पूज्य बापू जी का 55वाँ आत्मसाक्षात्कार दिवस 10 अक्तूबर 2018
यह प्रपंच मिथ्या है। प्रपंच क्यों बोलते हैं ? जैसे भेल पूड़ी में सब एकत्र कर देते हैं न, ऐसे पाँच भूतों का आधा-आधा हिस्सा तो अलग रहा, बाकी आधा हिस्सा मिश्रित किया। उसी से प्रपंच बना। जल में भी पृथ्वी के कण मिल जायेंगे, वायु में भी मिल जायेंगे, आकाश में भी मिल जायेंगे। और पृथ्वी में भी आकाश, वायु सब घुसा हुआ है। पाँचों के मिश्रण से 25 हो गये।
मिथ्या परपंच देखि दुःख जिन आनि जिय।
देवन को देव तू तो सब सुखरासी है।। (विचारसागरः 6.12)
प्रपंच को मिथ्या देखकर दुःख मत आने दे दिल में। ‘यह देवता है कि नहीं’ इसको प्रमाणपत्र देने वाला तू है। भगवान का भगवानपना भी सिद्ध तेरे से होता है। तू भगवान का भी भगवान है, गुरु का भी गुरु है, ऐसा तेरा आत्मा है। यह गुरु का ज्ञान जितना पच जाय उतना ही नम्र हो जायेगा, उतना ही गुरु का प्रिय बन जायेगा।
आपनै अज्ञान तैं जगत सब तू ही रचै।
अपने-आपका (आत्मा का) ज्ञान नहीं है न ! जैसे रात को नींद में अपने आपको भूल जाते हैं और स्वप्न का जगत बना लेते हैं और उसी में सिकुड़ते हैं- ‘हे साहब ! हे फलाने साहब !…’ आँख खोलोगे तो सब गायब हो जायेंगे। जो बड़े-बड़े खूँखार हैं, बड़ी-बड़ी हस्तियाँ हैं सपने वाली, तुम्हारे ही अज्ञान से उनका रुतबा। तुम आँख खोल दो तो तो उनका रुतबा पूरा हो जायेगा। ऐसे ही जगत में तुम अपनी ज्ञान की आँख खोलो तो रुतबा पूरा हो जाय सबका। ऐसा है वह तुम्हारा आत्मदेव !
‘इधर जाऊँ, उधर जाऊँ, उधर जाऊँ….’
ऐसा जो सोचेगा वह भटकेगा इस जगतरुपी सपने में।
आपने अज्ञान तैं जगत सब तू ही रचै।
सर्व को संहार करैं आप अविनाशी है।। (विचारसागरः 6.12)
आत्मा माने ऐसी कोई चीज नहीं, जहाँ से ‘मैं, मैं’ स्फुरित होता है वही अपना चैतन्य ! उस आत्मदेव में निःशंक होकर समझ में आ जाय (उसे जान ले) उसके लिए मेहनत नहीं है, मेहनत का विभाग अलग है, वह तपस्या विभाग है।
दो विभाग-तपस्या और उपासना
एक होता है तपस्या विभाग, उसमें कठिनाई सहने से सिद्धि, शक्ति आती है। दूसरा होता है उपासना विभाग, इष्टदेव में प्रीति, गुरुदेव में प्रीति – यह उपासना है। ‘उप’ माने समीप… इष्ट और सदगुरु के समीप आने की यह रीत है।
कर्म विभाग से वासनाएँ नियंत्रित होती हैं। गलत जगह जा के सुखी होने की आदत पर नियंत्रण करती है उपासना, धर्म। तो एक है मनमुखी कर्म, जैसा मन में आय ऐसा करो… तो वह तो और गिर रहा है गड्ढे में। अच्छे कर्म से हृदय पवित्र होता है और पवित्र हृदय में संकल्पबल आता है। कष्ट सहने से अंतःकरण की शुद्धि होती है। पीडोद्भवति सिद्धयः। पीड़ा सहने से सिद्धि प्राप्त होती है।
उपासना में एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, जिससे बल आ जाता है। इष्ट के, गुरु के सिद्धान्त के समीप हो जाते हैं। इष्ट के लोक में भी जा सकते हैं मरने के बाद। उपासना में इतनी ताकत है कि कोई इष्टदेव है, उसका लोक है तो ठीक, और नहीं भी है तो आपकी उपासना से आपके लिए बन जायेगा। सपने में बन जाता है न सब, ऐसे ही तुम्हारे लिए इष्टलोक बन जायेगा।
इतना आसान है आत्मसाक्षात्कार !
