Monthly Archives: September 2012

तर्क का विषय नहीं भगवान


(भगवान की मधुमय लीला)

पूज्य बापू जी मधुमय अमृतवाणी

अंतर्यामी भगवान तो सर्वत्र हैं, निर्गुण-निराकार हैं, सत्ता-स्फूर्ति देते हैं लेकिन ऐसा भगवान भी चाहिए जो आप न चाहो फिर भी आपकी कोहनी मार के जगा दे, ठेंगा दिखाकर हिला दे, कुछ-न-कुछ करके आपके अंदर छुपा अपना रसीला स्वभाव जगा दे।

आपको भगवान की यह लीला सुनकर उन पर हँसी आयेगी। तुम्हें खूब पेट भर के हँसना होगा, पेट भर के प्यारे को प्यार करना होगा – ʹमेरे दाता ! कन्हैया ! ओ प्यारे !!…ʹ

मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) में उड़िया बाबा सत्संग कर रहे थे। किसी ब्राह्मण के यहाँ ठहरे थे। उधर आने-जाने वाले एक ठाकुर पर उऩकी नजर पड़ी। वह बाबा के पास आया, वार्तालाप हुआ। वह कट्टर आर्यसमाजी था और माला घुमाता था। दोनों बातें विरुद्ध थीं।

बाबा ने पूछ लियाः “भाई ! तू तो आर्य समाजी है और माला पर ʹवासुदेवʹ का जप कर रहा है ? आर्यसमाजी लोग तो कृष्ण के नाम पर उनके भक्तों को खरी-खोटी सुनाते हैं और तू ʹ नमो भगवते वासुदेवायʹ करता है ?”

वह बोलाः “मैं भी खूब गालियाँ देता था।”

“फिर अब कृष्ण की माला क्यों घुमाते हो ?”

वह पहलवान ठाकुर उड़िया बाबा को बोलता हैः

बाबा ! मैं आपको आपबीती बताऊँगा न, तो आप भी मेरे पर हँसोगे। पहले 8-10 वर्ष की उम्र में तो मेरे को ऋषि दयानंद के दर्शन हुए थे। उनका ब्रह्मचर्य और सत्यनिष्ठा देखकर मैं तो बन गया आर्यसमाजी ! सुने सुनायें कि श्रीकृष्ण ऐसे हैं – वैसे हैं… ब्रह्मचारी के लिए श्रीकृष्ण की लीलाएँ भौहें चढ़ाने जैसी होती है। तो मैं भी भौहें चढ़ाता रहा, नाक-भौं सिकोड़ता रहा तथा कृष्ण को और कृष्णभक्तों को खरी-खोटी सुनाता रहा। अब भी आर्यसमाजी तो हूँ लेकिन मेरे साथ जो बीती है भगवान करे सबके साथ बीते।

मैं 23 साल का था तब काशी गया। वहाँ एक ठाकुर साहब थे। मैं तो जाति का ठाकुर हूँ लेकिन वे रियासतों के ठाकुर साहब थे। उनको किसी पहलवान की जरूरत थी। उन्होंने मेरे को अपने पास रख लिया। मुझे काम-धंधा मिल गया। उनके यहाँ श्रीकृष्ण का मंदिर बना हुआ था और पुजारी भी बड़े प्रेम से श्रीकृष्ण की पूजा करते थे। मैं तो ठाकुर साहब के यहाँ काम करता, दिन में तीन बार संध्या करता, यज्ञ-वज्ञ करता और बाद में समय मिले तो बस, कृष्ण और उनके भक्तों को कोसता। रात को आर्यसमाज में जाता और कृष्ण के लिए खरी-खोटी वाला भाषण करता।

ठाकुर साहब और उनके मंदिर के पुजारी कृष्णभक्त थे। इस कारण मैं पुजारी को भी सुना दिया करता थाः “तुम मूर्ति को मानते हो, पत्थर को मानते हो। यह अंधश्रद्धा है। ईश्वर निराकार है। ये है-वो है…” जो कुछ भी आता, मैं पुजारी जी को भी कोसता, श्रीकृष्ण को भी कोसता लेकिन ठाकुर साहब और पुजारी जी मुझे बड़ा स्नेह करते थे। फिर भी मेरे मन में कृष्णभक्तों के लिए और कृष्ण के लिए नाराजगी के, नफरत के जो संस्कार डाल दिये गये थे, वे उछल-उछल के मुझसे कुछ-की-कुछ बड़बड़ाहट कराते थे। एक शाम को मैंने पुजारी जी को इतना कोसा कि गालियाँ तक दे डालीं। मैंने भगवान के विरुद्ध ऐसी कड़वी बातें कहीं कि पुजारी जी की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं। वे बहुत व्यथित होकर वहाँ से चले गये।

