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सर्वकला भरपूर, प्रभु !


(ईश्वर सदा है सर्वत्र है और सबमें है। उसी के कारण हमारा अस्तित्व है। इसी बात पर प्रकाश डालते हुए पूज्यश्री कह रहे हैं-)

कंकर, पत्थर और पहाड़ में ईश्वर के अस्तित्व की एक कला है – अस्तिपना। कंकर, पत्थर और पहाड़ों का चूरा करके बालू बना दो। बालू का भी चूरा कर दो फिर भी उसका अस्तित्व मौजूद रहता है। उसे भी हवा में फूँक मारकर उड़ा दो तो वह तुम्हारी आँखों से ओझल हो जाता है, लेकिन उसका कहीं-न-कहीं अस्तित्व तो रहता ही है।

परमेश्वर की दो कलाएँ प्रतीत होती हैं- अस्तिपना और भोजन ग्रहण करने की क्षमता। बीज है, पौधा है, पेड़ है…. बीज को बो दो तो पौधा है, पौधे को बड़ा करो तो पेड़ है, पेड़ को काट दो तो लकड़ी है, लकड़ी का फर्नीचर आदि बना दो तो कुर्सी आदि है, उसको जला दो तो कोयला है, कोयले को जला दो तो राख है, राख को कहीं डाल दो तो खाद है। उसका है पना नष्ट नहीं होता। पेड़ पौधों में अस्तिपना तो होता ही है, भोजन ग्रहण करने की कला भी होती है।

क्षुद्र जीव-जंतुओं में परमेश्वर की तीन कलाएँ विकसित होती हैं- है पना, भोजन ग्रहण करने की क्षमता और स्थानांतरण करने की शक्ति।

पशु-पक्षियों में इन क्षुद्र जंतुओं से अधिक भगवान की चार कलाएँ विकसित देखी जाती हैं। उपरोक्त तीन के अलावा चौथी है- अपने माता-पिता एवं घर-घरौंदे की पहचानने की क्षमता। हजार गौओं के बीच भी बछड़ा अपनी माँ को पहचान लेता है, लेकिन बछड़ा नया संबंध नहीं जोड़ सकता है। उपनिषदों का ज्ञान, शास्त्रों का पठन, गुरुमंत्र का रहस्य जानना इत्यादि पशुयोनि में समझना बड़ा असम्भव सा लगता है। हाँ, किसी की पाँचवीं कला विकसित हो जाये तो हो सकता है।

मनुष्यों में उपरोक्त चारों के अलावा पाँचवीं कला भी विकसित है कि वह नया संबंध जोड़ सकता है और उन संबंधों को जीवनभर अच्छी तरह से याद भी रख सकता है। बछड़ा माँ को पहचान लेता है लेकिन जवानी में माँ और अन्य रिश्तेदारों को रिश्तेदारों के रूप में नहीं  पहचानता है। कामविकार उत्पन्न होता है तो बछड़े को मानवीय मर्यादा जैसा ज्ञान नहीं रहता है लेकिन मनुष्य को संबंधों को पहचानने एवं नया संबंध स्थापित करने की पाँचवीं कला भी प्राप्त है।

मनुष्य अपनी असली संबंध परमात्मा के साथ है, इसे भी जान सकता है और भावना से भगवत्संबंध भी जोड़ सकता है। वह कई नये संबंध भी जोड़ सकता है, कई कल्पित संबंध तोड़ भी सकता है और परमात्मा के साथ अपने वास्तविक संबंध को पहचान सकता है। आत्मा का वास्तविक संबंध परमात्मा से है, इसको पहचानने की कला मनुष्य में है, मन से शाश्वत सच्चिदानंद से जुड़ने की कला मनुष्य में है।

