं, संदोष सुख में जीवन गँवा दिया ।

ऐसे लोग जिनका ज्यादा विलासी-विकारी जीवन नहीं है वे दुबारा मनुष्य बन जाते हैं और यदि वे थोड़ा निर्दोष सुख लेने की तरफ भक्ति की तरफ बढ़ते हैं तो देवता बन जाते हैं । लेकिन यदि जीते जी कोई आत्मवेत्ता महापुरुष मिल गये और शुद्ध सुख, निर्दोष सुख लिया तो निर्दोष सुख लेते-लेते स्वयं निर्दोष हो जायेगा, फिर चौरासी लाख जन्मों में मिलने वाली पीड़ा सब माफ हो जाती है ! निर्दोष ब्रह्म हो जाता है । इसलिए निर्दोष सुख लेना चाहिए । निर्दोष सुख तो अपना आपा है । निर्दोष सुख लेने वाला स्वयं भी दुःखी नहीं होता और दूसरे का भी शोषण नहीं करता । सदोष सुख लेने  वाला स्वयं भी पीड़ित होता है और दूसरों को भी पीड़ा पहुँचाता है ।

साधू ऐसा चाहिए दुखे दुखावे नाहिं ।

फूल पात तोड़े नहीं रहे बगीचे माँहिं ।।

संसार रूपी बगीचे में रहे लेकिन दूसरे को दुःख नहीं दे और खुद भी दुःखी न हो । भोगी आदमी स्वयं भी दुःखी होता है, औरों को भी दुःख देता है, औरों से भी ठगी-बेईमानी करता है ।

बोलेः ‘बच्चों के लिए, पत्नी-परिवार के लिए इतना तो करना पड़ता है ।’

अरे ! ये सब चीजें साथ में चलेंगी नहीं लेकिन इनको प्राप्त करने के लिए जो कूड़-कपट, पाप किया वे सब साथ में चलेंगे । जिस शरीर की सुविधा के लिए इतने-इतने पापकर्म किये, वह शरीर तो इधर ही जला देना है लेकिन गलत कर्म करके जो मन मलिन बनाया वह तो साथ में चलेगा । इस शरीर को सुखी करने के लिए, ऐश कराने के लिए क्या-क्या किया – दारू पिया, मांस खाया, झूठ बोले…. । यह शरीर तो एक दिन जला देना है । तो जिसको जला देना है उसके लिए सारी जिंदगी दोषयुक्त कर्म किये और मर जाने के बाद जो अंतःकरण साथ में चलेगा वह भी दोषी हो गया । जड़ शरीर की तरफ लगाव ज्यादा हो गया तो फिर वृक्ष, हाथी, भैंसा आदि की देह मिलती रहेगी । जड़ शरीर के साथ जितनी प्रीति, उतना फिर अपना अंतःकरण जड़ीभाव को प्राप्त होता है । निर्दोष सुख, आत्मा की तरफ जितनी प्रीति, उतना अंतःकरण आत्मामय हो जाता है । जैसे पानी न, दूध में मिलाओ तो दूध का रंग और शराब में मिलाओ तो शराब का रंग पकड़ लेता है, ऐसे ही मन को देह के साथ मिलाओ तो देहमय हो जायेगा । पटेल, सिंधी, गुजराती जिस भाव के साथ मिलाओ, वैसा अपने-आपको मानने लग जायेगा । ऊपर-ऊपर से मानने लगे और अंदर से जाने कि ‘यह सब कल्पना है, वास्तव में चैतन्य आत्मा हूँ’ तो कोई हरकत नहीं । लेकिन अब उसी मन को ब्रह्म में मिला दो जिससे वह ब्रह्म हो जाय । निर्दोष सुख लेने से मनुष्य स्वयं निहाल हो जाता है और जो उसके संपर्क में आते हैं उनका भी बेड़ा पार हो जाता है । जैसे भगवान राम जी थे, गुरु की सेवा की, गुरु की आज्ञा में रहे, आत्मविचार किया, ‘स्व’ के सच्चिदानंद स्वभाव को जाना तो कैसा जीवन बना लिया ! निर्दोष सुख  लिया तो स्वयं सुखी हुए और उनका सुमिरन करके अभी हजारों लोगों को शांति मिलती है । जबकि रावण ने सत्ता का, पद, विलास का सदोष सुख लिया तो अभी हर वर्ष दे दियासिलाई !

