सात्त्विक, शुद्ध श्रद्धावाले व्यक्ति ही सर्वोत्तम श्रद्धालु हैं । उत्तम श्रद्धालु का पथ-प्रदर्शन सद्गुरुदेव ही करते है और ये श्रद्धालु सर्वभावेन (सब प्रकार से) सद्गुरुदेव के ही आश्रित होकर रहते हैं इसीलिए श्रद्धालु सदा निर्भय, निश्चिंत होते हैं ।
श्रद्धालु
के हृदय में सद्गुरुदेव के अतिरिक्त और किसी को स्थान नहीं मिलता । वह सरलता एवं
सद्भाव पूर्वक अपना पूरा जीवन सद्गुरु के हाथों में देकर अपना सब कुछ सुरक्षित और
सार्थक समझता है ।
गुरुदेव
की वाणी सुनने के लिए श्रद्धालु की सभी इन्द्रियाँ मौन (चंचलतारहित) रहती हैं, मन
भी शांत रहता है और बुद्धि सावधानी से गुरुप्रदत्त ज्ञान को ग्रहण करती है ।
श्रद्धालु अपने हानि-लाभ, पतन-उत्थान की चिंता नहीं करता । जो कुछ आता है उनकी
इच्छा समझकर स्वीकार करता है, जो कुछ जाता है उसे भी उनकी इच्छा समझ के जाने देता है और जो कुछ नहीं
भी मिलता उसे भी उन्हीं के रुचि में छोड़ते हुए संतुष्ट रहता है ।
श्रद्धालु
निरंतर अपने श्रद्धास्पद की अदृश्य शक्ति को अपने साथ अनुभव करता है और अपनी रक्षा
के विषय में निश्चिंत रहता है । श्रद्धालु का शरीर कहीं भी रहे परंतु वह हृदय से
अपने आराध्य को दृढ़ता से पकड़े रहता है । उसकी बुद्धि में उन्हीं का ज्ञान रहता
है, मन में उन्हीं के सद्भाव रहते हैं, तदनुसार प्रत्येक क्रिया सद्भावानुरक्षित
होने के कारण सुंदर फल देती है परंतु श्रद्धालु प्रत्येक प्राप्त फल को
श्रद्धास्पद की सेवा में निवेदित करते हुए ही संतुष्ट रहता है ।
श्रद्धालु
अपने प्रभु के प्रेम से इस प्रकार धनी होता है और कुछ चाहता ही नहीं, उसमें अभाव
का ही अभाव हो जाता है । वह अटूट धैर्य एवं सुंदर भाव की गम्भीरता में दृढ़ रहकर
श्रद्धास्पद के दर्शाये हुए सत्य लक्ष्य (परमात्मप्राप्ति) की ओर बढ़ता जाता है ।
श्रद्धालु पग-पग पर अपने प्रभु की दया का अनुभव करता है, वह दया की याचना नहीं
करता । वह जिधर देखता है, उनकी दया से ही अपने को सुरक्षित पाता है । जिस प्रकार
भीतर से संसार से पूर्ण विरक्त और सत्य से पूर्ण अनुरक्त संत-सत्पुरुष कहीं-कहीं
दिखाई देते हैं, उसी प्रकार संसार में उत्तम श्रद्धावाले प्रेमी, जिज्ञासु भी
कहीं-कहीं मिलते हैं ।
जिसका
अंतःकरण सरल एवं शुद्ध है उसी में सात्त्विक श्रद्धा प्रकाशित होती है ।
संत-सद्गुरु की समीपता में रहकर जो उनकी आज्ञानुसार सदाचरणरूपी सेवा करता है, उसी
की श्रद्धा सात्त्विक होती है । जो स्वच्छंद, स्वेच्छाचारी नहीं होता, जो अपने
श्रद्धेय प्रभु की सेवा में अपनी रुचि-विरुचि कुछ भी नहीं सोचता, उसी की सर्वोत्तम
श्रद्धा होती है ।
अपनी
सेवाओं का मूल्य नहीं चाहना, फल की आशा नहीं रखना – यही उत्तम श्रद्धालु में त्याग
होता है । अपने प्रभु के संकेतानुसार चलने में कही भी आलस्य न करना और कर्तव्यपालन
में प्रमादी न होना, सदा प्रसन्न रहकर सेवा-धर्म में तत्पर रहना – यही उत्तम
श्रद्धालु का तप है । इस प्रकार के त्याग और तप से उत्तम श्रद्धालु पवित्रता एवं
शक्ति से सम्पन्न होता है ।
जो
उत्तम श्रद्धालु अपनी बुद्धिमत्ता का गर्व नहीं करते और सदा अपने प्रभु के सम्मुख
अपनी बुद्धि को निष्पक्ष रख सकते हैं, जो विनम्र और दयालु हो के, क्षमावान और
सहनशील हो के सभी प्राणियों पर हितदृष्टि रखते हुए शुद्ध व्यवहार करते हैं, वे ही
