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Tatva Gyan

आखिरी बात – पूज्य बापू जी


एक बार एक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष को उनके शिष्य-समुदाय ने घेर लिया एवं प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! हम सब आपके दर्शन तो कई बार करते हैं लेकिन अब हमें प्रभु-तत्त्व का साक्षात्कार करना चाहिए – यह हम आपके सत्संग-प्रसाद से समझते हैं, मानते हैं । अतः अब एक बार आप हमें आखिरी बात सुनाने की कृपा कर दीजिये ।” गुरु बोलेः “हम तो ढूँढते ही रहते है कि आखिरी बात सुनने वाला कोई मिल जाय । लगता है तुम लोगों को भगवान ने ही भेजा है ।” “गुरुदेव ! अब आप आखिरी बात सुना ही दीजिये ।” “जिस किसी को आखिरी बात सुननी है वह मेरे जन्मदिन पर आ जाय ।” “किस जन्मदिन पर ?” “जिस दिन मेरे गुरुदेव ने मुझे आत्मसाक्षात्कार कराया था, जिस दिन गुरुरूप में मेरा जन्म हुआ था उस दिन तुम लोग आ जाना ।” चारों तरफ खबर फैल गयी कि अपने आत्मसाक्षात्कार के दिन गुरुदेव आखिरी बात बताने वाले हैं । अतः दूर दराज से लोग गुरु-आश्रम में एकत्र होने लगे । कई विद्वान, पंडित एवं शास्त्रज्ञ भी आये । इस प्रकार वहाँ बड़ी भीड जमा हो गयी । बड़े-बड़े मंडप बन गये । किंतु उन महापुरुष को मानो इन सबसे कोई लेना-देना ही नहीं था । वे तो अपनी कुटिया से सहज-स्वाभाविक मस्ती में बाहर निकले । ‘सद्गुरु महाराज की जय !…’ इस जयघोष से गगनमंडल गूँज उठा । जयघोष के बाद दो-चार प्रतिनिधि साधकों ने आगे बढ़कर कहाः “गुरुदेव ! आज वही दिन है जिस दिन आप आखिरी बात सुनाने वाले हैं ।” गुरुः “ठीक है, अच्छा हुआ मुझे याद दिला दिया । आज आखिरी बात सुनानी है । सब लोग तैयार होकर बैठ जाओ ।” सब शांत होकर बैठ गये ताकि गुरुदेव की आखिरी बात का एक शब्द भी कहीँ छूट न जाय । आज तो मानो कानों को भी आँखें फूट निकलीं कि ‘हम सुनेंगे भी और देखेंगे भी ।’ और मानो आँखों को कान फूट निकले कि ‘हम निहारेंगी भी और सुनेंगी भी ।’ इतने में वे महापुरुष मंच पर आये और लेट गये । 10… 20… 30… 40… 50 मिनट हो गये, घंटा… दो घंटा हो गये… शिष्यों ने सोचा कि ‘पता नहीं गुरुदेव को क्या हो गया है !’ लल्लू पंजू शिष्य तो रवाना हो गये लेकिन जो जिज्ञासु थे उन्होंने सोचा कि ‘बैठे-बैठे तो गुरुदेव को कई बार सुना है, आज वे लेट गये हैं तो लेटे-लेटे ही कुछ-न-कुछ कहेंगे ।’ इस प्रकार सब अपनी-अपनी मति एवं भावना के अनुसार विचरने लगे । फिर उनमें से भी कुछ लोग ऊबकर चले गये । इस प्रकार लगभग 4 घंटे व्यतीत हो गये । अब कुछ गिने-गिनाये लोग ही बचे । तब संत उठे । उन्हें उठा देखकर प्रतिनिधि शिष्यों ने कहाः “गुरुदेव ! आज तो आपने बहुत देर तक आराम किया । अब तो चारों ओर लोग आपका और हमारा मखौल उड़ायेंगे कि ‘अच्छी आखिरी बात सुनायी…।’ गुरुदेव ! आपने तो कुछ सुनाया ही नहीं वरन् आराम करने लगे । आप कुटिया में आराम कर लेते । इधर लोगों के सामने मंच पर… ? आपने यह क्या किया !