शुद्ध अंतःकरण युक्त मुमुक्ष वेदांत का अधिकारी है । अब अंतःकरण-शुद्धि के साधनों पर किंचित् विशेष विचार करते हैं । श्रुति कहती हैः आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः…। (छांदोग्यनोपनिषद् 7.26.2) अर्थात् आहार की शुद्धि से अंतःकरण की शुद्धि होती है । आद्य शंकराचार्य जी ने ‘आहार’ का अर्थ किया हैः ‘आहियत इत्याहारः शब्दादिविषयविज्ञानं….’ । भोक्ता के भोग के लिए जो भी शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का ज्ञान है वह सब आहार है । उस विषय-विज्ञान की शुद्धि ही आहार-शुद्धि है । तो इन्द्रियों के द्वारा पवित्र विषयों का संयमपूर्वक सेवन करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, यह शंकराचार्य जी का आशय है ।
श्री रामानुजाचार्य जी ‘आहार’ पद का अर्थ कहते हैं ‘भोजन’ । भोजन में 3 प्रकार की शुद्धि आवश्यक हैः
- भोजन की जाति शुद्ध हो, माने वह स्वरूप से शुद्ध हो । मांसादि, प्याज, लहसुन आदि जाति से ही अशुद्ध भोजन हैं ।
- भोजन में निमित्त-शुद्धि हो अर्थात् वह शुद्ध बर्तनों में बना व रखा गया हो तथा कोई अशुद्ध वस्तु उसमें न पड़ गयी हो या किसी का जूठा न हो ।
- भोजन में आश्रय-शुद्धि हो, जैसे वह रजस्वला स्त्री, दुःखी मनुष्य के द्वारा न बनाया हो और बेईमानी या अधर्म की कमाई न हो । जो लोग अन्न से मन की उत्पत्ति मानते हैं, उनके मत में आहार का सब प्रकार से शुद्ध होना आवश्यक है ।1 सब शुद्धियों में अर्थ की शुद्धि सबसे श्रेष्ठ है । जिसका अर्थ शुद्ध है वह स्वयं शुद्ध है, पानी-मिट्टी से की गयी शुद्धि ही शुद्धि नहीं है ।
दूसरा मत है कि कर्म के द्वारा अंतःकरण की शुद्धि होती है । कर्म से संस्कार और संस्कार से वासना बनती है । इसलिए यदि हमारी क्रिया शुद्ध हो जाय – निषिद्ध कर्म का परित्याग होकर विहित (संत व शास्त्र सम्मत उचित) कर्म ही हों तो चित्तशुद्धि हो जायेगी । इन दोनों मतों में अंतर यह है कि अन्नमय कोष व जिनकी अवस्थिति होगी उनका आहार-प्रधान अंतःकरण-शोधन होगा और प्राणमय कोष में जिनकी अवस्थिति होगी उनका अंतःकरण-शोधन क्रिया-प्रधान होगा । कर्म में भी वह कर्म करणीय है जिसे करते हुए ग्लानि न हो, अपने में तृप्ति तथा पवित्रता का अनुभव हो ।2
तीसरा मत है कि चित्त की वृत्ति शुद्ध होने से अंतःकरण की शुद्धि हो जायेगी । अंतःकरण विज्ञानमय-वासनात्मक है । वह वासना के उदय से अशुद्ध होता है । अतः इनके मत में अंतःकरण की शुद्धि उपासना से होती है । धर्म से 50 प्रतिशत इच्छाएँ (अधर्म की) की छूट जाती हैं और उपासना में इष्ट को छोड़कर शेष 49 प्रतिशत इच्छाएँ भी निवृत्त हो जाती हैं । (अंतःकरण की शुद्धि का सबसे सरल उपाय जानें अगले अंक में)
- श्री रामानुजाचार्य ने आहार के विवेक से प्रारम्भ करके कुल 7 साधन अंतःकरण-शुद्धि के माने जाते हैं- विवेक, विमोक(छोड़ने की शक्ति), क्रिया (क्रियायोग के द्वारा परमेश्वर की आराधना), कल्याण ( जो भी अपने कल्याण के साधन है उनका ग्रहण), अभ्यास (कल्याण के साधनों का अभ्यास), अनवसाद ( दुःख और प्रतिकूलता में हीन भाव न आना) तथा अनुद्धर्ष (सुख और अनुकूलता में हर्ष से पागल न होना) ।
