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Tatva Gyan

बंधन केवल मान्यता है


जीव बंधन से जकड़ा हुआ है । कर्म में बंधन है पाप-पुण्य का । भोग में बंधन है सुख-दुःख का । प्रेम में बंधन है संयोग-वियोग का । सृष्टि में चारों ओर भय, बंधन और परतंत्रता ही नज़र आते हैं । ऐसे में भय से, बंधन से, पराधीनता से मुक्ति कैसे हो, यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है । श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई । ‘वेदों और पुराणों में बहुत से उपाय बतलाये हैं’ (श्रीरामचरित. उ.कां. 116.3) परंतु कोई काम नहीं बन पाता । यदि कदाचित अपना आपा ही ब्रह्म निकल आवे तो सब समस्याएँ हल हो सकती है । ब्रह्मज्ञान का यही प्रयोजन है । अपने को ब्रह्म समझना बहुत आवश्यक है । जब तक आप अपने को शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि या अहंकार समझते रहोगे अर्थात् अपने को परिच्छिन्न (सीमित) समझते रहोगे तब तक इनके बंधनों से मुक्ति नहीं मिल सकती । आपकी समूची पराधीनता मिटाने के लिए ब्रह्मज्ञान है । जन्म-मरण अपने सत्स्वरूप के विपरीत है, अज्ञान अपने ज्ञानस्वरूप के विपरीत है और दुःखी होना अपनी आनंदस्वरूपता के विपरीत है । हम जो हैं (सच्चिदानंद अद्वय (एकमात्र)), अपने विपरीत जीवन व्यतीत कर रहे हैं । जैसे डाकू लोग करोड़पति सेठ को पकड़ के जंगल में किसी अँधेरी कोठरी में बंद कर दें, वैसी ही स्थिति मनुष्य की है । अतः आओ, अपने ब्रह्मस्वरूप को जानें और सम्पूर्ण बंधनों से, जन्म-मरण से, अज्ञान से, दुःख से, आवागमन से और परिच्छिन्नत्व से मुक्त हो जायें । यह जीवन का परम पुरुषार्थ है । सचमुच विचार करक देखें तो हमारे में कहीं बंधन की सिद्धि नहीं होती । इसलिए बंधन केवल मान्यता है । स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 15 अंक 359 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

संकल्प की उत्पत्ति और उसके त्याग का विज्ञान



संकल्प से ही कामना बनती है और कामना बनती है तो बिगड़ती
भी है । कोई भी कामना सदा टिकेगी नहीं । कितना भी धन मिल जाय
व्यक्ति धन से ऊब जायेगा, थक जायेगा, धन से तृप्ति नहीं होगी ।
ऐसे ही सम्भोग से ऊब जायेगा, थक जायेगा, तृप्ति नहीं होगी और
अपने आपको जान लेगा तो तृप्ति मिटेगी नहीं क्योंकि जीवात्मा का
वास्तविक स्वरूप है तृप्तात्मा ।
स तृप्तो भवति । स अमृतो भवति ।
स तरति लोकांस्तारयति ।
जिसने आत्मदेव, जो अपना आपा है, उसको जान लिया तो उसे
पता चलता है कि आत्मा परमात्मा एक ही है । जैसे घड़े का आकाश
और महाकाश एक ही है, तरंग का पानी और समुद्र का पानी एक ही है
। तुम जब तक अपने आत्मदेव को नहीं जानते तब तक तो जो भी
संकल्प करोगे अष्टधा प्रकृति मं होंगे । चाहे हुए कुछ काम पूरे होंगे,
कुछ नहीं होंगे… जीवन में जो काम पूरे होंगे उनमें से कुछ भायेंगे, कुछ
नहीं भायेंगे और जो भायेंगे वे रहेंगे नहीं । इस प्रकार आखिर जीवात्मा
अतृप्त होकर ही अलविदा हो जाता है । तृप्ति तो उसको होती है जिसके
अपने सहज स्वभाव का पता चल गया । श्रीकृष्ण सहज स्वभाव में जगे
थे । अष्टधा प्रकृति का नाम ले के तुरंत बोलेः ‘मैं इस अष्टधा प्रकृति से
भिन्न हूँ ।’ ऐसे ही आपको लगे कि ‘मेरे यह दोष है’ तो इस ज्ञान की
स्मृति आ जाय कि ‘मेरे में नहीं, मन में दोष है । अब उसे मेरी सत्ता,
बल नहीं मिलेगा ।’
यजुर्वेद (अध्याय 3, मंत्र 51) में आता हैः
योजा न्विंद्र ते हरी ।

