Monthly Archives: November 2009

गौ-रसः महत्ता एवं लाभ


आयुर्वेद के अनुसार गाय से प्राप्त सभी वस्तुएं मनुष्य का कल्याण करने वाली हैं । गाय के गोबर में लक्ष्मी का वास बताया गया है तथा गोमूत्र गंगाजल के समान पवित्र माना गया है । गाय मानव-जाति के लिए प्रकृति का अनुपम वरदान है । गाय का दूध, दही, घी, मक्खन व छाछ अमृत का भण्डार है । इसी कारण कृतज्ञतावश भारतवर्ष में गौमाता की घर-घर पूजा होती रही है । गाय अपने गोबर और मूत्र से धरती को उपजाऊ बनाती है, जल और वायु का शोधन करती है । गाय ही एकमात्र ऐसा दिव्य प्राणी है जिसकी रीढ़ की ह़ड्डी में ‘सूर्यकेतु’ नाड़ी है । अन्य प्राणी व मनुष्य जिनको नहीं ग्रहण कर सकते उन सूर्य की गौकिरणों को सूर्यकेतु नाड़ी ग्रहण करती है । इसलिए गाय सूर्य के प्रकाश में रहना पसंद करती है । इस नाड़ी के क्रियाशील होने पर वह पीले रंग का एक पदार्थ छोड़ती है, जिसे ‘स्वर्णक्षार’ कहते हैं । इसी के कारण देशी गाय का दूध, मक्खन व घी स्वर्ण-कांतियुक्त होता है ।

दूधः गाय का दूध तो धरती का अमृत है । प्राकृतिक चिकित्सा में गाय के ताजे दूध की बहुत प्रशंसा की गयी है तथा  इसे सम्पूर्ण आहार कहा गया है । आचार्य सुश्रुत  गौदूग्ध को जीवनोपयोगी तथा आचार्य चरक ने इसे सर्वश्रेष्ठ रसायन कहा है क्योंकि गौदुग्ध ही एक ऐसा भोजन है, जिसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, दुग्धशर्करा, खनिज लवण, वसा आदि मनुष्य शरीर के सभी पोषक तत्त्व भरपूर पाय जाते है । गाय का दूध रसायन का कार्य करता है । यह अन्य प्राणियों के दूध की अपेक्षा हलका और तुरंत शक्तिवर्धक है । यह शरीर की गर्मी का नियंत्रक, रसों का आश्रय, पाचनाग्निवर्धक, श्रम को हरने वाला, क्षय एवं कैन्सर के विषाणुओं का नाशक तथा शरीर में उत्पन्न विष का शामक है । प्रातः गाय का धारोष्ण दूध पीना बहुत ही शक्तिवर्धक होता है । इसमें घी मिलाकर पीने से मेधाशक्ति बढ़ती है । गाय के दूध और घी से कोलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ता बल्कि रक्त की धमनियों में उत्पन्न अवरोध का निवारण होता है । देशी गायों का दूध ही हितकर है, जर्सी, होल्सटीन या उनकी संकर प्रजातियों का नहीं । डेयरी की प्रक्रिया से भी दूध का सात्त्विक प्रभाव नष्ट होता है ।

यदि आप चाहते हैं कि आपके बच्चों का शरीर सुंदर एवं सुगठित हो, उनके वज़न एवं कद में खूब वृद्धि हो, वे मेधावी और प्रचंड बुद्धि-शक्तिवाले व विद्वान बनें तो उन्हें नियमितरूप से देशी गाय का दूध व मक्खन खिलायें-पिलायें । सभी को कम-से-कम 275 ग्राम दूध प्रतिदिन पीना चाहिए । गौदुग्ध में एक चम्मच गाय का घी मिलाकर पीने से शरीर पुष्ट होता है । गर्म दूध पीने से कफ का नाश तथा ठंडा करके पीने से पित्त का नाश होता है । दूध शरीर की जलन को समाप्त करके अन्न-पाचन में सहायता करता है । फलों के साथ दूध नहीं लेना चाहिए । शिशु से वृद्ध तक सभी उम्र के लोगों के लिए गौदुग्ध का सेवन हितकर है ।

काली गाय का दूध त्रिदोषनाशक तथा सर्वोत्तम है । रूसी वैज्ञानिक शिरोविच ने कहा हैः ‘गाय के दूध में रेडियो विकिरण (एटॉमिक रेडियेशन) से रक्षा करने की सर्वाधिक शक्ति होती है ।’

शरीर को स्वस्थ बनाकर नवजीवन प्रदान करने के लिए ‘दुग्धकल्प’ किया जाता है । इसमें केवल दूध पर रहा जाता है । इससे जिगर, तिल्ली, गुर्दे  आदि सही काम करने लगते हैं । विदेशों में गौदुग्ध की डेयरी का विकास हुआ है परंतु हमारे यहाँ गायें बेचकर भैंसें खरीदी जा रही हैं, जिनका दूध पीकर नयी पीढ़ी आलसी और मंद बुद्धिवाली होती जा रही है ।

