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अदभुत है गीता ग्रंथ ! – पूज्य बापू जी


(श्रीमद्भगवदगीता जयंतीः 8 दिसम्बर 2019)

सारे वेदों का, उपनिषदों का अमृत सरल भाषा में जिस ग्रंथ में है और जो सभी तक पहुँचे ऐसा ग्रंथ है श्रीमद्भगवदगीता । भगवद्गीता ने क्रांति कर दी । श्रीकृष्ण ने प्रेमाभक्ति का दान देकर अंदर की चेतना जगा दी लेकिन जो विचारप्रधान थे उनको युद्ध के मैदान में ऐसी गीता दे डाली कि दुनिया में कोई किसी भी सम्प्रदाय, मत-मजहब का विचारक हो, चाहे राजनैतिक मंच पर गया हो चाहे धर्म के मंच पर गया हो, चाहे समाज-सुधार के मंच पर गया हो, चाहे समाज-सुधार के मंच पर हो चाहे भक्ति मार्ग या योगमार्ग के मंच पर हो…. ऐसा कोई विश्वविख्यात वक्ता नहीं मिलेगा जिसने गीता का अवलम्बन न लिया हो, दृष्टान्त न लिया हो ।

कोई सम्प्रदाय, कोई पंथ हो… गीता में किसी के साथ पक्षपात नहीं किया गया । किसी पंथ-सम्प्रदाय को, किसी मजहब को, किसी बाड़े को लेकर गीता नहीं चली ।

गीता के द्वार सबके लिए खुले हैं

श्रीकृष्ण जानते हैं कि धरा का सुख तो पशु-पक्षियों को, अन्य जीव-जंतुओं को भी मिलता है लेकिन ये मेरे प्यारे मनुष्य-अवतार में आये हैं, जो मुझे अति प्यारी देह है – मनुष्य-तन, उसमें आये हैं और ये अगर धरा के अमृत में ही रुक जायेंगे, धरा के ही  विषय सुख में जीवन बरबाद कर देंगे तो जीवनदाता का सुख कब ले पायेंगे ? इसलिए श्रीकृष्ण ने कोई शर्त नहीं रखी । और पंथों ने, मजहबों ने शर्त रखी कि ‘यदि तुम पापी हो तो 12 वर्ष का उपवास करो, एक दिन छोड़कर एक दिन खाओ । महीने में चान्द्रायण व्रत करो, अमुक यह करो, अमुक यह करो । खुदा को, गॉड को प्रार्थना करो…।’

श्रीकृष्ण तो यह कह रहे हैं कि

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वभ्यः पापकृत्तमः ।

तू दुराचारियों में, पापियों में आखिरी पंक्ति का हो…. जैसे प्रिय, प्रियतर, प्रियतम…. प्रियतम अर्थात् सबसे प्रिय, ऐसे ही पापकृत, पापकृत्तर, पापकृत्तम…. पापकृत्त्म अर्थात् सबसे बड़ा पापी भी हो तो भी –

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।।

तू उस ब्रह्मज्ञान की नाव में बैठ, तू यूँ तर जायेगा, यूँ !

अगर विश्व में कोई आश्वासन देने वाला ग्रंथ है तो वह है भगवद्गीता । गीता ने अबोध बच्चों को, अनजान ग्वाल-गौपों को, अनपढ़ लोगों को भी आमंत्रित किया । भक्तों, योगियों, ज्ञानियों और राजनीतिज्ञों के लिए भी गीता के द्वार खुले हैं । निष्काम कर्म करने वालों के लिए भी गीता कहती है कि ‘आ जा !’ और सकाम कर्म करने वाला गीता ज्ञान चाहता है तो भी कोई बात नहीं, ‘आ जा !’ जैसे माँ का विशाल हृदय होता है…. फिर पठित बालक है तो माँ का है, अपठित है तो माँ का है, धनाढ्य है तो माँ का है और निर्धन है तो माँ का है । तोतली भाषा बोलता है तो भी माँ उसे प्यार करती है और सुंदर-सुहावनी, लच्छेदार भाषा बोलता है तब भी माँ के आगे तो वह बच्चा ही है । ऐसे ही गीता माता का हृदय अति विशाल है । गीता माता की जय हो, जय हो, जय हो !

गीता के प्राकट्य का उद्देश्य क्या था ?

