भक्त परमात्मा से विभक्त नहीं होता । वह ‘अनन्यचेताः’ – अनन्यचित्त वाला हो जाता है । फिर उसको ‘योग’ ( अप्राप्त की प्राप्ति ) और ‘क्षेम’ ( प्राप्त की सुरक्षा ) की चिंता नहीं करनी पड़ती है । क्या साधन करना, कैसा साधन करना इसकी उसे अपने-आप सत्संग के द्वारा, किसी-न-किसी महापुरुष के द्वारा, किसी-न-किसी स्वप्न के द्वारा प्रेरणा मिल जाती है ।
सनातन धर्म के 5 देवों की पूजा करने की यह अद्भुत महिमा और अद्भुत चमत्कार है, इनकी पूजा का यह फल है कि तुम्हारा ऐहिक जीवन तो पवित्र हो और साथ ही तुम्हें परम पद की प्राप्ति भी हो इसलिए वे तुमको प्रेरित करके किसी-न-किसी हयात ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के सत्संग में भेज देंगे और सत्संग के लिए तुमको लालायित कर देंगे । तुम्हें अज्ञानी नहीं रखेंगे, तुम्हें अभक्त नहीं रखेंगे, तुम्हें केवल बुतपरस्ती में यानी मूर्तिपूजा में ही नहीं रोक रखेंगे । अमूर्त आत्मा का ज्ञान भी तुम्हारे जीवन में आये ऐसी उन इष्टों की कृपा और करुणा रहती है ।
… तो समझो तुम्हारा दिल दिलबर ने पसंद कर लिया
किसी-न-किसी देव की कोई पूजा तुम्हारी सफल हुई है और अंतर्यामी देव ने यह स्वीकार कर ली है इसलिए तुमको ब्रह्मज्ञान के सत्संग में रुचि हुई है और तुम सत्संग का लाभ ले पा रहे हो, नहीं तो सत्संग का लाभ नहीं ले सकता व्यक्ति ।
तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा न सुहाय ।
पूर्व के तो पाप क्या, अभी कलियुग के वर्तमान के भी पाप हैं । जब तक अज्ञान है तब तक कुछ-न-कुछ पाप हैं, फिर भी हमको सत्संग रुच रहा है तो हमारे इष्ट की कृपा है, हमारी पूजा उस प्यारे ने स्वीकार कर ली है । फिर चाहे मंदिर में पूजा नहीं की तो किसी गरीब के आँसू पोंछने के रूप में पूजा की, किसी भूखे को अन्न देने, किसी को वस्त्र देने की पूजा की, किसी लाचार-मोहताज को हिम्मत और कुछ सहयोग करने की पूजा की… पूजा के कई स्वरूप होते हैं । चाहे माता की सेवारूपी पूजा हो गयी अथवा पिता की आज्ञा पालने की तुम्हारे द्वारा पूजा हो गयी… तुम्हारे द्वारा कुछ-न-कुछ उस परमेश्वर की ऐसी पूजा हुई है जो उस प्यारे को पसंद आयी है, तभी उसने तुम्हारा दिल पसंद किया है और तुमको दिलबर के सत्संग में रुचि हुई है, नहीं तो नहीं हो सकती है ।
अब रुचि हुई तो भगवान कहते हैं- ″इसको अनन्य बना लो, बस !
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। ( गीताः 9.22 )
जो लोग अभेद दृष्टि1 से मेरा चिंतन करते हुए सब ओर मेरी उपासना करते हैं, निरंतर आदरपूर्वक मेरे ध्यान ( चिंतन ) में लगे हुए उन पुरुषों के योगक्षेम का मैं वहन करता हूँ । उनको कौन-सी वस्तु की, कौन-सी परिस्थिति की आवश्यकता है उसकी व्यवस्था मैं करता हूँ ।″
1 जड़ चेतन सर्वत्र जो कुछ भी है सब परमात्मा ही है ऐसी दृष्टि ( जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि । – संत तुलसीदास जी )
संत तुलसीदास जी की अभेद दृष्टि
संत तुलसीदास जी अरण्य में विचरण करने जा रहे थे । एक सुंदर, सुहावना वृक्ष देखकर वे उसकी छाया में बैठ गये और सोचने लगेः ‘प्रभु ! क्या आपकी लीला है ! आप कैसे फूलों में, फलों में निखरे हैं ! आपने वृक्ष के अन्दर रस खींचने की कैसी लीला की है और कैसे रंग दे रखे हैं ! मेरे प्रभु ! आप कैसे सुहावने लग रहे हैं, मेरे राम जी !’