यदि मनुष्य के जीवन में व्रत नियम है, एकादशी का व्रत करता है, जप-ध्यानादि करता है, संत महापुरुषों का सत्संग करता है तो धीरे-धीरे छठी, सातवीं आठवीं, नवमी कला विकसित करके दसों इन्द्रियों के आकर्षणों से पार परमात्म-अनुभव प्राप्त करके, दस कला का धनी हो जाता है, ब्रह्मवेत्ता-साक्षात्कारी पुरुष हो जाता है उसकी समता सर्वभूतहितरेता आदि पाँच कलाएँ और विकसित हो जाती हैं।

फिर भी यदि कोई और अधिक सामर्थ्य पाना चाहे तो योग-अभ्यास करके बाकी की छः कलाएँ भी प्राप्त कर सकता है। वेदों का पूर्ण ज्ञान, पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण यश, मृतक को जीवनदान देने का सामर्थ्य आदि छः भागवीय कलाएँ भी वह विकसित कर सकता है।

ब्रह्मज्ञानियों के जीवन में 10 कलाएँ विकसित होती हैं। श्रीरामजी के जीवन में 12 कलाएँ विकसित थीं और श्रीकृष्ण के जीवन में 16 कलाएँ विकसित थीं।

आप श्रीकृष्ण की नाईं 16 कलाएँ विकसित न करो तो कोई हरकत नहीं, श्रीराम की नाईं 12 कलाएँ विकसित न करो तो भी चल जायेगा लेकिन राजा जनक और परीक्षित की नाईं, मदालसा और गार्गी की नाईं कम-से-कम 10 कलाएँ तो विकसित कर लो। जिसकी 10 कलाएँ विकसित हो जाती हैं, वह मुक्तात्मा हो जाता है, महात्मा हो जाता है।

अपने जीवन में सर्वकला भरपूर प्रभु को जान लेने से मानव को चिंताएँ, दुःख, मुसीबत, शोक, भय, विषय-विकार आदि परेशान नहीं कर सकते, लेकिन उसे इस बात का पता ही नहीं कि उसका जन्म उस सर्वकला भरपूर प्रभु को जानने के लिए हुआ है।

हमें मनुष्य रूप में जन्म इसीलिए मिला है कि हम इस विनाशी शरीर में रहते हुए भी अविनाशी आत्मा को जानकर जीते-जी मुक्ति का अनुभव कर सकें। इस नश्वर शरीर में रहकर भी जीवन्मुक्त होकर विचरण करते हुए उस शाश्वत के गीत गायें।

लेकिन मनुष्य का बड़े-में-बड़ा दुर्भाग्य है कि संसार के भोग-विलास में फँसकर, जगत के बाह्य आकर्षणों में फँसकर, विषय-विकार में उलझकर, मोह-माया और अहंकार में फँसकर भवसागर में गोते खा रहा है। उस सर्वकला भरपूर प्रभु को न जानने के कारण यह जीव बेचारा निराश होकर मर जाता है। नानक जी ने कहा हैः

सर्वकला भरपूर प्रभु बिरथा जाननहार।

जाके सुमिरन उगरिये नानक तिस बलिहार।।

व्यर्थ में संसार की बातें करने-सुनने से राग और द्वेष बढ़ते हैं तथा  अहंकारवश जीव अपनी योग्यताएँ कुंठित कर लेता है। मिथ्या जगत के व्यवहार में तथा पद-प्रतिष्ठा के अभिमान में अपने स्व को न जानकर यह जीव बाजी हार जाता है।

संसार के मिथ्या व्यवहार के अभिमान में पड़कर ही रावण, कंस, हिटलर, सिकंदर आदि अभिमानी और अहंकारियों ने जीवन की बाजी हारी, लेकिन भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, बुद्ध, नानक, कबीर, शबरी, मीरा आदि ने अपने आत्मस्वरूप में जगकर जन्म-मरण के चक्र पर विजय पायी थी। वे लोग अपने-आपमें तो तृप्त रहे ही, साथ ही अपने सम्पर्क में आने वालों को भी तृप्त किया।