सारे देवताओं का, सारे उपास्यों का, उपासकों का मूल तत्त्व अपना आत्मदेव है। तपस्या, धर्म-परायणता अंतःकरण को शुद्ध करती है। उपासना अंतःकरण को एकाग्र करती है। जितना उसे एकाग्र करते हैं, उतनी शक्तियाँ भी आती है। कोई सोने की लंका भी पा सकता है उपासना के बल से। लेकिन मूल तत्त्व जो सृष्टि का, इष्टदेवता का…. अपना मूल तत्त्व…. उसका साक्षात्कार नहीं हुआ तो देर-सवेर सब नीचे आ जाते हैं। जैसे कमाई हुई और खर्च हो गया। घाटा हुआ और फिर नफा हुआ तब भर गया। ऐसे ऊपर नीचे चौदह लोकों में लोग घूमते रहते हैं… उत्थान-पतन, उत्थान पतन के चक्र में घूमते रहते हैं। तो अब उत्थान-पतन नहीं करना है, जन्म मरण के चक्र में नहीं आना है।
जो इष्टदेव की पूजा अर्चना करता है उसको गुरुदेव मिलते हैं और गुरुदेव भी कई किस्म के होते हैं। उनमें भी तत्त्ववेत्ता, आत्मसाक्षात्कारी गुरु बड़े दुर्लभ होते हैं। वे मिल जायें तो वे संस्कार डालते हैं कि ‘भाई ! तुम आत्मतत्त्व हो।’ जब तक तत्त्ववेत्ता गुरु नहीं मिले थे तब तक हमको भी पता नहीं था आत्मसाक्षात्कार क्या होता है, तुमको भी पता नहीं था, किसी को भी पता नहीं था।
तो सृष्टि के मूल तत्त्व का अनुभव करना तो बड़ा आसान है। कर्मी कर्म कर-करके थक जाय, उपासक उपासन कर-करके कई जन्म बिता दे… लेकिन यह तत्त्वज्ञान, आत्मसाक्षात्कार तो एक हफ्ते में भी हो जाय, इतना आसान भी है ! राजा परीक्षित को एक हफ्ते में हो गया था। उन्हें शुकदेव जी का उपदेश मिला और कैसी तड़प थी कि अन्न जल छोड़कर सत्संग में ही बैठे रहते, खाने पीने का भी ख्याल नहीं रहता था क्योंकि मौत सामने है। एक शब्द भी सत्संग का चूकते नहीं थे। आखिर में गुरु ने कहाः ‘वह (आत्मा-परमात्मा) तू ही है।’ और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया। बहुत ऊँची चीज है। इसकी ऊँचाई के आगे कुछ भी नहीं है।
कभी न छूटे पिंड दुःखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।
आत्मा का स्वरूप क्या है ?
आत्मा किसको बोलते हैं ? जहाँ से ‘मैं’ स्फुरित होता है। सभी के हृदय में ‘मैं’, ‘मैं’ होता है। तो इतना व्यापक है यह… यह तो अपने चमड़े के अंदर बोलते हैं इधर-इधर, बाकी केवल इधर नहीं है, सर्वत्र वही है… वृक्षों में यही आत्मदेव रस खींचने की सत्ता देता है। यह जो पक्षियों का किल्लोल हो रहा है, यह भी आत्मा की सत्ता से हो रहा है। इन पेड़-पौधों, पत्थरों में भी वही आत्मचेतना है किंतु उनमें सुषुप्त है। सारा जगत उस आत्मा का विवर्त है। (वस्तु में अपने मूल स्वभाव को छोड़े बिना ही अन्य वस्तु की प्रतीति होना यह ‘विवर्त’ है। सीपी में चाँदी दिखना, रस्सी में साँप दिखना विवर्त है।) जैसे सागर की एक भी तरंग सागर से अलग नहीं है, ऐसे ही सृष्टि का एक कण भी आत्मा से अलग नहीं है।
एक बार उस आत्मा-परमात्मा को जान लो, उसमें 3 मिनट बैठ जाओ, टिक जाओ, गुरु की कृपा से आत्मसाक्षात्कार हो जाय केवल 3 मिनट के लिए तो पार हो गये…. फिर गर्भवास नहीं होता, जन्म मरण नहीं होता।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 309
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