रामसुखदास जी महाराज ने कहा थाः ‘गाय को इंजेक्शन लगाकर दूध निकालना उसकी हत्या के समान है एवं वह दूध खून के समान होता है, जिसे पीने से मनुष्य की बुद्धि खराब हो जाती है ।’ और आज हमारे देख में वही किया जा रहा है । सरकार को ऐसे इंजेक्शन पर पाबंदी लगानी चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 203

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वहम का भूत


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

आपके चेतन में, आपकी कल्पनाओं में बड़ी अद्भुत शक्ति है । आप जैसी कल्पना करते हैं ऐसा प्रतीत होता है, जैसा आप सोचते हैं वैसा दिखने लगता है । शरीर अनित्य है, मन परिवर्तनशील है और आप नित्य हैं लेकिन जब आप शरीर की उपाधि अपने में आरोपित कर देते हैं और ‘मैं बीमार हूँ, मैं कमजोर हूँ…. मुझे किसी ने कुछ कर दिया है….’ यह स्वीकार कर लेते हैं, तो किसी ने कुछ किया हो या न किया हो लेकिन आपने मान लिया तो फिर कोई कितना समझाये लेकिन आपकी मान्यता के कारण नब्बे प्रतिशत वही भास होगा जो आपने मान लिया है । ‘मेरे को दुश्मन ने कुछ कर दिया है’, ऐसा सोचते हैं तो मन उसी प्रकार का दुःख बना लेता है । यह वहम की जो मुसीबत है न, वह किसी वैद्य से, किसी डॉक्टर से तो क्या, किसी गुरु से भी नहीं निकलती !

अपना वास्तविक ‘मैं’ नित्य है, विकार अनित्य है लेकिन मन में यह घुस गया है कि ‘मैं विकारी हूँ’ तो अनित्य विकार भी नित्य जैसे लगते हैं । गहराई में अगर कोई वहम घुस जाता है तो उसको निकालना बड़ा कठिन हो जाता है । बीमारी तो निकाल सकते हैं क्योंकि बीमारी शरीर में है लेकिन वहम मन में होता है । जब तक मन का वहम स्वयं नहीं निकालते तब तक हकीम, डॉक्टर, गुरु मिलकर भी हमारा वहम नहीं निकाल सकते, हमें ठीक नहीं कर सकते । अपनी मान्यता आप नहीं छोड़ेंगे तब तक कोई नहीं छुड़ा सकता । जब तक आप नहीं सोचते हैं कि यह तो ‘भाई ! शरीर का है…  मन का है… चलता है’, तब तक आपका वहम कोई नहीं निकाल सकता है । आपने वहम छोड़ दिया तो बस दूर हो गया !

ऐसे ही दोष तो निर्जीव हैं लेकिन ‘मेरे में दोष हैं’ ऐसा मान लिया तो उनको बल दे दिया, फिर दोष मिटाने लगेंगे तो और मजबूत होंगे, दोष के अनुसार करेंगे तो भी आप दोषी हो जायेंगे, जब उनकी उपेक्षा करेंगे तो दोष हैं ही नहीं !

जैसे कुशवारी आप जाला बना के उसी में फँस मरती है, ऐस ही कभी-कभी भोले आदमी अपनी ही कल्पनाओं के जाल में बुरी तरह फँस जाते हैं । जब तक अपनी कल्पना से आप कल्पना नहीं काटते, तब तक दूसरा कोई काट भी नहीं सकता, आपने अपने-आप में जो विचार भर दिया है, वह आप नहीं छोड़ेंगे तो दूसरा कोई भी छुड़ा नहीं सकता । जैसे कन्या ने मान लिया कि मैंने फेरे फिर लिये, मैं फलाने की पत्नी हूँ ।’ अब लाख उपाय करो उसे समझाने के कि तू फलाने की पत्नी नहीं है, तो भी बोलेगीः ‘क्या बोलते हो !’ मन में घुस गया कि ‘मैं फलाने की पत्नी हूँ, मैं फलाने का पति हूँ, मैं फलानि जाति का हूँ….’ मन में घुसेड़ दिया न ! वास्तव में देखो तो जात-पात कहाँ है ? कल्पना ही तो है ! तो हमने अपने में जो भर दिया, वह हम नहीं हटाते तब तक हटता नहीं ।

जैसे आसुमल, भूरो, भगवान जी, भगवान, प्रभु जी, आसाराम, बापू जी…. जैसा-जैसा लोगों ने बोला, हम भी बोलेः ठीक है । तो कोई इस नाम के लिए निंदो, चाहे वंदो… कुछ भी नहीं, सब काल्पनिक है, तो हमें तो मौज है लेकिन मैं मान लूँ कि ‘मेरा नाम ही आसाराम है, मैं ही आसाराम हूँ, मैं ही बापू जी हूँ….’ फिर उसकी वाहवाही में तो फूलूँ और निंदा में सिकुड़के दुःखी होऊँ । नहीं-नहीं, गुरु जी ने मुझे इस वहम से पार कर दिया । मुझे पता है कि यह तो रखा हुआ नाम है, थोपा हुआ है । ऐसे ज्ञान से ही कल्पनाएँ कटती हैं ।

