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परम सत्ता पर निर्भरता होने से होता रोग-निवारण – परमहंस
योगानंद जी



उस परम सत्ता की शक्ति को निरंतर विश्वास और अखंड प्रार्थना
से जगाया जा सकता है । आपको उचित आहार लेना चाहिए और शरीर
की उचित देखभाल के लिए जो भी करना आवश्यक है वह अवश्य करना
चाहिए । परंतु इससे भी अधिक भगवान से निरंतर प्रार्थना करनी
चाहिएः ‘प्रभु ! आप ही मुझे ठीक कर सकते हैं क्योंकि प्राणशक्ति के
अणुओं को और शरीर की सूक्ष्म अवस्थाओं को, जिन तक कोई डॉक्टर
कभी अपनी औषधियों के साथ पहुँच ही नहीं सकता, उन्हें आप ही
नियंत्रित करते हैं ।’
औषधियों और उपवास के बाह्य घटकों का शरीर में लाभप्रद
परिणाम उत्पन्न होता है परंतु वे उस आंतरिक शक्ति पर कोई प्रभाव
नहीं डाल सकते जो कोशिकाओं को जीवित रखती है । केवल जब आप
ईश्वर की ओर मुड़ते हैं और उसकी रोग-निवारक शक्ति को प्राप्त करते
हैं तभी प्राणशक्ति शरीर की कोशिकाओं के अणुओं में प्रवेश करती है
और तत्क्षण रोग-निवारण कर देती है । क्या आपको ईश्वर पर अधिक
निर्भर नहीं होना चाहिए ?
परंतु भौतिक पद्धतियों पर निर्भरता छोड़कर आध्यात्मिक
पद्धतियों पर निर्भर होने की प्रक्रिया धीरे-धीरे होनी चाहिए । यदि कोई
अति खाने की आदतवाला मनुष्य बीमार पड़ जाता है और मन के द्वारा
रोग को हटाने के इरादे से अचानक उपवास करना शुरु कर देता है तो
सफलता न मिलने पर हतोत्साहित हो सकता है । अन्न पर निर्भरता की
विचारधारा को आत्मसात् करने में समय लगता है । ईश्वर की रोग

निवारक शक्ति के प्रति ग्रहणशील बनने के लिए पहले मन को ईश्वर
की सहायता में विश्वास होना चाहिए ।
उस परम सत्ता की शक्ति के कारण ही समस्त आणविक ऊर्जा
कम्पायमान है और जड़ सृष्टि की प्रत्येक कोशिका को प्रकट कर रही है
और उसका पोषण भी कर रही है । जिस प्रकार सिनेमाघर के पर्दे पर
दिखने वाले चित्र अपने अस्तित्व के लिए प्रोजेक्शन बूथ से आने वाली
प्रकाश-किरणों पर निर्भर होते हैं उसी प्रकार हम सब अपने अस्तित्व् के
लिए ब्रह्मकिरणों पर निर्भर हैं, अनंतता के प्रोजेक्शन बूथ से निकलने
वाले दिव्य प्रकाश पर निर्भर हैं । जब आप उस प्रकाश को खोजेंगे और
उसे पा लेंगे तब आपके शरीर की समस्त अव्यवस्थित कोशिकाओं की,
अणुओं, विद्युत अणुओं एवं जीव अणुओं की पुऩर्रचना करने की उसकी
असीम शक्ति को आप देखेंगे । उस परम रोग-निवारक के साथ सम्पर्क
स्थापित कीजिये । (एकाकार होइये )।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2023, पृष्ठ संख्या 20 अंक 363
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ऐसा होता है उत्तम श्रद्धालु


सात्त्विक, शुद्ध श्रद्धावाले व्यक्ति ही सर्वोत्तम श्रद्धालु हैं । उत्तम श्रद्धालु का पथ-प्रदर्शन सद्गुरुदेव ही करते है और ये श्रद्धालु सर्वभावेन (सब प्रकार से) सद्गुरुदेव के ही आश्रित होकर रहते हैं इसीलिए श्रद्धालु सदा निर्भय, निश्चिंत होते हैं ।

श्रद्धालु के हृदय में सद्गुरुदेव के अतिरिक्त और किसी को स्थान नहीं मिलता । वह सरलता एवं सद्भाव पूर्वक अपना पूरा जीवन सद्गुरु के हाथों में देकर अपना सब कुछ सुरक्षित और सार्थक समझता है ।

