Monthly Archives: April 2017

स्वाध्याय व उसकी आवश्यकता


क्या है स्वाध्याय ?

आत्मसाक्षात्कारी ज्ञानीजनों द्वारा रचित आध्यात्मिक शास्त्रों एवं पुस्तकों का अध्ययन ‘स्वाध्याय’ कहलाता है। पवित्र ग्रंथों का दैनिक पारायण स्वाध्याय है। यह राजयोग के नियम का चौथा अंग है। आत्मस्वरूप के विश्लेषण को या ‘मैं कौन हूँ ?’ के ज्ञान को ही स्वाध्याय की संज्ञा दी जाती है। किसी भी मंत्र के सस्वर पाठ को भी स्वाध्याय ही कहा जाता है। सत्संग-शास्त्रों के अध्ययन को भी स्वाध्याय कहते हैं। इनका पारायण ध्यानपूर्वक होना चाहिए। जो पढ़ें उसे समझें और जो समझे हों उसका मनन करके शांत होते जायें तो फिर निदिध्यासन बन जाता है और आप आत्मसाक्षात्कार के करीब हो जाते हैं। स्वाध्याय में मंत्रजप भी आ जाता है। प्रतिदिन स्वाध्याय और उसका दैनिक जीवन में अभ्यास करने से आपको यह भगवान से मिला देगा।

क्यों जरूरी है स्वाध्याय ?

मन को आदर्श (उच्च सिद्धान्त) के प्रति सचेत रखने का प्रभावशाली उपाय शास्त्रों तथा संतों की जीवनियों का दैनिक अध्ययन करने में निहित है। ऐसे अध्ययन से मन में प्रभावशाली स्वीकारात्मक विचार उभरते हैं, जो मानसिक शक्ति को तीव्र करते हैं। वे तुरंत प्रेरणा प्रदान कर मनुष्य को अधोगति से बचा लेते हैं। अतः स्वाध्याय तो साधक को जीवन में एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ना चाहिए।

स्वाध्याय प्रेरणादायक होकर मन को आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक ले जाता है और संशय निवारक होता है। यह अपवित्र विचारों का उन्मूलन कर देता है। यह मन के लिए नयी आध्यात्मिक रूढ़ियों (उभारों) का काम करता है, विक्षेप का निवारण करता है और ध्यान में सहायक रहता है। एक प्रकार की सविकल्प समाधि का रूप ले लेता है। मनरूपी पशु के लिए चारागाह का काम देता है। जब सदगुरु निर्दिष्ट आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं तो आप आत्मसाक्षात्कार प्राप्त ज्ञानियों के विचारों से विचारवान बन जाते हैं। आपको उनके प्रेरणा मिलती है और हर्षोन्माद प्राप्त होता है। वे लोग धनभागी है जिन्हें ब्रह्मवेत्ता गुरु का मंत्र और सत्संग मिला है और उन्हीं के निर्दिष्ट ग्रंथ और मंत्र में लगे रहते हैं। और वे अपने-आपके शत्रु हैं जो गुरुदीक्षा के बाद भी मनचाहे, मनमुखी लोगों की, आत्मानुभवहीन व्यक्तियों की किताबों में उलझते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए देवर्षि नारदजी कहते हैं-

मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः। (श्रीमद्भागवत माहात्म्यः 1.32)

सावधान हो जायें, सुधर जायें तो अच्छा है।

जब आपको सदगुरु का सत्संग नहीं मिल पाता, तब स्वाध्याय ही आपका सहायक बनेगा और प्रेरणा देगा। जैसे ऋषि प्रसाद है, ऋषि दर्शन है। स्वाध्याय श्रद्धा की अस्थिरता को दूर कर उसे दृढ़ करता है। यही मुक्ति की प्रबल इच्छा का कारण बनता है। इसी से उत्साह तथा प्रकाश प्राप्त होता है। यह आपके सामने उन संतों की सूची रखता है जिन्होंने सत्य को अपनाया, कष्टों का सामना करके कठिनाइयों को हटाया। इससे आपको आशा तथा शक्ति प्राप्त होती है। यह आपके मन को सत्त्व से भर देता है और प्रेरणा देकर उन्नत करता है। आत्मज्ञानियों व संतों की पुस्तकों में लिखी शिक्षाओं को आचरण में लाने से आपके थके-माँदे शरीर तथा मन को विश्रांति तथा सांत्वना मिलती है। आध्यात्मिक साहित्य पीड़ादायक वातावरण में साथी, कठिनाइयों में आदर्श मार्गदर्शक, अविद्या-अंधकार में पथ-प्रदर्शक और समस्त रोगों में सर्वरोगौषधि तथा भविष्य-निर्माता का कार्य करता है।

