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सेवा का रहस्य


अपने निजी स्वार्थ को जीवन का एकमात्र लक्ष्य बनाकर एक संकुचित क्षेत्र के अंदर कोल्हू के बैल की तरह घूमते हुए मानव समाज की वास्तविक उन्नति के लिए अत्यन्त आवश्यकता है ʹसेवाʹ की।

सेवा संकुचित क्षेत्र में फँसे हुए स्वार्थी मानव को विश्वात्मा के साथ एकत्व कराने की एक अनुपम कला है। श्रद्धा से सम्पृक्त सेवा ही धर्म है। स्नेह-संयुक्त सेवा वात्सल्य है। मैत्रीपरम सेवा सख्य है। मधुर सेवा श्रृंगार है। प्रेमयुक्त सेवा ही अमृत है। संयोग में यह रससृष्टि तथा वियोग में हितवृष्टि करती है। सेवा एक ऐसी दृष्टि है जो पाषाणखण्ड में ईश्वर को प्रगट कर सकती है, मृत को अमर बना सकती है। सेवा क्षुद्र अहंकार को मिटाकर ब्रह्मभाव को प्रगट कर देती है। अपने हितैषी के प्रति जो श्रद्धा, विश्वास अथवा सेवा की भावना है, वर उस पर उपकार करने के लिए नहीं है। ʹमैं अपनी सेवा के द्वारा अमुक को सुख पहुँचाता हूँ….ʹ यह भावना अहंकार को आभूषण पहनाती है। सेवा दूसरे पर उपकार करने के लिए नहीं अपितु अपने अन्तःकरण की शुद्धि के लिए होती है। सेवा चित्त को गंगाजल के समान निर्मल एवं स्वच्छ बनाने वाली है।

सेवानिष्ठा की परिपक्वता के लिए उसका विषय एक होना आवश्यक है। फिर चाहे माता-पिता हों गुरु, ईश्वर अथवा समाज हो, सभी में एक ही ईश्वर है। एक की भावना से सेवा अचल हो जाती है और वेदान्त के अनुसार अचल वस्तु ब्रह्म से पृथक नहीं होती। चल ही माया है, अचल नहीं। साधना में निष्ठा की परिपक्वता ही सिद्धि है। यदि सेवा की वृत्ति परिपक्वता दशा में शांत हो जायेगी तो वह आत्मा से एकत्व करा देगी और स्वयं भी आत्मस्वरूप हो जायेगी।

सेवा के प्रारम्भ में स्व-सुख की वासना उपस्थित हो सकती है परन्तु जब सेवक सेवा के द्वारा सेव्य को प्रसन्न करना चाहता है और सेव्य की प्रसन्नता में स्वयं हर्षित होता है तब उसकी स्व-सुख की वासना धीरे-धीरे कम होने लगती है। केवल अपने इष्ट के सुख में सुखी होना उसका स्वभाव बन जाता है और अन्य सुखों की इच्छा निवृत्त होने लगती है। ʹमैं अपनी सेवा से किसी को सुख देता हूँ….ʹ यद्यपि यह भावना भी पूर्ण निःस्वार्थता नहीं है परन्तु यह स्वार्थ-निवृत्ति का एक साधन है। अतः प्रारम्भिक अवस्था में इसे दोष नहीं माना जा सकता। यह प्रभु प्रेमरूपी महल में पहुँचाने वाली प्रथम सीढ़ी है क्योंकि जिस हृदय में अपने इष्ट को देखना है, रखना है, वहाँ प्रारम्भ में इष्ट के लिए हित की भूमिका का बनना आवश्यक भी है। यह प्रारम्भ है, पूर्णता नहीं। वेदान्त की भाषा में जब तक सेवक का ʹमैंʹ पूर्ण रूप से स्वामी के ʹमैंʹ में विलीन नहीं हो जाता, तब तक सेवा पूर्ण नहीं होती।