हमने आज तक ऐसा कहीं भी देखा या सुना नहीं है कि फलानी जगह पर रावण,कंस, हिटलर, सिकंदर के मंदिर हैं या उनके चित्र को लोग पूजते हैं। लेकिन भगवान श्रीराम के, श्रीकृष्ण के मंदिर सर्वत्र हैं, उनके तस्वीर की पूजा करने वाले तथा उनके भजन गाने वाले करोड़ों लोग आपको मिल जायेंगे।

बुद्ध, कबीर,नानक आदि को पूजने वाले तथा उनके गीत गाने वाले भी आपको कई मिल जायेंगे। थे तो वे भी हमारे जैसे मनुष्य शरीर में,लेकिन उन्होंने मानव-जीवन के लक्ष्य को जाना तथा उस दिशा में चल पड़े तो उस प्रभु को जानकर जीवन्मुक्त हो गये। नानक जी ने ठीक ही कहाः

सर्वकला भरपूर प्रभु बिरथा जाननहार।

जाके सुमिरन उगरिये नानक तिस बलिहार।।

जिस परमात्मा के सुमिरनमात्र से इस जीव का उद्धार हो जाता है, अंतःकरण पवित्र तथा निर्मल हो जाता है, भय और चिंताएँ दूर हो जाती हैं, रोगप्रतिकारक शक्ति का विकास हो जाता है तथा काम, क्रोध और लोभ नष्ट हो जाते हैं, ऐसे सर्वकला भरपूर परमात्मा पर मैं कुर्बान जाऊँ !

पृथ्वी पर सारे जीव-जंतु आदि की चेतनाशक्ति कहाँ से आती है ? फल-फूल में विटामिन पैदा करने की शक्ति कहाँ से आती है? जल में द्रवता तथा रस उत्पन्न करने की शक्ति कहाँ से आती है ? बच्चों के नाज़-नखरे, उनकी गंदगी, दुर्गन्ध को सहते हुए भी माता में उनके प्रति स्नेह एवं दुलार से सेवा करने की शक्ति कहाँ से आती है ? राजाओं में राज्य करने की समझ कहाँ से आती है ? और संतों में वक्तृत्व की तथा श्रोताओं में श्रोतृत्व की शक्ति कहाँ से आती है ? उसी सर्वकला भरपूर प्रभु से !

वह सर्वकला भरपूर प्रभु हमें भी कभी संसार से वैराग्य दिलाकर अपने ईश्वरीय मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। कभी सत्संग का प्रेम-प्रसाद चखाकर कभी ध्यान-भजन-कीर्तन का रस चखाकर अपने परमात्मरस में डुबाना चाहता है।

वह कितना दयालु है, कितना उदार है कितना धैर्यवान है ! जो हमें येन केन प्रकारेण अपने आत्मस्वरूप का प्रभाव देकर अपने ही स्वरूप में जगाना चाहता है, हमें अपने स्वरूप का दान करना चाहता है।

जब वह अपने स्वरूप का दान करने के लिए तैयार बैठा है तो हम देरी क्यों करें? पहुँच जायें ऐसे किन्हीं संत-महापुरुषों के चरणों में, जिन्होंने उस सर्वकला भरपूर प्रभु के स्वरूप को जाना है… उनके बताये मार्ग के अनुसार चलकर हम भी उस प्रभु को जानने में समर्थ हो सकते हैं जो सर्वकला भरपूर हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 3-5, अंक 108

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श्वासकला का महत्व


(श्वास के बिना जीवन सम्भव ही नहीं है। श्वास पर नियंत्रण करके मनुष्य अपनी आयु बढ़ा सकते हैं। सोनीपत (हरियाणा) की शिविर में इसी विषय पर प्रकाश डालते हुए पूज्य श्री कहते हैं-)