तो कोई भी ज्ञानी संत होंगे तो उनके पास श्रद्धापूर्वक जाने से सत्संगियों को, सज्जनों को लगेगा ये बाबा अपने हैं, उनके प्रति अपनत्व लगेगा क्योंकि वे निर्दोष आत्मामय हो गये हैं और आत्मा तो सबके निकट है । इसीलिए हम लोग कहते हैं- ‘राम राम राम, मेरे राम…।’ ‘मेरे रावण, मेरे रावण….’ – ऐसा नहीं कह पायेंगे । ‘मेरा सिकंदर, मेरा सिकंदर…’ नहीं कह पायेंगे । हम जो दोष, अहंकार को पोसकर सुख लेना चाहते हैं, वह सदोष सुख है और जो आत्मा की ओर होकर सुखी होना चाहते हैं वह निर्दोष सुख है । संसार में विष और अमृत दोनों चीजें मिलती हैं, पसंदगी तुम्हारी है । रीति-रिवाज, रिश्ते-नाते, भाईचारा वाहवाही द्वारा अहंकार बढ़ाने वाला वातावरण भी मिलेगा और जिसकी सत्ता से देह चलती है वह चैतन्य परमात्मा ही सब कुछ है, ऐसा करके अपने अहंकार को विसर्जित कराने वाला सत्संग भी मिलेगा । अहंकार तो देह में होगा । देह को जो सुखी करना चाहते हैं वे सदोष सुख चाहते हैं ।

बोलेः ‘फिर संत-महात्मा भी तो बिस्तर पर बैठते हैं, सोते हैं, गद्दी पर बैठते हैं, फूलहार-मालाएँ पहनते हैं, कार में, जहाज में घूमते हैं वे भी तो मजा लेते हैं ।’

देखो, साधु-महात्मा जहाज में, कार में बैठते हैं लेकिन उनका साधु बनने का उद्देश्य क्या है ?

जहाज में बैठने के लिए, फूलमाला पहनने के लिए अगर साधु बने हैं तो ऐसे साधुओं को कोई पूछता भी नहीं । जो परमात्मा के लिए साधुताई में उतर आये हैं और उनको तो कार में, जहाज में या इन वस्तुओं में सुखबुद्धि नहीं होती । वे इन उपकरणों का उपयोगमात्र करते हैं । दूसरों को निर्दोष सुख, ईश्वर का रस पहुँचाने के लिए इन साधनों का उपयोग करते हैं । अब किसी महात्मा को दरिया-पार जाना है तो चलकर तो जायेंगे नहीं, साधन का उपयोग तो करेगे ही ।

देखो, एक आदमी है जो मनौतियाँ मानता है कि जहाज में बैठ जाऊँगा तो प्रसाद बाँटूगा, नारियल फोड़ूँगा । वह पैसा भी खर्च रहा है और  जहाज की यात्रा करने के बाद नारियल भी फोड़ता है, प्रसाद भी बाँटता है, खुशियाँ मनाता है । लेकिन जहाज में नौकरी करने वाल पायलट तथा दूसरे मददगार लोग जहाज में बैठते भी हैं, ऊपर से पैसा भी लेते हैं और घड़ी देखते रहते हैं कि कब समय पूरा हो । डयूटी पूरी हुई ततो ‘हाश ! जान छूटी !’ करके घर पहुँचते हैं क्योंकि वे सुख लेने के लिए जहाज में नहीं बैठते, डयूटी के लिए बैठते हैं । जैसे यात्री सैर करने को जाता है, ऐसे पायलट के मन में सैरबुद्धि नहीं है । साधन में होते हुए भी उसमें सुखबुद्धि नहीं है । ऐसे ही देहरूपी साधन में ब्रह्मवेत्ता भी होगा और अज्ञानी भी होगा, बुद्धू भी होगा और बुद्ध भी होगा लेकिन बुद्धु शरीररूपी साधनन में सुखबुद्धि करके जियेगा और बुद्धपुरुष शरीररूपी साधन का उपयोग करने के लिए जियेगा । यात्री और पायलट दोनों बैठे तो हैं जहाज में लेकिन एक डयूटी कर रहा है, दूसरा सैर करने जा रहा है । ऐसे ही हम लोग इस शरीर में जी रहे हैं, जा रहे हैं, आ रहे हैं तो सैर करने की बुद्धि से जा रहे हैं, आ रहे हैं तो सैर करने की बुद्धि से जी रहे हैं कि किसी के उपयोग में आने के लिए जी रहे हैं ? अगर किसी के उपयोग में आने के लिए जी रहे हैं, खा-पी रहे हैं, जहाज में आ-जा रहे हैं तो हो गया निर्दोष जीवन और विलास करने के लिए जी रहे हैं तो हो गया सदोष जीवन ।