सेवा में इष्ट तो एक होता ही है, सेवक भी एक ही होता है। वह सब सेवकों के रूप में स्वयं ही अनेक रूप धारण करके अपने स्वामी की सेवा करता है। अनेक सेवकों के साथ वह सेवा के अनेक  प्रकारों को भी अपना ही रूप मानता है। भिन्न दृष्टि होने पर ईर्ष्या का प्रागट्य होता है जो कि सेवा में विष है। सरलता सेवा में अमृत है।

किसी भी कारण किसी के प्रति चित्त में कटुता आ जाने से सेवा भी कटु हो जाती है क्योंकि सेवा शरीर का विषय नहीं अपितु रसमय हृदय का मधुर उल्लास है। सेवा में क्रिया की अपेक्षा भाव की प्रधानता है। भाव की मधुरता से सेवा भी मधुर रहती है। कटुता चाहे किसी के प्रति भी हो परन्तु उसका निवास-वस्तु स्वयं ही अशुद्ध हो जायेगी। अपने अन्तर को शांत व निर्मल रखकर रोम-रोम को रसमय करने का नाम है ʹसेवाʹ।

सेवा में सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है सेवक का लक्ष्य। क्या किसी मनोरथ की पूर्ति, प्रतिष्ठा की आकांक्षा या किसी को वश में करने की इच्छा है ? यदि ऐसा है तो यह सेवा नहीं, स्वार्थ का ताण्डवमात्र है। सेवा का फल न तो स्वर्गादि की प्राप्ति है और न ही भोग-ऐश्वर्य की। सेवा स्वयं एक सर्वोत्तम फल है। सेवा केवल उपाय नहीं अपितु उपेय (प्राप्तव्य) भी है।

जिसके मन में ऐसी कल्पना उठती हो किः ʹमुझे तो सेवा का कोई फल नहीं मिला….ʹ वह सेवा का रहस्य नहीं जानता। उसकी दृष्टि प्राप्त जीवनशक्ति एवं प्रज्ञा के सदुपयोग की ओर न होकर किसी आगन्तुक पदार्थ पर है। यह स्वार्थ का खेल है, सेवा नहीं। सेवा चित्तशुद्धि का साधन होने के साथ-साथ शुद्ध वस्तु का अनुभव भी है।

स्पर्धा सेवा को कलंकित करने वाला मैल है। सेवा में स्पर्धा का आ जाना, दूसरे को पीछे छोड़ने के लिए स्वयं आगे बढ़ने की इच्छा रखना, दूसरे की सेवा को देखकर ईर्ष्या होना अथवा तो दूसरे को अपनी सेवा में बाधा मान लेना, इनसे सेवा के अंतरंग मर्मस्पर्शी रूप का दर्शन नहीं हो पाता। सेवा चित्त को निर्मल व उज्जवल बनाती है। उसमें अनुरोध ही अनुरोध है, विरोध अथवा अवरोध नहीं है।

जड़-चेतन जीवमात्र में भगवान के स्वरूप का दर्शन करके भगवद् बुद्धि करने से अपने प्रत्येक कर्म के द्वारा उनकी यथायोग्य उल्लासपूर्ण सेवा होती है। ऐसे सेवक के प्रत्येक कार्य से चराचर जगत में व्याप्त परमात्मा प्रसन्न होते हैं। यह सेवा अपने-आप में उत्कृष्ट भगवदपूजा है। सबमें भगवद्-दर्शन करने से वह स्वयं भी वही रूप हो जाता है क्योंकि स्वामी की सत्ता की सेवक की सत्ता है। सेवक का अस्तित्त्व स्वामी से पृथक नहीं होता। यदि पृथक हो गया तो सेवा अपूर्ण रहेगी क्योंकि पृथक होने से एक नये ʹमैंʹ की उत्पत्ति हो जाती है और वह सेवा के रस को अपने में समेट लेता है। स्वामी का ज्ञान ही सेवक का ज्ञान है और इस प्रकार अंततः स्वामी का ʹमैंʹ ही सेवक का ʹमैंʹ हो जाता है, सेवक स्वयं स्वामी हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2000, पृष्ठ संख्या 6-7 अंक 91