यथार्थ ज्ञानी होते हैं । उत्तम श्रद्धालु जगत की वस्तुओं के वास्तविक रूप को जान
लेते हैं अतएव वे मोही नहीं होते । वे स्वार्थलोलुप भी नहीं होते इसीलिए रागी अथवा
द्वेषी नहीं होते वरन् पूर्ण प्रेमी होते हैं और इसी कारण उत्तम श्रद्धालु पूर्ण
तृप्त होते हैं ।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति ।।
‘श्रद्धावान, आत्मज्ञानप्राप्ति के साधनों में लगा हुआ और
जितेन्द्रिय पुरुष आत्मज्ञान को प्राप्त करता है तथा आत्मज्ञान को प्राप्त करके वह
शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त हो जाता है ।’ (गीताः 4.31)
आप जितना चाहें उतने महान हो सकते हैं – पूज्य बापू जी
आपके
अंदर ईश्वर की असीम शक्ति पड़ी है । वटवृक्ष का बीज छोटा दिखता है, हवा का झोंका
भी उसको इधर-से-उधर उड़ा देता है किंतु उसी बीज को अवसर मिल जाय तो वह वृक्ष बन
जाता है और सैंकड़ों पथिकों को आराम कराने की योग्यता प्रकट हो जाती है, सैंकड़ों
पक्षियों को घोंसला बनाने का अवसर भी वह देता है । ऐसे ही जीवात्मा में बीजरूप से
ईश्वर की सब शक्तियाँ छुपी हैं, यदि उसको सहयोग (ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का
सत्संग-सान्निध्य आदि) मिले तो जितन ऊँचा उठना चाहे, जितना महान होना चाहे उतना वह
हो सकता है ।
स्रोतः
ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 12 अंक 342
महापुरुषों के दर्शन, सत्संग, चिंतन से शांति मिलती है, पाप, पाप-वासनाएँ पलायन और पुण्य, पुण्य-प्रवृत्तियाँ शुरु होने लगती हैं । उनके संग (सत्संग-सान्निध्य) से उनके अनेक गुण-सरलता, शांति, आनंद, समता, ज्ञान, वैराग्य, उपरामता आदि स्वतः ही हमारे में आ जाते हैं । जिसमें जितनी श्रद्धा होगी वह उनता ही महापुरुषों के गुणों को ग्रहण करने की योग्यता का अधिकारी होता है ।
जहाँ
महापुरुष विराजमान होते हैं वहाँ उनके ज्ञान का प्रभाव पड़ता है । वहाँ यदि पापी
पुरुष बैठा होगा तो उस समय उनकी पापबुद्धि नष्ट होकर दैवी सम्पदा का विकास होगा ।
दो परस्पर वैरी बैठे होंगे तो वे भी वहाँ जब तक बैठे हैं, वैर भूल जायेंगे । यह
महापुरुषों की महिमा है ।
महापुरुषों
में स्वभावतः उदारता रहती है । उनकी प्रत्येक क्रिया आनंद देने वाली होती है ।
उनके सोने, बैठने, चलने, फिरने में आनंद रहता है । उनमें श्रद्धा करने में जो लाभ
होता है, उतना ही लाभ, वही सिद्धि महापुरुष के मिलने में होती है । महापुरुषों में
श्रद्धा हो जाय तो कल्याण हो जाय परंतु ऐसे महापुरुष संसार में मिलते नहीं, मिलें
तो पहचान नहीं पाते, पहचान जायें तो श्रद्धा डाँवाडोल रहती है, इसलिए पूरा लाभ
नहीं होता ।
परमात्मा
को प्राप्त महापुरुष बालक की भाँति हमारे में भगवत्प्रीति का संस्कार पैदा कर देते
हैं । पारस के लिए आप अपना सर्वस्व त्यागने को क्यों तैयार हो जाते हैं ? इसलिए कि उसमें सोना
बनाने की बड़ी शक्ति है । शरीर की पीड़ा पारस नहीं मिटाता, राजाओं की राज्य-पीड़ा
पारस नहीं मिटाता किंतु महापुरुष इस जन्म की तो पीड़ा मिटाते हैं, साथ ही 84 लाख
जन्मों की पीड़ा का चक्र ही चूर-चूर करा देते हैं ।
जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है, पाप पुण्य कछु कर्म नहीं है ।
मैं अज निर्लेपी रूप…..