रात को रोज की तरह मैं जमीन पर सोया था, पुजारी जी तख्त पर सोये थे। अचानक मेरी आँखें खुली और मुझे तख्त के उस तरफ सूर्य का सा प्रकाश दिखा। देखा कि तख्त के पास एक छोरा खड़ा है और उसके शरीर से दिव्य प्रकाश निकल रहा है। मैंने कहाः “तू इधर कहाँ से आया है ? मेरा लौटा-अँगोछा कहाँ है ? जल्दी ले आ !”

वह बालक 10-12 साल का था और मेरा मजाक उड़ाते हुए हँस रहा था। उसने मुझे ठेंगा दिखाया, ʹले…..ʹ इतने से वह रूका नहीं, फिर जिह्वा भी निकाली, ʹओ….ʹ

मैं बोलाः “ऐ तू पहलवान ठाकुर के सामने ऐसा करता है ? तू क्या समझता है, अपने को ! हाथ पकड़कर तेरा ठेंगा मसल दूँगा, दिन के तारे दिखा दूँगा।”

उसने फिर से ठेंगा दिखाया, ʹले…ʹ

मेरे गुस्से का तब कोई नियंत्रक था नहीं। मैं तो स्वभाव से ही गुस्सेबाज था, पहलवान भी था। मैंने कहाः “या तो तू रहेगा या तो मैं रहूँगा। इतनी सुबह-सुबह को न अन्न, न जल और तू ठेंगा दिखाता है ! मेरी बात मानता नहीं, ऊपर से ठेंगा दिखाता है !”

उसने फिर से ठेंगा दिखाया। मैं उसको पकड़ने ज्यों तख्त के नजदीक गया, त्यों वह तख्त की उस तरफ… वह आगे, मैं पीछे…. तख्त को चक्कर लगाते रहे। वह मेरे हाथ में ही नहीं आवे और मैं कुछ का कुछ बोलूँ। तो पुजारी जी और आसपास के लोग जग गये और पूछने लगेः “अरे पहलवान ! तुमको क्या हुआ है ? अरे ठाकुर ! तुमको क्या हुआ है ?”

“मुझे क्या हुआ ? यह कितनी बदमाशी कर रहा है ! आज का छोरा हमारे जैसे पहलवानों के मुँह लगे !”

“कौन सा छोरा ?”

“आपको दिखता नहीं ! देखो, पकड़ने जाता हूँ तो भागता है, फिर कोशिश करता हूँ तो भागता है…. इसको पकड़ो ! पकड़ो इसको !!”

“ठाकुर ! तुमको क्या हो गया है ?”

“अरे, क्या हो गया उससे पूछो न ! मेरे को ठेंगा दिखाता है। अभी वह ठेंगा पकड़ के ऐसा मसलूँगा, ऊपर फैंकूँगा।”

मैं उसके पीछे-पीछे दौड़ूँ और चिल्लाऊँ- “वह देखो दौड़ता है।” मैं तख्त के चारों तरफ घूमूँ और वह मुझे ठेंगा दिखाता जाय, किसी को दिखे नहीं। ʹले…ʹ करके कभी जीभ दिखाये, कभी ठेंगा दिखाये। मैं रुकूँ तो वह रुक जाय, मैं भागूँ तो वह  भागे। मैं थक गया। आखिर देखा कि वह बालक जा के पुजारी जी की गोद में बैठ गया और अंतर्धान हो गया। उस प्रकाश से सुबह समझकर मैं लोटा-अँगोछा माँग रहा था लेकिन घड़ी देखी तो रात्रि का एक बजा था। ज्यों वह बालक अंतर्धान हुआ त्यों सवेरा रात्रि में बदल गया।

लोगों ने  बोलाः “तू श्रीकृष्ण को कोसता है न ! उन्होंने कृपा करके तुमको यह लीला दिखायी है।”

“मैं नहीं मानता हूँ ऐसे तुम्हारे गाय चराने वाले को। लीला है, ये है-वो है… तुम भगतड़ों की बातों में मैं आऩे वाला नहीं हूँ। ऐसी बातों से मैं कृष्ण को भगवान नहीं मान सकता। हाँ, अब मैं पुजारी जी को गाली नहीं दूँगा, कृष्ण को भी गाली नहीं दूँगा।”

कुछ दिन बीते-न-बीते तो ठाकुर साहब का छोरा, जो 3-4 महीने से ननिहाल गया था, मैंने देखा कि वह मंदिर में खड़ा है। वह भी 12-13 साल का ही था।

मैंने पूछाः “अरे, तू तो ननिहाल में गया था, कब आया ? इधर क्यों खड़ा है ?”