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साधना के छः विघ्न


निद्रा, तंद्रा, आलस्य, मनोराज, लय और रसास्वाद – ये छः साधना के बड़े विघ्न हैं। अगर ये विघ्न न आयें तो हर मनुष्य भगवान के दर्शन कर ले।

जब हम माला लेकर जब करने बैठते हैं तब मन कहीं से कहीं भागता है। फिर ʹमन नहीं लग रहा….ʹ ऐसा कहकर माला रख देते हैं। घर में भजन करने बैठते हैं तो मंदिर याद आता है और मंदिर में जाते हैं तो घर याद आता है। काम करते हैं तो माला याद आती है और माला करने बैठते हैं तब कोई न कोई काम याद आता है। यह एक व्यक्ति का प्रश्न नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है।

दो दोस्त थे। आपस में उनका बड़ा स्नेह था। एक दिन वे खेत में घूमने के लिए निकले और विचारने लगे किः ʹहम एक बड़ी जमीन लें और भागीदारी में खेती करें….ʹ

एक ने कहाः “मैं ट्रैक्टर लाऊँगा। तू कुआँ खुदवाना।”

दूसराः “ठीक है। ट्रैक्टर खराब हो जायेगा तो मैं बैल रखूँगा।”

पहलाः “अगर तेरे बैल मेरे हिस्से के खेत में घुस जायेंगे तो मैं उन्हें खदेड़ दूँगा।”

दूसराः “क्यों ? मेरे बैलों को क्यों खदेड़ेगा ?”

पहलाः “क्योंकि वे मेरी खेती को नुकसान पहुँचायेंगे।”

इस प्रकार दोनों में कहा-सुनी हो गयी और बात बढ़ते-बढ़ते मारपीट तक पहुँच गयी। दोनों ने एक दूसरे-का सिर फोड़ दिया। मुकद्दमा हो गया।

दोनों न्यायालय में गये। न्यायाधीश ने पूछाः

“आपकी लड़ाई कैसे हुई ?”

दोनों बोलेः “जमीन के संबंध में हमारी बात हुई थी।”

“कितनी जमीन और कहाँ ली थी ?”

“अभी तक ली नहीं है।”

“फिर क्या हुआ ?”

एकः “मेरे हिस्से में ट्रैक्टर आता था, इसके हिस्से में कुआँ और बैल।”

न्यायाधीशः “बैल कहाँ हैं ?”

दूसराः “अभी तक खरीदे नहीं हैं।”

जमीन ली नहीं है, कुआँ खुदवाया नहीं है, ट्रैक्टर और बैल खरीदे नहीं हैं फिर भी मन से द्वारा सारा बखेड़ा कर दिया है और लड़ रहे हैं।

इसका नाम मनोराज है। माला करते-करते भी मनोराज करता रहता है यह साधना का बड़ा विघ्न है।

कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है। आत्मा का दर्शन नहीं होता किन्तु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया। ध्यान में से उठते हैं तो जम्हाई आने लगती है। यह ध्यान नहीं, लय हुआ। वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किन्तु लय में ऐसा नहीं होता है।

कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है। साधना करते-करते थोड़ा-बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है।

कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते हैं तो नींद नहीं आती। यह भी साधना का एक विघ्न है।

तंद्रा भी एक विघ्न है। नींद तो नहीं आती किन्तु नींद जैसा लगता है। कितनी मालाएँ घूमीं इसका पता नहीं चलता। यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात् तंद्रा है।

साधना करने में आलस्य आता है। ʹअभी नहीं…. बाद में करेंगे….ʹ यह भी एक विघ्न है।

इन विघ्नों को जीतने के उपाय भी हैं।

मनोराज एवं लय को जीतना हो तो दीर्घ स्वर से ʹૐʹ का जप करना चाहिए।

स्थूल निद्रा को जीतने के लिए अल्पाहार और आसन करने चाहिए। सूक्ष्म निद्रा को जीतने के लिए प्राणायाम करना चाहिए।

आलस्य को जीतना हो तो निष्काम कर्म करने चाहिए। सेवा से आलस्य दूर होगा एवं धीरे-धीरे साधना में भी मन लगेगा। प्राणायाम और आसन भी आलस्य को दूर करने में सहायक हैं।

