चमत्कार का रहस्य

चमत्कार का रहस्य


(पूज्य बापू जी के सत्संग से)

संत एकनाथ जी महाराज के पास एक बड़े अद्भुत दण्डी संन्यासी आया करते थे । एकनाथ जी उन्हें बहुत प्यार करते थे । वे संन्यासी यह मंत्र जानते थेः

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।

ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!

और इसको ठीक से पचा चुके थे । वे पूर्ण का दर्शन करते थे सबमें । कोई भी मिल जाय तो मानसिक प्रणाम कर लेते थे । कभी बाहर से भी दण्डवत् कर लेते थे ।

एक बार वे दण्डी संन्यासी बाजार से गुजर रहे थे । रास्ते में कोई गधा मरा हुआ पड़ा था । ‘अरे, क्या हुआ ? कैसे मर गया ?’ – इस प्रकार की कानाफूसी करते हुए लोग इकट्ठे हो गये । दण्डी संन्यासी की नज़र भी मरे हुए गधे पर पड़ी । वे आ गये अपने संन्यासीपने में । ‘हे चेतन ! तू सर्वव्यापक है । हे परमात्मा ! तू  सब में बस रहा है ।’ – इस भाव में आकर संन्यासी ने उस गधे को दण्डवत प्रणाम किये । गधा जिंदा हो गया ! अब इस चमत्कार की बात चारों ओर फैल गयी तो लोग दण्डी संन्यासी के दर्शन हेतु पीछे लग गये । दण्डी संन्यासी एकनाथ जी के पास पहुँचे । उनके दिल में एकनाथ जी के लिए बड़ा आदर था । उन्होंने एकनाथ जी को प्रार्थना कीः “…..अब लोग मुझे तंग कर रहे हैं ।”

एकनाथ जी बोलेः “फिर आपने गधे को जिंदा क्यों किया ? करामात करके क्यों दिखायी ?”

संन्यासी ने कहाः “मैंने करामात दिखाने का सोचा भी नहीं था । मैंने तो सबमें एक और एक में सब – इस भाव से दण्डवत किया था । मैंने तो बस मंत्र दोहरा लिया कि ‘हे सर्वव्यापक चैतन्य परमात्मा ! तुझे प्रणाम है ।’ मुझे भी पता नहीं कि गधा कैसे जिंदा हो गया !”

जब पता होता है तो कुछ नहीं होता, जब तुम खो जाते हो तभी कुछ होता है । किसी मरे हुए गधे को जिंदा करना, किसी के मृत बेटे को जिंदा करना – यह सब किया नहीं जाता, हो जाता है । जब अनजाने में चैतन्य-तत्त्व के साथ एक हो जाते हैं तो वह कार्य फिर परमात्मा करते हैं । इसी प्रकार संन्यासी अपने चैतन्य के साथ एकाकार हो गये तो वह चमत्कार परमात्मा ने कर दिया, संन्यासी ने वह कार्य नहीं किया ।

लोग कहते हैं- ‘आसाराम बापू जी ने ऐसा-ऐसा चमत्कार कर दिया ।’ अरे, आसाराम बापू नहीं करते, जब हम इस वैदिक मंत्र के साथ एकाकार होकर उसके अर्थ में खो जाते हैं तो परमात्मा हमारा कार्य कर देते हैं और तुमको लगता है कि बापू जी ने किया । यदि कोई व्यक्ति या साधु-संत ऐसा कहे कि यह मैंने किया है तो समझना कि या तो वह देहलोलुप है या अज्ञानी है । सच्चे संत कभी कुछ नहीं करते ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘ज्ञानी की दृष्टि उस तत्त्व पर है इसलिए वे तत्त्व को सार और सत्य समझते हैं । तत्त्व की सत्ता से जो हो रहा है उसे वे खेल समझते हैं ।

हर मनुष्य अपनी-अपनी दृष्टि से जीता है । संन्यासी की दृष्टि ऐसी परिपक्व हो गयी थी कि गधे में चैतन्य आत्मा देखा तो वास्तव में उसके शरीर में चैतन्य आत्मा आ गया और वह जिंदा हो गया । तुम अपनी दृष्टि को ऐसी ज्ञानमयी होने दो तो फिर सारा जगत तुम्हारे लिए आत्ममय हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2009, पृष्ठ संख्या 26 अंक 202

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