बालकः “मैं तो कल ही आ गया था।”

“अरे ! मैं दिन भर तुम्हारे घर में रहता हूँ, कल ही आये तो मेरी आँखों को तुमने क्या पट्टी बाँध दी थी ? आज यहाँ मंदिर में दिखे हो, किसको उल्लू बना रहे हो बेटे !”

वह बोलाः “बेटे-वेटे क्या ! मैं तो सबका बाप-का-बाप हूँ।”

“अरे, तू ठाकुर साहब का बेटा है। वे और मैं बराबरी के हैं तो तू मेरे बेटे बराबर है।”

“धत् तेरे की… तू काहे का मेरा बाप ! मैं बापों का बाप हूँ।”

“अरे छोरा ! तू क्या बोलता है ! तू चल, मैं तेरी ठाकुर साहब से पिटाई कराता हूँ।”

“अरे ! तेरा ठाकुर साहब और तू….. क्या पिटाई-पिटाई ? ले….? ठेंगा दिखाया उसने।

मैं ज्यों उसे पकड़ने गया त्यों छोरा मंदिर में से दौड़ा और ठाकुर साहब के घर में घुस गया।

“अरे ठाकुर साहब ! देखो, आपका लड़का ननिहाल से आया और मेरा मजाक उड़ाता है। कहाँ गया ?….”

घर के लोग बोलेः “तुमको क्या हो गया पहलवान ! वह तो 3-4 महीने से ननिहाल गया हुआ है, वह यहाँ कहाँ ?”

“अभी घर में घुस गया है।”

“जाओ, तुम्हीं खोज लो।”

मैंने घर का कोना-कोना छान मारा परंतु छोरा तो दिखे नहीं।

घर के लोगों ने कहाः “तुमको श्रीकृष्ण अपनी माया दिखा रहे हैं। तुम जिनको गालियाँ देते थे, वे गाली देने वाले का भी भला चाहते हैं। शिशुपाल ने 100-100 गालियाँ दीं तो भी उसको सदगति दे दी। कंस भी कुछ-का-कुछ बोलता था तो भी उसकी सदगति की। पूतना ने जहर पिलाया तो भी उसकी सदगति की। धेनुकासुर, बकासुर, शकटासुर, अघासुर जो मारने आये थे उनको मोक्ष दे दिया तो तुमको कैसे छोड़ेंगे ? भगवान को रीझ भजो या खीझ, वे तो प्रेमस्वरूप हैं। वे ठाकुर जी तुम्हें प्रेम की अठखेलियाँ करके सुधारना चाहते हैं।”

“अरे, छोड़ो ये सब भक्तों की बातें ! मैं ऐसे मानने वाला नहीं हूँ।”

लोग बोलेः “ठाकुर ! अभी तक तुमको भगवान की लीला समझ में नहीं आयी ?”

वह पहलवान उड़िया बाबा को बोलता हैः बाबा जी ! मैं इतने कट्टर संस्कारवाला था कि ऐसे चमत्कार देखने के बाद भी मैंने खरी-खोटी सुना दी थीः “अरे, तुम्हारा भगवान-वगवान क्या है ये ? गायें चराये, गोपियों के आगे नाचे…. कृष्ण के भक्त और कृष्ण – सब बेवकूफी की बातें हैं। तीसरी बार अच्छी तरह से दिखे तब कहीं मैं मानने की सोचूँगा।”

इस बात को 21 दिन बीत गये। 22 वें दिन मंदिर में फिर से वही छोरा दिखा। मैंने कहाः “अरे, उस दिन घर में भाग गया था फिर कहाँ चला गया था ? और तूने तो बोला था कि ʹमैं कल ही आया था।ʹ फिर पता चला की तुम आये ही नहीं थे, ननिहाल में थे।”

छोरा बोलाः “पहलवान ! तुझे पता नहीं है, खेल-खेल में हम ऐसा सब कुछ करते हैं।”

“तो पहली बार तुम्हीं आये और दूसरी बार भी तुम्हीं आये थे।”

“हाँ, खेल-खेल में हम सब करते हैं। खेल-खेल में यह मजाक चलता रहता है।”

“अच्छा, तो तुमने मेरे को मजाक का विषय बना रखा है !”

