Monthly Archives: March 2016

सर्वहितैषी भारतीय संस्कृति – पूज्य बापू जी


 

आप भारतीय संस्कृति की, त्रिकालज्ञानी ऋषियों की जो सामाजिक व्यवस्था है उसका फायदा उठाओ। संत कबीर जी ताना बुन रहे हैं, कपड़ा बहुत बढ़िया बना रहे हैं। उनसे पूछाः “क्यों इतनी मेहनत कर रहे हैं ?”
बोलेः “राम जी पहनेंगे।” कपड़ा बाजार में ले जाते हैं। लोग कपड़ा व उसकी बुनाई देखकर चौंकते हैं कि ‘यह तो महँगा होगा, हम नहीं ले सकते हैं।’
कबीर जी बोलेः “नहीं, नहीं। जिस दाम में तुमको साधारण कपड़ा मिलता है उसी दाम का है। इसकी बनावट ऐसी है कि आपके काम में आ जाये। मेरे राम को बार-बार कपड़ा खरीदने में समय न गँवाना पड़े इसलिए मैंने बढ़िया बनाया है। यह कपड़ा ले जाओ।” गरीब से गरीब आदमी कबीर जी का कपड़ा खरीद सकता है।
गोरा कुम्हार मटका बनाते हैं तो ऐसा बनाते हैं कि घर ले जाते-जाते फूटे नहीं। मटका बाप ले जाय तो बेटा भी पानी पिये और जरूरत पड़े तो पोते के भी काम में आये। यह भारतीय संस्कृति की देन है। लेकिन अभी तो हम पाश्चात्य जगत से ऐसे बंध गये कि और हो !… ‘अपना अधिक-से-अधिक नफा हो और सामने वाले का चाहे भले सत्यानाश हो जाय।’ यह उनका कल्चर है।

कितनी उदार है भारतीय संस्कृति !

गुरुकुल में श्रीरामचन्द्र जी सामने वाले अन्य विद्यार्थी हारते हों तो लखन और भरत को भी खुद हारकर दूसरों का उत्साह और खुशी बढ़ाने का संकेत देते हैं। उनके छोटे भाई भी श्रीरामजी का अनुकरण करते हैं। यह कैसी है भारतीय संस्कृति ! कितनी उदार संस्कृति !

एक वह कल्चर है जिसमें अपने बाप को पकड़ के जेल में डालकर राजा बन जाता है औरंगजेब और दूसरी यह महान संस्कृति है कि अपने बड़े भाई को राज्य मिले इसलिए भरत भैया हाथाजोड़ी करने जा रहे हैं। बड़ा कहता हैः “छोटा राज्य का अधिकारी है” और भरत भैया कहते हैं- “नहीं, बड़े राज्य करें और छोटे उनकी आज्ञा का पालन करें।” अयोध्या का विशाल राज्य…. जहाँ देवता भी अयोध्या के नरेश से मदद माँगते थे, ऐसा राज्य गेंद की नाईँ छोटा भाई बड़े भाई की गोद में और बड़ा भाई छोटे भाई की गोद में डालता है। आखिर इस त्याग और प्रेम की भारतीय संस्कृति ने एक नया रास्ता निकाला।

राम जी ने कहाः “राज्य नहीं करना है, मैं तो ऋषि मुनियों के दर्शन करूँगा। साधुओं व देवताओं का कार्य करूँगा। वन की सात्त्विक हवा में रहूँगा। भैया ! राज्य तुम सम्भालो।” हाँ-ना करते हुए एक कठोर आदेश मिल गया कि “भरत ! अब तुम मेरी आज्ञा मानो।”
भरत बोलेः “तो भैया ! आपके राज्य की मैं सेवा तो करूँगा लेकिन राजा होकर नहीं, सेवक होकर। आप अपनी खड़ाऊँ मुझे दे दो।”

राज्यसिंहासन पर राम जी की खड़ाऊँ रहती हैं और भरत भैया राज्य व्यवस्था करते हैं। कैसी सुन्दर व्यवस्था है ! कैसी भारतीय संस्कृति की महान छवि दिख रही है !
सच्चा हिन्दुस्तानी वह है……

दुःख की बात है कि भारतीय संस्कृति की परम्परा में हम लोगों का जन्म हुआ लेकिन भारतीय संस्कृति का ज्ञान पाने के लिए हमारे पास समय नहीं है। भारतीय संस्कृति के महापुरुषों का रहस्य समझने वाली हमारे पास इस समय व्यवस्था ही नहीं रही।