धर्मशास्त्र ज्ञानियों, संतों दार्शनिकों तथा अध्यात्मविद्या में प्रवीण विद्वज्जनों के अनुभव-ज्ञान से परिपुष्ट हैं। स्वाध्याय द्वारा शास्त्रों के मर्मज्ञ बनिये। प्रकृति का वास्तविक रूप पहचानिये और अपने सीमित जीवन को प्रकृति के दिव्य नियमानुसार ढालिये। शक्ति तथा आनंद के बाहुल्य का द्वार आत्मज्ञान द्वारा ही खुलता है। आत्मज्ञान ही अनगिनत कष्टों तथा पापों का नाशक होकर अविद्या का उन्मूलन करता है। आत्मज्ञान ही परम शांति तथा शाश्वत पूर्णता  प्राप्त कराता है।

समाधि का काम करता है स्वाध्याय

रामायण, भागवत, योगवासिष्ठ महारामायण आदि धर्मशास्त्रों का अध्ययन नियमपूर्वक चलता ही रहे। स्वाध्याय के लिए गीता व श्री योगवासिष्ठ महारामायण तो अनुपम शास्त्र हैं। अपने सुविधानुसार आधे घंटे से तीन घंटे तक प्रतिदिन इनका पठन, मनन-चिंतन, निदिध्यासन करें। शास्त्रों का स्वाध्याय ही क्रियायोग है, नियम है। यह हृदय को पवित्र करता है और मन में उच्च कोटि के विचार भर देता है। साधक भले ही आध्यात्मिक उन्नति के किसी भी स्तर पर क्यों न हो, उसे सत्संग-शास्त्रों, जिनमें आत्मज्ञानियों ने पावन सत्य का प्रतिपादन किया है, के स्वाध्याय का नियम कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। क्या आप जन्म से आत्मज्ञानी तथा परिव्राजक (संन्यासी) शुकदेवजी से भी अधिक उन्नत हैं ? क्या आप उन महान ऋषियों से भी अधिक ज्ञानी हो गये हैं, जो नैमिषारण्य में श्री सूतजी महाराज से श्रीमद्भागवत सप्ताह श्रवण हेतु एकत्र हुए थे ? ऐसे महान ज्ञानियों के उदाहरण (जीवन) से कुछ सीखिये और सदैव आध्यात्मिक ज्ञान को पाने के लिए लगे रहिये। उत्पाती न बनिये। स्वाध्याय, सज्जनता, साधना मत छोड़िये। अंधे स्वार्थ में, ईर्ष्या, द्वेष, आक्रमण व धोखे की रीति नीति समय आने पर धोखेबाज को ही तबाह करती है।

कुछ ग्रहण करने के लिए सदैव उत्सुक रहिये। वृद्ध वही है जो यह मान बैठता है कि उसका ज्ञान पर्याप्त है, उसे अधिक की आवश्यकता ही नहीं रही। वह जीवित होकर भी मृत है जो उपनिषद् व ब्रह्मवेत्ताओं के सत्संग को सुनने की आवश्यकता अनुभव नहीं करता तथा अनर्गल चलचित्र व निगुरे लोगों के लेखों में उलझता रहता है या मरने वाले शरीर की सुख सुविधाओं व वाहवाही के पीछे भटकता रहता है। दुर्लभ मनुष्य शरीर और कीमती समय दुर्लभ परमात्मदेव को पाने में लगाना ही बुद्धिमत्ता है एवं उन्हें गँवाना मूर्खता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 28, 29 अंक 292

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हे देवियो ! अपनी महिमा को पहचानो


श्री माँ आनंदमयी जयंतीः 30 अप्रैल 2017)