‘हे आत्मन् ! तू अपने विवेक और साहस को तुरंत संयुक्त रख ।’
सर्व संकल्प किसके सिद्ध होते हैं ?
यजुर्वेद (अध्याय 39, मंत्र 4) में प्रार्थना आयी हैः
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीय ।
‘मेरे मन के संकल्प पूर्ण हों । मेरी वाणी सत्यव्यवहार वाली हो ।’
सर्व संकल्प सिद्ध कैसे होते हैं, किसके होते हैं ?
पहले समझ लें कि मनुष्य बँधता कैसे है ? पहले फुरना होता है
फिर उससे जुड़कर संकल्प करके मनुष्य बँध जाता हैः फले सक्तो
निबध्यते । (गीताः 5.12) संकल्प से फिर कामना उत्पन्न हो जाती हैः
संकल्पप्रभवान्कामान् (गीताः 6.24), जो सम्पूर्ण पापों और दुःखों की जड़
है । जो सब संकल्पों का त्याग कर देता है वह बंधनों से मुक्त हो के
योगारूढ़ हो जाता है ।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ।।
‘जिस समय जिज्ञासु इन्द्रियों के विषयों में और कर्मों में आसक्त
नहीं होता उस समय वह समस्त संकल्पों का त्याग करने वाला योगारूढ़
कहा जाता है ।’ (गीताः 6.4)
कितनी सीधी सरल बात है ! संकल्प या कामना तो मिटने वाली
चीज हैः आगमापायिनोऽनित्याः । इसको सह लो, बस- तांस्तितिक्षस्व
(गीताः 2.14) । चाहा हुआ हो गया तो वाह-वाह, नहीं भी हुआ तो वाह-
वाह ! आप जीवन्मुक्त हो जाओगे । सोऽमृतत्वाय कल्पते (गीताः 2.15)
– आप में परमात्मप्राप्ति का सामर्थ्य आ जायेगा । आपके अंतःकरण में
महान आनंद, महान शांति अपने आप आ जायेंगे । यह जीवन की
ज्वलंत सच्चाई है कि अपने उद्योग से किया हुआ ठहरता नहीं और