“और क्या ! जब तक तू नहीं मानेगा तब तक तेरे से मजाक कर-करके मनवाऊँगा बेटे ! तू क्या समझता है ! ठाकुर है, पहलवान है तो तेरे अहं का है। मेरी दुनिया में तो तेरे जैसे कई नचाता रहता हूँ।”

“तू इतना छोटा छोरा और कुछ-का-कुछ बोलता है ! तुझे कोई बोलनेवाला नहीं है ?”

“अरे, सबको बोलने की सत्ता मैं देता हूँ, मेरे को बोलने वाला कौन होगा ! सबकी बुद्धि का अधिष्ठान मैं हूँ।”

“बड़े बुद्धि के अधिष्ठान हो ! गायें तो चराते थे ! लोग भले ʹकृष्ण-कन्हैया लाल की जयʹ बोलते हैं लेकिन मैं तुमको ऐसा कोई मानने वाला नहीं हूँ। तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो ?”

“अरे ! जो मेरे पीछे पड़ता है मैं उसके पीछे पड़ता हूँ। तुम विरोध से पीछे पड़ते हो, कोई भावना से पीछे पड़ता है। जो भावना से पीछे पड़ता है उसको मैं रस देता हूँ और तुम्हारे जैसे को नचा-नचाकर, जरा चरपरा दे के भी पीछे पड़ता हूँ।”

“क्या मतलब ?”

“सारे मतलब काल्पनिक होते हैं।”

“तुम मेरे से आखिर क्या मनवाना चाहते हो ?”

“हम मनवाना क्या चाहते हैं ! तुम लोग जिसको गाली देते हो, ऐसा है-वैसा है… कहते हो, उसको तुम जानते हो ? तुम अपने को ही नहीं जानते हो। सुन-सुन के अपने को मान लिया ठाकुर। जरा-सी मांसपेशियाँ बढ़ाकर मान लिया पहलवान। ʹमैं बच्चा हूँ, मैं जवान हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं सुखी हूँ……ʹ – इन सब कल्पनाओं में तो जिंदगी तबाह हो गयी। तुम कौन हो ? अपने को तो जानते नहीं, मेरे को क्या खाक जानोगे ?”

मैं उनके सामने देखता रहा और उऩ्होंने मेरी आँखों में झाँका।

उड़िया बाबा को गदगद कंठ से वह ठाकुर बता रहा है कि जब तीसरी बार उस बालक ने मेरी आँखों में झाँका तब से वह मेरे से दूर नहीं होता है। बालक तो अंतर्धान हो गया लेकिन मैं पुजारी जी के चरणों में गिर पड़ा। पुजारी जी ने मेरे को गले लगाया और मंत्र दियाः नमो भगवते वासुदेवाय। तब से मैं आर्यसमाजी होने पर भी श्रीकृष्ण का भक्त हूँ। तीन-तीन बार श्रीकृष्ण आये और मुझ जैसे कट्टर विरोधी, गाली देने वाले को भी दंड के बदले तोहफा देकर गये।

भावग्रही जनार्दनः। भगवान तर्क का विषय नहीं हैं। सारे तर्क जिनसे प्रकाशित होते हैं वे अंतर्यामी भगवान हैं और सर्वव्यापक भी हैं। अंतःकरण  में हैं तो अंतर्यामी कहलाते हैं और तत्त्व रूप से ही सर्वव्यापक हैं, निराकार भगवान हैं। रसौ वै सः। परमात्मा रसस्वरूप हैं। जीवन में अगर प्रेमरस नहीं है तो आदमी नीरस होता है। श्रीकृष्ण रस बाँटने के लिए अवतरित हुए हैं। वे रस-अवतार, प्रेमावतार हैं, न चाहो तो आपको प्रेम-प्रसाद से छका देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 18,19, 20, 21 अंक 237

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शरद ऋतु में पथ्य-अपथ्य


(शरद ऋतुः 22 अगस्त 2012 से 21 अक्तूबर 2012 तक)