अदंर की सरलता, अदंर का आनंद, भगवान की भक्ति और रस को त्यागकर बाहर के भौतिकवादी जीवन को सच्चा हिन्दुस्तानी महत्त्व नहीं देता है। हिन्दुस्तानी समझता है कि मनुष्य जीवन ईश्वरीय सुख, ईश्वरीय आनंद, इश्क इलाही, इश्क नूरानी पाने के लिए है, फिर चाहे रामरूप में, कृष्णरूप में, गुरुरूप में, आत्मरूप में या आनंदरूप में…. ईश्वर के अनेक रूपों में से किसी भी रूप की तरफ लग पड़ा तो देर-सवेर उसकी स्थिति वहाँ हो जाती है। यह हिन्दुस्तानी की महानता का लक्षण है।
यह वैदिक संस्कृति है, अऩादिकाल से चली आ रही है। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिवजी इसी वैदिक संस्कृति में प्रकट हुए हैं। शबरी भीलन को मार्गदर्शन देनेवाले मतंग ऋषि ने भी इसी संस्कृति के ज्ञान से शबरी का मार्गदर्शन किया और इसी संस्कृति के ज्ञान से हमारे गुरुदेव ने हमको ईश्वरप्राप्ति करायी और हम आपको भी इसी रास्ते से ईश्वर के सुख की तरफ ले जा रहे हैं, देर-सवेर प्राप्ति भी हो जायेगी…. स्थिति हो के प्राप्ति !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 267
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स्वास्थ्य का दुश्मन विरुद्ध आहार


 

जो पदार्थ रस-रक्तादि धातुओं के विरुद्ध गुणधर्मवाले व वात-पित्त-कफ इन त्रिदोषों को प्रकुपित करने वाले है, उनके सेवन से रोगों की उत्पत्ति होती है।

आयुर्वेद में आहार की विरुद्धता के 18 प्रकार बताये गये हैं। जैसे घी खाने के बाद ठंडा पानी पीना परिहार विरुद्ध है। खाते समय भोजन पर ध्यान नहीं देना (टी.वी. देखना, मोबाइल का प्रयोग करना आदि) विधि-विरुद्ध है। काँसे के पात्र में दस दिन रखा हुआ घी संस्कार विरुद्ध है, रात में सत्तू का सेवन काल-विरुद्ध है। शीतल जल के साथ मूँगफली, घी, तेल, अमरूद, जामुन, खीरा, ककड़ी, गर्म दूध या गर्म पदार्थ, खरबूजे के साथ लहसुन, मूली के पत्ते, दूध, दही, तरबूज के साथ पुदीना, शीतल जल, चावल के साथ सिरका आदि विरुद्ध आहार हैं। अन्य विरुद्ध (अहितकारी) संयोगों की जानकारी हेतु पढ़ें ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2015 में पृष्ठ 30 पर ‘पथ्य-अपथ्य विवेक।’

आम तौर पर प्रचलित विरुद्ध आहार

आम तौर पर मरीजों को खाने के लिए मूँग, नारियल पानी, दूध लेने की सूचना दी जाती है। ये तीनों उपयोगी पदार्थ परस्पर विरुद्ध हैं। इनका एक साथ उपयोग नहीं करना चाहिए।

दूध और केला साथ में लेने से बहुत अधिक मात्रा में कफ का प्रकोप होता है।

दूध के साथ मूँग और नमक विरुद्ध हैं। इसलिए मूँग-चावल की खिचड़ी और दूध को साथ में नहीं लेना चाहिए। दूध के स्थान पर तरल सब्जी आदि का उपयोग कर सकते हैं।

दूध के साथ गुड़ विरुद्ध आहार है, मिश्री ले सकते हैं।

दूध और फलों के संयोग से बना मिल्कशेक शरीर के लिए हानिकारक है।

दूध डालकर बनाया गया फलों का सलाद विरुद्धाहार है। विरुद्ध न हो इस प्रकार फलों का सलाद बनाने के लिए नारियल को पीसकर उसका दूध बना लें, उसमें सभी फलों को डाल सकते हैं।

गर्म भोजन के साथ खूब ठंडा आम का रस विरुद्ध है। रस का तापमान कमरे के तापमान जितना होना चाहिए।

नॉन-स्टीकी बर्तन के ऊपर की परत में कृत्रिम प्लास्टिक जैसे तत्त्व का प्रयोग होता है। उसको काम में लेने से यह तत्त्व आहार में मिलकर शरीर में जा के कैंसर जैसे गम्भीर लोग उत्पन्न करता है। लोहे अथवा स्टील के बर्तनों का उपयोग कर सकते हैं।

