(ईश्वर सदा है सर्वत्र है और सबमें है। उसी के कारण हमारा अस्तित्व है। इसी बात पर प्रकाश डालते हुए पूज्यश्री कह रहे हैं-)
कंकर, पत्थर और पहाड़ में ईश्वर के अस्तित्व की एक कला है – अस्तिपना। कंकर, पत्थर और पहाड़ों का चूरा करके बालू बना दो। बालू का भी चूरा कर दो फिर भी उसका अस्तित्व मौजूद रहता है। उसे भी हवा में फूँक मारकर उड़ा दो तो वह तुम्हारी आँखों से ओझल हो जाता है, लेकिन उसका कहीं-न-कहीं अस्तित्व तो रहता ही है।
परमेश्वर की दो कलाएँ प्रतीत होती हैं- अस्तिपना और भोजन ग्रहण करने की क्षमता। बीज है, पौधा है, पेड़ है…. बीज को बो दो तो पौधा है, पौधे को बड़ा करो तो पेड़ है, पेड़ को काट दो तो लकड़ी है, लकड़ी का फर्नीचर आदि बना दो तो कुर्सी आदि है, उसको जला दो तो कोयला है, कोयले को जला दो तो राख है, राख को कहीं डाल दो तो खाद है। उसका है पना नष्ट नहीं होता। पेड़ पौधों में अस्तिपना तो होता ही है, भोजन ग्रहण करने की कला भी होती है।
क्षुद्र जीव-जंतुओं में परमेश्वर की तीन कलाएँ विकसित होती हैं- है पना, भोजन ग्रहण करने की क्षमता और स्थानांतरण करने की शक्ति।
पशु-पक्षियों में इन क्षुद्र जंतुओं से अधिक भगवान की चार कलाएँ विकसित देखी जाती हैं। उपरोक्त तीन के अलावा चौथी है- अपने माता-पिता एवं घर-घरौंदे की पहचानने की क्षमता। हजार गौओं के बीच भी बछड़ा अपनी माँ को पहचान लेता है, लेकिन बछड़ा नया संबंध नहीं जोड़ सकता है। उपनिषदों का ज्ञान, शास्त्रों का पठन, गुरुमंत्र का रहस्य जानना इत्यादि पशुयोनि में समझना बड़ा असम्भव सा लगता है। हाँ, किसी की पाँचवीं कला विकसित हो जाये तो हो सकता है।
मनुष्यों में उपरोक्त चारों के अलावा पाँचवीं कला भी विकसित है कि वह नया संबंध जोड़ सकता है और उन संबंधों को जीवनभर अच्छी तरह से याद भी रख सकता है। बछड़ा माँ को पहचान लेता है लेकिन जवानी में माँ और अन्य रिश्तेदारों को रिश्तेदारों के रूप में नहीं पहचानता है। कामविकार उत्पन्न होता है तो बछड़े को मानवीय मर्यादा जैसा ज्ञान नहीं रहता है लेकिन मनुष्य को संबंधों को पहचानने एवं नया संबंध स्थापित करने की पाँचवीं कला भी प्राप्त है।
मनुष्य अपनी असली संबंध परमात्मा के साथ है, इसे भी जान सकता है और भावना से भगवत्संबंध भी जोड़ सकता है। वह कई नये संबंध भी जोड़ सकता है, कई कल्पित संबंध तोड़ भी सकता है और परमात्मा के साथ अपने वास्तविक संबंध को पहचान सकता है। आत्मा का वास्तविक संबंध परमात्मा से है, इसको पहचानने की कला मनुष्य में है, मन से शाश्वत सच्चिदानंद से जुड़ने की कला मनुष्य में है।
यदि मनुष्य के जीवन में व्रत नियम है, एकादशी का व्रत करता है, जप-ध्यानादि करता है, संत महापुरुषों का सत्संग करता है तो धीरे-धीरे छठी, सातवीं आठवीं, नवमी कला विकसित करके दसों इन्द्रियों के आकर्षणों से पार परमात्म-अनुभव प्राप्त करके, दस कला का धनी हो जाता है, ब्रह्मवेत्ता-साक्षात्कारी पुरुष हो जाता है उसकी समता सर्वभूतहितरेता आदि पाँच कलाएँ और विकसित हो जाती हैं।
फिर भी यदि कोई और अधिक सामर्थ्य पाना चाहे तो योग-अभ्यास करके बाकी की छः कलाएँ भी प्राप्त कर सकता है। वेदों का पूर्ण ज्ञान, पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण यश, मृतक को जीवनदान देने का सामर्थ्य आदि छः भागवीय कलाएँ भी वह विकसित कर सकता है।
ब्रह्मज्ञानियों के जीवन में 10 कलाएँ विकसित होती हैं। श्रीरामजी के जीवन में 12 कलाएँ विकसित थीं और श्रीकृष्ण के जीवन में 16 कलाएँ विकसित थीं।
आप श्रीकृष्ण की नाईं 16 कलाएँ विकसित न करो तो कोई हरकत नहीं, श्रीराम की नाईं 12 कलाएँ विकसित न करो तो भी चल जायेगा लेकिन राजा जनक और परीक्षित की नाईं, मदालसा और गार्गी की नाईं कम-से-कम 10 कलाएँ तो विकसित कर लो। जिसकी 10 कलाएँ विकसित हो जाती हैं, वह मुक्तात्मा हो जाता है, महात्मा हो जाता है।
अपने जीवन में सर्वकला भरपूर प्रभु को जान लेने से मानव को चिंताएँ, दुःख, मुसीबत, शोक, भय, विषय-विकार आदि परेशान नहीं कर सकते, लेकिन उसे इस बात का पता ही नहीं कि उसका जन्म उस सर्वकला भरपूर प्रभु को जानने के लिए हुआ है।