मनुष्य जन्म में संभावना है । आप जितना महान होना चाहें, जितना ऊँचा उठना चाहें उठ सकते हैं और जितना नीचे गिरना चाहें गिर भी सकते हैं । अपना जीवन ईश्वर के ज्ञान से, ईश्वर की भक्ति से, सेवा से, परोपकार से, निर्दोषता से जितना भरना चाहें उतना भर सकते हैं और जितना खाली कर डालें उतना खाली हो सकता है । पुण्यकर्म करके ऊँचा उठना यह मनुष्य-जन्म का तप है । पशु पुण्य नहीं कर सकता, पाप मिटा नहीं सकता । मनुष्य कर्म को काट भी सकता है, कर्म बढ़ा भी सकता है ।

एहि तन कर फल बिषय न भाई । (श्री रामचरित. उ.कां. 43.1)

यह शरीर विषयभोग के लिए नहीं मिला । यह शरीर मिला है निर्दोष परमात्मा का सुख लेने के लिए, शुद्ध आनंद लेने के लिए । शुद्ध कृत्य करते-करते हृदय शुद्ध होता जायेगा । हृदय जितना शुद्ध होगा उतना शांत रहेगा और जितना शांत रहेगा उतना शांतस्वरूप परमात्मा के करीब आ जायेगा । इसके लिए केवल तड़प हो जाय बस, बाकी का काम तो भगवान कर देते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 20-22 अंक 199

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गौरव भक्ति


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

भगवान की भक्ति मुख्यतः दो तरह की होती है – गौरव भक्ति और संबंध भक्ति । वैसे भक्ति के कई अवांतर प्रकार हैं ।

हम पृथ्वी पर चलते हैं, दौड़ते हैं, कितना बढ़िया दौड़ते हैं लेकिन पृथ्वी नहीं होती तो कहाँ दौड़ते ? और पृथ्वी क्या हमारी बनायी हुई है ? उस ईश्वर ने बनायी है । तो पृथ्वी उसकी है लेकिन दौड़ने की शक्ति क्या हमारी अपनी है ? यह उसी की महिमा है ।

पृथ्वी होने पर भी पैर नहीं देता तो हम कैसे दौड़ते ? और पैर होते हुए भी बल नहीं देता तो हम कैसे दौड़ते ? अन्न उसका, मन उसका और शरीर उसका ! दौड़ते हैं तो भी उसी का गौरव है । वाह ! प्रभु वाह ! यह तेरा गौरव है । बोलते हैं तो उसी का गौरव है, खाते हैं तो उसी का गौरव है और सोते हैं तो नींद क्या हमने बनायी ?’ तूने दी प्रभुजी ! माँ के शरीर में दूध तूने बनाया…. जहाँ तहाँ भगवान का गौरव याद आ जाय !

काली-कलूटी भैंस हरी-हरी घास खाये और दूध बनाये सफेद, क्या तेरा गौरव है ! कीड़ी में तेरी चेतना छोटी और हाथी में बड़ी दिखती है । महावत में अक्ल-होशियारी दिखती है । वाह प्रभु ! क्या तेरा गौरव है !