शरद ऋतु में पित्त कुपित व जठराग्नि मंद रहती है, जिससे पित्त-प्रकोपजन्य अनेक व्याधियाँ उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। अतः इस ऋतु में पित्तशामक आहार लेना चाहिए।

पथ्य आहारः इस ऋतु में मधुर, कड़वा, कसैला, पित्तशामक तथा लघु मात्रा में आहार लेना चाहिए। अनाजों में जौ, मूँग, सब्जियों में पका पेठा, परवल, तोरई, गिल्की, पालक, खीरा, गाजर, शलगम, नींबू, मसालों में जीरा, हरा धनिया, सौंफ, हल्दी, फलों में अनार, आँवला, अमरूद, सीताफल, संतरा, पका पपीता, गन्ना, सूखे मेवों में अंजीर, किशमिश, मुनक्का, नारियल सेवनीय हैं। घी व दूध उत्तम पित्तशामक हैं।

शरद पूनम की रात को चन्द्रमा की शीतल चाँदनी में रखी दूध-चावल की खीर पित्तशामक, शीतल व सात्त्विक आहार है।

हितकर विहारः शरद ऋतु में रात्रि-जागरण व रात्रि-भ्रमण लाभदायी है। रात्रि जागरण 12 बजे तक ही माना जाता है। अधिक जागरण कर दिन में सोने से त्रिदोष प्रकुपित होते हैं।

त्याज्य आहार-विहारः पित्त को बढ़ाने वाले खट्टे, खारे, तीखे, तले, पचने में भारी पदार्थ, बाजरा, उड़द, बैंगन, टमाटर, मूँगफली, सरसों, तिल, दही, खट्टी छाछ आदि के सेवन से बचें। अधिक भोजन, अधिक उपवास, अधिक श्रम, दिन में शयन, धूप का सेवन आदि वर्जित है।

कुछ विशेष प्रयोगः

पित्तजन्य विकारों से रक्षा हेतु हरड़ में समभाग मिश्री मिलाकर दिन में 1-2 बार सेवन करें। इससे रसायन के लाभ भी प्राप्त होते हैं।

धनिया, सौंफ, आँवला व मिश्री समभाग लेकर पीस लें। 1 चम्मच मिश्रण 2 घंटे पानी में भिगोकर रखें फिर मसलकर पियें। इससे अम्लपित्त (एसिडिटी), उलटी, बवासीर, पेशाब व आँखों में जलन आदि पित्तजन्य अनेक विकार दूर होते हैं।

एक बड़ा नींबू काटकर रात भर ओस में पड़ा रहने दें। सुबक उसका शरबत बनाकर उसमें काला नमक डाल के पीने से कब्ज दूर होता है।

दस्त लगने पर सौंफ व जीरा समभाग लेकर तवे पर भून लें। 3 ग्राम चूर्ण दिन में तीन बार पानी के साथ लें। खिचड़ी में गाय का शुद्ध घी डाल के खाने से भी दस्त में आराम होता है।

पापनाशक, बुद्धिवर्धक स्नान

(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)

जो लोग साबुन या शैम्पू से नहाते हैं वे अपने दिमाग के साथ अन्याय करते हैं। इनसे मैल तो कटता है लेकिन इनमें प्रयुक्त रसायनों से बहुत हानि होती है। तो किससे नहायें ?

नहाने का साबुन तो लगभघ 125 से 200 रूपये किलो मिलता है। मैं तुमको घरेलु उबटन बनाने की युक्ति बताता हूँ। उससे नहाओगे तो साबुन से नहाने से सौ गुना ज्यादा फायदा होगा और सस्ता भी पड़ेगा। जो आप कर सकते हो, जिससे आपको फायदा होगा मैं वही बताता हूँ।

गेहूँ, चावल, जौ, तिल, चना, मूँग और उड़द – इन सात चीजों को समभाग लेकर पीस लो। फिर कटोरी में उस आटे का रबड़ी जैसा घोल बना लो। उसे सबसे पहले थोड़ा सिर पर लगाओ, ललाट पर त्रिपुंड लगाओ, बाजुओं पर, नाभि पर, बाद में सारे शरीर पर मलकर 4-5 मिनट रूक के सूखने के बाद स्नान करो। यह पापनाशक और बुद्धिवर्धक स्नान होगा। इससे आपको उसी दिन फायदा होगा। आप अनुभव करेंगे की ʹआहा ! कितना आनंद, कितनी प्रसन्नता ! इतना फायदा होता है !ʹ