हमें मनुष्य रूप में जन्म इसीलिए मिला है कि हम इस विनाशी शरीर में रहते हुए भी अविनाशी आत्मा को जानकर जीते-जी मुक्ति का अनुभव कर सकें। इस नश्वर शरीर में रहकर भी जीवन्मुक्त होकर विचरण करते हुए उस शाश्वत के गीत गायें।
लेकिन मनुष्य का बड़े-में-बड़ा दुर्भाग्य है कि संसार के भोग-विलास में फँसकर, जगत के बाह्य आकर्षणों में फँसकर, विषय-विकार में उलझकर, मोह-माया और अहंकार में फँसकर भवसागर में गोते खा रहा है। उस सर्वकला भरपूर प्रभु को न जानने के कारण यह जीव बेचारा निराश होकर मर जाता है। नानक जी ने कहा हैः
सर्वकला भरपूर प्रभु बिरथा जाननहार।
जाके सुमिरन उगरिये नानक तिस बलिहार।।
व्यर्थ में संसार की बातें करने-सुनने से राग और द्वेष बढ़ते हैं तथा अहंकारवश जीव अपनी योग्यताएँ कुंठित कर लेता है। मिथ्या जगत के व्यवहार में तथा पद-प्रतिष्ठा के अभिमान में अपने स्व को न जानकर यह जीव बाजी हार जाता है।
संसार के मिथ्या व्यवहार के अभिमान में पड़कर ही रावण, कंस, हिटलर, सिकंदर आदि अभिमानी और अहंकारियों ने जीवन की बाजी हारी, लेकिन भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, बुद्ध, नानक, कबीर, शबरी, मीरा आदि ने अपने आत्मस्वरूप में जगकर जन्म-मरण के चक्र पर विजय पायी थी। वे लोग अपने-आपमें तो तृप्त रहे ही, साथ ही अपने सम्पर्क में आने वालों को भी तृप्त किया।
हमने आज तक ऐसा कहीं भी देखा या सुना नहीं है कि फलानी जगह पर रावण,कंस, हिटलर, सिकंदर के मंदिर हैं या उनके चित्र को लोग पूजते हैं। लेकिन भगवान श्रीराम के, श्रीकृष्ण के मंदिर सर्वत्र हैं, उनके तस्वीर की पूजा करने वाले तथा उनके भजन गाने वाले करोड़ों लोग आपको मिल जायेंगे।
बुद्ध, कबीर,नानक आदि को पूजने वाले तथा उनके गीत गाने वाले भी आपको कई मिल जायेंगे। थे तो वे भी हमारे जैसे मनुष्य शरीर में,लेकिन उन्होंने मानव-जीवन के लक्ष्य को जाना तथा उस दिशा में चल पड़े तो उस प्रभु को जानकर जीवन्मुक्त हो गये। नानक जी ने ठीक ही कहाः
सर्वकला भरपूर प्रभु बिरथा जाननहार।
जाके सुमिरन उगरिये नानक तिस बलिहार।।
जिस परमात्मा के सुमिरनमात्र से इस जीव का उद्धार हो जाता है, अंतःकरण पवित्र तथा निर्मल हो जाता है, भय और चिंताएँ दूर हो जाती हैं, रोगप्रतिकारक शक्ति का विकास हो जाता है तथा काम, क्रोध और लोभ नष्ट हो जाते हैं, ऐसे सर्वकला भरपूर परमात्मा पर मैं कुर्बान जाऊँ !
पृथ्वी पर सारे जीव-जंतु आदि की चेतनाशक्ति कहाँ से आती है ? फल-फूल में विटामिन पैदा करने की शक्ति कहाँ से आती है? जल में द्रवता तथा रस उत्पन्न करने की शक्ति कहाँ से आती है ? बच्चों के नाज़-नखरे, उनकी गंदगी, दुर्गन्ध को सहते हुए भी माता में उनके प्रति स्नेह एवं दुलार से सेवा करने की शक्ति कहाँ से आती है ? राजाओं में राज्य करने की समझ कहाँ से आती है ? और संतों में वक्तृत्व की तथा श्रोताओं में श्रोतृत्व की शक्ति कहाँ से आती है ? उसी सर्वकला भरपूर प्रभु से !
वह सर्वकला भरपूर प्रभु हमें भी कभी संसार से वैराग्य दिलाकर अपने ईश्वरीय मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। कभी सत्संग का प्रेम-प्रसाद चखाकर कभी ध्यान-भजन-कीर्तन का रस चखाकर अपने परमात्मरस में डुबाना चाहता है।
वह कितना दयालु है, कितना उदार है कितना धैर्यवान है ! जो हमें येन केन प्रकारेण अपने आत्मस्वरूप का प्रभाव देकर अपने ही स्वरूप में जगाना चाहता है, हमें अपने स्वरूप का दान करना चाहता है।
जब वह अपने स्वरूप का दान करने के लिए तैयार बैठा है तो हम देरी क्यों करें? पहुँच जायें ऐसे किन्हीं संत-महापुरुषों के चरणों में, जिन्होंने उस सर्वकला भरपूर प्रभु के स्वरूप को जाना है… उनके बताये मार्ग के अनुसार चलकर हम भी उस प्रभु को जानने में समर्थ हो सकते हैं जो सर्वकला भरपूर हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 3-5, अंक 108
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