इज़राईल देश की बात हैः

एक ईसाई महिला पादरी के पास गयी। उसने कहाः

पादरी जी ! मैं मुसीबत में पड़ गयी हूँ। मैं अभी-अभी अखबार पढ़कर आपके पास आयी हूँ। मेरे पति को ईनाम में पाँच लाख डॉलर मिलने वाले हैं। उसने अपनी जिंदगी में कभी दस डॉलर भी साथ नहीं देखे हैं। वह यदि पाँच लाख डॉलर का ईनाम सुनेगा तो मर जायेगा। आप कृपा करिये।

पादरीः तुम फिकर मत करो। मैं तुम्हारे घर चलता हूँ। तुम्हारे पति नौकरी से कब लौटते हैं ?

महिलाः शाम को करीब 5.30 बजे।

पादरीः ठीक है, मैं 5.00 बजे तुम्हारे घर पहुँच जाऊँगा।

पादरी समय से उस महिला के घर पहुँच गया। उस महिला का पति आया। कुशलक्षेम पूछने के उपरांत पादरी ने कहाः

तुम्हें बधाई देने के लिए आया हूँ। तुम्हारी लाटरी लगी है।

पतिः कितने की लाटरी लगी है ?

पादरीः दस हजार डॉलर की।

पतिः अच्छा, दस हजार डॉलर ?

पादरी ने सोचा कि अब धीरे-धीरे अंक बढ़ाता जाऊँ। पादरी ने पुनः कहाः

नहीं, एक लाख डॉलर।

पतिः क्या सचमुच ?

पादरीः हाँ, सचमुच एक लाख डॉलर की लगी है।

पतिः यदि एक लाख डॉलर की लाटरी लगी है तो इसमें से पचास हजार डॉलर मैं आपको दे दूँगा।

पादरी को हुआ कि यह आधे डॉलर दान करने की बात कर रहा है तो क्यों न इसे असली रकम ही बता दूँ ? पादरी ने कहाः

नहीं, नहीं, वास्तव में तुम्हारी पाँच लाख डॉलर की लाटरी लगी है।

पतिः पाँ….च….ला…ख….डॉ….ल…..र….! इतना कहते ही उसका हार्टफेल हो गया।

संसार के विषयों में जीते-जीते हमारा अंतःकरण इतना दुर्बल हो जाता है कि हम न थोड़ा-सा दुःख झेल सकते हैं, न थोड़ा-सा सुख झेल सकते हैं। हर्ष से हृदय फैल जाता है और शोक से सिकुड़ जाता है। हृदय इतना आंदोलित हो जाता है कि जितना मानव को जीना चाहिए, उतना जी नहीं पाता और जल्दी मर जाता है, इसी को बोलते हैं-हार्टफेल।

तुम्हार हृदय जितना आंदोलित होता है उतनी तुम्हारी आयुष्य कम होती है। खरगोश और कबूतर एक मिनट में 38 श्वास खर्च करते हैं, वे अधिक से अधिक 8 साल जी सकते हैं। बंदर एक मिनट में 32 श्वास खर्च करता है, वह 10 वर्ष तक जी सकता है। कुत्ता एक मिनट में 29 श्वास खर्च करता है, वह भी 14 वर्ष तक जी सकता है। घोड़ा एक मिनट में 19 श्वास खर्च करता है, वह करीब 50 साल तक जी सकता है।

मनुष्य एक मिनट में 15 श्वास खर्च करे तो वह 100 साल तक जी सकता है। अगर आधि-व्याधि के कारण अधिक श्वास खर्च करता है तो उतनी जल्दी मरता है।

हाथी एक मिनट में 12 श्वास खर्च करता है, वह करीब 110 साल तक जीता है। सर्प एक मिनट में 8 श्वास खर्च करता है, वह 120 साल तक जी सकता है। कछुआ एक मिनट में केवल 5 श्वास खर्च करता है, वह 150 साल तक जी सकता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि हम जितने श्वास कम खर्च करते हैं उतनी आयुष्य लम्बी होती है। आयुष्य वर्ष पर निर्धीरित नहीं होती है, श्वास पर निर्धारित होती है। तुम जितने भोग में, चिंता में या हर्ष में ज्यादा जीते हो तो उतनी तुम्हारे श्वास की गति विषम होती है और जितना तुम समता में जीते हो उतनी श्वास की गति सम होती है।