गीता प्रकटते ही उसकी महिमा देखो ! रण के मैदान में गीता प्रकटी है । योद्धा अर्जुन को अपना अमृतपान कराती है । जिज्ञासु संजय के पास तो गीता प्रकटी है लेकिन अंधे धृतराष्ट्र के घर तक भी तुरंत पहुँची है । गीता के प्राकट्य का उद्देश्य युद्ध नहीं था । उद्देश्य क्या था ? व्यापक जन समाज को सत्-चित्-आनंदमय जीवन की प्राप्ति में जो अति विघ्न हैं उनको कैसे आसानी से हटाया जाय क्योंकि वासना वालों के हाथ में राज्यसत्ता है । अति वासना वाले हैं दुर्योधन, शकुनि और वे कपट करके अपनी वासनापूर्ति के लिए लगे हैं । अर्जुन वासना से प्रेरित होकर युद्ध करना चाहता था क्या ? नहीं-नहीं ।

दुर्योधन बोलता है कि ‘ये सारे योद्धा मेरे लिए प्राण त्यागने को तैयार हैं’ अर्थात् मेरी इच्छा पूरी हो और मुझे राज्य मिले । यह वासना है ।

अर्जुन कहता है कि ‘कृष्ण ! मुझे विजय की इच्छा नहीं है और न मैं राज्य की एवं सुख ही चाहता हूँ । जिनके लिए मैं राज्य चाहता हूँ वे ही रणभूमि में मेरे सामने खड़े हैं तो मैं राज्य पाकर क्या करूँगा ? गोविन्द ! भला हमें राज्य से क्या प्रयोजन है ? तथा भोग या जीवन से भी क्या लेना है ?’

तो अर्जुन के जीवन में जनहित का उद्देश्य दिख रहा है और दुर्योधन के जीवन में वासना है ।

गीताकार ने कुछ नहीं छोड़ा

गीता का ज्ञान जिसके जीवन में उतरा, गीता उसकी हताशा-निराशा को दूर कर देती है । हारे हुए, थके हुए को भी गीता अपने आँचन में आश्वासन देकर प्रोत्साहित करती है । कर्तव्य-कर्म करने के मैदान में आया हुआ अर्जुन जब भागने की तैयारी करता है, ‘भीख माँगकर रहूँगा लेकिन यह युद्ध नहीं करूँगा ।’ ऐसे विचार करता है तो उसको कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा देती है और कर्म में से आसक्ति हटाने के लिए अनासक्ति की प्रेरणा भी देती है ।

ऐसी कोई बात नहीं है जो गीताकार ने गीता में छोड़ी हो । कितना अदभुत ग्रंथ है गीता ! इसकी जयंती मनायी जाती है ,अच्छा है, उचित है गीता जयंती मनाना ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 323

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लोक-परलोक सँवारने वाली गीता की 12 विद्याएँ


