संसार की वासना छोड़ना कठिन है तो क्या वह पूरी करना आसान है ? नहीं, संसार को पाना कठिन है । मैं तो कहता हूँ कि भगवान को पाना कठिन लगता है लेकिन संसार को पाना असम्भव है । लगता है कि पा लिया, पा लिया, पा लिया…. पर आ-आ के चला जाता है, ठहरेगा नहीं । भगवान को छोड़ना असम्भव है । जिसको छोड़ना असम्भव है उससे प्रीति करके उसको ठीक से पहचानो और जिसको पाना असम्भव है उससे ममता हटाकर उसका सदुपयोग करो, बस हो गया काम । तो जहाँ से मन को हटाना चाहते हैं उसको नापसंद कर दो और जहाँ लगाना चाहते हैं उसको पसंद कर लो – एक बात । दूसरी बात – अपने में जो कमियाँ दिखती हैं ‘वे अपने में हैं’ ऐसा मानने की गलती न करो, मन में है, बुद्धि में है, शरीर में है.. उनको निकालने के लिए सत्संग का आश्रय लो, सत्प्रवृत्ति का आश्रय लो । सत्संग और सत्प्रवृत्ति में लगेंगे तो कुसंग और कुप्रवृत्ति से जो गलतियाँ हो रही हैं उनसे बचाव हो जायेगा ।
जो नहीं कर सकते हैं अथवा जिसको किये बिना चल सकता है उससे अपने को बचा लो । और जहाँ ममता फँसी है – पैसे में, पत्नी में, शरीर में…. वहाँ से उसे ऐसे नहीं मिटा सकते, ममता से ममता हटेगी । तो भगवान में ममता रख दो – ‘जो चेतन है वह मेरा है, जो ज्ञानस्वरूप है वह मेरा है, जो सुखस्वरूप है, साक्षीस्वरूप है, अविनाशी है, अमर है वह मेरा है, जो नित्य है, जो चिद्घन चैतन्य है वह मेरा है, जो कभी न बदले वह मेरा है, जो आनंदस्वरूप है, प्रेमस्वरूप है वह मेरा है, कीट-पतंग के अंदर जिसकी चेतना खिलवाड़ कर रही है वह मेरा है । ॐ’….’
‘घर मेरा है, बेटा मेरा है, 10-20 मेरे हैं…’ ऐसी सीमित ममता क्यों, यहाँ तो करोड़ों मेरे हैं, ऐसा कर ले न भाई ! ममता का विस्तार कर ले । अपना जहाँ मिलता है वहाँ मजा आता है – अपना बेटा मिल गया, अपना परिचित मिल गया – पति, पत्नी, मित्र पैसा या अपनी चाही वस्तु मिल गयी तो आनंद आता है ।
तो अपना तो वही परमात्मा है और जब वह जहाँ-तहाँ मिलने लग जायेगा यानी सभी को गहराई में जब अपने प्रिय परमात्मा को देखने की दृष्टि बन जायेगी तो आपका अविकम्प योग हो जायेगा । जब ध्यान में बैठोगे तो मन एकाग्र और ध्यान खुला तो अभी जैसा बताया वैसा भगवद्-चिंतन…. बड़ा आसान तरीका है, बड़ा सरल तरीका है ! नदी बह रही है, उधर ही नदी के पानी के साथ चलते-चलते जाओ, आप न चाहो तो भी समुद्र आ जायेगा । ऐसे ही आप ऐसा चिंतन करो तो तो आप न चाहो तो भी भगवान मिल जायेंगे ।
चित्त चेतन को ध्यावे तो चेतनरूप भयो है ।
शत्रु का चिंतन करने से मन गंवा होता है, अशुभ का चिंतन करने से अशुभ होता है, शुभ का चिंतन करने से शुभ होता है और भगवान का चिंतन करने से मन भगवन्मय हो जाता है । अभद्र में भद्र का चिंतन करो, अशुभ में भी शुभ की गहराई देखो, अमंगल में भी मंगल को देखो । क्या जरा-जरा बात में फरियाद ! क्या जरा-जरा बात में दुःखी होना ! क्या जरा-जरा बात में इच्छा का गुलाम बनना ! ‘ठीक है, इसका बढ़िया मकान है तो उस बढ़िया मकान में जो रह रहा है वहाँ भी वही रह रहा है, यहाँ भी वही रह रहा है । ॐ….’ खुशी मनाओ, आनंद लो । अपना मकान बन जाय तो बन जाय लेकिन दूसरे का बढ़िया मकान देखकर ईर्ष्या न करो, वासना न करो । प्रारब्ध में होगा, थोड़ा पुरुषार्थ होगा… हो गया तो हो गया बस !
चिंतन की धारा ऊँची कर दो, उद्देश्य ऊँचा कर लो, संग ऊँचा कर लो, प्राप्ति ऊँची हो जायेगी आप न चाहो तो भी ! परमात्म-चिंतन, परमात्म-अनुभव का उद्देश्य और उद्देश्य के अनुकूल संग कर लो तो न चाहने पर भी परमात्म-अनुभव हो जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 338
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