सत्-चित्-आनंदरूप
में जगा देते हैं । ऐसे महापुरुषों की श्रद्धापूर्वक सेवा, आज्ञापालन और नमस्कार
करके मनुष्य मुक्ति पा सकता है । महापुरुषों में श्रद्धा जितनी अधिक होती है उतना
ही अधिक लाभ होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 341
ध्रुव को, प्रह्लाद को पिता ने भजन करने से रोका था, लेकिन प्रह्लाद की भगवान में प्रीति थी, सत्संग सुना था। कयाधू के गर्भ में थे, 5 महीने का प्रह्लाद था माँ के गर्भ में, तो उसकी मॉं नारदजी के आश्रम में रही थी, माँ तो सत्संग सुनते झोंका खा लेती थी लेकिन वह माँ के अंदर बैठा हुआ जो प्रह्लाद था, उसको सत्संग के संस्कार पड़े। 11 वर्ष का हुआ तो पिता ने उसे रात को निगरानी करने के लिए सिपाहियों के साथ भेजा तो देखा किसी कुंभार ने निंभाडा.. आग लगाई थी.. घड़े पका रहा था.. मटके ..। अग्नि देखकर वहां गये कि क्या हुआ? आग लगी है क्या? देखा तो कुम्हार प्रार्थना किये जा रहा है कि ‘है परमात्मा! अब मेरे हाथ की बात नहीं और तू चाहे तो तेरे लिए कठिन नहीं, भगवान मैं तो नादान हूँ। मैंने तो भूल की लेकिन उस भूल को तू सुधार दे, तू दया कर, मैं जैसा हूँ, तैसा हूँ लेकिन तेरा हूँ, तू अगर चाहे तो सब हो सकता है, उन निर्दोष बच्चों को तू ही बचा सकता है।’
प्रह्लाद ने कहा: क्या बात है? क्या बोल रहे है?
बोले: हमने मटके बनाए थे, उन मटको में बिल्ली ने बच्चे दे
रखे थे, सोचा कि जब मटके पकायेंगे तो ये बिल्ली के बच्चों को निकाल देंगे, उचित
जगह पर रख देंगे, लेकिन भूल गये और बीच निंभाडे के बिल्ली के बच्चे रह गए और निंभाड़े
को आग लगा दी गई। अब याद आया है कि अरे! वो बिचारे नन्हे-मुन्ने मासूम जल के मर जायेंगे,
अब हमारे हाथ की तो बात नहीं। चारों तरफ आग ने लपटें ले ली लेकिन वह अगर चाहे तो हमारी गलती को
सुधार सकता है, बचा सकता है उन बच्चों को।
प्रह्लाद ने कहा: यह क्या पागलपन की बात है? चारों तरफ आग
और बिल्ली के बच्चे बच सकते हैं?
बोले: वह परमात्मा ‘‘कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा
कर्तुं शक्यं’’। वह जो चाहे वह कर
सकता है, उससे अलग भी कर सकता है और नहीं भी कर सकता है, किसी वस्तु को थाम भी
सकता है।
एक जरा सा बीज देखो कैसे हरा-भरा कर देता है और कैले कैसे लगा
देता है ये कैल में । एक पानी की बूँद में से कैसे राजा- महाराजा खड़ा कर देता है,
वही पानी की बूँद मनुष्य बनकर रोती है, हँसती है, गाती है, आती है । और बॉयकट होता
है, लेडिजकट बनता है, क्या-क्या कट बनता है। वही मनुष्य और वही कभी अच्छा-कभी
बुरा, कभी अपना-कभी पराया, ऐसे करके मेरा-तेरा करके ढंगले लगा करके राख की मुट्ठी
छोड़ कर भाग जाता है, यह क्या उसकी लीला का परिचय नहीं है? उसका चमत्कार नहीं है? समुद्र
में बड़़वानल रहती है, वह पानी से बुझती नहीं और पेट में जठरााग्नि रहती है, वह
शरीर को जलाती नहीं। गाय सूखा घाँस खाती है और चिकना-चिकना मक्खन, घी-दूध और दही
बन जाता है, उसी घाँस का रूपांतरण होकर…। सर्प दूध पीता है, जहर बना देता है, मॉं
रोटी खाती है और बच्चे के लिए दूध बन जाता है और जब बच्चा बड़ा हो जाता है तो दूध
बंद हो जाता है, क्या यह ऑटोमेटिक सिस्टम…
उसकी कितनी लीला अपरंपार है, उसकी महिमा
अपरंपार है!