माता-पिता के संस्कारों का संतान पर प्रभाव

श्री आनंदमयी माँ के पिता विपिनहारी भट्टाचार्य एवं माता श्रीयुक्ता मोक्षदासुंदरी देवी (विधुमुखीदेवी) – दोनों ही ईश्वर-विश्वासी, भक्तहृदय थे। माता जी के जन्म से पहले व बहुत दिनों बाद तक इनकी माँ को सपने में तरह-तरह के देवी देवताओं की मूर्तियाँ दिखती थीं और वे देखतीं कि उन मूर्तियों की स्थापना वे अपने घर में कर रही हैं। आनंदमयी माँ के पिता जी में ऐसा वैराग्यभाव था कि इनके जन्म के पूर्व ही वे घर छोड़कर कुछ दिन के लिए बाहर चले गये थे और साधुवेश में रहकर हरिनाम-संकीर्तन, जप आदि में समय व्यतीत किया करते थे।

माता जी के माता-पिता बहुत ही समतावान थे। इनके तीन छोटे भाइयों की मृत्यु पर भी इनकी माँ को कभी किसी ने दुःख में रोते हुए नहीं देखा। माता-पिता, दादा-दादी आदि के संस्कारों का प्रभाव संतान पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षरूप से पड़ता ही है। माता जी बचपन से ही ईश्वरीय भावों से सम्पन्न, समतावान व हँसमुख थीं।

आनंदमयी माँ को आध्यात्मिक संस्कार तो विरासत में ही मिले थे अतः बचपन से ही कहीं भगवन्नाम-कीर्तन की आवाज सुनाई देती तो इनके शरीर की एक अनोखी भावमय दशा हो जाती थी। आयु के साथ इनका यह ईश्वरीय प्रेमभाव भी प्रगाढ़ होता गया। लौकिक विद्या में तो माता जी का लिखना पढ़ना मामूली ही हुआ। वे विद्यालय बहुत कम ही गयीं। परंतु अलौकिक विद्या में इन्होंने संयम, नियम-निष्ठा से व गृहस्थ के कार्यों को ईश्वरीय भाव से कर्मयोग बनाकर सबसे ऊँची विद्या-आत्मविद्या, ब्रह्मविद्या को भी हस्तगत कर लिया।

गुरु पर सर्वतोभाव से आत्मसमर्पण

सन् 1909 में 12 साल 10 महीने की उम्र में माता जी का विवाह हो गया। माता जी एक योग्य बहू के करने योग्य सभी काम करती थीं। माँ हररोज साधन-क्रिया नियम से करती थीं। वे दिन में गृहस्थी के सभी काम करतीं-पति की सेवा, भोजन बनाना, घर में बुहारी आदि और रात में कमरे के एक कोने में साधन करने बैठ जाती थीं। इन्हें दीक्षा के बाद 5 महीने तक योग की क्रियाएँ स्वतः होने लगीं। ये साधारण लोगों की समझ में अनोखी थीं। तरह-तरह के आसन, मुद्रा, पूजा आदि अपने-आप हो जाते थे। उस समय की बात बताते हुए माँ कहती हैं- “तब आसन-मुद्रा होते थे। खाना-पीना गुरु की इच्छा से करती थी। स्वाद-बोध नहीं होता था। यह भाव गुरु पर निर्भर रहने से आता है।

गुरु पर सर्वतोभाव (सम्पूर्णरूप) से आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। अपने को उनके हात का खिलौना समझना चाहिए। जो कुछ होना है वह गुरु की इच्छा से अपने-आप हो जायेगा।”

यौगिक क्रियाओं से अनजान परिजनों में से कुछ का कहना था कि ‘यह भूत लीला है।’ कुछ लोग समझते थे कि ‘यह एक रोग है।’ अपनी-अपनी समझ से भोलानाथ जी को किसी झाड़-फूँकवाले या अच्छे डॉक्टर को दिखाने की सलाह देते थे। भोलानाथ जी ने लाचार होकर एक-दो झाड़-फूँकवालों को दिखाया लेकिन वे लोग माँ का भाव देख के ‘माँ-माँ’ कहते हुए इनको नमस्कार कर चलते बने।