अपने आप जो स्वतः स्वाभाविक है वह जाता नहीं, जरा विचार कर देखो

समय का पता नहीं है । काल सबको खा जाता है । अच्छा विचार
हो तो काल खा जायेगा और बुरा विचार हो तो भी काल खा जायेगा ।
शुभ काम करने का संकल्प हो जाय तो उसको जल्दी शुरु कर देना
चाहिएः शुभस्य शीघ्रम् । फिर करेंगे ऐसा नहीं । यदि मन में बुरा विचार
आ जाय तो थोड़ा ठहरो, ‘थोड़ा ठहरो…’ ऐसा करने से फिर वह नहीं
रहेगा ।
अपना संकल्प छोड़ दो अशांति रहेगी ही नहीं । अपना कोई संकल्प
मत रखो तो शांति के सिवाय क्या रहेगा ? केवल शांति, शुद्ध शांति
रहेगी और आगे चलकर परम शांति की प्राप्ति हो जायेगी ।
बुद्धिमान मनुष्य सब फुरनों को पसार होने देता है, उनसे जुड़कर
‘ऐसा बनूँ… ऐसा बनूँ… ऐसा बनूँ…’ ऐसे संकल्प नहीं करता ।
‘बाबा ! संकल्प छूटते नहीं… संकल्पों का त्याग कैसे हो ?
सरल, सुन्दर उपाय हैः ‘हरि ॐ’ का प्लुत (खूब लम्बा) उच्चारण
करना । जितनी देर उच्चारण करो उतनी देर चुप बैठो तो संकल्पों की
भीड़ कम हो जायेगी । कम होते-होते 2 सेकंड, 4 सेकेंड भी निःसंकल्प
रहे तो अच्छी अवस्था आयेगी । फिर 5-10 करते-करते 25 सेकंड
निःसंकल्प हो गये तो और अच्छी अवस्था है । ऐसा नहीं कि सुन्न-
मुन्न हो गये, सजग रहें । ऐसे निःसंकल्प अवस्थावाले का संकल्प एक
बार हो जाय तो
यदि वह संकल्प चलाये, मुर्दा भी जीवित हो जाये ।।
एक बार जो दर्शन पाये, शांति का अनुभव हो जाये ।।
निःसंकल्प पुरुष केवल एक दृष्टि डालें तो सबके मन में शांति !

उठना है, जाना है लेकिन जाने का मन नहीं होता । गुरु जी बोलेः
‘बाबा ! अब चलें ?’ तो चेला जी बोलेः
जरा ठहरो गुरुदेवा ! अभी दिल भरा ही नहीं…
कैसे दिल भरा नहीं ? अरे, गुरु जी ने अपनी कृपा का संकल्प डाल
दिया है, दिल में आनंद, शांति बरस रहे हैं – बरस रहे हैं तो दिल क्या
भरेगा, वह तो कहेगा – और, और, और… । सिद्ध पुरुषों कृपादृष्टि में
यह ताकत होती है । जिनके संकल्प निःसकंल्प नारायण में शांत होते हैं
वे ही सिद्ध पुरुष होते हैं । जो संकल्प का गुलाम होता है वह तो तुच्छ
होता है । निःसंकल्प पुरुष न तो रागी होते हैं न द्वेषी होते हैं, न
अहंकारी होते हैं न निरहंकारी भाव वाले होते हैं । गुणातीत, देशातीत,
कालातीत, वस्तु-अतीत तत्त्व में वे तो… फिर वहाँ शब्द नहीं जाते । यह
राज समझ में तो आता है, समझाया नहीं जाता । हरि ओऽऽऽऽ…म्..
हरि ओऽऽऽ…म्… इस प्रकार प्लुत उच्चारण करके रोज होते जाओ थोड़ा
निःसंकल्प । जो संकल्पों को पीछे नहीं पड़ते और ध्यान करके
निःसंकल्प नारायण में स्थिर होते हैं वे सर्वसंकल्पत्यागी पुरुष योगी
कहलाते हैं व पूर्णकाम हो जाते हैं, जीवन्मुक्त हो जाते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 357
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तो सौदा सस्ता है


गुफा में लाख वर्ष का अँधेरा है लेकिन दीया जलाओ तो लाख वर्ष के अँधेरे का प्रभाव नहीं रहेगा । ऐसे ही लाखों-करोड़ों वर्ष के जीवत्व के, जन्म-मरण के संस्कार हैं परंतु सत् का संग हो गया तो करोड़ों वर्षों के अज्ञान का प्रभाव नहीं रहेगा । इसलिए सत् के संग से एक सप्ताह में परीक्षित को सत् तत्त्व का साक्षात्कार हो गया, हमको 40 दिन में हो गया । मैं तो कहता हूँ कि 40 साल में भी ईश्वर का साक्षात्कार हो जाय तो सौदा सस्ता है । बहुत बढ़िया, बहुत मंगल समाचार, मंगल दिवस है ।

नानक जी बचपन से भजन में लगे थे । सत् का संग किया । एक रात्रि को माँ ने दस्तक दियाः ″बेटा ! यह क्या करते हो ? रात के 12 बजे हैं, सो जाओ ।″