- षत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः । तत्प्रयत्नेन कुर्बीत विपरीतं तु वर्जयेत ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 22 अंक 315
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गतांक का शेष
चौथा मत है कि सम्पूर्ण वासनाओं का अभिभूत (पराजित या वशीभूत) करके समाधि प्राप्त करनी चाहिए – यह योग मार्ग है । चित्त को सर्वथा निर्विषयक बना देना । न मन में विषय आयेगा न अशुद्धि आयेगी । दोष तभी होते हैं जब अंतःकरण सविषय होता है । मन में जब पुरुष या स्त्री है तब काम है । जब धन है तब लोभ है । जब शत्रु है तब द्वेष है । यदि चित्त निर्विषयक हो जाय तो न काम, न क्रोध, न लोभ, न मोह । सद्गुण निर्विषयक हैं । ब्रह्मचर्य में स्त्री या पुरुष की अपेक्षा नहीं है अतः ब्रह्मचर्य निर्विषयक है । इसी प्रकार संतोष, शांति, निर्मोह – सब निर्विषयक हैं । वास्तव में अंतःकरण की शुद्धि एक ही सद्गुण में है और वह है शांति । इसी शांति के नाम हैं ब्रह्मचर्य, संतोष आदि सद्गुण । सद्गुणों के अनेक नाम तो दोषों के व्यावर्तक भेद (अंतर बताने वाला भेद) से कल्पित हैं, जैसे काम का व्यावर्तक ब्रह्मचर्य और लोभ का व्यावर्तक संतोष है ।
पाँचवाँ मत है कि अंतःकरण न अन्नजन्य है, न प्राणजन्य, न कर्मजन्य है और न वासनाजन्य । मन की सत्ता ही नहीं है । न यह बाहर है न भीतर हृदय में है । ( न बाह्ये नापि हृदये सद्रूपं विद्यते मनः ।) इसके लिए कोई प्रयत्न करने की जरूरत नहीं है । यदर्थप्रतिभानं तन्मन इत्यभिधीयते । विषय की प्रतीति को ही मन कहते हैं । जहाँ अन्यरूप से विषय की प्रतीति है, वहाँ चेतन को ही मन कहते हैं । जहाँ अन्यथारहित विषय की प्रतीति है, वहाँ मन को ही चेतन कहते हैं । अतः मन में शुद्धि-विषयक प्रतीति का नाम अंतःकरण की शुद्धि है और अशुद्धि-विषयक प्रतीति का नाम अंतःकरण की अशुद्धि है । हम केवल शुद्ध का चिंतन करें । शुद्ध मानें जिसमें दूसरी वस्तु मिली हुई न हो । इस प्रकार अद्वैत ब्रह्म का चिंतन ही अंतःकरण की शुद्धि है ।
तुम्हारा अंतःकरण जन्मजात शुद्ध है । जितने समय तुम परमात्मा का चिंतन करते हो उतने समय तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध रहता है और जितने समय संसार का चिंतन करते हो उतने समय अशुद्ध रहता है । बहुत दिनों तक अभ्यास करोगे तब अंतःकरण शुद्ध होगा, ऐसा नहीं है । परमात्मा के चिंतन में लगो, बस अंतःकरण कुछ है नहीं । इस प्रकार शुद्ध परमात्मा का चिंतन प्रारम्भ करते ही तुम शुद्ध-अंतःकरण होने के कारण वेदांत-श्रवण के अधिकारी हो ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 23 अंक 316
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