रसास्वाद से भी सावधान रहो एवं अपना विवेक सतत बनाये रखो। सदैव सजग और सावधान रहो। साधना के विघ्नों को पहचानकर उचित उपाय से उनका निराकरण करो और अपने लक्ष्य-पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहो।

इन छः बातें से बचोः

देवर्षि नारद ने गालव ऋषि से कहा हैः

“चाहे साधु यो चाहे सर्वसामान्य व्यक्ति, सभी को इन छः बातों से बचना चाहिएः

रात को घूमना।

दिन में नींद करना।

आलस्य का आश्रय लेना।

चुगली करना।

गर्व करना।

अति परिश्रम करना अथवा परिश्रम से बिल्कुल दूर रहना।

अधिक आराम से आलस्य आयेगा और अधिक परिश्रम से साधन-भजन की क्षमता बिखर जायेगी।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2000, पृष्ठ संख्या 15,16,14 अंक 91

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साधकों के लिए विशेष


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जिन्होंने भी दीक्षा ली है, प्राणायाम जानते हैं वे इस गुरुपूनम के बाद 10-10 त्रिबंध प्राणायाम करेंगे। जो नहीं जानते, वे जानकार साधकों से सीख लेंगे। त्रिबंध प्राणायाम से बहुत सारे लाभ होते हैं।

गुरु हमें गुरु-परम्परा से प्राप्त कई अनुभवों से सार-सार बातें बता रहे हैं। चाहे कैसी भी गंदी पुरानी आदत होगी, त्रिबंध प्राणायाम से उसे आप उखाड़ फेंकने में सफल हो जाओगे। हर आदमी में कोई-न-कोई कमजोरी होती है और दूसरे लोग उसे चाहे जानें या न जानें लेकिन हम अपने-आपकी कमजोरी बिल्कुल जानते हैं। त्रिबंध प्राणायाम से उस कमजोरी को निकालने मं आप अवश्य सफल हो जाओगे।

त्रिबंध प्राणायाम करो। फिर जो कमजोरी है मन से उसको सामने लाओ एवं मन ही मन कहो किः ʹअब मैं इस कमजोरी के आगे घुटने नहीं टेकूँगा। भगवदकृपा, भगवन्नाम, मंत्र मेरे साथ है। हरि ૐ….ૐ….ૐ…. हरि ૐ…. हरि ૐ… बल ही जीवन है… दुर्बलता मौत है….ʹ

मान लो, किसी को दोपहर को भोजन करके सोने की आदत है। दोपहर को सोने से शरीर मोटा हो जाता है और त्रिदोष पैदा हो जाते हैं। बस, यह ठान लो किः ʹमैं दिन में सोने की गलती निकालूँगा।ʹ मान लो, किसी को अधिक खाने की आदत है। नहीं जरूरत है फिर भी खाते रहते हैं। शरीर मोटा हो गया है। ….. तो नियम ले लोः ʹअब तुलसी के पत्ते रोज खाऊँगा… भोजन में अदरक का प्रयोग करूँगा।ʹ वायु की तकलीफ है तो निर्णय करोः ʹआज से आलू मेरे बंद।ʹ इस  प्रकार जिस कारण से रोग होता है ऐसी चीजों को लेना बंद कर दो। जिस कारण से चटोरापन होता है वे चीजें दूसरों को दे दो और निर्णय करो किः ʹआज से इतने दिनों तक इस दोष में नहीं गिरूँगा।ʹ यदि इतने दिनों तक इस दोष में नहीं गिरुँगा।ʹ यदि काम और लोभ का दोष है तो निर्णय करो किः ʹआज से इतने दिनों तक काम में नहीं गिरुँगा…. लोभ में नहीं गिरूँगा…ʹ इस प्रकार जो भी बुरी आदत है या विकार है, कुछ दिनों तक ऐसा कुछ नियम ले लो जो उसके विपरीत भावों का हो। मान लो, आपका चिड़चिड़ा स्वभाव है, क्रोधी स्वभाव है तो ʹराम… राम… राम…..ʹ रटन करके हास्य करो और निर्णय करो किः ʹआज से इतने दिनों तक मैं प्रसन्न रहूँगाʹ चिंता में डूबने की आदत है तो दृढ़ भावना करोकिः ʹमैं निश्चिन्त नारायण का हूँ…. ૐ शांति… शांति…ʹ दस मिनट तक यह भावना दुहराओ। इस प्रकार की कोई भी कमजोरी हो, सिगरेट-शराब की या दूसरी कोई हो…. इस प्रकार के अलग-अलग दोषों को निवृत्त करने के लिए त्रिबंध प्राणायाम आदि अलग-अलग प्रयोग ʹध्यान योग शिविरʹ में कराये जाते हैं। इससे आप अपनी पुरानी बुरी आदत और कमजोरी को निकालने में सफल हो सकते हो। आपका शरीर फुर्तीला रहेगा, मन पवित्र होने लगेगा और ध्यान भजन में बरकत आयेगी।