…” गुरुः “मैं सोया नहीं था ।” “आप सोये नहीं थे ?” “नहीं । तुम लोगों ने आखिरी बात सुनाने के लिए कहा था न, मैंने वही आखिरी उपदेश दिया था । आत्मसाक्षात्कार कैसा होता है यही मैंने बताया । गहरी नींद में क्या होता है ? क्या उस समय पता चलता है कि ‘मैं हिन्दू, मुसलिम, ईसाई, पारसी, गुजराती, पंजाबी या सिंधी हूँ…’ अथवा ‘कुछ लेना है… कुछ देना है…’ आदि ? नहीं । गहरी नींद में कुछ पता नहीं चलता । उस समय कोई स्फुरणा नहीं होता । ऐसे ही आत्मसाक्षात्कार का भी मतलब है कि चित्त में कोई स्फुरणा न हो… जाग्रत में सुषुप्तिवत् । ज्ञान से सब काम निःस्फुरण, निःसंकल्प एवं कर्तृत्वभाव से रहित होते हैं । अभी तक मैं यह बात सैद्धांतिक तौर पर तो बोल ही रहा था किंतु तुमने सुना नहीं अतः आज मैंने प्रयोग करके बताया । आखिरी बात है कि जैसे भगवान विष्णु क्षीरसागर में आराम पाते हैं ऐसे ही आप अपने अंतरात्मा राम में आराम पाओ । ‘मैं चैतन्यघन शांत आत्मा हूँ’ आखिरी बात यही है । शरीर की ममता में, मन के फुरने में, लोगों की ‘हा हा- हें हें, मैं-मैं-तू-तू’ में अपने को उलझाओ मत, यह आखिरी बात है । अपने चित्त को चैतन्य में सुला दो, विश्रांति दिला दो यह आखिरी बात है । 2 हाथ पैर वाले भगवान नहीं हैं, 4 हाथ वाले भगवान नहीं हैं, यह तो भगवान का बाह्य रूप है । जो 2 हाथ-पैरवाले, 4 हाथ-पैरवाले और 10 हाथ-पैरवाले – सबके अंदर सत्ता, स्फूर्ति, चेतना देता है वह चैतन्य आत्मा ही वास्तव में देव है । उस आत्मदेव में विश्रांति पानी चाहिए । आखिरी बात है ‘जीवन्मुक्त आत्मपद’ । उसमें जो टिक गये उनका जीवन होता है कुम्हार के चाक की नाईँ । जैसे चाक को घुमाकर छोड़ दो तो दिया हुआ वेग पूरा होने तक बिना कुछ बल लगाये सहज ही घूमता है, ऐसे ही जीवन्मुक्त महापुरुष के कर्म उनके प्रारब्ध वेग से (प्रारब्धानुसार) सहजभाव से हो जाते हैं, वे अपने अंदर कर्ता-भोक्तापने का बोझा नहीं उठाते ।” फिर बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा हो जाती है जब आत्मसाक्षात्कार करना ही है तो उठो… जागो… अपने-आपसे पूछो कि ‘मैं कौन हूँ ?’ अपने-आपको खोजो । खोजते समय जो कुछ तुम्हारे देखने में आता जाय उसको हटाते जाओ । जैसे – ‘यह भी नहीं… यह भी नहीं… मैं हाथ भी नहीं… पैर भी नहीं…. हाथ और पैरों को क्रिया करने की प्रेरणा देने वाला मन भी नहीं… मन को चलाने वाला प्राण भी नहीं… प्राण को चलाने वाली चिदावली (वासनासंयुक्त चेतना) भी नहीं…’ इस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि को हटाते-हटाते जब तुम्हारी वृत्ति सूक्ष्म हो जायेगी तब आंतरिक मौन को उपलब्ध हो जाओगे । जैसे अँधेरे कमरे में पड़ी हुई किसी वस्तु को देखना है तो दीया, टॉर्च आदि काम आता है किंतु वही दीया जब सूर्य के सामने रखा जाता है तो उसका प्रकाश सूर्य के प्रकाश में