जब तुम क्रोध में होते हो तब श्वास की रिदम (तालबद्धता) एक प्रकार की होती है। जब तुम प्रेम में होते हो तब श्वास की रिदम दूसरे प्रकार की होती है। जब तुम राम में होते हो तो श्वास की रिदम शांत होती है और जब काम में होते हो तो श्वास की रिदम कुछ दूसरे प्रकार की होती है।

यदि तुम को श्वासकला आ जाय, प्राणायाम की विधि आ जाय तो काम, क्रोध, लोभ आदि के समय जो रिदम चलती है उसे तुम बदल सकते हो। काम के समय तुम राम में जा सकते हो क्रोध के समय तुम शांत हो सकते हो, ऐसी कुंजियाँ ऋषियों ने दे रखी हैं। जरूरत है, केवल उस कला को जानने की।

हम जो श्वास लेते हैं वह अलग-अलग काम करने के कारण पाँच प्रकार में बँट जाती हैः प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान। इनका कार्य है आपके श्वासोच्छवास को सुव्यवस्थित करना और शरीर के अंगों को सुचारूरूप से चलाना।

प्राणवायु का स्थान अनहात केन्द्र है और उसका रंग पीला है। यह हृदय की धड़कनों को चलाने में सहायक होती है। अपानवायु का स्थान है मूलाधार केन्द्र और उसका रंग है नारंगी। यह शरीर का कचरा बाहर निकालने में सहायक होती है। बालक का जन्म भी अपानवायु के धक्के से होता है। उदानवायु का स्थान है विशुद्धाख्या केन्द्र और रंग है बैंगनी। उसमें आकर्षणशक्ति, अन्न जल आदि ग्रहण करने की शक्ति होती है। व्यानवायु का स्थान है स्वाधिष्ठान केन्द्र और उसका रंग है गुलाबी। यह शरीर में रक्त का संचार करता है और सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। समानवायु का स्थान मणिपुर केन्द्र है और उसका रंग सफेद है। यह सप्तधातुओं को ठीक रखता है और उन्हें परिपक्व करता है। इसीलिए जो रोगी होता है उसे मैं बताता हूँ कि सूर्य की किरणों में ऐसे बैठें कि किरणें नाभि पर पड़ें फिर श्वास लेकर भावना करें कि मैं निरोग हो रहा हूँ….। उसके बाद हरि ૐ…हरि ૐ…. का उच्चारण करें ताकि यह केन्द्र विकसित हो और सात रसों को ठीक से पचाये। इससे रोग के कीटाणु नष्ट होने में मदद मिलती है, नये कीटाणु नहीं बनते हैं और रोग मिट जाता है। इससे चमत्कारिक फायदा होता है।

सूर्य में जो सात रंग हैं वे ही रंग तुम्हारे केन्द्रों में काम करते हैं। जब तुम गहरे श्वास लेते हो तब बाकी के श्वास भी ठीक से काम करने की ऊर्जा पा लेते हैं। इससे स्वास्थ्य भी ठीक रहता है और मन भी ठीक रहता है।

कमजोर लोग या बूढ़े लोग बीमार पड़ते हैं तब चतुर व्यक्ति पूछता हैः आज कौन सी तिथि है ? अगर अमावस या पूनम निकट होती है तो वह कहता हैः अगर अमावस या पूनम निकाल ले तो बूढ़ा जी लेगा। क्योंकि एकम्, दूज, तीज को तुम्हारी प्राणशक्ति सूर्य की किरणों से और वातावरण से विशेष ऊर्जा ले आती है। ज्यो-ज्यों तिथियाँ आगे बढ़ती हैं त्यों-त्यों तुम्हारी प्राणशक्ति कम होती जाती है। श्मशान के रजिस्टर से भी पता चलता है कि बड़ी उम्र वाले उन्हीं दिनों में अधिक मरते हैं।