त्रिबंध प्राणायाम शुद्ध हवामान में करना चाहिए, सात्त्विक वातावरण में करना चाहिए। दोपहर को भी करो तो और अच्छा है। कभी न कभी शिविर तो भरोगे ही… शिविर में कई प्रयोग सिखाये जाते हैं।

हफ्ते में एकाध दिन मौन रहो। हो सके तो संध्या को सूर्यास्त के बाद या रात्रि के भोजन के बाद मौन रहने का संकल्प कर लो किः ʹसूर्योदय से पहले अथवा नियम होने तक किसी से बात नहीं करेंगे।ʹ इससे आपकी काफी शक्ति बच जायेगी एवं आप जिस क्षेत्र में हैं  वहाँ भी वह शक्ति काम करेगी। इस मौन को यदि आप परमात्मप्राप्ति में लगाना चाहो तो साथ में अजपाजाप का भी प्रयोग करो। सुबह नींद से उठने के बाद थोड़ी देर शांत होकर बैठो एवं विचार करो किः ʹहो-होकर क्या होगा ? बड़े शर्म की बात है कि मनुष्य जन्म पाकर भी जरा-जरा सी बात में दुःखी, भयभीत एवं चिंतित होता हूँ। दुःख, चिन्ता एवं भय में तो वे रहें जिनके माई-बाप मर गये हों और निगुरे हों। हमारे माई-बाप तो हमारा आत्मा-परमात्मा है और गुरु का ज्ञान मेरे साथ है। हरि ૐ…. हरि ૐ…. राम…. राम…. अब हम प्रयत्न करेंगे लेकिन चिंता नहीं करेंगे….ʹ आदि-आदि। सुबह ऐसा संकल्प करो फिर देखो कि आप कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हो।

जप तीन प्रकार से कर सकते हैं- ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत। ʹहरि ૐ-हरि ૐ-हरि ૐ-हरिૐ-हरि ૐ…ʹ यह है ह्रस्व जप। ʹ हरि….ૐ…. हरि…..ૐ….. हरि….. ૐ….. हरि….. ૐ….. यह है दीर्घ जप।

ʹह…रि…ૐ… ह….रि….ૐ…. ह….रि….ૐ….ह….रि….ૐ… ह……रि…. ૐ…..ʹ यह है प्लुत जप।

रात्रि को सोते समय इऩ तीनों प्रकार से दस मिनट तक ʹहरि ૐ….ʹ मंत्र का जप करके सो जाओ। इस प्रकार के जप से आपको तन, मन एवं बुद्धि में कुछ विशेष परिवर्तन का अनुभव होगा। यदि प्रतिदिन इसका नियम बना लो तो आपकी तो बंदगी बन जायेगी और साथ ही आपके अचेतन मन में भी भारी लाभ होने लगेगा।

इस प्रकार नियमित रूप से किये गये त्रिबंध प्राणायाम, मौन, जप एवं ध्यान की साधना आपके जीवन में चार चाँद लगा देंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2000, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 91

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