‘वह अगर रहमत कर दे तो यह बालक, बिल्ली के बच्चे बच सकते
हैं।’
बोले : कैसे बचते हैं जरा? जब यह निंभाडा खोलो ना तब मुझे
बुलाना।
कुम्हार ने कहा कि ‘राजकुमार निंभाड़ा खोलूँ तब क्या
तुम्हे बुलाऊँ, मेरा तो मटके का निंभाड़ा है, कोई ईंट का ईंटवाडा नहीं कि तीन दिन
चाहिए। आप सुबह आना, आप आऍंगें फिर मैं खोलूँगा।
सुबह को प्रहलाद आये और उसने भगवान का स्मरण करके अन्तर्मुख
होकर अन्तर्यामी परमात्मा को प्रार्थना करते हुए निंभाड़े के चहुँ ओर से मटके हटाये
और जब बीच के मटके तक पहुंचा तो देखा कि चार मटके कच्चे रह गये और उनमें से बच्चे
म्याऊँ-म्याऊँ करके छलाँग मारते जिंदे बाहर निकले।
प्रहलाद ने सत्संग तो सुन रखा था, अब स्मृति आ गई। सार तो
वही है। प्रहलाद का मन भगवान में लग गया, संसार से वैराग्य हो गया, मन भजन में लग
गया। मन भजन में लग गया तो महाराज, विरोध
हुआ लेकिन विरोध होते हुए भी भजन करता है, फिर पिता हिरण्यकश्यप ने उसे धमकाया, डाँटा,
जल्लादों से धमकवाया, पर्वतों से धकेलवाया फिर भी प्रहलाद की श्रद्धा नहीं टूटी।
श्रद्धा होना कठिन है लेकिन श्रद्धा हो जाए तो टिकना कठिन
है और श्रद्धा टिक गई तभी भी तत्वज्ञान होना कठिन है, जय…जय…। बिना तत्वज्ञानी गुरुओं के, महाराज प्रहलाद को
पिता ने पानी में फिंकवाया तब भी देखा कि जो हरि बिल्ली के बच्चों को बचा सकता है,
क्या मैं उसका बच्चा नहीं हूँ? भगवान के शरण हो गये। पानी में फिंकवाया, डूबा नहीं।
पहाड़ों से गिरवाया लेकिन मरा नहीं।
आखिर लोहे के खंबे को तपाकर हिरण्यकश्यप ने कहा कि ‘तू
बोलता है वो मेरा भगवान सर्वसमर्थ है, सर्वत्र है’ तो कहॉं है तेरा भगवान, दिखा? सब
जगह है सर्वत्र है और चाहे जहाँ से भी प्रकट हो जाये तो जा यह लोहे के खंबे में
तेरा भगवान् है तो इसको आलिंगन कर ।
और प्रह्लाद ने सच्ची भावना से तीव्र भावना से आलिंगन किया
और बड़ा घोष करके खंबा फाड़ निकला और उसमें से नृसिंह अवतार का प्राकट्य हुआ। ‘यदा
यदा ही धर्मस्य…’
जब भोगी का प्रभाव भक्त के प्रभाव को दबाता है और भोगियों
का प्रभाव बढ़ जाता है.. जोर-जुलम बढ़ जाता है तब-तब भगवान चाहे कहीं से, किसी भी
रूप में से प्रकट होने को समर्थ है। भगवान तो प्रकट हो गए लेकिन भगवान के तत्व को
जानना कठिन है महाराज! जय-जय… ।
नृसिंह भगवान का अवतार हुआ, नृसिंह भगवान प्रकट हुए और हिरण्यकश्यप
को गोद में लेकर बोले: बोल दिन है कि रात है? सुबह है कि शाम? न दिन है न रात है,
न सुबह है न शाम है, संध्या है। मनुष्य हूँ कि राक्षस हूँ? न मनुष्य न पशु।
जो भी वरदान माँग रखे थे, इससे ना मरूँ उससे ना मरूँ, सब के
सब वरदान के बावजूद भी ऐसा रूप भगवान ने धारण कर लिया कि नखों से.. न अस्त्र से
शस्त्र से मरूँ, न पुरुष से मरूँ न स्त्री
से मरूँ, न पुरुष न स्त्री, न नर न नारी, एकदम नृसिंह अवतार। एकदम एक्स्ट्रा वीआईपी
कोटा का अवतार वह प्रगट कर सकते हैं । ऐसा जिस भक्तों के लिए भगवान अवतार धारण कर सकते
हैं, ऐसे भक्त पहलाद को देखो। तत्वज्ञान नहीं हुआ तो देखो उसकी श्रद्धा कैसे डाऊन
हो जाती है अब देखना…
आध्यात्मिक विष्णु पुराण की कथा में से मैं तुम्हें सुना रहा
हूँ। हिरण्यकश्यप को फाड़कर भगवान ने सद्गति दे दी, राज प्रहलाद को मिला। भगवान
अंतर्धान हो गए।
समय जाने के बाद शुक्राचार्य, असुरों के जो आचार्य थे,
उन्होंने प्रहलाद को बोला कि ‘अरे प्रहलाद, क्या तूने बोला था विष्णु को, कि मेरे
पिता को मार डालो।’
बोले: मैंने पिताजी को मारने के लिए तो नहीं कहा था, वह तो
उनके जैसे वरदान दिये गये थे..