जिनकी उम्र ज्यादा हो, जिन्हें ऊर्जा ज्यादा न मिलती हो, वे लोग प्रातः पानी प्रयोग के साथ में यह प्रयोग करें- एक लहसुन के तीन टुकड़े कर दें। एक टुकड़े को कुचलकर एक गिलास पानी में डालकर पी लें, दूसरे टुकड़े को दूसरे गिलास पानी में एवं तीसरे टुकड़े को तीसरे गलास पानी में डाल कर पी लें। इससे कई बीमारियाँ मिटती हैं और ऊर्जा बनती है, किंतु लहसुन में एक घाटा है कि इसके सेवन से स्वभाव में क्रोध बढ़ जाता है। इसलिए औषधिरूप में अत्यंत कम मात्रा में सेवन करें।

कई बार श्वास की रिदम बदलने से भी लाभ होता है। चतुर माताएँ जानती हैं कि बच्चा जब रोता है और खिलौने अथवा मीठी गोली से भी चुप नहीं होता है तब माँ उसे खुली हवा में ले आती है और थोड़ा उछालती है, कुदवाती है, इससे बच्चे का रोना तुरन्त बन्द हो जाता है। इसका कारण क्या है कि बच्चे की श्वास की रिदम बदल जाती है, उसका मनोभाव बदल जाता है और वह सुखी हो जाता है।

तुम्हारे जीवन में भी कभी दुःख या अशांति आ जाय तब किसी जलाशय के पास चले जाओ, हाथ पैर और मुँह धो लो तथा पंजे के बल से थोड़ा कूद लो। इससे तुम्हारे प्राणों की रिदम बदलेगी और अशांत विचारों में परिवर्तन आ जायेगा। निराशा-हताशा भाग जायेगी। मन प्रसन्न होने लगेगा। एवं शांति बढ़ने लगेगी।

प्राण अगर तालबद्ध चलने लग जायें तो सूक्ष्म बनेंगे। श्वास अगर तालबद्ध होगा तो दोष  अपने-आप दूर हो जायेंगे। अशांति अपने आप दूर होने लगेगी।

इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है। योगियों का कहना है कि अगर प्राण पर पूरा प्रभुत्व आ जाय तो तुम चन्द्र और सूर्य को गेंद की तरह अपनी इच्छा के अनुसार चला सकते हो, नक्षत्रों को अपनी जगह से हिला सकते हो ! पूर्वकाल में सती शांडिली ने सूर्य की गति को रोक दिया था।

प्राण सूक्ष्म होते हैं, प्राणायाम के अभ्यास से। जिसने अभ्यास करके प्राणों पर नियंत्रण पाकर मन को जीत लिया है, उसने समझो सब कुछ जीत लिया है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 8-10, अंक 108

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शीत ऋतु में आहार-विहार


मुख्य रूप से तीन ऋतुएं हैं- शीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु और वर्षा ऋतु। आयुर्वेद के मतानुसार छः ऋतुएँ मानी गयी हैं- वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर। महर्षि सुश्रुत ने वर्ष के 12 मास इन ऋतुओं में विभक्त कर दिये हैं।

शीत ऋतु विसर्गकाल और आदानकाल की संधिवाली ऋतु होती है। विसर्गकाल दक्षिणायन में और आदानकाल उत्तरायण में होता है।

आयुर्वेद-शास्त्र के अनुसार दक्षिणायन में वर्षा, शरद और हेमन्त ऋतुएँ होती हैं, इसे विसर्गकाल बोलते हैं। इस काल में चन्द्र का बल अधिक और सूर्य का बल क्षीण रहता है। इससे प्राणियों का रस पुष्ट होने से बल बढ़ता है।

