यह वह दिन है जिसकी बाट जीव करोड़ों जन्मों से देखता है ।
जीव कई बार जन्म लेता है और मर जाता है – जिस पद को पाये बिना
सब करा-कराया छोड़ के रीता हो जाता है, उस पद को प्राप्त कराने
वाला यह आत्मसाक्षात्कार का दिवस है । श्रीकृष्ण, श्रीराम, शिवजी के
दर्शन हो जायें, यह बडी बात है परंतु आत्मसाक्षात्कार के आगे यह भी
नन्हीं बात हो जाती है । श्रीकृष्ण के दर्शन तो अर्जुन को होते थे किंतु
सत्संग के अभाव में अर्जुन विक्षिप्त थे । वैकुंठ में जय-विजय को
भगवान नारायण का दर्शन होता था परंतु सत्संग के अभाव में वही
जय-विजय हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, शिशुपाल-दंतवक्र और रावण-
कुम्भकर्ण बने । जब तक आत्मसाक्षात्कार नहीं होता तब तक जीव की
जन्म-मरण की यात्रा चालू रहती है ।
आसोज सुद दो दिवस (आश्विन शुक्ल द्वितीया)… यह मेरा
आत्मसाक्षात्कार दिवस है । देवता, पशु-पक्षी बनकर भी न जाने कितने
जन्मों में क्या-क्या किया होगा, मनुष्य बन के कितने पापड़ बेले होंगे
परंतु जब गुरु की कृपा मिली और आखिरी कुंजी लगी तो..
आसोज सुद दो दिवस, संवत् बीस इक्कीस ।
मध्याह्न ढाई बज, मिला ईस से ईस ।।
देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार ।
हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार ।।
जब तक जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता तब तक
चाहे सारे ब्रह्मांडों में भटक ले परंतु…
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा ।
‘निज-सुख (आत्मानंद) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है ?’
(श्रीरामचरित. उ.कां. 89.4)
जिस आत्मसुख के लिए जीव कई जन्म लेता है उसकी प्राप्ति
अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण के सत्संग व कृपा से हुई, राजा जनक को
अष्टावक्रजी एवं आसुमल को साँईं श्री लीलाशाह जी बापू के सत्संग और
कृपा से हुई । और मेरे गुरुदेव का वही प्रसाद आप तक भी पहुँच रहा है,
आप सबको बधाई ! शास्त्र कहता हैः
यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः ।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ।।
‘इन्द्र आदि सारे देवता जिस पद की प्राप्ति के लिए अत्यंत दीन हो
रहे हैं, बड़े आश्चर्य की बात है कि उसी पद पर स्थित होकर तत्त्वज्ञानी
हर्षरुप विकार को नहीं प्राप्त होते ।’ (अष्टावक्र गीताः 4.2)
वह आश्चर्य वाली घटना जिस दिन घटी वह ‘आसोज सुद दो
दिवस’ था । हम पहुँचे हैं, अब हम इंतजार करेंगे कि आप कब पहुँचते
हो । ऐसी जगह पहुँचो कि जहाँ से फिर पतन न हो, संसार का कोई
सुख तुम्हें आकर्षित न करे और दुःख तुम्हें दबा न सके, अप्सराएँ भी
तुम्हारे आगे कोई मायना न रखें । ऐसे परम सुख को पाने के लिए
सत्संग जैसा दूसरा कोई साधन नहीं है ।
शरीर को ‘मैं’ माना, आँख-नाक-कान से मजा लेने के लिए बाहर
भागा, जीभ से मजा लेने के लिए स्वादिष्ट व्यञ्जन ठूँसे, त्वचा से स्पर्श
का मजा लिया… इन 5 विषय-विकारों में जीव बेचारा खपता जाता है ।
अगर सत्संग मिले, थोड़ा साधन भजन और नियम जीवन में आ जाय
तो आहाहा !… खाये पर औषध की नाईं, देखे पर व्यवहारपूर्ति के लिए –
विकार में डूबने के लिए नहीं, सुने पर जिससे सुना जाता है उसकी ओर
पहँचने के लिए सुने । फिर आप तो निहाल हो जाओगे, जो आपका
दीदार करेगा और दो वचन सुनेगा वह भी खुशहाल हो जायेगा ।
गुरुकृपा ही केवलं…
मैंने एकांत में ध्यान योग, लय योग, कुंडलिनी योग, जप योग…
बहुत पापड़ बेले हैं, बहुत कुछ किया है । 3 साल की उम्र से लेकर 22
साल की उम्र तक अलग-अलग साधनाएँ कीं । किसी ने साधना बतायीः
‘यह मंत्र लो, ऐसे-ऐसे करो, हनुमान जी आयेंगे ।’ वह किया । हनुमान
जी आयें उसके पहले हनुमानजी का भाव जागृत हुआ, हुप्प-हुप्प करके
दौड़े और बड़े के पेड़ पर जा चढ़े, पत्ते खाने लगे । मैंने सोचा, ‘धत् तेरे
की ! हनुमान जी आये उसके पहले तो…!’