समा जाता है, ऐसे ही व्यवहारकाल में, लेन-देन में, इधर-उधर के प्रसंगों में अथवा परमात्मा की खोज में मन, बुद्धि काम तो आते हैं किंतु जब वे परमात्मप्रकाश में आ जाते हैं तो उनका टिमटिमाते दीये जैसा प्रकाश परमात्मा के प्रकाश में लीन हो जाता है । वे अंतर्मुख हो जाते है, शुद्ध हो जाते हैं । मन-बुद्धि से तुम जगत को जान सकते हो, परमात्मा को नहीं । फिर भी मन-बुद्धि ज्यों-ज्यों परमात्मा के अभिमुख होते जाते हैं त्यों-त्यों परमात्मा में तदाकार होते जाते हैं । जैसे नमक की पुतली सागर की थाह पाने जाय तो स्वयं सागर में ही समा जायेगी फिर उसका अपना अलग से अस्तित्व नहीं रह जायेगा, ऐसे ही जब बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो जाती है तो फिर वह बुद्धि, बुद्धि नहीं रहती, ऋतम्भरा प्रज्ञा हो जाती है । वर्णन से परे है वह ! महापुरुष जब परमात्मा में डुबकी लगाकर कोई कार्य करते हैं तब लोगों को लगता है कि उनके मन-बुद्धि एवं इन्द्रियों से कार्य हो रहा है । स्वयं महापुरुषों को कभी नहीं लगता कि ‘ये मन, बुद्धि एवं इन्द्रियाँ हैं ।’ वे तो सदैव एक चैतन्य में होते हैं, अवाच्य पद है वह… फिर भी यह बात वाणी से कही जा रही है, अन्यथा उस अनुभव के आगे तो वाणी भी अधूरी है । मत करो वर्णन हर बेअंत है, क्या जाने वो कैसो रे । फिर भी उनके इर्द-गिर्द की बातें सुनने से जो पुण्य होता है वह पुण्य न तो तप करने से होता है, न यज्ञ करने से और न ही चान्द्रायण व्रत करने से होता है । इसीलिए बड़े-बड़े तपस्वी, यति योगी, संन्यासी आदि भी सत्संग के अभाव में कई बार आत्मसाक्षात्कार की बात से चूक जाते हैं । फिर मन बुद्धि में जगत की सत्यतना नहीं टिकती संत निश्चलदास जी ने विचारसागर नाम का एक ग्रंथ लिखा है । उसमें आत्मसाक्षात्कार से संबंधित बातें भरी हुई हैं । एक दिन संत निश्चलदास जी ने कुछ साधुओं से कहाः “प्रातः ब्राह्ममुहूर्त के समय बुद्धइ सात्त्विक रहती है । वह समय ध्यान-भजन के लिए उपयुक्त रहता है । यदि तुम लोग चाहो तो उस समय तुम्हें विचारसागर पढ़ाऊँगा । उनके पास अनेक साधु आते थे । विचारसागर का सत्संग एक दिन… दो दिन… तीन दि…. चार दिन… चला । फिर एक-एक करके साधु कम होने लगे । ज्यों-ज्यों संत गहरी बात सुनाते गये त्यों-त्यों लोग ऊबते गये । आखिरकार धीरे-धीरे सब साधु भाग गये क्योंकि मन को रूखा लगता था न ! मन को थोड़ा मनोरंरजन चाहिए । इन्द्रियों को भी रुचिकर भोग चाहिए । इन्द्रिय विषयक भोगों का त्याग करते-करते, मन का त्याग करते-करते जब पूर्ण त्याग की घड़ियाँ आती हैं तब आत्मसाक्षात्कार हो जाता है । जैसे लोहे के टुकड़े को एक बार पारस का स्पर्श करा दो तो फिर उसे कीचड़ में रखने पर भी जंग नहीं लगता, ऐसे ही मन-बुद्धि को परमात्मदेव का एक बार अनुभव हो जाय तो फिर उनमें जगत की सत्यता नहीं टिकती । फिर वे पुरुष व्यवहार करते हुए तो दिखेंगे लेकिन उनका