गुरुदेव की वाणी सुनने के लिए श्रद्धालु की सभी इन्द्रियाँ मौन (चंचलतारहित) रहती हैं, मन भी शांत रहता है और बुद्धि सावधानी से गुरुप्रदत्त ज्ञान को ग्रहण करती है । श्रद्धालु अपने हानि-लाभ, पतन-उत्थान की चिंता नहीं करता । जो कुछ आता है उनकी इच्छा समझकर स्वीकार करता है, जो कुछ जाता है उसे भी  उनकी इच्छा समझ के जाने देता है और जो कुछ नहीं भी मिलता उसे भी उन्हीं के रुचि में छोड़ते हुए संतुष्ट रहता है ।

श्रद्धालु निरंतर अपने श्रद्धास्पद की अदृश्य शक्ति को अपने साथ अनुभव करता है और अपनी रक्षा के विषय में निश्चिंत रहता है । श्रद्धालु का शरीर कहीं भी रहे परंतु वह हृदय से अपने आराध्य को दृढ़ता से पकड़े रहता है । उसकी बुद्धि में उन्हीं का ज्ञान रहता है, मन में उन्हीं के सद्भाव रहते हैं, तदनुसार प्रत्येक क्रिया सद्भावानुरक्षित होने के कारण सुंदर फल देती है परंतु श्रद्धालु प्रत्येक प्राप्त फल को श्रद्धास्पद की सेवा में निवेदित करते हुए ही संतुष्ट रहता है ।

श्रद्धालु अपने प्रभु के प्रेम से इस प्रकार धनी होता है और कुछ चाहता ही नहीं, उसमें अभाव का ही अभाव हो जाता है । वह अटूट धैर्य एवं सुंदर भाव की गम्भीरता में दृढ़ रहकर श्रद्धास्पद के दर्शाये हुए सत्य लक्ष्य (परमात्मप्राप्ति) की ओर बढ़ता जाता है । श्रद्धालु पग-पग पर अपने प्रभु की दया का अनुभव करता है, वह दया की याचना नहीं करता । वह जिधर देखता है, उनकी दया से ही अपने को सुरक्षित पाता है । जिस प्रकार भीतर से संसार से पूर्ण विरक्त और सत्य से पूर्ण अनुरक्त संत-सत्पुरुष कहीं-कहीं दिखाई देते हैं, उसी प्रकार संसार में उत्तम श्रद्धावाले प्रेमी, जिज्ञासु भी कहीं-कहीं मिलते हैं ।

जिसका अंतःकरण सरल एवं शुद्ध है उसी में सात्त्विक श्रद्धा प्रकाशित होती है । संत-सद्गुरु की समीपता में रहकर जो उनकी आज्ञानुसार सदाचरणरूपी सेवा करता है, उसी की श्रद्धा सात्त्विक होती है । जो स्वच्छंद, स्वेच्छाचारी नहीं होता, जो अपने श्रद्धेय प्रभु की सेवा में अपनी रुचि-विरुचि कुछ भी नहीं सोचता, उसी की सर्वोत्तम श्रद्धा होती है ।

अपनी सेवाओं का मूल्य नहीं चाहना, फल की आशा नहीं रखना – यही उत्तम श्रद्धालु में त्याग होता है । अपने प्रभु के संकेतानुसार चलने में कही भी आलस्य न करना और कर्तव्यपालन में प्रमादी न होना, सदा प्रसन्न रहकर सेवा-धर्म में तत्पर रहना – यही उत्तम श्रद्धालु का तप है । इस प्रकार के त्याग और तप से उत्तम श्रद्धालु पवित्रता एवं शक्ति से सम्पन्न होता है ।

जो उत्तम श्रद्धालु अपनी बुद्धिमत्ता का गर्व नहीं करते और सदा अपने प्रभु के सम्मुख अपनी बुद्धि को निष्पक्ष रख सकते हैं, जो विनम्र और दयालु हो के, क्षमावान और सहनशील हो के सभी प्राणियों पर हितदृष्टि रखते हुए शुद्ध व्यवहार करते हैं, वे ही यथार्थ ज्ञानी होते हैं । उत्तम श्रद्धालु जगत की वस्तुओं के वास्तविक रूप को जान लेते हैं अतएव वे मोही नहीं होते । वे स्वार्थलोलुप भी नहीं होते इसीलिए रागी अथवा द्वेषी नहीं होते वरन् पूर्ण प्रेमी होते हैं और इसी कारण उत्तम श्रद्धालु पूर्ण तृप्त होते हैं ।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्धवा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति ।।

