Monthly Archives: November 2009

उत्तम साधन


(बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

जब सब ब्रह्म है तो आप पूछोगे कि ‘कृष्ण के साकार रूप की उपासना करें कि निराकार की करें ? वह घोड़े की बागडोर लिये हुए काला-कलूटा कृष्ण-कन्हैया बैठा है, उसको ही भगवान मानें कि उसके अंदर जो आत्मा है उसको भगवान मानें ?’

भाई ! जिसमें तेरी प्रीति हो । तेरे पास गोपी और ग्वाल का हृदय है तो बाल-गोपाल मान ले अथवा मुरलीधर या गीतागायक आचार्य महोदय श्रीकृष्ण मान ले ।

‘आहा ! कृष्ण कन्हैया !…’ तो कन्हैयाकार, कृष्णाकार वृत्ति होगी और जगदाकार वृत्ति टूट जायेगी । इस वृत्ति में आनंद आने लगेगा, तुम अंतर्मुख होने लगोगे, धीरे-धीरे निराकार भी छलकने लगेगा, एक ही बात है ।

अर्जुन का प्रश्न थाः ‘जो भक्त निरंतर आपकी उपासना करते हैं और जो अक्षर अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में उत्तम योगवेत्ता कौन है ?’

भगवान का जवाब थाः ‘जो परम श्रद्धालु नित्ययुक्त रहकर मुझ में अपना मन आविष्ट कर देते हैं और मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में उत्तम योगवेत्ता है ।’

महाराज ! आप साइकिल पर जा रहे हो तो 15 कि. मी. प्रति घंटा की रफ्तार बहुत उत्तम है, कार में जा रहे हो तो 60 कि. मी. की रफ्तार उत्तम है और जहाज में जा रहे हैं तो कम-से-कम 250 की रफ्तार उत्तम है और यदि पैदल ही जा रहे हैं तो आपकी 5 कि.मी. की रफ्तार उत्तम है । आप कौन से साधन से जा रहे हैं ?

आपके पास चित्त, वातावरण, समझ – जो है पर्याप्त है । धन्ना जाट जैसा आदमी भी तो प्रभु को मिल सकता है, शबरी भीलन जैसी भी तो मिल सकती है, गोरा कुम्हार भी तो मुलाकात कर सकता है । ध्रुव का ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ साधन था धन्ना जाट का ‘नहा के नहलइयो, खिलाकर खइयो ।’ ‘अब तू खाता नहीं ? आता है कि नहीं आता है, आता है कि नहीं आता है….’ –यह साधन था, लो । तुम ऐसा करोगे तो मजा नहीं आयेगा ।

शबरी का ऐसा चिंतन था कि बाहर की भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी उसको कोई असर नहीं करती क्योंकि सतत चिंतन में ऐसी हो गयी थी कि बाहर की कोई भी प्रतिकूलता, राग-द्वेष का प्रसंग उसके चित्त को बाहर नहीं लाता । उसके लिए यह साधन उत्तम है लेकिन आप यदि शबरी की नकल करने बैठोगे तो मजा नहीं आयेगा । आप श्रीकृष्ण का चिंतन करते हैं कीजिये, अल्लाह का करते हैं कीजिये, झूलेलाल का करते हैं कीजिये और यदि आपके सद्गुरु उपलब्ध हैं, आपके पास बुद्धि उपलब्ध है, आपके पास श्रद्धा उपलब्ध है, आपके पास पुण्य है तो आप चिंतन कीजिये – ‘सच्चिदानंदोऽहम्, शिवोऽहम्, आनन्दस्वरूपोऽहम्… गुरु होकर उपदेश दे रहा हूँ । आहाहा ! शिष्य होकर सुन रहा हूँ । वाह ! वाह !! वाह !!!…. सब मेरे अनेक रूप हैं । कृष्ण होकर मैं आया था, बुद्ध होकर आया, महावीर होकर आया, माई होकर आया, भाई होकर आया… यह शरीर कट जाय, मर जाय फिर भी मेरा नाश नहीं होता क्योंकि अनंत-अनंत शरीरों में मैं हूँ ।’ वाह, क्या मजा है ! असत्, जड़, दुःख के चिंतन से बचने के लिए आप अपने सत्, चित्, आनन्द स्वभाव का, परमात्म स्वभाव का चिंतन करते हुए निश्चिंत नारायण से एकाकार होइये । ब्रह्माकार वृत्ति से आवरण भंग करके ब्रह्मस्वरूप हो जाइये, अपने ब्रह्मस्वभाव को पाइये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 26 अंक 203