बच्चों को दूध में मिला के दिये जाने वाले चॉकलेट आदि के पाउडर कृत्रिम तरीके से बनाये जाते हैं। बाजारू तथाकथित शक्तिवर्धक पदार्थों के पाउडर की जगह मिश्री व इलायची मिला के बच्चों को पिलायें। सर्दियों में काजू, बादाम, अखरोट, पिस्ता का अत्यंत बारीक चूर्ण भी दूध में डाल सकते हैं।

पदार्थ को तलने से पोषक तत्त्व नष्ट होते हैं। बहुत कम मात्रा में छोटे पात्र में तेल ले के इस प्रकार पदार्थ को तलें जिससे तेल बचे नहीं। तलने के बाद बचे हुए तेल का उपयोग दुबारा तलने के लिए नहीं करना चाहिए।

चीनी सफेद जहर है, अतः हमेशा मिश्री का उपयोग करना चाहिए। वह भी सीमित मात्रा में।

आहार पकाकर फ्रीज  में लम्बे समय तक संग्रह करने से, जरूरत पड़ने पर माइक्रोवेव ओवन में गर्म करके उपयोग करने से, सुबह का भोजन शाम को और शाम का भोजन दूसरे दिन सुबह लेने से उसके पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, रोगकारकता बढ़ती है।

मैदा और प्राणिज वसा के संयोग से बनने वाले बेकरी के पदार्थ – ब्रेड, बिस्कुट, पाव, नानखताई, पिज्जा-बर्गर आदि तथा सेकरीन से बनाये गये खाद्य पदार्थ, आइस्क्रीम, शरबत व मिठाइयाँ एवं बेकिंग पाउडर डालकर बनाये जाने वाले खाद्य पदार्थ जैसे नूडल्स आदि अत्यंत हानिकारक हैं।

प्लास्टिक की पैकिंग वाले खाद्य पदार्थों में गर्मी के कारण प्लास्टिक के रासायनिक कण (केमिकल पार्टिकल्स) मिल जाते हैं, जिनसे कैंसर हो सकता है।

खाद्य पदार्थ लम्बे समय तक खराब न हों इसके लिए उनमें मिलाए जाने वाले सभी पदार्थ (preservatives) विविध कृत्रिम रसायनों से बनाये जाते हैं। वे सब हानिकारक तत्त्व हैं। जब हम डिब्बाबंद भोजन (पैक्ड फूड) खाते हैं, तब तक उसके उपयोगी तत्त्व नष्ट हो गये होते हैं।

मिठाइयों को चमकाने के लिए लगायी जाने वाली चाँदी की परत बनाने में पशुओं की आँतों का प्रयोग किया जाता है। यह बहुत हानिकारक है।

वर्तमान समय में प्रचलित ऊपर बताये गये आहार विरुद्ध आहार से भी अधिक नुकसानकारक और धीमे जहर के समान होने के कारण उन्हें ‘विषमय आहार’ कहना चाहिए।

वर्तमान समय में बालवय में मोटापा, युवावय में हृदयाघात (हार्ट अटैक) में वृद्धि, मधुमेह (डायबिटीज) तथा कैंसर जैसी घातक बीमारियों के आँकड़े चिंताजनक हैं। इनके कारण हैं ये विषमय आहार। वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह बात सिद्ध हो गयी है। इसलिए आहार तथा जीवनशैली में परिवर्तन करना जरूरी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2016, पृष्ठ संख्या 30,31 अंक 279

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सर्व सद्गुण सागर श्रीराम जी – पूज्य बापू जी


 

(श्री रामनवमीः 15 अप्रैल 2016)

श्रीरामचन्द्र जी परम ज्ञान में नित्य रमण करते थे। ऐसा ज्ञान जिनको उपलब्ध हो जाता है, वे आदर्श पुरुष हो जाते हैं। मित्र हो तो श्रीराम जैसा हो। उन्होंने सुग्रीव से मैत्री की और उसे किष्किंधा का राज्य दे दिया और लंका का राज्य विभीषण को दे दिया। कष्ट आप सहें और यश और भोग सामने वाले को दें, यह सिद्धान्त श्रीरामचन्द्रजी जानते हैं।

