विद्यार्थियों के उज्जवल भविष्य निर्माण में अभिमान एक बहुत बड़ी बाधा है। यह विद्यार्थियों की योग्यताओं का नाश करने वाला दुर्गुण है। मनुष्य में अहंकार का आना पतन का सूचक है। अभिमान नासमझी से उत्पन्न होता है और विचार करने से घड़ी भर भी नहीं टिक सकता।
किसी विद्यार्थी को कक्षा में कोई चीज समझ में नहीं आयी तो वह अभिमान के कारण ही दूसरे से सहायता लेने में हिचकता है। संकोचवश वह शिक्षक से भी नहीं पूछता और परीक्षा में सटीक जवाब नहीं दे पाता। और कोई विद्यार्थी कड़ी मेहनत से पढ़ाई करता है एवं अच्छे अंक प्राप्त करता है तो छाती चौड़ी करता है कि उसके समान तीव्र बुद्धिवाला कोई अन्य छात्र नहीं है। यह भी अभिमान है। फलतः आगे चलकर इसी मिथ्याभिमान के कारण उसकी मेहनत में कमी आ जाती है और वह लक्ष्य से भटक जाता है। हर जगह अभिमान कर्ता को गिराता ही है।
दोस्तों की सस्ती वाहवाही लूटने हेतु किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाना, न चाहते हुए भी दोस्तों के दबाव और बहकावे में आ जाना, जोश में होश खोकर गलत काम कर बैठना – ये अभिमान के ही छद्म रूप हैं। ‘मुझमें अभिमान नहीं, यह भी अभिमान है। यह बहुत ही सूक्ष्म होता है, इतना सूक्ष्म कि ईश्वर के बाद इसी के नम्बर है। इसके बहुत रूप हैं। अभिमान, अहंकार, मैं-मेरा, तू-तेरा ही तो पतनकारी वृत्तियाँ हैं। संत तुलसीदास जी कहते हैं-
मैं अरू मोर तोर तैं माया।
जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया।। (श्री रामचरित. अरं.कां. 14.1)
अभिमान और अहंकार माया है, जिसके वशीभूत होकर जीव नष्ट हो जाता है। यही माया मानव-मन में शारीरिक सुख की तीव्र कामना पैदा करती है। इसी सुख को पाने के लिए एवं इसे पाने के मार्ग के विघ्नों को हटाने के लिए व्यक्ति कोई भी पापकर्म करने के लिए तैयार हो जाता है। इसलिए ‘श्री रामचरितमानस’ (उ.कां. 73.3) में आता है-
सकल सोक दायक अभिमाना।
समस्त दुःखों को देने वाला अभिमान है।
‘विदुर नीति’ में भी आता है कि ‘अभिमान सर्वस्व को नष्ट कर देता है।’
जो बहुत घमण्ड करते हैं वे अपने ही घमंड के कारण गिरते हैं। इसलिए किसी को घमंड नहीं करना चाहिए। यही हार का, पतन का कारण है।
भगवान सब कुछ सह लेते हैं पर भक्त का अहंकार नहीं। अहंकार न रावण का बचा न कंस का और न कौरवों का, न हिटलर न सिकंदर का बचा। संसार में कुछ भी अभिमान करने योग्य नहीं है क्योंकि जिस चीज का अभिमान किया जा रहा है उससे श्रेष्ठ चीज अनेक लोगों के पास है। अभिमान परमात्म-प्राप्ति के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है। अतः निराभिमानिता को जीवन में लाइये। निराभिमानिता आयेगी सत्संग सुनने और मनन करने से तथा ब्रह्म ज्ञानी महापुरुषों के दैवी सेवाकार्यों में विनयपूर्वक सहभागी होने से। विवेकपूर्ण विनय चित्त से अहंकार का उन्मूलन करके आत्मप्रसाद का बीजारोपण करता है। जिसका अहं मिट जाता है उसका चित्त परमात्मा में स्थिर हो जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 15, अंक 287
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