उत्तरायण में शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म ऋतुएँ होती हैं। इस काल में सूर्य का बल अधिक होता है। अतः सूर्य की किरणें क्रमशः प्रखर और बलवान होती जाती हैं और सबका जलीय अंश खींच लेती हैं। इसे आदानकाल कहा है।

इस प्रकार शीतकाल आदानकाल और विसर्गकाल दोनों का सन्धिकाल होने से इनके गुणों का लाभ लिया जा सकता है क्योंकि विसर्गकाल की पोषक शक्ति हेमन्त ऋतु में हमारा साथ देती है, साथ ही शिशिर ऋतु में हमारा साथ देती है, साथ ही शिशिर ऋतु में आदानकाल शुरु हो जाता है लेकिन सूर्य की किरणें एकदम से इतनी प्रखर भी नहीं होती कि रस सुखाकर हम शोषण कर सकें। अपितु आदानकाल का प्रारम्भ होने से सूर्य की हल्की और प्रारम्भिक किरणें सुहावनी लगती हैं।

वैसे तो उचित आहार लेना प्रत्येक ऋतु में जरूरी होता है पर शीत ऋतु में अनिवार्य हो जाता है क्योंकि शीतकाल में जठराग्नि बहुत प्रबल रहती है। अतः, समय पर उसकी पाचक क्षमता के अनुरूप उचित मात्रा में आहार मिलना ही चाहिए अन्यथा शरीर को हानि होगी।

क्षेम कुतूहल शास्त्र में आता हैः

आहारान् पचतिशिखि दोषानाहारवर्जितः।

दोषक्षये पचेद्धातून प्राणान्धातुक्षये तथा।।

अर्थात् पाचक अग्नि आहार को पचाती है। यदि उचित समय पर, उचित मात्रा में आहार न मिले तो आहार के अभाव में शरीर में मौजूद दोषों के नष्ट हो जाने पर यह अग्नि शरीर की धातुओं को जला डालने के बाद, प्राणों को जला डालती है, यानी प्राणों का नाश कर देती है। जैसे, चूल्हे में खूब आग धधक उठे और उस पर आपने खाली बर्तन चढ़ाया तो बर्तन ही जलकर  काला पड़ जायेगा। यदि उसमें पदार्थ और जल की मात्रा कम होगी तो भी पदार्थ और जल, जलकर नष्ट हो जायेंगे। अतः पर्याप्त मात्रा में उचित समय पर पौष्टिक और बलवर्धक आहार न दिया जाय तो शरीर की धातुएँ ही जलकर क्षीण होने लगेंगी। यही कारण है कि भूख सहने वालों का शरीर क्षीण और दुर्बल होता जाता है क्योंकि भूख की आग उनके शरीर को ही जलाती रहती है।

अतः शीतकाल में जरूरी है कि समय पर नियमित रूप से अपनी पाचन शक्ति के अनुसार अनुकूल मात्रा में पोषक तत्वों से युक्त आहार खूब चबा-चबाकर खाना चाहिए। इस ऋतु में स्निग्ध (चिकने) पदार्थ, मौसमी फल व शाक, घी, दूध, शहद आदि के सेवन से शरीर को पुष्ट और बलवान बनाना चाहिए। कच्चे चने रात को भिगोकर प्रातः खूब चबा-चबाकर खाना, गुड़, गाजर, केला, शकरकंद, सिंघाड़े, आँवला आदि कम खर्च में सेवन किये जाने वाले पौष्टिक पदार्थ है।

इस ऋतु में तेलमालिश करना, प्रातः दौड़ लगाना, शुद्ध वायुसेवन हेतु भ्रमण करना, व्यायाम, योगासन करना, ताजे या कुनकुने जल से स्नान करना आदि करने योग्य उचित विहार हैं।