बोले: तूने तो कहा नहीं, फिर तेरे बाप को क्यों मारा
उन्होंने? अगर उनकी तुम्हारे में पूरी प्रीति थी तो तेरे बाप की बुद्धि सुधार देते,
तेरे बाप को मारा क्यों?
देखो श्रद्धा तो है प्रहलाद की तीव्र लेकिन श्रद्धा को
हिलानेवाले लोग जब मिल जाते हैं ना तो श्रद्धा छू हो जाती है और ऐसे हजारों-हजारों
मिलते ही रहते हैं। यह दुर्भाग्य है हम लोगों का कि ऐसे हमको हिलानेवाले मिलते ही
रहते हैं। साधन में से श्रद्धा हिलाना, भगवान में से, गुरुमंत्र में से, गुरु में
से श्रद्धा हिलाने का कोई ना कोई अभागा आदमी हमको मिलता ही रहेगा नहीं तो हमारा मन
ही विरोध करेगा, तर्क-वितर्क करेगा, श्रद्धा को हिलायेगा। इसलिए श्रद्धा टिकना
कठिन है ।
प्रहलाद को, जो दैत्यों का गुरु कहता है, वह तत्वज्ञानी
नहीं है लेकिन व्यवहार कुशल है, संजीवनी विद्या जानता हैं। प्रभाव तो है लेकिन
ब्रह्मज्ञान के सिवाय का प्रभाव किस काम का?
‘तूने जब कहा नहीं तो तेरे बाप को मार डाला और फिर भी तू
उसको पूजता है, कैसा मूर्ख है? कितनी श्रद्धा, अंधश्रद्धा।’
किसी को कह दो- ‘कितनी श्रद्धा, अंधश्रद्धा’ । वो बोलेगा- ‘नहीं
अंधश्रद्धा नहीं, मेरी सच्ची श्रद्धा है।’
सच्ची श्रद्धा तो बोलेगा लेकिन तुम्हारा अंधश्रद्धा बोलना भी
उसकी श्रद्धा की नींव को तो जरा झकझोर देगा। शब्द असर करते हैं, देर-सवेर असर करते
हैं ।
फिर दो दिन बीते,
फिर बातचीत में.. ‘अच्छा तेरी श्रद्धा है? विष्णु भगवान ने मार डाला पिता को तो
पिता की मृत्यु होने के बाद भी तेरे को ऐसा नहीं होता है कि उन्होंने ठीक नहीं
किया? इतनी भी तेरे पास अकल नहीं, हें? इतनी भी तेरी समझ नहीं है।’
देखो, कैसे-कैसे उलट रहे हैं खोपड़ी को।
बोले- ‘हाँ, ठीक तो नहीं हुआ लेकिन अब क्या करें…।’
हिला, भीतर से हिला, जय रामजी की..
‘हॉं ठीक तो नहीं
किया लेकिन अब क्या करें भगवान हैं, अच्छा तो नहीं हुआ लेकिन अब क्या करें भगवान
है।’
समझो श्रद्धा के परसेंटेज डाऊन हो गये।
‘क्या करें अब भगवान छे ,गुरु छे ने चाले छे…। चाले है, गुरु है, शूँ करे बापू छे…………
शूँ करे, आपणा गुरु छे जावा दो, जावा दो’ तो
क्या तुम बड़ी कृपा कर रहे हो। अपने अहम के दायरे को मजबूत करके क्षमा कर रहे हो
गुरु को, तुम मिट नहीं रहे हो गुरु की दृष्टि में, भगवान की दृष्टि में तुम अपने
मैं को मिटा नहीं रहे हो लेकिन तुम ‘मैं’ को सुरक्षित रखकर भगवान या गुरु को माफ
कर रहे हो। जय रामजी की !