होली, शिवरात्रि, एकादशी, अमावस्या या अपने जन्मदिन पर देशी गाय का मूत्र और गोबर अथवा केवल गोमूत्र रगड़कर स्नान करने से पाप नष्ट और स्वास्थ्य बढ़िया होता है। अगर गोमूत्र से सिर के बालों को भिगोकर रखें और थोड़ी देर बाद धोयें तो बाल रेशम जैसे मुलायम होते हैं।

गोदुग्ध से बने दही को शरीर पर रगड़कर स्नान करने से रूपये-पैसे में बरकत आती है, रोजी-रोटी का रास्ता निकलता है।

पुष्टिदायक सिंघाड़ा

सिंघाड़ा आश्विन-कार्तिक (अक्तूबर नवम्बर) मास में आने वाला एक लोकप्रिय फल है। कच्चे सिंघाड़े को दुधिया सिंघाड़ा भी कहते हैं। अधिकतर इसे उबाल कर खाया जाता है। सिंघाड़े को फलाहार में शामिल किया गया है अतः इसकी मींगी सुखा-पीसकर आटा बना के उपवास में सेवन की जाती है।

100 ग्राम सिंघाड़े में पोषक तत्त्वः

  ताजा सिंघाड़ा सूखा सिंघाड़ा
प्रोटीन (ग्राम) 4.7 13.4
कार्बोहाइड्रेटस (ग्राम) 23.3 69.8
कैल्शियम (मि.ग्रा.) 20 70
फास्फोरस (मि.ग्रा.) 150 440
आयरन (मि.ग्रा.) 1.35 2.4

साथ ही इसमें भैंस के दूध की तुलना में 22 प्रतिशत अधिक खनिज व क्षार तत्त्व पाये जाते हैं।

दाह, रक्तस्राव, प्रमेह, स्वप्नदोष, शरीर के क्षय व दुर्बलता में तथा पित्त प्रकृतिवालों को विशेष रूप से इसका सेवन करना चाहिए।

औषधि-प्रयोग

गर्भस्थापक व गर्भपोषकः सिंघाड़ा सगर्भावस्था में अत्यधिक लाभकारी होता है। यह गर्भस्थापक व गर्भपोषक है। इसका नियमित और उपयुक्त मात्रा में सेवन गर्भस्थ शिशु को कुपोषण से बचाकर स्वस्थ व सुंदर बनाता है। यदि गर्भाशय की दुर्बलता या पित्त की अधिकता के कारण गर्भ न ठहरता हो, बार-बार गर्भस्राव या गर्भपात हो जाता हो तो सिंघाड़े के आटे से बने हलवे का सेवन करें।

श्वेतप्रदर व रक्तप्रदरः श्वेतप्रदर में पाचनशक्ति के अनुसार 20-30 ग्राम सिंघाड़े के आटे से बने हलवे तथा रक्तप्रदर में इसके आटे से बनी रोटियों का सेवन करने से रोगमुक्ति के साथ शरीर भी पुष्ट होता है।

मूत्रकृच्छता, पेशाब की जलन व मूत्रसंबंधी अन्य बीमीरियों में सिंघाड़े के क्वाथ का प्रयोग लाभकारी है।

धातु-दौर्बल्यः इसमें 5 से 10 ग्राम सिंघाड़े का आटा गुनगुने मिश्रीयुक्त दूध के साथ सेवन करने से पर्याप्त लाभ होता है।

सिंघाड़ा ज्ञानतंतुओं के लिए विशेष बलप्रद है।

दाह, ज्वर, रक्तपित्त या बेचैनीः इनमें प्रतिदिन पाचनशक्ति के अनुसार 10-20 ग्राम सिंघाड़े के रस का सेवन करें।

मात्राः सिंघाड़ा सेवन की उचित मात्रा 3 से 6 ग्राम है।

सावधानियाँ- सिंघाड़ा पचने में भारी होता है, अतः उचित मात्रा में ही इसका सेवन करना चाहिए। वात और कफ प्रकृति के लोग इसका सेवन अल्प मात्रा में करें।

कच्चा व आधा उबला सिंघाड़ा न खायें।

सिंघाड़ा खाकर तुरंत पानी न पियें। कब्ज हो तो इसका सेवन न करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 29, 30 अंक 237