कीड़ी में तू नानो लागे, हाथी में तू मोटो ज्यों ।

बन महावत ने माथे बैठो, हाँकनवालो तू को तू ।

ऐसा खेल रच्यो मेरे दाता, जहाँ देखूँ वहाँ तू को तू ।।

यह भगवान की गौरवमयी भक्ति है । गौरवमयी गाथा गाते-गाते, भगवान का गौरव गाते-गाते आपका हृदय भगवन्मय हो जायेगा, रसमय हो जायेगा ।

देखो न, बेटा कितना प्यारा लगता है, आहा ! पर इस प्यारे को बनाया किसने और प्यारे को आँख द्वाररा देखने की सत्ता कहाँ से आयी ? प्यारा लगता है तो इस अंतःकरण में चेतना कहाँ से आयी ? वाह प्रभु तेरा गौरव ! वाह प्यारे तेरी लीला !… देखा है फूल को पर याद करो भगवान का गौरव । बापू दिखें पर बापू में जो बापू बैठा है, वाह मेरे प्यारे ! गुरु बनकर कैसा ज्ञान दे रहा है । वाह मेरे प्रभु ! शिष्य बनकर कितनी भीड़ की है, आहाहा ! वाह प्रभु तेरा गौरव ! इस प्रकार भगवदाकार वृत्ति हो जायेगी । किसी ने अच्छी बात कही तो व्यक्ति के अंदर अच्छाई के सद्गुण की गहराई में तू है, तो भगवान की तरफ नज़र जायेगी । गहराई में तू है, तो भगवान कि तरफ नज़र जायेगी । जहाँ-तहाँ भगवान के गौरव को देखना यह है गौरव भक्ति । भगवान हमारे हैं और उनकी कैसी लीला है ! तो गौरव भक्ति से आपका अंतःकरण अहोभाव से भर जायेगा ।

भगवान के प्रति दास्य भाव, सखा भाव, अमुक भाव रखना यह संबंध भक्ति है । संबंध भक्ति आपके हृदय को, चित्त को, वृत्ति को, आपकी मति को राग से, द्वेष से हटा देगी, चिंता से, भय से, खिन्नता से हटा देगी और भगवद्रस से भर देगी ।

हरड़ लगे न फिटकरी और रंग चोखा आवे ।

संसार का मजा लेने में तो कितनी मेहनत करनी पड़ती है । आलू लाओ, बेसन लाओ और आलू-बड़ा बनाओ… ऐसा करो, ऐसा करो फिर खाओ तब जीभ को रस आया । बोलेः ‘आहा ! आलू-बड़ा खाया !’ पर थोड़ा ज्यादा खाया और पचा नहीं तो ? करते हैं- ओऽ… ओऽ…।’

यह खाने का रस आया पर उसमें भी रसो वै सः वैश्वानरो । यह चैतन्य की चेतना न हो तो ? इतनी मजूरी की पर रस तो ज्ञानस्वरूप तेरा ही गौरव है मेरे प्यारे ! मेरे कन्हैया !

एक बार योगी गोरखनाथ जी जंगल में से कहीं जा रहे थे । एक गडरिये ने कहाः “बाबा ! कहाँ जा रहे हैं ? धूप में, आओ जरा छाँव में बैठो ।”

उस गरीब गडरिये ने प्रेम से रोटी खिलायी और बोलाः “तनिक यहाँ आराम करो बाबा !”

जब गोरखनाथ जी आराम करके जाने लगे तो गडरिया बोलाः “बाबा ! मेरा कुछ करो । मैं अनपढ़, मूर्ख हूँ । मेरी भक्ति कैसे बढ़ेगी, मुक्ति कैसे होगी ?”

“मुक्ति चाहिए क्या ?…. भक्ति चाहिए ?”

“हाँ बाबा !”

“देखो, संयम से शक्ति आती है, प्रीति से भक्ति आती है और ज्ञान से मुक्ति मिलती है । शक्ति, भक्ति और मुक्ति… अब तीनों में से एक को भी पकड़ लो तो बाकी दो आ जायेंगी । चादर का कोई भी एक कोना पकड़ लो तो शेष तीनों अपने-आप हाथ में आ जायेंगे ।”

“बाबा ! मैं तो कालो अक्षर भैंस बराबर जाणूँ, न पढ़ो हूँ न पढ़ूँगो । क्या मेरी मुक्ति हो सकती है ?”