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अनर्थों का मूलः आलस्य


आलस्य मानव की उन्नति में रिपु (शत्रु) है । भले कामों में अथवा कर्तव्य कर्मों में जी चुराने का नाम आलस्य है । आलस्य ऐसा भारी दोष है कि इससे मनुष्य अपना वर्तमान और भविष्य घोर दुःखान्धकार से ही भरा हुआ पाता है । आलस्य के कारण ही मनुष्य बड़े-बड़े लाभ के अवसरों को, अच्छे-अच्छे उन्नति के साधनों को व्यर्थ में ही खो देता है और फिर अपने भाग्य को कोसते हुए मरता है । कर्तव्य से जी चुराना ही आलस्य है ।

शारीरिक स्वस्थता, मानसिक शक्ति, बौद्धिक विकास और ज्ञान-प्रकाश प्राप्त करने का साधन प्रत्येक मनुष्य को सुलभ है, किंतु जो आलसी वह वह दुर्भाग्यवश उन महान लाभों से वंचित रहते हुए पशुवत जीवन काटता रहता है ।

आलस्य के कारण ही मनुष्य अभी का कार्य आगे कर लेने के लिए टालता रहता है । प्रातःकाल का काम दिन चढ़ने पर करता है, मध्याह्न का कार्य दिन ढलने पर आरम्भ करता है ।

इस प्रकार दिन का कार्य पूरा न होकर रात्रि में बोझ की तरह भार बनकर मन के ऊपर लदा रहता है । पूर्ण विश्राम की नींद भी सपनों की भरमार से नहीं आ पाती । आलस्यवश ही आज का काम कल के लिए, इस महीने का काम दूसरे महीने के लिए, इस वर्ष का काम दूसरे वर्ष के लिए टलते-टलते जीवन का कार्य इस जीवन में पूरा नहीं होता । इसके परिणामस्वरूप मनुष्य शांतिपूर्वक मर भी नहीं पाता ।

प्रायः मनुष्य आलस्य को विश्राम समझने की भूल किया करता है । कभी वह छोटे या बड़े काम समय और शक्ति के रहते हुए भी आगे के लिए टालता है । आलस्य का ही भुलावा है ।

जो लोग अधिक देर तक सोने के अभ्यासी हो गये हैं उनका चित्त कर्तव्य-कर्मों में सावधान नहीं रहता, उसमें दक्षता नहीं पायी जाती । मनोयोग की कमी और विस्मृति दोष अधिक रहता है । अधिन नींद से आलसी प्रकृति में अधिकाधिक निद्रा का प्रभाव दृढ़ रहता है, ऐसी नींद विश्रामदायी न होकर दुःस्वप्नों से थकाने वाली होती है ओ। जो लोग जागने के समय सोते हैं वे ही सोने के समय जागकर अस्वस्थ होते हैं । जो लोग परिश्रमी नहीं हैं, जो दिन में अपने शरीर और बुद्धि का कार्य-संलग्नता में उपयोग नहीं करते, वे भी एक तरह से निद्रित अवस्था में समय खोने वाले जीव हैं ।

आलस्य तमाम अभावों और कष्टों का मूल है । कुछ विद्यार्थी प्रातःकाल उठने में आलस्य करनके के कारण ही विद्योपार्जन में निर्बल रहते हैं, साथ ही प्रातःकालीन स्वस्थ, शक्तिप्रद वायु तथा सूर्योदय की तमाम प्राणतत्त्व-प्रदायिनी किरणों के अनुपम लाभ से भी वंचित रहते हैं । जिस ऊषाकाल में अचेतन प्रकृति भी जागती जैसी दिखती है, उस समय सचेतन मानव सोता रहे तो यह उसकी मूर्खता है ।

संसार के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, यथार्थदर्शी बुद्धिमान एवं ज्ञानियों तथा बड़े-बड़े कर्मयोगियों से कोई भी पूछकर जान सकता है कि वे आलस्य का त्याग प्रातःकाल से ही आरम्भ कर रात्रि के सोने के समय तक किस प्रकार करते हुए अपने-अपने लक्ष्य-पथ में अग्रसर हुए । एक व्यापारी कभी-कभी आलस्य के कारण ही बड़े-बड़े लाभ के सौदे को हाथ से निकल जाते देखता है और फिर भाग्य को कोसता है । एक सेवक या सिपाही आलस्य के कारण ही उन्नति के अवसरों को खो देता है और सदा के लिए स्वामी की निगाहों में गिर जाता है । आलस्य के कारण ही एक व्यक्ति बहुत आवश्यक कार्यस्थल पर पहुँचने के लिए ज्यों ही स्टेशन पर कुछ मिनट देर से पहुँचता है कि गाड़ी छूटती हुई दिखती है, फिर पश्चाताप की वेदना से दुःखी होता है ।

जिस प्रकार लोहे को उसका जंग खाता है उसी प्रकार शरीर के लिए आलस्य हानिप्रद होता है, अतएव आलस्य छोड़ने के लिए अधिक परिश्रम करके उद्यत रहना चाहिए ।