पूज्य बापू जी
(गीता जयंतीः 10 दिसम्बर )
गीता का ज्ञान मनुष्यमात्र का मंगल करने की सत्प्रेरणा देता है, सद्ज्ञान देता है। गीता की 12 विद्याएँ हैं। गीता सिखाती है कि भोजन कैसा करना चाहिए जिससे आपका मन तन्दुरुस्त रहे, व्यवहार कैसा करना चाहिए जिससे आपका मन तंदुरुस्त रहे और ज्ञान कैसा सुनना-समझना चाहिए जिससे आपकी बुद्धि में ज्ञान-ध्यान का प्रकाश हो जाय। जीवन कैसा जीना चाहिए कि मरने के पहले मौत के सिर पर पैर रख के आप अमर परमात्मा की यात्रा करने में सफल हो जायें, ऐसा गीता का दिव्य ज्ञान है। इसकी 12 विद्याओं को समझ लो-
1. शोक निवृत्ति की विद्याः गीता आशा का ग्रंथ है, उत्साह का ग्रंथ है। मरा कौन है ? जिसकी आशा, उत्साह मर गये वह जीते जी मरा हुआ है। सफल कौन होता है ? जिसके पास बहुत लोग हैं, बहुत धन है, वह खुश और सफल होता है ? नहीं, नहीं। जिसके जीवन में ठीक दृष्टिकोण, ठीक ज्ञान और ठीक उत्साह होता है, वही वास्तव में जिन्दा है। गीता जिंदादिली देने वाला सद्ग्रंथ है। गीता का सत्संग सुनने वाला बीते हुए का शोक नहीं करता है, भविष्य की कल्पनाओं से भयभीत नहीं होता, वर्तमान के व्यवहार को अपने सिर पर हावी नहीं होने देता और चिंता का शिकार नहीं बनता। गीता का सत्संग सुनने वाला कर्म-कौशल्य पा लेता है।
2. कर्तव्य कर्म करने की विद्याः कर्तव्य कर्म कुशलता से करें। लापरवाही, द्वेष, फल की लिप्सा से कर्मों को गंदा न होने दें। आप कर्तव्य कर्म करें और फल ईश्वर के हवाले कर दें। फल की लोलुपता से कर्म करोगे तो आपकी योग्यता नपी तुली हो जायेगी। कर्म को कर्मयोग बना दें।
3. त्याग की विद्याः चित्त से तृष्णाओं का, कर्तापन का बेवकूफी का त्याग करना। ……त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्। (गीताः 12.12)
त्याग से आपके हृदय में निरन्तर परमात्म-शांति रहेगी।
4. भोजन करने की विद्याः युद्ध के मैदान में भी भगवान स्वास्थ्य की बात नहीं भूलते हैं। भोजन ऐसा करें कि बीमारी स्पर्श न करे और बीमारी आयी तो भोजन ऐसे बदल जाय कि बीमारी टिके नहीं। युक्ताहारविहारस्य….. (गीताः 6.17)
5. पाप न लगने की विद्याः युद्ध जैसा घोर कर्म करते हुए अर्जुन को पाप नहीं लगे, ऐसी विद्या है गीता में। कर्तृत्वभाव से, फल की इच्छा से तुम कर्म करते हो तो पाप लगता है लेकिन कर्तृत्व के अहंकार से नहीं, फल की इच्छा से नहीं, मंगल की भावना से भरकर करते हो तो आपको पाप नहीं लगता। यस्य नाहंकृतो भावो..… (गीताः 18.17)
यह सनातन धर्म की कैसी महान विद्या है ! जरा-जरा बात में झूठ बोलने का लाइसैंस (अनुज्ञापत्र) नहीं मिल रहा है लेकिन जिससे सामने वाला का हित होता हो और आपका स्वार्थ नहीं है तो आपको ऐसा कर्म बंधनकारी नहीं होता, पाप नहीं लगता।
6. विषय सेवन की विद्याः आप ऐसे रहें, ऐसे खायें-पियें कि आप संसार का उपयोग करें, उपभोग करके संसार में डूब न मरें। जैसे मूर्ख मक्खी चाशनी में डूब मरती है, सयानी मक्खी किनारे से अपना काम निकालकर चली जाती है, ऐसे आप संसार से अपनी जीविकाभर की गाड़ी चला के बाकी का समय बचाकर अपनी आत्मिक उन्नति करें। इस प्रकार संसार की वस्तु का उपयोग करने की, विषय-सेवन कीक विद्या भी गीता ने बतायी।
7. भगवद्-अर्पण करने की विद्याः शरीर, वाणी तथा मन से आप जो कुछ करें, उसे भगवान को अर्पित कर दें। आपका हाथ उठने में स्वतंत्र नहीं है। आपके मन, जीभ और बुद्धि कुछ भी करने में स्वतंत्र नहीं हैं। आप डॉक्टर या अधिकारी बन गये तो क्या आप अकेले अपने पुरुषार्थ से बने ? नहीं, कई पुस्तकों के लेखकों की, शिक्षकों की, माता-पिता की और समाज के न जाने कितने सारे अंगों की सहायता से आप कुछ बन पाये। और उसमें परम सहायता परमात्मा की चेतना की है तो इसमें आपके अहं का है क्या ? जब आपके अहं का नहीं है तो फिर जिस ईश्वर की सत्ता से आप कर्म करते हो तो उसको भगवद्-अर्पण बुद्धि से कर्म अर्पण करोगे तो अहं रावण जैसा नहीं होगा, राम की नाईं अहं अपने आत्मा में आराम पायेगा।
8. दान देने की विद्याः नश्वर चीजें छोड़कर ही मरना है तो इनका सदुपयोग, दान-पुण्य करते जाइये। दातव्यमिति यद्दानं….. (गीताः 17.20) आपके पास विशेष बुद्धि या बल है तो दूसरों के हित में उसका दान करो। धनवान हो, तो आपके पास जो धन है उसका पाँचवाँ अथवा दसवाँ हिस्सा सत्कर्म में लगाना ही चाहिए।
9. यज्ञ विद्याः (गीताः 17.11) में आता है कि फलेच्छारहित होकर शास्त्र-विधि से नियत यज्ञ करना ही कर्तव्य है – ऐसा जान के जो यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक होता है। यज्ञ याग आदि करने से बुद्धि पवित्र होती है और पवित्र बुद्धि में शोक, दुःख एवं व्यर्थ की चेष्टा नहीं होती। आहुति डालने से वातावरण शुद्ध होता है। एवं संकल्प दूर तक फैलता है लेकिन केवल यही यज्ञ नहीं है। भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी देना, अनजान व्यक्ति को रास्ता बताना भी यज्ञ है।
10. पूजन विद्याः देवता का पूजन, पितरों का पूजन, श्रेष्ठ जनों का पूजन करने की विद्या गीता में। पूजन करने वाले को यज्ञ, बल, आयु और विद्या प्राप्त होते हैं। लेकिन जर्रे-जर्रे में राम जी है, ठाकुर जी है, प्रभु जी हैं – वासुदेवः सर्वम्.…. यह व्यापक पूजन-विद्या भी गीता में है।
11. समता लाने की विद्याः यह ईश्वर बनाने वाली विद्या है, जिसे कहा गया समत्वयोग। अपने जीवन में समता का सदगुण लाइये। दुःख आये तो पक्का समझिये कि आया है तो जायेगा। इससे दबें नहीं। दुःख आने का रस लीजिये। सुख आये तो सुख आने का रस लीजिये कि तू जाने वाला है। तेरे से चिपकेंगे नहीं और दुःख से डर के, दब के अपना हौसला दबायेंगे नहीं। तो सुख-दुःख विकास के साधन बन जाते हैं। जीवन रसमय है। आपकी उत्पत्ति रसस्वरूप ईश्वर से हुई है। आप जीते हैं तो रस के बिना नहीं जी सकते लेकिन विकारी रस में आप जियेंगे तो जन्म मरण के चक्कर में जा गिरेंगे और यदि आप निर्विकारी रस की तरफ आते हैं तो आप शाश्वत, रसस्वरूप ईश्वर को पाते हैं।
12. कर्मों को सत् बनाने की विद्याः आप कर्मों को सत् बना लीजिये। वे कर्म आपको सत्स्वरूप की तरफ ले जायेंगे। आप कभी यह न सोचिये कि ‘मेरे 10 मकान हैं, मेरे पास इतने रूपये हैं….’ इनकी अहंता मत लाइये, आप अपना गला घोंटने का पाप न करिये। मकान हमारे हैं, रुपये मेरे हैं…. तो आपने असत् को मूल्य दिया, आप तुच्छ हो गये। आपने कर्मों को इतना महत्व दिया कि आपको असत् कर्म दबा रहे हैं।
आप कर्म करो, कर्म तो असत् हैं, नश्वर हैं लेकिन कर्म करने की कुशलता आ जाय तो आप सत् में पहुँच जायेंगे। आप परमात्मा के लिए कर्म करें तो कर्मों के द्वारा आप सत् का संग कर लेंगे।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।
‘उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् – ऐसे कहा जाता है।’ (गीताः 17.27).
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 14,15,16 अंक 276
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मनुष्य – मनुष्य के बीच की दूरी मिटाता है आत्मज्ञान