प्रभु की लीला देखते-देखते तुलसीदासजी आनंदित हो रहे थे । इतने में कोई लकड़हारा वहाँ से निकला और पेड़ पर चढ़कर धड़… धड़… करके वृक्ष काटने लगा । तुलसीदास जी घबराये और लकड़हारे के पास जाकर बोलेः ″भैया ! मैं तेरे पैर पकड़ता हूँ, तू मेरे प्रभु को मत मार ।″
लकड़हाराः ″महाराज ! मैं आपके प्रभु को तो कुछ नहीं कर रहा हूँ !″
″नहीं, चोट तो पहुँच रही है… मुझे पेड़ नहीं, पेड़ में मेरे प्रभु दिख रहे हैं । तू उनके इस रूप को न मार, चाहे मेरे इस शरीर को मार दे । मैं तेरे आगे हाथ जोड़ता हूँ ।″
″महात्मन् ! यह क्या हो गया है आपको ?″
″देखो, वे प्रभु कैसा सुंदर रूप लेकर सजे-धजे हैं और तुम उनके हाथ-पैर काट रहे हो । ऐसा न करो, मेरे हाथ काट लो ।″
अभेद दृष्टि से सम्पन्न तुलसीदास जी के भावों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि लकडहारे का मन बदल गया और वह आगे चला गया ।
सबकी गहराई में परमेश्वर को देखें
एक बार संत तुलसीदास जी यात्रा करते-करते किसी शांत वातावरण में बैठ गये । वहाँ से कभी हिरणों के झुंड गुजरते तो कभी अन्य प्राणियों के । वहाँ से गुजर रहे हिरणों के झुंड को देखकर वे सोचने लगेः ‘प्रभु ! क्या आपकी लीला है ! कैसी प्यारी-प्यारी आँखें हैं, आपने कैसा निर्दोष चेहरा बनाया है मेरे राम जी !’
तभी एक शिकारी तीर लेकर बारहसिंगे पर निशाना साध रहा था । तुलसीदास जी समझ गये । शिकारी के पास गये और बोलेः ‘यह क्या करता है ? मेरे ठाकुर जी, मेरे राम जी इतने सुंदर-सुंदर दिख रहे हैं । तू इनको न मार । भैया ! मारना है तो मुझे मार ।’
…तो ये जो महात्मा लोग, आत्मज्ञानी संत हैं वे तो तत्त्व में टिके हुए होते हैं किंतु भाव से सब जगह – कीड़ी में, हाथी में, माई में, भाई में – सबकी गहराई में परमेश्वर को देखते हैं । यह अनन्यता है ।
संतप्रवर तुलसीदासजी की वाणी हैः
सीय राममय सब जग जानी ।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ।। ( श्री रामचरित. बा. कां. 7.1 )
भगवान के की तुलसीदास जी की कुटिया की रखवाली
तुलसीदासजी भगवान का अनन्य भाव से भजन करते थे । एक बार उनके यहाँ उत्सव पूरा हुआ । कुछ चोरों ने सोचा कि ‘आज तो महाराज के पास बहुत माल होगा ।’ अतः वे मध्यरात्रि में तुलसीदास जी की कुटिया पर चोरी करने आये । देखते हैं कि कुटिया के द्वार पर दो धनुर्धारी खड़े हैं । एक का वर्ण श्याम है और दूसरे का गौर, एक बड़े भैया और एक छोटे भैया दिखाई दे रहे हैं । चोरों को हुआ ‘पहरेदार बड़े चौकन्ने हैं । अभी चलो, जब वे ऊँघने लगेंगे तब आयेंगे ।’ लेकिन ये चौकीदार सोने वाले चौकीदार नहीं हैं, ये तो सदा जागते हैं प्राणिमात्र के अंतःकरण में । चोर दूसरी बार फिर आये, देखा कि पहरेदार खड़े हैं तो चले गये… थोड़ी देर बाद फिर आये तो देखा वे ही पहरेदार…. चौथी बार आये, देखा… ! इस प्रकार वे रात्रि में कई बार आये पर हर बार पहरेदार सजग मिले । अब प्रभात होने को आया । ऐसे रात भर में कई बार देखते-देखते चोरों का मनोभाव बदल गया । तुलसीदास जी उठकर बाहर आये तो चोर उनके चरणों में गिर के फूट-फूट के रोने लगे एवं कहने लगेः ″महाराज ! हम आये थे आपकी कुटिया में चोरी करने किंतु आपके चौकीदार ऐसे सजग कि बस पूरी रात पहरा दे रहे थे । आपके पहरेदारों को बार-बार देखकर हमारा मन बदल गया है । अब हमें चोरी तो नहीं करनी है लेकिन एक बार फिर से अपने पहरेदारों के दर्शन करवा दीजिए । महाराज ! अपने उन चौकीदारों का मुखड़ा दिखा दीजिये ।
तुलसीदास जी बोलेः ″कौन पहरेदार ? मेरे पास कोई पहरेदार नहीं है ।″
″महाराज ! दो थे । एक थोड़े ऊँचे आजानुबाहू ( घुटनों तक लटकने वाले लम्बे हाथों वाले, यह बहुत बड़े कर्मठों या वीरों का लक्षण है । ) एवं साँवले सलोने थे और दूसरे थोड़े छोटे एवं गौर वर्ण के थे । दोनों भाई-भाई जैसे लग रहे थे । उनको देख-देखकर इतना अच्छा लगा कि अब हमारा चोरी करने का भाव ही नहीं रहा । आप तो केवल एक बार अपने पहरेदारों का दर्शन करवा दीजिये ।
तुलसीदास जी ने सोचाः ″मैं इतना परिग्रही हो गया हूँ कि मेरी वस्तुओं को सम्भालने के लिए भगवान को अपने भैया के साथ चौकीदार होना पड़ता है ।’ तुलसीदास जी ने सारा सामान गरीब गुरबों में बाँट दिया ।
कैसे करुणामय हैं भगवान कि वे भक्त की पहरेदारी करने आ गये और कितनी दिव्य समझ है भक्त की कि ‘प्रभु को कष्ट हुआ…’ यह जानकर सर्वत्याग कर दिया !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 348
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