शीत ऋतु में ध्यान देने योग्य

इस ऋतु में कटु, तिक्त व कषाय रसयुक्त एवं वातवर्धक पदार्थ, हल्के रूखे एवं अति शीतल पदार्थ का सेवन नहीं करना चाहिए। खटाई का अधिक प्रयोग न करें जिससे कफ का प्रकोप न हो और खाँसी, श्वास, दमा, नजला, जुकाम आदि व्याधियाँ न हों। ताजे दही, छाछ, नीँबू आदि का सेवन कर सकते हैं। भूख को मारना या समय पर भोजन न करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। आलस्य करना, दिन में सोना, देर रात तक जगना, अति ठंड सहन करना आदि शीत ऋतु में वर्जित हैं। बहुत ठंडे जल से स्नान नहीं करना चाहिए।

पूरे वर्ष में यही समय हमें मिलता है जब प्रकृति हमें स्वास्थ्य की रक्षा और वृद्धि करने में सहयोग देती है। अतः इस ऋतु में उचित आहार-विहार द्वारा अपने शरीर को पुष्ट और बलवान अवश्य बनाना चाहिए जिससे कि अन्य ऋतुओं में भी हमारा शरीर बलवान बना रह सके।

स्वास्थ्य की अनुपम कुंजियाँ

क्या आप जानते हैं कि,

किसी भी प्रकार के रोग में मौन रहना लाभदायक है। इससे स्वास्थ्य सुधार में मदद मिलती है। औषधि-सेवन के साथ मौन का अवलम्बन हितकारी है।

रात्रि 10 बजे से प्रातः 4 बजे तक की गाढ़ निद्रा से ही आधे रोग ठीक हो जाते हैं। ‘अर्धरोग हरि निद्रा’।

बिना भूख के खाना रोगों को आमंत्रित करना है। कोई कितना भी आग्रह करे या आतिथ्यवश खिलाना चाहे पर आप सावधान रहें। पेट पर अन्याय न करें। खिलाने वाला भले अविवेकपूर्वक या रागवश खिलाना चाहे पर ध्यान रहे की पेट आपका है। पचाना आपको है।

एक बार किया हुआ भोजन जब तक पूरी तरह पच न जाये एवं खुलकर भूख न लगे तब तक भोजन करें।

कोई भी पेय पीना हो तो इड़ा नाड़ी अर्थात् नाक का बाँया स्वर चालू होना चाहिए। यदि दाँया स्वर चालू हो और पेय पदार्थ पीना आवश्यक जान पड़े तो दाँया नथुना दबाकर बाँये नथुने से श्वास लेते हुए पीयें।

भोजन या कोई भी खाद्य पदार्थ सेवन करते समय पिंगला नाड़ी अर्थात् सूर्य स्वर चालू रहना हितकर है। यदि न हो तो थोड़ी देर दाँयी करवट लेटकर या कपड़े की छोटी पोटली बाँयीं काँख में दबाकर स्वर चालू किया जा सकता है।

चाय या कॉफी प्रातः खाली पेट कभी न पीयें। दुश्मन को भी न पिलायें।

एक सप्ताह से अधिक पुराने आटे का उपयोग स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है।

सूर्योदय के बाद तक बिस्तर पर पड़े रहना अपने स्वास्थ्य की कब्र खोदना है।

प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाना, सुबह शाम खुली हवा में टहलना स्वास्थ्य की कुंजी है।

दीर्घायु व स्वस्थ जीवन के लिए प्रातः कम-से-कम 5 मिनट तक लगातार तेज दौड़ना या चलना तथा कम से कम 15 मिनट नियमित योगासन करना चाहिए।

भोजन कम-से-कम 20-25 मिनट तक खूब चबा-चबाकर एवं उत्तर या पूर्वाभिमुख होकर करें। जल्दी या अच्छी तरह चबाये बिना भोजन करने वाले चिड़चिड़े व क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं।

साँईं श्री लीलाशाह जी उपचार केन्द्र, सूरत।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 108

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