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पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

‘गीता’ युद्ध के मैदान में कही गयी है | तब समय का बड़ा अभाव था | कुछ भी अनावश्यक बात करने का समय नहीं था | पूरी गीता में एक भी शब्द अनुपयोगी नहीं मिलेगा | भगवान ने जो कहा है वह बिल्कुल संक्षेप में और साररूप है | दोनों सेनाओं के बीच रथ खड़ा है, ऐसे मौके पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: || (गीता : ४.३४ )

‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से आर कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे |’

जो श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहता है उस अर्जुन को भी श्रीकृष्ण ज्ञानियों से आत्मज्ञान पाने की सलाह दे रहे हैं | इससे आत्मज्ञान की महिमा का पता चलता है |

यह आत्मज्ञान मनुष्य-मनुष्य के बीच की दुरी मिटाता है, भय और शोक, ईर्ष्या और उद्वेग की आग से तपे हुए समाज की सुख और शान्ति, स्नेह और सहानुभूति, सदाचार और संयम, साहस और उत्साह, शौर्य और क्षमा जैसे दिव्य गुण देते हुए ह्रदय के अज्ञान-अन्धकार को मिटाकर जीव को अपने ब्रह्मस्वभाव में जगा देता है | जिस-जिस व्यक्ति ने, समाज ने, राष्ट्र ने तत्त्वज्ञान की उपेक्षा की, तत्त्वज्ञान से विपरीत आचरण किया उसका विनाश हुआ, पतन हुआ | घूस, पलायनवादी, आतंकवाद और कायरता जैसे दुर्गुण उस समाज में फैले | शास्त्रों में आता है :

आत्मलाभात परं लाभं न विद्यते |

‘आत्मलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है |’

मंद और म्लान जगत को तेजस्वी और कांतिमान आत्मसंयम और आत्मज्ञान के साधन से ही किया जा सकता है |