ध्यान देना, यह सूक्ष्म बातें हैं । तत्वज्ञान में,
साक्षात्कार में कौन सी बातें आकर हमारे… । जैसे घुन लग जाती है ना, लगती जरूर
बारीक है लेकिन कितनी भी मजबूत लक्कड़ को मिट्टी में मिला देती है, ऐसे ही यह जो
बातें हैं ना हिलाने वाली, लगती तो है छोटी-छोटी लेकिन परब्रह्म परमात्मा के
साक्षात्कार करने के सामर्थ्य को खा कर नष्ट कर देती है । ये बेवकुफी ऐसी होती है इसलिए
साक्षात्कारी महापुरुष जल्दी से तैयार नहीं हो पाते हैं क्योंकि साधक है बेचारा बाज
पक्षी और लोग हैं शिकारी। किसी ना किसी
भाव से, किसी ना किसी वातावरण से उसको गिरा देते हैं।
महाराज! फिर एक-दो दिन बीता कि ‘अच्छा विष्णु ने ठीक नहीं
किया, कि अभी भी तेरे को लगता है कि विष्णु ने बाप को मार डाला तो ठीक हो गया ।
मेरा बाप मर गया विष्णु के हाथ से तो अच्छा हुआ, ऐसा लगता है क्या तेरे को ।
…कि नहीं, यह तो ठीक नहीं हुआ… उनकी बुद्धि बदल देते तो
ठीक था। मार डाला, यह ठीक नहीं था।
तो अब देखा शुक्र ने कि हूँ, अब हिला है तो और थोड़ी कटु
बात। श्रद्धा हिलाने वाले पहले तो गोल-गोल थोड़ी सी हिलाएंगे फिर जितने तुम हिलते
जाओगे ना… बोधु होय न त्यां वाग्ये.. जे श्रद्धा हाँलवा नी वातो सांभणे ऐने ज
बीजा संभावें पण जो सुनने को तैयार नहीं वो तो बोले कि हूँ अमज तो केतो थो कि बापू
महारे आगण फलाणो तमारी बहु निंदा करतो थो
पण मैं एने डाँट नाख्यों… हाउ हाउ केतो थो, हाउ हाउ केतो थो पण साभणवा नी थारा में
योग्यता हती ऐटले तु सांभली गयो । ऐटलु बोधु हतु ने मुंडामां हलवावता तने…। गुरु
महाराज यह तो आपके लिए ऐसा-ऐसा कहता था पर मेरे को बड़ा दुःख हुआ, ऐसा-ऐसा बोला, ऐसा बोला-ऐसा बोला कि सुनने में तो तेरे में कचास
थी इसलिए वह सुना सका।
रामकृष्ण परमहंस के
दर्शन करने कोई साधक गया, उसका चेहरा सुकड़ा हुआ था । रामकृष्ण देव उसी समय
समाधि से उठे थे, निर्विकल्प समाधि से । पूछा
कि क्यों मुरझाया हुआ है? क्या बात है?
…कि गुरु महाराज, मैं नाव में बैठकर आ रहा था न तो कुछ लफँगे
लोग आपके लिए बुरा-बुरा बोलते थे।
बोले: क्या बोले?
सब बोलते थे कि लगन किया, बाल-बच्चा नहीं है, पत्नी से बात
नहीं करते । नान्यतर जाति में… ऐसा-ऐसा गंदा-गंदा बोलते तो मेरे को बड़ा दुख
हुआ ।
रामकृष्ण ने कहा कि धिक्कार है तेरे को। शास्त्रों ने कहा कि गुरु की, माता-पिता की जो
निंदा करे तो उसकी जीभ काट लेना । या तो सुनना नहीं चाहिए, कान में उँगलियाँ डाल
देना चाहिए और तू मेरी निंदा सुन कर फिर मेरे दर्शन करने को आया! तेरे को धिक्कार
है! तेरे को क्या लाभ होगा!
अब रामाकृष्णदेव जैसे निर्विकल्प समाधि से उतरे हैं, उन
महापुरुषों को क्या अपनी निंदा-प्रशंसा की परवाह लेकिन साधक का तो अहित हो जाता
है। उन महापुरुषों कों निंदा और प्रशंसा की परवाह नहीं होती वह अपनी निंदा से डरते
नहीं, डरते हैं तो महापुरुष बन नहीं पाते।
तो साधक अवस्था में कितने हिलाने वाले प्रसंग सहे, मान-अपमान
सहा, साधक अवस्था में मान-अपमान, विरोध आप नहीं चाहते। ऐसे सब प्रक्रियाओं से जब
आदमी गुजरता है तब साधक में से सिद्ध बनता है। मैं नहीं चाहता हूँ कि दाढ़ी-मूँछ
रखूँ, गुरुदेव कहेंगे- दाढ़ी-मूँछ रखो। मैं चाहता हूँ कि दाढ़ी-मूँछ रखुँ, गुरुदेव
कहेंगे- काटो… जय रामजी की! जिसमें
हमारी ममता होगी वो तो तोड़ेंगे। मैं नहीं चाहता हूँ कि पेंट और शर्ट पहनना छोड़ दॅँ
लेकिन गुरुदेव बोलेंगे- छोडो, बदलो और मैं चाहूँगा कि नहीं पहरूँ, गुरूदेव कहेंगे
कि इसी में रहो…जय रामजी की! जो-जो मेरी पकड़ होगी, गुरुदेव अगर कृपा करेंगे तो
जहाँ-जहाँ मेरी पकड़ होगी वहाँ ठोकर लगाएँगे। अगर श्रद्धा सात्विक होगी तो मैं अहोभाव
से स्वीकार करुँगा लेकिन श्रद्धा अगर तामसी या राजसी है तो मैं विरोध करूँगा। अंदर
से विरोध करूँगा, इसमें क्या? पेंट और शर्ट बदल के धोती पहनने से भगवान का दर्शन
होता होगा? नहीं… धोती पहनने से भगवान का दर्शन तो नहीं होता लेकिन पकड़ छोड़ने
से भगवान के दर्शन में सहाय मिलती है। श्रीराम !