शत्रु हो तो रामजी जैसा हो। रावण जब वीरगति को प्राप्त हुआ तो श्रीराम कहते हैं- ‘हे विभीषण ! जाओ, पंडित, बुद्धिमान व वीर रावण की अग्नि संस्कार विधि सम्पन्न करो।”

विभीषणः “ऐसे पापी और दुराचारी का मैं अग्नि-संस्कार नहीं करता।”

‘रावण का अंतःकरण गया तो बस, मृत्यु हुई तो वैरभाव भूल जाना चाहिए। अभी जैसे बड़े भैया का, श्रेष्ठ राजा का राजोचित अग्नि-संस्कार किया जाता है ऐसे करो।”

बुद्धिमान महिलाएँ चाहती हैं कि ‘पति हो तो राम जी हो’ और प्रजा चाहती है, ‘राजा हो तो राम जी जैसा हो।’ पिता चाहते हैं कि ‘मेरा पुत्र हो तो राम जी के गुणों से सम्पन्न हो’ और भाई चाहते हैं कि ‘मेरा भैया हो तो राम जी जैसा हो।’ रामचन्द्र जी त्याग करने में आगे और भोग भोगने में पीछे। तुमने कभी सुना कि राम, लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न में, भाई-भाई में झगड़ा हुआ ? नहीं सुना।

श्रीराम जी का चित्त सर्वगुणसम्पन्न है। कोई भी परिस्थिति उनको द्वन्द्व या मोह में खींच नहीं सकती। वे द्वन्द्वातीत, गुणातीत, कालातीत स्वरूप में विचरण करते हैं।

भगवान राम जी में धैर्य ऐसा जैसे पृथ्वी का धैर्य और उदारता ऐसी क जैसे कुबेर भंडारी देने बैठे तो फिर लेने वाले को कही माँगना न पड़े, ऐसे राम जी उदार ! पैसा मिलना बड़ी बात नहीं है लेकिन पैसे का सदुपयोग करने की उदारता मिलना किसी-किसी के भाग्य में होती है। जितना-जितना तुम देते हो, उतना-उतना बंधन कम होता है, उन-उन वस्तुओं से, झंझटों से तुम मुक्त होते हो। देने वाला तो कलियुग में छूट जाता है लेकिन लेने वाला बँध जाता है। लेने वाला अगर सदुपयोग करता है तो ठीक है नहीं तो लेने वाले के ऊपर मुसीबतें पड़ती हैं।

मेरे को जो लोग प्रसाद या कुछ और देते हैं तो उस समय मेरे को बोझ लगता है। जब मैं प्रसाद बाँटता हूँ या जो भी कुछ चीज आती है, उसे किसी सत्कर्म में दोनों हाथों से लुटाता हूँ तो मेरे हृदय में आनंद, औदार्य का सुख महसूस होता है।

इस देश ने कृष्ण के उपदेश को अगर माना होता तो इस देश का नक्शा कुछ और होता। राम जी के आचरण की शरण ली होती तो इस देश में कई राम दिखते। श्रीरामचन्द्रजी का श्वासोच्छ्वास समाज के हित में खर्च होता था। उनका उपास्य देव आकाश-पाताल में दूसरा कोई नहीं था, उनका उपास्य देव जनता जनार्दन थी। ‘जनता कैसे सुखी रहे, संयमी रहे, जनता को सच्चरित्रता, सत्शिक्षण और सद्ज्ञान कैसे मिले ?’ ऐसा उनका प्रयत्न होता था।

श्रीरामचन्द्रजी बाल्यकाल में गुरु आश्रम में रहते हैं तो गुरुभाइयों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि हर गुरुभाई महसूस करता है कि ‘राम जी हमारे हैं।’ श्रीराम जी का ऐसा लचीला स्वभाव है कि दूसरे के अनुकूल हो जाने की कला राम जी जानते हैं। कोई रामचन्द्र जी के आगे बात करता है तो वे उसकी बात तब तक सुनते रहेंगे, जब तक किसी की निंदा नहीं होती अथवा बोलने वाले के अहित की बात नहीं है और फिर उसकी बात बंद कराने के लिए रामजी सत्ता या बल का उपयोग नहीं करते हैं, विनम्रता और युक्ति का उपयोग करते हैं, उसकी बात को घुमा देते हैं। निंदा सुनने में रामचन्द्रजी का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाता, वे अपने समय का दुरुपयोग नहीं करते थे।