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सर्वसाफल्यदायी साधना


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

इस बार चतुर्मास के निमित्त मैं एक ऐसी साधना लाया हूँ कि तुम केवल पाँच मिनट रात को सोते समय और पाँच मिनट सुबह उठते समय यह साधना करोगे तो जो भी तुम्हारी साधना है उसका प्रभाव सौ गुना हो जायेगा और छः महीने के अंदर तुम समाधि का प्रसाद पा सकते हो। ईश्वर की शरणागति का सामर्थ्य तुम्हारे जीवन में छलक सकता है। साक्षात्कार की मधुरता का स्वाद तुम ले सकते हो।

क्या करना है कि रात को सोते समय पूर्व की तरफ अथवा तो दक्षिण की तरफ सिर करके सोयें। पश्चिम या उत्तर की तरफ सिर करके सोओगे तो चिंता, बीमारी, विषाद पीछा नहीं छोड़ेंगे। सीधे लेट गये। फिर श्वास अंदर गया तो ʹૐʹ, बाहर आया तो गिनती। फिर क्या करना है कि पैर के नख से लेकर शौच जाने की इन्द्रिय तक आपके शरीर का पृथ्वी का हिस्सा है, पृथ्वी तत्त्व है। शौच-इन्द्रिय से ऊपर पेशाब की इन्द्रिय के आसपास तक जलीय अंश की प्रधानता है और उससे ऊपर नाभि तक अग्नि देवता की, जठराग्नि की प्रर्धानता है। बाहर की अग्नि से यह विलक्षण है। नाभि से लेकर हृदय तक वायु देवता की प्रधानता है। इसलिए हृदय, मन वायु की नाईं भागता रहता है और हृदय से लेकर कंठ तक आकाश तत्त्व की प्रधानता है।

रात जो जब सोयें तो पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाश में लीन करो। फिर लीन करने वाला मन बचता है। फिर मन जहाँ से स्फुरित होता है, मन को अपने उस मूल स्थान ʹमैंʹ में लीन करो – शांति…. शांति….। जैसे सागर की तरंगे शांत करो तो शांत सागर है, ऐसे ही ʹशांति…. शांति…ʹ ऐसा करते-करते ईश्वरीय सागर में शांति का अभ्यास करते-करते ईश्वरीय सागर में शांति का अभ्यास करते-करते आप सो गये। ʹसब परमात्मा में विलय हो गया, अब छः घंटे मेरे को कुछ भी नहीं करना है। पाँच भूत, एक शरीर को मैंने पाँच भूतों में समेटकर अपने-आपको परमात्मा में विलय कर लिया है। अब कोई चिंता नहीं, कुछ कर्तव्य नहीं, कुछ प्राप्तव्य नहीं है, आपाधापी नहीं, संकल्प नहीं। इस समय तो मैं भगवान में हूँ, भगवान मेरे हैं। मैं भगवान की शरण हूँ…ʹ – ऐसा सोचोगे तो भगवान की शरणागति सिद्ध होगी अथवा तो चिंतन करो, ʹमेरा चित्त शांत हो रहा है। मैं शांत आत्मा हो रहा हूँ। इन पाँच भूतों की प्रक्रिया से गुजरते हुए, पाँच भूतों को जो सत्ता देता है उस सत्ता-स्वभाव में मैं शांत हो रहा हूँ।ʹ इससे समाधि प्राप्त हो जायेगी। अथवा तो ʹइन पाँचों भूतों को समेटते हुए मैं साक्षी ब्रह्म में विश्राम कर रहा हूँ।ʹ तो साक्षीभाव में आप जाग जायेंगे। अथवा तो ʹइन पाँचों को समेटकर सोहम्….मैं इन पाँचों भूतों से न्यारा हूँ, आकाश से भी व्यापक ब्रह्म हूँ।ʹ

ऐसा करके सोओगे तो यह साधना आपको पराकाष्ठा की पराकाष्ठा पर पहुँचा देगी। बिल्कुल सरल साधना है। 180 दिनों में एक दिन भी नागा न हो। शरणागति चाहिए, भगवदभाव चाहिए, साक्षीभाव चाहिए अथवा ब्रह्मसाक्षात्कार चाहिए – सभी की सिद्धि इससे होगी।