आलस्यवश ही पुत्र माता-पिता की सेवा का सौभाग्य खो देता है, पत्नी पतिसेवारूपी पुण्य को खो देती है । आलस्य के कारण संतान रोगी और निर्बल होती है ।

बुद्धिमान और सौभाग्यशाली वही है जो विद्योपार्जन में आलस्य न करे । बड़ों के तथा दीन-दुःखियों के आतिथ्य और रोगी की सेवा-सहायता से आलस्य न करे । जिस वस्तु की अभी आवश्यकता है उसे लाने और लायी हुई वस्तु को यथास्थान पहुँचाने में भी आलस्य न करे । शुभ प्रतिज्ञा करे एवं जो प्रतिज्ञा कर ली है उसको पूरा करने में आलस्य न करे । अपनी दैनिक, शारीरिक, मानसिक शुद्धि क्रियाओं में आलस्य न करे । आलस्य बहुत ही अनर्थकारी रोग है । आलस्य के त्याग में भी आलस्य नहीं करना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 203

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अद्भुत मंत्र


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

हाथी बाबा, हरि बाबा, उड़िया बाबा, आनंदमयी माँ – ये चार समकालीन संत वृन्दावन में रहते थे । हरि बाबा से पूछा गयाः “बाबा ! आप ऐसे महान संत कैसे बने ?”

हरि बाबा ने कहाः “बचपन में जब हम खेल खेलते थे तो एक साधु भिक्षा लेकर आते और हमारे साथ खेल खेलते । एक दिन साधु भिक्षा लाये और उनके पीछे वह कुत्ता लगा जिसे वे रोज टुकड़ा दे देते थे । पर उस दिन टुकड़ा दिया नहीं और झोले को एक ओर टाँगकर हमारे साथ खेलने लगे किंतु कुत्ता झोले की ओर देखकर पूँछ हिलाये जा रहा था । तब बाबा ने कुत्ते से कहाः ‘चला जा, आज मेरे को कम भिक्षा मिली है । तू अपनी भिक्षा माँग ले ।’

फिर भी कुत्ता खड़ा रहा । तब पुनः बाबा ने कहाः ‘जा, यहाँ क्यों खड़ा है ? क्यों पूँछ हिला रहा है ?”

तीन-चार बार बाबा ने कुत्ते से कहा किंतु कुत्ता गया नहीं । तब बाबा आ गये अपने बाबापने में और बोलेः ‘जा, उलटे पैर लौट जा ।’

तब वह कुत्ता उलटे पैर लौटने लगा ! यह देखकर हम लोग दंग रह गये । हमने खेल बंद कर दिया और बाबा के पैर छुए । बाबा से पूछाः ‘बाबा ! यह क्या, कुत्ता उलटे पैर जा रहा है ! आपके पास ऐसा कौन-सा मंत्र है कि वह ऐसे चल रहा है ?’

बोलेः ‘बेटे ! यह बड़ा सरल मंत्र है – सब में एक – एक में सब । तू उसमें टिक जा बस !’

तब से हम साधु बन गये ।”

उसमें टिककर संकल्प चलाये । मुर्दा भी जीवित हो जाये ।।

मैं कहता हूँ तुम्हारे आत्मदेव में इतनी शक्ति है, तुम्हारे चित्त में चैतन्य वपु का ऐसा सामर्थ्य है कि तुम चाहो तो भगवान को साकार रूप में प्रकट कर सकते हो, तुम चाहो तो भगवान को सखा बना सकते हो, तुम चाहो तो दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बना सकते हो, तुम चाहो तो देवताओं को प्रकट कर सकते हो । देवता अपने लोक में हों चाहे न हों, तुम मनचाहा देवता पैदा कर सकते हो और मनचाहे देवता से मनचाहा वरदान ले सकते हो, ऐसी आपकी चेतना में ताकत है । अगर देवता कहीं है तो वह आ जायेगा, अगर नहीं है तो तुम्हारे आत्मदेव उस देवता को पैदा कर देंगे । उसी के द्वारा वरदान और काम करा देंगे । ऐसी तुममें शक्तियाँ छुपी हैं ।

सुन्या सखना कोई नहीं सबके भीतर लाल ।

मूरख ग्रंथि खोले नहीं कर्मी भयो कंगाल ।।

तो ‘सब में एक – एक में सब’ इसमें जो संत टिके होते हैं, वे तो ऐसी हस्ती होते हैं कि हाँ आस्तिक भी झुक जाता है, नास्तिक भी झुक जाता है, कुत्ता तो क्या देवता भी जिनकी बात मानते हैं, दैत्य भी मानते हैं और देवताओं के देव भगवान भी जिनकी बात रखते है ।

ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ, देवी-देवता, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि एवं भूत-प्रेत, आसुरी प्रकृतिवाले तामसी प्रकृति वाले सब के सब लोग ऐस ब्रह्मनिष्ठ सत्पुरुष को चाहते हैं एवं उनकी बात मानते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 12 अंक 203

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