राम जी जब बोलते हैं तो सारगर्भित, सांत्वनाप्रद, मधुर, सत्य, प्रसंगोचित और सामने वाले को मान देने वाली वाणी बोलते हैं। श्रीराम जी में एक ऐसा अदभुत गुण है कि जिसको पूरे देश को धारण करना चाहिए। वह गुण है कि वे बोलकर मुकरते नहीं थे।

रघुकुल रीति सदा चलि आई।

प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।। (श्रीरामचरित. अयो.कां. 27.2)

वचन के पक्के ! किसी को समय दो या वचन दो तो जरूर पूरा करो।

आज की राजनीति की इतनी दुर्दशा क्यों है ? क्योंकि राजनेता वचन का कोई ध्यान नहीं रखते। परहित का कोई पक्का ध्यान नहीं रखते इसलिए बेचारे राजनेताओं को प्रजा वह मान नहीं दे सकती जो पहले राजाओं को मिलता था। जितना-जितना आदमी धर्म के नियमों को पालता है, उतना-उतना वह राजकाज में, समाज में, कुटुम्ब-परिवार में, लोगों में और लोकेश्वर की दुनिया में उन्नत होता है।

उपदेशक हो तो राम जी जैसा हो और शिष्य हो तो भी राम जी जैसा हो। गुरु वसिष्ठ जी जब बोलते तो राम चन्द्र जी एकतान होकर सुनते हैं और सत्संग सुनते-सुनते सत्संग में समझने जैसे (गहन ज्ञानपूर्ण) जो बिंदु होते, उन्हें लिख लेते थे। रात्रि को शयन करते समय बीच में जागते हैं और मनन करते हैं कि ‘गुरु महाराज ने कहा कि जगत भावनामात्र है। तो भावना कहाँ से आती है ?’ समझ में जो आता है वह तो राम जी अपना बना लेते लेकिन जिसको समझना और जरूरी होता उसके लिए राम जी प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में जागकर उन प्रश्नों का मनन करते थे। और मनन करते-करते उसका रहस्य समझ जाते थे तथा कभी-कभी प्रजाजनों का ज्ञान बढ़ाने के लिए गुरु वसिष्ठ जी से ऐसे सुंदर प्रश्न करते कि दुनिया जानती है कि ‘योगवासिष्ठ महारामायण’ में कितना ज्ञान भर दिया राम जी ने। ऐसे-ऐसे प्रश्न किये राम जी ने कि आज का जिज्ञासु सही मार्गदर्शन पाकर मुक्ति का अनुभव कर सकता है ‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण के सहारे।

कोई आदमी बढ़िया राज्य करता है तो श्री रामचन्द्र जी के राज्य की याद आ जाती है कि ‘अरे !…. अब तो रामराज्य जैसा हो रहा है।’ कोई फक्कड़ संत हैं और विरक्त हैं, बोले, ‘ये महात्मा तो रमते राम हैं।’ वहाँ राम जी का आदर्श रख देना पड़ता है। दुनिया से लेना-देना करके जिसकी चेतना पूरी हो गयी, अंतिम समय उस मुर्दे को भी सुनाया जाता है कि रामनाम संग है, सत्नाम संग है। राम बोलो भाई राम….. इसके  राम रम गये।’ चैतन्य राम के सिवाय शरीर की कोई कीमत नहीं। जैसे अवधपति राम के सिवाय इस नव-द्वारवाली अयोध्या में भी तो कुछ नहीं बचता है !

कोई आदमी गलत काम करता है, ठगी करता है, धर्म के पैसे खा जाता है तो बोले, ‘मुख में राम, बगल में छुरी।’ ऐसा करके भी राम जी की स्मृति इस भारतीय संस्कृति ने व्यवहार में रख दी है।

बोलेः ‘धंधे का क्या हाल है ?’

बोलेः राम जी की कृपा है, अर्थात् सब ठीक है, चित्त में कोई अशांति नहीं। भीतर में  हलचल नहीं है, द्वन्द्व, मोह नहीं है।

यह सत्संग तुम्हें याद दिलाता है कि मरते समय भी, जो रोम-रोम में रम रहा है  उस राम का सुमिरन हो। गुरुमंत्र हो, रामनाम का सुमिरन हो, जिसकी जो आदतें होती है बीमारी के समय या मरते समय भी उसके मुँह से वही निकलता है।

श्री राम चन्द्रजी प्रेम व पवित्रता की मूर्ति थे, प्रसन्नता के पुंज थे ऐसे प्रभु  राम का प्राकट्य दिन राम नवमी की आप सब को बधाई हो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2016, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 279

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