बेटे ने माँ की आज्ञा मानकर पलथी खोली, चटाई बिछायी, बिस्तर लगाया, जरा-सा लेटा तो पपीहे न कहाः ‘पिहू पिहू पिहू…’

″माँ-माँ ! वह अपने प्यारे को याद करता है तो मैं अपने प्यारे की याद छोड़ के कैसे सोऊँ !″

अपने दिलबर को पाने की ऐसी तड़प से उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ और नानक बेटे से गुरु नानकदेव प्रकट हो गये । ऐसे ही नरेन्द्र में से स्वामी विवेकानंद जी, लीलाराम में से साँईं लीलाशाह जी और आसुमल में से आशाराम प्रकट हो गये । थे ही, प्रकट क्या होना है ! नासमझी की चदरिया हटी तो पहले ही थे यह पता चल गया । मनमानी साधना से अहं बढ़ेगा –

जन्म-जन्म मुनि जतनु कराहीं ।

अंत राम कहि आवत नाहीं ।।

अहं की पर्तें तो सद्गुरु की कृपा के बिना हट ही नहीं सकती हैं । संत कबीर जी ने कहाः

सद्गुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट ।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट ।।

गोपियों को श्रीकृष्ण ने नग्न कर दिया । नग्न कर दिया बिल्कुल सच्ची बात है लेकिन चित्रों में जो दिखाते हैं या पंडे जो समझाते हैं वह मोटी बुद्धिवालों के लिए है । असली ‘मैं’ पर 5 आवरण हैं – 1 अन्नमय कोष 2 प्राणमय कोष 3 मनोमय 4 विज्ञानमय 5 आनंदमय कोष । इन 5 कोषों के भीतर तत्त्वरूप में हम हैं । तो गोपियों के ये पाँचों कोष श्रीकृष्ण की बंसी से, दृष्टि से, सान्निध्य से, सत्संग से हट गये थे तो गोपियाँ हो गयी थी नग्न अर्थात् शरीर का ‘मैं’, प्राणों का ‘मैं’, मन का ‘मैं’, बुद्धि का ‘मैं’, चित्त का ‘मैं’ ये सारी पर्तें हट गयी थीं । स्वामी रामतीर्थ जी ने भजन गाया है । बड़ा अलमस्तीभरा भजन हैः

जंगल में जोगी बसता है, गाह ( कोई विशिष्ट काल ) रोता है गाह हँसता है ।

दिल उसका कहीं न फँसता है, तन मन में चैन बरसता है ।

खुश फिरता नंगम-नंगा है, नैनों में बहती गंगा है ।

जो आ जाये सो चंगा है, मुख रंग भरा मन रंगा है ।।

हर हर हर ॐ, हर हर ॐ

संत कबीर जी ने गाया हैः

तन की कूंडी मन का सोंटा, हरदम बगल में रखता है ।

पाँच पच्चीसों मिलकर आवें, उनको घोंट पिलाता है ।।

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है ।।

निरंजन… अंजन माने इन्द्रियाँ । जहाँ इन्द्रियों की पहुँच नहीं है, इन्द्रियाँ तो बाहर का दृश्य दिखाती हैं । वह दृश्य से परे है । लेकिन दृश्य उसी की सत्ता से बना है, उसी में दिख रहा है । स्वप्न की सृष्टि स्वप्न के समय सच्ची लगती है परंतु तुम्हारे ‘मैं’ के बिना स्वप्न की सृष्टि टिक नहीं सकती । तुम थे तभी स्वप्न की सृष्टि बनी और सृष्टि हट गयी फिर भी तुम रहते हो । ऐसे ही ये सृष्टियाँ बदल जाती हैं फिर भी तुम रहते हो, वह तुम हो चाँदों का चाँद, सूरजों का सूरज । ऐसा ज्ञान सत्संग से प्राप्त हो जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 9, 10 अंक 353

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