रात को सोते समय यह करें और सुबह जब उठे तो कौन उठा ? जैसे रात को समेटा तो सुबह जाग्रत करिये। मन जगा, फिर आकाश में आया, आकाश का प्रभाव वायु में आया, वायु का प्रभाव अग्नि में, अग्नि का जल में, जल का पृथ्वी में और सारा व्यवहार चला। रात को समेटा और सुबह फिर जाग्रत किया, उतर आये। बहुत आसान साधना है और एकदम चमत्कारी फायदा देगी। सोते तो हो ही रोज और जागते भी हो। इसमें कोई विशेष परिश्रम नहीं है, विशेष कोई विधि नहीं है केवल 180 दिनों में एक दिन भी नागा न हो, करना है, करना है, बस करना है और आराम से हो सकता है।

आपकी नाभि जठराग्नि का केन्द्र है। अग्नि नीचे फैली रहती है और ऊपर लौ होती है। तो ध्यान-भजन के समय जठराग्नि की जगह पर त्रिकोण की भावना करो और चिंतन करो, ʹइस प्रदीप्त जठराग्नि में मैं अविद्या को स्वाहा करता हूँ। जो मेरे और ईश्वर के बीच नासमझी है अथवा तो जो वस्तु पहले नहीं थी और बाद में नहीं रहेगी, उन अविद्यमान वस्तुओं को, अविद्यमान परिस्थितियों को सच्चा मनवाकर जो भटकान कराती है उस अविद्या को मैं जठराग्नि में स्वाहा करता हूँ- अविद्यां जुहोमि स्वाहा।ʹ अर्थात् नासमझी की मैंने आहुति दे दी।

अविद्या का फल क्या होता है ? अस्मिता, देह को ʹमैंʹ मानना। देह को ʹमैंʹ मानते हैं तो अस्मिता का फल क्या होता है ? राग, जो मेरे हैं उनके प्रति झुकाव रहेगा और जो मेरे नहीं हैं उऩको मैं शोषित करके इधर को लाऊँ। राग जीव को अपनी असलियत से गिराता है और द्वेष भी जीव को अपनी महानता से गिराता है। तो अस्मितां जुहोमि स्वाहा। मैं अस्मिता को अर्पित करता हूँ।ʹ रागं जुहोमि स्वाहा। ʹमैं राग को अर्पित करता हूँ।ʹ द्वेषं जुहोमि स्वाहा। ʹद्वेष को भी मैं अर्पित करता हूँ।ʹ फिर आखिरी, पाँचवाँ विघ्न आता है, अभिनिवेश – मृत्यु का भय। मृत्य़ु का भय रखने से कोई मृत्यु से बचा हो यह मैंने आज तक नहीं देखा-सुना, अपितु ऐसा व्यक्ति जल्दी मरता है। अभिनिवेशं जुहोमि स्वाहा। ʹमृत्यु के भय को मैं स्वाहा करता हूँ।ʹ

अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश – ये पाँच चीजें जीव को ईश्वर से अलग करती हैं। इन पाँचों को जठर में स्वाहा किया। शुरु में चाहे सात मिनट लगें, फिर पाँच लगेंगे, चार लगेंगे, कोई कठिन नहीं है।

अगर सगुण भगवान को चाहते हो तो सगुण भगवान की शरणागति छः महीने में ही सिद्ध हो जायेगी। अगर समाधि चाहते हो तो छः महीने में समाधि सिद्ध हो जायेगी। अगर निर्गुण, निराकार भगवान का साक्षात्कार चाहते हो तो भी छः महीने के अंदर सिद्ध हो जायेगा। इसमें कुछ पकड़ना नहीं, कुछ छोड़ना नहीं, कुछ व्रत नहीं, कुछ उपवास नहीं, बहुत ही युक्तियुक्त, कल्याणकारी साधना है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 9,10, अंक 237

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स्वाति के मोती

वास्तव में प्रारब्ध से रोग बहुत कम होते हैं, ज्यादा रोग कुपथ्य से अथवा असंयम से होते हैं। कुपथ्य छोड़ दें तो रोग बहुत कम हो जायेंगे। ऐसे ही प्रारब्ध से दुःख बहुत कम होता है, ज्यादा दुःख मूर्खता से, राग-द्वेष से, खराब स्वभाव से होता है।

चिंता से कई रोग होते हैं। कोई रोग हो तो वह चिंता से बढ़ता है। चिंता न करने  से रोग जल्दी ठीक होता है। हरदम प्रसन्न रहने से प्रायः रोग नहीं होता, यदि होता भी है तो उसका असर कम पड़ता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 10, अंक 237

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