व्यवहार दिखने मात्र का होगा । जैसे भुना हुआ बीज और कच्चा बीज – दोनों दिखते तो एक जैसे हैं किंतु कच्चा बीज दूसरे बीज उत्पन्न करने की सम्भावना रखता है जबकि भुना हुआ बीज दिखने मात्र का होता है, वह अपनी वंश-परम्परा नहीं चला सकता ऐसे ही सवासनिक मन (कच्चा बीज) और निर्वासनिक मन (भुना हुआ बीज) के कार्य-व्यवहार हैं । जब सवासनिक मन ब्रह्मविद्या में भुना जाता है तो उससे प्रारब्धवेग से सांसारिक कार्य-व्यवहार होता है पर वह दूसरे कर्मों का जाल उत्पन्न नहीं करता, उसका जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है । इसीलिए संत कबीर जी ने कहा हैः मन की मनसा मिट गयी, भरम गया सब टूट । गगनमंडल में घर किया, काल रहा सिर कूट ।। स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 6-8, 10 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जीवन को साधनामय बनाने की कला – पूज्य बापू जी


उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः । षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत् ।। व्यक्ति ठीक उद्यम करे, साहसी बने, थोड़ा धैर्य रखे… । जीवन में देखा जाय तो मनुष्य जीवन साधन-जीवन है, साधनामय जीवन है । हर रोज़ अपने-आप जीवन को साधन-जीवन बनाने का अवसर आता है । बस, इस अवसर को न गँवाकर उसका सदुपयोग किया जाय तो मनुष्य का सर्वांगीण विकास मोक्ष तक पहुँचा सकता है । सुख आये तो उसको भोगे नहीं, बहुत लोगों में बाँटे तो यह साधना हो गयी । दुःख आये तो उससे दबे नहीं, दुःख के निमित्त को खोजकर दुःख कैसे आया उसको जान ले । एक तो बाहर से दुःख का निमित्त आता है – आँधी-तूफान, गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास, अपमान आदि से, दूसरा, अंदर में दुःखाकार वृत्ति पैदा होती है और तीसरा, बेवकूफी होती है कि ‘मैं दुःखी हूँ’ तभी व्यक्ति दुःखी होता है । अगर बाहर दुःख का निमित्त आ जाय तो धैर्य रखें, उसकी अनित्यता का विचार करें- जैसे, ‘आँधी आयी तो क्या है, थोड़ी भूख लगी तो क्या है, यह सब गुज़र जायेगा, समय और परिस्थितियाँ – सब नाश को प्राप्त हो रहे हैं ।’ दुःखाकार वृत्ति पैदा हो तो ज्ञानाकार वृत्ति से दुःखाकार वृत्ति को काट दें और ‘मैं दुःखी हूँ’ ऐसी बेवकूफी न करें तो दुःख भी साधना बन जायेगा । ऐसे ही सुख आता है समष्टि प्रारब्ध (सामूहिक प्रारब्ध) से, अपने प्रारब्ध से, वाहवाही से – निमित्तों से । वाहवाही हुई… उस सुख का भोक्ता बन जाय कि ‘मैं सुखी हूँ’ तो भोगी बन जायेगा, असाधन हो जायेगा । सुखद-दुःखद परिस्थितियाँ आयें तो देखे कि ‘कब तक टिकेंगी ? ये बीतने वाली हैं । दुःख नहीं आया था तब भी हम थे और सुख नहीं आया था तब भी हम थे । हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप ! हम भगवान के और भगवान हमारे हैं ।’ तो सुख-दुःख भी साधना हो जायेंगे, मान-अपमान भी साधना हो जायेंगे, अनुकूलता-प्रतिकूलता भी साधना हो जायेंगी, विरोध और यश भी साधना हो जायेंगे । हम गलती क्या करते हैं कि दुःख का निमित्त बाहर से आता है – माँ ने कुछ बोल दिया, बाप ने कुछ बोल दिया तो चिढ़ गये, झिझक गये… । उस समय यह सोचें कि ‘माँ-बाप, आचार्य-गुरु कुछ बोलते हैं तो हमारी भलाई के लिए बोलते हैं कि बुराई के लिए ?’ अंदर में दुःखाकार वृत्ति पैदा हो तो मन को समझायें कि ‘इसमें दुःखी होने की क्या जरूरत है, माँ कोई दुश्मन है क्या ? माँ कोई शेरनी है क्या कि खा जायेंगे ? आचार्य-शिक्षक कोई हमारे दुश्मन हैं क्या ?’ बोलेः ‘अरे महाराज ! हमारे स्कूल में या हमारे पड़ोस में तो हमको बड़ी-बड़ी आँखें दिखाते और डराते हैं !’ अब वे डराते हैं तो आप क्यों डरते हैं ? आप गलती करेंगे तो डरेंगे और गलती नहीं है तो काहे को डरना ? उस समय क्या करो कि जीभ को ऊपर तालू में लगा दो और मन में ‘ॐ ॐ…’ जपो, कोई भी कितना भी धमकाये, गुंडागिरी, दादागिरी करे तब भी कुछ नहीं हो सकता है, ऐसा जीवन में साधन होता है । स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 34 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

उद्गम-स्थान में बुद्धि को विश्रांति दिलाकर पुष्ट बनायें – पूज्य बापू जी


बुद्धि का उद्गम स्थान क्या है ? लोग बोलते हैं ‘पाश्चात्य जगत के विद्वानों का यह मानना है कि संसार का अनुभव करने से बुद्धि बढ़ती है, बनती है ।’ किंतु अपनी वैदिक संस्कृति व प्राचीन ऋषियों का कहना है कि ‘बुद्धि का अधिष्ठान, उद्गम-स्थान संसार नहीं है, आत्मा है और उस आत्मा-परमात्मा में से ही बुद्धि का निश्चय स्फुरित होता है ।’ बाहर से सीख-सीख के बुद्धि किसी विषय में पारंगत होती है लेकिन बुद्धि का मूल आत्मा है । भगवान को हम अपना मान के जप करेंगे तो भगवान में ज्यों-ज्यों बुद्धि विश्रांति पायेगी त्यों-त्यों पुष्ट होती जायेगी । मीराबाई के पद सुनकर जो शांति मिलती है, संत कबीर जी की साखियों से जो ज्ञान और शांति मिलती है, संत तुकाराम जी के अभंगों से और अन्य आत्मारामी संतों के वचनों से जो ज्ञान और आनंद आता है, शांति मिलती है ऐसे अभंग, पद, साखियाँ कोई विद्वान बना ले या ऐसे वचन बोल दे तो भी उनसे उतनी शांति, ज्ञान, पुण्य नहीं हो सकता है । लोग बोलते हैं तो भाषण हो जाता है, लेक्चर (व्याख्यान) हो जाता है पर संत बोलते हैं तो सत्संग हो जाता है क्योंकि वे अपनी बुद्धि को भगवान में विश्रांति दिलाकर फिर परहित की भावना से बोलते हैं । तो भगवान को अपना मानना, अपने को भगवान का मानना, ऐसे करके भगवान से प्रीति करना । इससे क्या होगा कि बुद्धि में भगवान का योग आयेगा (ज्ञाननिष्ठा आयेगी) । इससे खूब अंतःप्रेरणा मिलेगी, अंतरात्मा का आराम मिलेगा, अंतरात्मा का ज्ञान प्रकाशित होगा । स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 30 अंक 359 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