उड़िया बाबा बड़े अच्छे महापुरुष हो गए । अभी तो ब्रह्मलीन
हो गए, आनंदमयी माँ, उड़िया बाबा और हरि बाबा तीनों मित्र संत थे, समकालीन और
वर्षों तक साथ में रहे। आनंदमयी माँ
इंदिरा की गुरु। नेहरूजी भी उनको मानते थे। तो महाराज! उड़िया बाबा जो थे, एक साधक
ध्यानमग्न था, जाकर उसको हिला दिया, बेवकूफ कहीं का… आश्रम में आया, चुपचाप बैठा
रहता है, ध्यान करके, आँखें बंद करके भगवान के ध्यान में बैठा रहता है, क्या आँख
खोलने से तेरा भगवान भाग जाता है? आश्रम की सेवा करने से क्या तेरा भगवान भाग जाता
है क्या? जा, जरा खेती-वेती कर। और दूसरा हल चला रहा था तो उसको बुलाया, जब हल ही
चलाना था तो घर में क्यों नहीं रहा? आश्रम में आया और फिर हलविद्या चालू कर दी, हल
ही चलाना था तो घर में तेरा हल था कि?
बोला- हॉं, था।
बोले- फिर घर छोड़कर इधर आया और इधर हल चला रहा है। बैठ आंख
बंद करके भजन कर।
जो हल चला रहा था उसको धमकाकर हल छुड़ा दिया और जो ध्यान
में था उसको धमकाकर ध्यान छुड़ा दिया। अब हल वाला ध्यान में सफल नहीं हो रहा और
ध्यान वाला हल में सफल नहीं हो रहा।
मित्र संतो ने कहा कि स्वामी जी उसका विषय था हल चलाना तो
सेवा मिलती तो वह करता और इसको ध्यान में रुचि थी तो ध्यान करता।
बोले- रुचि तो बाँधती है, मैं रुचियों से पार करके जहाँ से
रुचियाँ अरुचियाँ सब फीकी लगती है वहाँ पहुँचाना चाहता हूँ। मुझे हल चलाना या
बिठाना लक्ष्य नहीं है, मेरा तो जीव को जगाना लक्ष्य है।
अब बताओ वो ध्यान में मग्न हो रहा है उसको हिला दिया, ध्यान
छुड़ा दिया और वो हल चलाने में मग्न है लेकिन मगन महाराज एक देश में, एक वस्तु में
हुआ तो ध्यान में, तत्वज्ञान में, ध्यान में एक जगह की स्थिति भी तत्वज्ञान के साक्षत्कार
में बाधा है। जो ध्यान नहीं करते उनके लिए
ध्यान जरूरी है लेकिन जो ध्यान की किसी स्थिति में पड़े रहते हैं तो जिंदगी पूरी
हो जाएगी, साक्षात्कार नहीं होगा। इसलिए गुरुओं की बड़ी ऊँची कृपा है, गुरुओं को
बड़ी ऊँची निगाहें रखनी पड़ती है, गुरुओं को ना जाने कितना-कितना ख्याल रखना पड़ता
है। आप लोग जब गुरुतत्व में पहुँचेंगे ना तो पता चलेगा कि गुरु का कितना
उत्तरदायित्व हो जाता है। गुरु बनना कोई बच्चों का खेल नहीं है, जैसा-तैसा आकर
गुरु बन गया, कान्या मान्या कुर्र, तुम हमारे चेले हम तुम्हारे गुर्र… श्री राम।
स्वामी विवेकानंद बोलते थे कि गुरु बनना माने अपने तपस्या
के कोष में से कुछ ना कुछ दान करना। आज हर भिखारी सहस्त्र (हजारों) अशर्फियाँ दान
करना चाहता है, उसकी साधना का कोष तो होता नहीं, उसके पास अध्यात्मिक कोष का खजाना
पूरा भरा हुआ होता नहीं, कुछ थोड़ी बहुत सूचनाएँ सुनकर, थोड़ी बहुत कथाएँ-वार्ताएँ
सुनकर सब गुरु बनने लग जाते हैं।
महाराज, शुक्र ने हिलाया, किसको… प्रहलाद को । पर्वतों से गिराने पर जिसकी
श्रद्धा नहीं गिरी, भगवान के प्रति श्रद्धा नहीं गिरी, पानी में फिंकवाने से
जिसके जीवन की रक्षा कर दी जीवनदाता ने, उस जीवनदाता के प्रति प्रहलाद को थोड़ा
हुआ कि इन्होंने यह ठीक नहीं किया! जब ईष्ट में लग जाता है कि यह ठीक नहीं किया
तो तुम्हारी श्रद्धा का यह प्रदर्शन है कि नहीं? मेरी भगवान में इतनी श्रद्धा फिर
भी मेरे बाप को मार डाला, यह तो अच्छा नहीं किया।
बोले- जब अच्छा नहीं किया तो ऐसे आदमी को जरा खबर पड़नी
चाहिए कि…क्या किया उन्होने?