दुःख की, सुख की कल्पनाएँ हो-हो के बदल जाती हैं, हम नित्य हैं । नित्य को अनित्य क्या करेगा ? अमर को मरने वाला क्या करेगा ? फिर भी डर-डर के परेशान हो रहे हैं- ‘मेरे से यह गलती हो गयी, मेरे से यह हो गया, मेरे से वह हो गया, मेरे को नींद नहीं आती….’ नहीं आये तो नहीं आये । ‘नींद नहीं आती, नहीं आती….’ थोड़ी नींद कम आयी तो उतनी देर भगवान का नाम ले । कल्पनाओं का जाल बुनकर अपने को फँसाओ मत, सताओ मत, नींद आने का मंत्र जान लो बस ! और लोगों की कल्पानाएँ – लोग यह कहेंगे, वह कहेंगे…. उनकी कल्पनाओं में भी उलझो मत । सब बीत रहा है, बीतता जायेगा । संसार-स्वप्न को बीतने दो, अपने को ज्ञानस्वभाव में, प्रभुप्रेम स्वभाव में जगाओ । क्यों, जगाओगे न ! शाबाश वीर, शाबाश ! हिम्मत करो । संसार में पच मरने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ, संसार के पिठ्ठू बनने तुम नहीं आये हो । शरीर की मौत के बाद भी जिसका  बाल बाँका नहीं होता, तुम वह ज्ञानस्वरूप, चैतन्यस्वरूप अमर आत्मा हो । अपने अमर स्वभाव को जानो ।

यह शरीर है, कभी कमजोरी, कभी गर्मी, कभी कुछ, कभी कुछ…. – यह सब तो होता रहता है, दिन भर उसी का चिंतन कर-करके मारे जा रहे हैं । जो बीमारी का चिंतन करता है, दुःख का चिंतन करता है, शत्रु का चिंतन करता है….. वह उसको बल देता है । आप तो निश्चिंत नारायण में मस्त रहो ।

चिंता से चतुराई घटे, घटे रूप और ज्ञान ।

चिंता बड़ी अभागिनी, चिंता चिता समान ।

तुलसी भरोसे राम के, निश्चिंत होई सोय ।

अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय ।।

इस समझ को पक्का कर लो । जो होनी हो सो हो । फिकर फेंक कुएँ में, जो होगा देखा जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 203

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फुटपाथी नहीं, वास्तविक शांति


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

भगवान की भक्ति करने वाला, भगवान में प्रीति रखने वाला, गुरु की आज्ञा में चलने वाला व्यक्ति सुखी रहता है, सुख-दुःख में समचित रहता है, शांत रहता है और भगवान को, गुरु को, गुरु के ज्ञान को न मानने वाला सदैव दुःखी रहता है, अशांत रहता है । अशांतस्य कुतः सुखम् ? अशांत को सुख कहाँ ?

लड़का कहना नहीं मानता, बेटी की मँगनी नहीं हो रही, नौकरी में तरक्की नहीं मिल रही, मकान की यह समस्या है, बरसात ऐसी है, खेत में ऐसा है – अशांत हो गये और सब अनुकूल हो गया तो हाश ! शांति । बस नहीं मिलती, अशांति हो गयी । बस आ गयी, हाश ! शांति । लेकिन शाम को फिर बस नहीं आयी तो शांति अशांति में बदल गयी । तो आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक ये तीन शांतियाँ तो बेचारी आती जाती रहती हैं । अगर आत्मानुभूति हो गयी तो परम शांति मिलेगी, फिर आने-जाने वाली फुटपाथी शांति-अशांति की कीमत ही नहीं रहेगी ।

ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।

‘ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के, तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है ।’ (भगवद्गीताः 4.39)

शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । (गीताः 5.12)

भगवत्प्राप्तिरूप शांति मिल जाती है । कुछ मिले, कोई आये-जाये तब शांति…. नहीं, अपने-आप में तृप्त ! सुख के लिए किसी व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति की गुलामी न करनी पड़े ऐसी वास्तविक शांति, परम शांति की कुंजी मिल जाय तो दुःख मिट सकता है । सारे दुःख मिटाने वाली यह परम शांति चाहिए तो जिन्होंने परम शांति पायी है ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की संगति में जाना चाहिए । उनकी करुणा-कृपा से हृदय की ज्योति जग जाती है और वास्तविक शांति मिल जाती है । जो लोग उनके सत्संग में जाते हैं, जिन पर उनकी निगाह पड़ती है, जिनको उनकी प्रसादी मिलती है वे लोग धन्य हैं !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 11 अंक 203

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