‘श्रद्धावान, आत्मज्ञानप्राप्ति के साधनों में लगा हुआ और जितेन्द्रिय पुरुष आत्मज्ञान को प्राप्त करता है तथा आत्मज्ञान को प्राप्त करके वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त हो जाता है ।’ (गीताः 4.31)

आप जितना चाहें उतने महान हो सकते हैं – पूज्य बापू जी

आपके अंदर ईश्वर की असीम शक्ति पड़ी है । वटवृक्ष का बीज छोटा दिखता है, हवा का झोंका भी उसको इधर-से-उधर उड़ा देता है किंतु उसी बीज को अवसर मिल जाय तो वह वृक्ष बन जाता है और सैंकड़ों पथिकों को आराम कराने की योग्यता प्रकट हो जाती है, सैंकड़ों पक्षियों को घोंसला बनाने का अवसर भी वह देता है । ऐसे ही जीवात्मा में बीजरूप से ईश्वर की सब शक्तियाँ छुपी हैं, यदि उसको सहयोग (ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सत्संग-सान्निध्य आदि) मिले तो जितन ऊँचा उठना चाहे, जितना महान होना चाहे उतना वह हो सकता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 12 अंक 342

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ऐसे महापुरुष में श्रद्धा हो तो कल्याण हो जाय


महापुरुषों के दर्शन, सत्संग, चिंतन से शांति मिलती है,  पाप, पाप-वासनाएँ  पलायन और पुण्य, पुण्य-प्रवृत्तियाँ शुरु होने लगती हैं । उनके संग (सत्संग-सान्निध्य) से उनके अनेक गुण-सरलता, शांति, आनंद, समता, ज्ञान, वैराग्य, उपरामता आदि स्वतः ही हमारे में आ जाते हैं । जिसमें जितनी श्रद्धा होगी वह उनता ही महापुरुषों के गुणों को ग्रहण करने की योग्यता का अधिकारी होता है ।

जहाँ महापुरुष विराजमान होते हैं वहाँ उनके ज्ञान का प्रभाव पड़ता है । वहाँ यदि पापी पुरुष बैठा होगा तो उस समय उनकी पापबुद्धि नष्ट होकर दैवी सम्पदा का विकास होगा । दो परस्पर वैरी बैठे होंगे तो वे भी वहाँ जब तक बैठे हैं, वैर भूल जायेंगे । यह महापुरुषों की महिमा है ।

महापुरुषों में स्वभावतः उदारता रहती है । उनकी प्रत्येक क्रिया आनंद देने वाली होती है । उनके सोने, बैठने, चलने, फिरने में आनंद रहता है । उनमें श्रद्धा करने में जो लाभ होता है, उतना ही लाभ, वही सिद्धि महापुरुष के मिलने में होती है । महापुरुषों में श्रद्धा हो जाय तो कल्याण हो जाय परंतु ऐसे महापुरुष संसार में मिलते नहीं, मिलें तो पहचान नहीं पाते, पहचान जायें तो श्रद्धा डाँवाडोल रहती है, इसलिए पूरा लाभ नहीं होता ।

परमात्मा को प्राप्त महापुरुष बालक की भाँति हमारे में भगवत्प्रीति का संस्कार पैदा कर देते हैं । पारस के लिए आप अपना सर्वस्व त्यागने को क्यों तैयार हो जाते हैं ? इसलिए कि उसमें सोना बनाने की बड़ी शक्ति है । शरीर की पीड़ा पारस नहीं मिटाता, राजाओं की राज्य-पीड़ा पारस नहीं मिटाता किंतु महापुरुष इस जन्म की तो पीड़ा मिटाते हैं, साथ ही 84 लाख जन्मों की पीड़ा का चक्र ही चूर-चूर करा देते हैं ।

जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है, पाप पुण्य कछु कर्म नहीं है ।

मैं अज निर्लेपी रूप…..

सत्-चित्-आनंदरूप में जगा देते हैं । ऐसे महापुरुषों की श्रद्धापूर्वक सेवा, आज्ञापालन और नमस्कार करके मनुष्य मुक्ति पा सकता है । महापुरुषों में श्रद्धा जितनी अधिक होती है उतना ही अधिक लाभ होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 341

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