माँ की स्वरूपनिष्ठा तथा साधना का सारसूत्र

माँ की निष्ठा ऐसी थी कि एक बार किसी संबंधी के यह पूछने पर कि “आप कौन हैं ?” माँ ने गम्भीर स्वर मेः “पूर्ण ब्रह्म नारायण।”

आनंदमयी माँ के पास रहने वालीं उनकी एक खास सेविका ने एक बार माँ से पूजन की आज्ञा ली। सेविका कहती हैं- “जिस दिन से मेरा माँ के चरणों पर फूल चढ़ाना (पूजन करना) शुरु हुआ, उस दिन से माँ ने मुझे और किसी देवता के चरणों में अंजली देने को मना कर दिया। तभी से सिर्फ इन (माँ) के चरणों को छोड़कर मैं और कहीं अंजलि नहीं देती।” यह घटना भी आनंदमयी माँ की स्वरूपनिष्ठा को दर्शाती है कि स्वयं से भिन्न कोई दूसरा तत्त्व है ही नहीं। और यह एक निष्ठावान शिष्य के लिए साधना का उत्तम मार्ग भी है कि हयात ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष को सदगुरुरूप में पाने के बाद उसके लिए फिर और किसी की पूजा बाकी नहीं रहती। गुरुवचन ही उसके लिए कानून हो जाता है, सब मंत्रों का मूल तथा सर्व सफलताओं को देने वाला हो जाता है। निश्चलदास जी महाराज ने कहा हैः

हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।

सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय।। (विचारसागर वेदांत ग्रंथ)

भगवान को पाने का सबसे सीधा रास्ता

माँ से यह पूछे जाने पर कि “भगवान को पाने का सबसे सीधा रास्ता कौनसा है ?” उन्होंने बतायाः ” गुरु जो बतावें वह ही करें। गुरु के आदेश का पालन करके चलने से भगवत्प्राप्ति होगी।”

आनंदमयी माँ को गुरुप्रदत्त साधना ने आत्मपद में जगा दिया।

हे भारत की देवियो ! अपनी महिमा को पहचानो। स्वयं हरि-गुरुभक्तिमय जीवन व्यतीत करते हुए ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के सत्संग आदि से अपनी संतानों में भी ऐसे दिव्य संस्कारों का सिंचन करो कि वे स्वयं को जानने वाले, प्रभु को पाने वाले बनें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 292

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सर्वरोगहारी निम्ब (नीम) सप्तमी


निम्ब सप्तमीः 2 मई 2017

‘भविष्य पुराण’ ब्राह्म पर्व में मुनि सुमंतु जी राजा शतानीक को निम्ब सप्तमी (वैशाख शुक्ल सप्तमी) की महिमा बताते हुए कहते हैं- “इस दिन निम्ब पत्र का सेवन किया जाता है। यह सप्तमी सभी तरह से व्याधियों को हरने वाली है। इस दिन भगवान सूर्य का ध्यान कर उनकी पूजा करनी चाहिए। सूर्यदेव की प्रसन्नता के लिए नैवेद्य के रूप में गुड़ोदक (गुड़ मिश्रित जल) समर्पित करे व भगवान सूर्य को निवेदित करके 10-15 कोमल पत्ते प्राशन (ग्रहण) करेः

त्वं निम्ब कटुकात्मासि आदित्यनिलयस्तथा।

सर्वरोगहरः शान्तो भव मे प्राशनं सदा।।

‘हे निम्ब ! तुम भगवान सूर्य के आश्रय स्थान हो। तुम कटु स्वभाव वाले हो। तुम्हारे भक्षण करने से मेरे सभी रोग सदा के लिए नष्ट हो जायें और तुम मेरे लिए शांतस्वरूप हो जाओ।’

इस मंत्र से निम्ब का प्राशन करके भगवान सूर्य के समक्ष पृथ्वी पर आसन बिछाकर बैठ के सूर्यमंत्र का जप करे। भगवान सूर्य का मूल मंत्र है ‘ॐ खखोल्काय नमः।’ सूर्य का गायत्री मंत्र है- ‘ॐ आदित्याय विद्महे विश्वभागाय धीमहि। तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।’

इसके बाद मौन रहकर बिना नमक का मधुर भोजन करे।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 26, अंक 292

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