बोले कि खबर मैं कैसे पाडुं? वो भगवान है, विष्णु है!
बोले- विष्णु किसको बोलते हैं? व्हाट आर द मीनिंग आफ विष्णु? विष्णु भगवान का मतलब क्या होता है?
बोले- “वासं करोति इति वासुदेव” जो सब में बस रहा
है वह वासुदेव है ।
बोले- जो सब में बस रहा है वह वासुदेव है तो वैकुण्ठ वाले
को ही वासुदेव मानना बेवकूफी है कि नहीं, तेरे हृदय में भी तो वासुदेव हैं, तो
हृदय के वासुदेव को मानना है कि वैकुण्ठ के वासुदेव को मानना है?
यह बात भी सच्ची है।
बोले- सच्ची बात है, तो शास्त्र में तो यहां तक लिखा है कि
जब तक पिता के हत्यारे को ठीक नहीं किया जाए तब तक पुत्र को खाना, पानी पीना भी विष
है, हराम है और तू मजे से राज्य कर रहा है। ऐ प्रहलाद! तेरे जैसा… ऐ, ऐ… इतनी अकल नहीं। हिप्नोटाईज कर दिया बेचारे को।
बोले- गुरु महाराज, ऐसे तो मैं ठीक करना तो चाहता हूँ लेकिन
अब क्या करूँ उनकी तो बड़ी पहुँच है।
श्रद्धा तो मरी परवारी ने, ‘ठीक करना तो चाहता हूँ लेकिन अब
ठीक नहीं कर सकता’ श्रद्धा हिल गई कि नहीं? महाराज! प्रहलाद को जब राज मिल गया,
इंद्रियों को छुटी छोड़ दी, रजोगुण बढ़ गया, तमोगुण-रजोगुण बढ़ गया। अब वह श्रद्धा
की सात्विकता से नीचे उतर आए और बहकाने वाले मिल गए।
बोले- ऐसे तो मैं विष्णु को ठीक करना चाहता हूं लेकिन वह तो
है वैकुण्ठाधिपति।
बोले- क्या है? आवाहन करो। पहले तो तेरे पास कुछ था नहीं, तू
अनाथ था तो उसका सहारा ले लिया, अब तो तू राजा बन गया है, इतनी फौज तेरे पास है, हिम्मत
रख! अपने शास्त्रों में तो लिखा है- निर्भय बनो!
और वह निर्भय… जिन्होंने बनाया है उन्हीं के साथ वो निभर्य
…. फाइटिंग के लिए तैयारी हो रही है ऐसे लोग बड़े अभागे होते हैं।
ऐसे एक महिला थी, जो सब कुछ छोड़कर घाटवाले बाबा के चरणों
में पहुँच गयी थी, दिल्ली में वह शिक्षिका थी, आचार्य थी। उसका नाम था पुष्पा बहन।
उसने हरिद्वार में अपना मकान खरीदा क्योंकि गुरु महाराज के रोज दर्शन करना है। ऐसे
ज्ञानी के दर्शन… सारे तीर्थो का फल, सारे यज्ञों का फल, सारे तपों का फल सहज
में मिल जाए ऐसे ज्ञानवान के दर्शन छोड़कर मैं दिल्ली में कब तक रहूँगी। मकान ले
लिया, धीरे-धीरे वह दिल्ली से छुट्टियाँ लेकर आती रहती थी और रिटायरमेंट जल्दी
लेना था उसको। मैंने एक बार देखा कि वह खट्टी आम होती है ना… केरी, कच्ची केरी। खट्टे
आम के पकौड़े बनाकर घाट वाले बाबा को बोलती है- स्वामीजी मैंने बड़े प्यार से,
बड़ी मेहनत से पकोड़े बनाये हैं आपके लिए, खाओ।
उन्होंने कहा- मैंने अभी दूध पिया है, दूध के ऊपर पकौड़े
नहीं खाये जाते।
‘मैंने मेहनत करके बनाया है उसका क्या?’
ये श्रद्धा है? श्रद्धेय की चाहे मर्जी हो या ना हो लेकिन तुम
जैसा चाहो वैसा श्रद्धेय करे तो तुम्हारी श्रद्धा है या तुम्हारी नालायकी है?