और भी अलग-अलग साधन किये । ये सारे पापड़ बेल-बेल के अंत
में जब सद्गुरु मिले तब पता चलाः
वे थे न मुझसे दूर, न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का कसूर था, समझ का कसूर था ।।
कहना पड़ता है कि
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम् ।
आत्मसाक्षात्कार कैसे होता है ?
“बाबा जी ! परमात्मा का साक्षात्कार कैसे होता ह ?”
देखो, एक कल्पित कहानी है । अँधेरी रात में कोई बाबा जी आ
रहे थे ।
एक गरीब व्यक्ति बोलाः “बाबा ! मैं बहुत दुःखी और गरीब हूँ ।
मुझ पर कृपा कीजिये ।”
बाबाः “देख भैया ! मैं जिस रास्ते से आ रहा था वहाँ एक मणि
चमक रही थी, लाखों रुपये की होगी । इतने पग आगे चलोगे तो
पगडंडी दायीं ओर मुड़ेगी फिर बायीं ओर मुड़ेगी, वहाँ एक वृक्ष दिखेगा ।
उससे थोड़ा सा आगे पगडंडी से सटा हुआ कुंडा पड़ा है । उस कुंडे से
मैंने वह चमकती हुई मणि ढक दी है । मुझे क्या करना है, मैं तो दंडी
संन्यासी हूँ, विरक्त हूँ । जा बेटे ! तू ले ले, तेरा काम बन जायेगा ।”
उस व्यक्ति ने लालटेन उठायी और बाबा जी के बताये अनुसार
निकल पड़ा । उसे लालटेन की तब तक जरूरत पड़ेगी जब तक वह कुंडे
तक नहीं पहुँचा है । वहाँ पहुँचते ही उसने कुंडे को डंडा दे मारा । कुंडा
टूट गया । अब उसे मणि को देखने के लिए लालटेन की जरूरत नहीं है
।
ऐसे ही साधन-भजन करते-करते तुम्हारी मतिरूपी लालटेन,
गतिरूपी पुरुषार्थ और नियम चलते-चलते परमात्म-विश्रांति तक आये
फिर ‘मैं’ रूपी कुंडे को मार दिया डंडा ! तो ऐ हे ! विश्रांति मिल गयी…
फिर वहाँ वाणी नहीं जाती । उसे कहते हैं परमात्मप्राप्ति, ब्रह्मकार वृत्ति
। ईश्वर में डूब गये । श्रीरामकृष्ण परमहंस को जब परमात्मसुख का
अनुभव हुआ तब 3 दिन तक वे उसी में डूबे रहे । हमारे को हुआ तो
हम ढाई दिन उस ब्रह्मानंद की मस्ती में रहे । कोई 3 मिनट भी उस
परमात्मसुख में डूब जाय तो उसका दोबारा जन्म नहीं होता !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 357
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