गौरखनाथ जी कहाः “हाँ, आराम से । तू ये बकरियाँ और भेड़ें चराता है न ! ये हरी-हरी, पीली-पीली घास खाती हैं और सफेद-सफेद दूध देती हैं न ?”

किसान बोलाः “हाँ ।”

“कहते रहना – वाह प्रभु ! तेरी लीला अपरंपार है । भेड़ों के ये प्यारे-प्यारे बच्चे, उनकी नन्हीं-नन्हीं आँखें, उनमें तू देखने की सत्ता देता है । कैसे तू घास में से बच्चे और दूध बना देता है ! वाह प्रभु तेरी महिमा !”

इस प्रकार गौरखनाथ जी ने उसे गौरव भक्ति का उपदेश दे दिया । अरे बाबा ! उसको तो ऐसा रंग लगा कि हर समय ‘वाह प्रभु तेरी महिमा !’ जहाँ-तहाँ प्रभु की महिमा देखे । जलाशय में जाय तो मछलियाँ नाच रही, दौड़ रही हैं… सोचे, ‘क्या महिमा है ! क्या तेरी लीला है ! वाह प्रभु तेरी लीला ! वाह प्रभु तेरी महिमा !’ उस जमाने में पान-मसाला तो था नहीं और न प्रदूषण था । दूध और रोटी खाता, कूड़-कपट से दूर रहता । थोड़े ही दिनों में उसका अंतःकरण शुद्ध हो गया और शुद्ध अंतःकरण में सामने वाले की मनोदशा का पता चलने लगता है । हर जीव में यह शक्ति छुपी है ।

एक राजा को सपना आया कि अपना खजाना भर ले । उसने मंत्री से पूछा तो मंत्री ने कहाः “यह अल्लाह-ताला ने सपना नहीं दिया है, आपकी शैतानवृत्ति का काम है ।” तो मंत्री पर गुस्सा करके राजा ने उसे राज्य से निकाल दिया । मंत्री भटकता-भटकता इसी गडरिये के पास पहुँचा ।

गडरिया बोलाः “राजा ने लात मारकर तुम्हें निकाल दिया है लेकिन उस राजा (ईश्वर) की दुनिया तो सभी के लिए है । राजा ने खजाना भरने की बात की थी और तुमने कहा था कि ‘यह भगवान नहीं कहते या अल्लाह नहीं कहते, आपकी शैतानवृत्ति है’ तो सच्ची बात उसको अच्छी नहीं लगी ।”

मंत्री बोलाः “पर तुम्हें कैसे पता चला ?”

“तुममें, हममें, सबमें, जो है वह तो एक है । वाह प्रभु तेरी लीला !”

गोरखनाथ जी ने बता दी है गौरव भक्ति…’ – ये शब्द उसके पास नहीं थे लेकिन भगवान के गौरव को बार-बार याद करने से उसका अपना अहं भगवान में विलीन हो गया था ।

मंत्री दंग रह गया और गौरव भक्ति से गौरवान्वित गडरिये की सिद्धाई का आश्चर्यजनक वृत्तांत भाव-भंगिमा सहित राजा को सविस्तार सुनाया । राजा बड़ा प्रभावित हुआ और उस गडरिये से मिलने के लिए गया ।

राजा को ज्यों-ज्यों उस संत, सज्जन गड़रिये का सत्संग और सान्निध्य मिलता गया, त्यों-त्यों उसको सहज में ईश्वरीय सुख, अल्लाही सुख की झलक मिलने लगी ।

यह गौरव भक्ति का मार्ग भी एक सरल मार्ग है । तुम बनाते-खाते, लेते-देते भगवान के गौरव का बखान करो अथवा तो भगवान के साथ हमारा संबंध है यह पक्का कर लो, उसकी स्मृति बनाओ और उसमें शांत होओ । गौरव गाओ, शांत होओ । शरीर तो मर जायेगा फिर भी आत्मा का संबंध परमात्मा से है । इस प्रकार की स्मृति से भगवान बुद्धियोग देते हैं । भगवान के साथ संबंध भक्ति करो, गौरव भक्ति करो तो आपकी स्मृति में भक्तियोग बढ़ेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 18-20 अंक 199

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