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Sant Charitra

गुरु शिष्य का संबंध प्रेम का सर्वोच्च रूप है !


परमहंस योगानंद जी अपने सद्गुरुदेव श्री युक्तेश्वर गिरिजी के साथ के मधुर संबंध का वर्णन अपने जीवन के कुछ संस्मरणों के माध्यम से करते हुए कहते हैं-

अपने गुरुदेव के साथ मेरा जो संबंध था उससे बड़े किसी संबंध की मैं इस संसार में कल्पना ही नहीं कर सकता । गुरु शिष्य संबंध प्रेम का सर्वोच्च रूप है । एक बार मैंने यह सोचकर अपने गुरु का आश्रम छोड़ दिया कि ‘मैं हिमालय में ज्यादा अच्छी तरह ईश्वरप्राप्ति के लिए साधना कर सकूँगा ।’

यह मेरी भूल थी और शीघ्र ही यह बात मेरी समझ में आ गयी । इतना होने पर भी जब मैं वापस आश्रम में आया तो गुरुदेव ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव किया जैसे मैं कभी कहीं गया ही नहीं था । वे इतने सहज भाव से बात कर रहे थे… मुझे फटकारने के बजाय उन्होंने शांत भाव से कहाः ″चलो देखें, आज खाने के लिए हमारे पास क्या है ?″

मैंने कहाः ″परन्तु गुरुदेव ! आश्रम छोड़कर चले जाने के कारण आप मुझसे नाराज नहीं हैं ?″

″क्यों नाराज होऊँ ? मैं कभी किसी से की आशा नहीं करता इसलिए किसी के कोई कार्य मेरी इच्छा के विपरीत हो ही नहीं सकते । मैं अपने किसी स्वार्थ के लिए तुम्हारा उपयोग कभी नहीं करूँगा, तुम्हारे सच्चे सुख में मुझे खुशी है ।″

जब उन्होंने यह कहा तो मैं उनके चरणों में गिर पड़ा और मेरे मुँह से ये उदगार निकल पड़ेः ″पहली बार मुझे कोई ऐसे मिल गये हैं जो मुझसे सच्चा प्रेम करते हैं !″

यदि मैं अपने पिता जी का कारोबार देख रहा होता और इस तरह बीच में ही भाग जाता तो पिताजी मुझसे सख्त नाराज होते । जब मुझे मोटी तनखाह की अच्छी नौकरी मिल रही थी और मैंने उसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था तो 7 दिन तक उन्होंने मेरे साथ बात करना बंद कर दिया था । उन्होंने मुझे अत्यंत निष्कपट पितृ-प्रेम दिया परंतु वह प्रेम अंधा था । वे सोचते थे कि धन मुझे सुख देगा । धन तो मेरे सुख में आग लगा देता । वह तो बाद में जब मैंने राँची में विद्यालय खोला तब जाकर पिता जी नरम पड़े और उन्होंने कहाः ″मुझे खुशी है कि तुमने वह नौकरी स्वीकार नहीं की ।″ परन्तु मेरे गुरुदेव की मनोवृत्ति देखो । मैं ईश्वर की खोज में उनका आश्रम छोड़कर चला गया था परंतु उससे उनके मेरे प्रति प्रेम में कोई अंतर नहीं आया । उन्होंने मुझे कुछ भला बुरा भी नहीं कहा जबकि अन्य अवसरों पर मैं कुछ गलत करता तो वे स्पष्ट शब्दों में मुझे सुना देते थे । वे कहते थेः ″यदि मेरा प्रेम समझौता करने के लिए तैयार हो जाता है तो वह प्रेम ही नहीं है । तुम्हारी प्रतिक्रिया के डर ये यदि मुझे तुम्हारे साथ अपने व्यवहार में कोई बदलाव लाना  पड़ता है तो तुम्हारे प्रति मेरी भावना को सच्चा प्रेम नहीं कहा जा सकता । मुझमें तुमसे स्पष्ट बात करने की क्षमता होनी ही चाहिए । तुम जब चाहो आश्रम छोड़कर जा सकते हो परंतु जब तक यहाँ मेरे पास हो तब तक तुम्हारी भलाई के लिए, तुम जब-जब कुछ गलत करोगे, तब-तब मैं तुम्हारे ध्यान में यह बात लाऊँगा ही ।″

मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि किसी को मुझमें इतनी रुचि होगी । वे मेरे खातिर ही मुझसे प्रेम करते थे । वे मेरी पूर्णता चाहते थे । वे मुझे सर्वोच्च रूप से सुखी देखना चाहते थे । उनकी खुशी इसी में थी । वे चाहते थे कि मैं ईश्वर को प्राप्त करूँ ।

जब गुरु और शिष्य के बीच इस प्रकार का प्रेम पनपता है तब शिष्य में गुरु के साथ कोई चालाकी करने की इच्छा ही नहीं रह जाती, न ही गुरु में शिष्य पर किसी प्रकार का कोई अधिकार या नियंत्रण स्थापित करने की कोई इच्छा रहती है । उनका संबंध केवल ज्ञान और विवेक पर आधारित होता है । इसके जैसा कोई प्रेम नहीं है । और इस प्रेम का स्वाद मैंने अपने गुरु से चखा है ।

अमृतबिंदु – पूज्य बापू जी

प्रेमी शिष्यों के हृदय में गुरु के अमृतरूपी वचन शोभा देते हैं । उन शिष्यों के हृदय में ये वचन उगते हैं और जब उनको विचाररूपी जल द्वारा सींचा जाता है तो उसमें मोक्षरूपी फल लगता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 354

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गृहस्थ में रहने की कला – पूज्य बापू जी


( संत कबीर जी जयंतीः 14 जून 2022 )

एक बार संत कबीर जी से गोरखनाथ जी ने पूछाः ″आपने तो सफेद कपड़ा पहना है, आपको पत्नी है, बेटी है, बेटा भी है, आप तो गृहस्थी हैं फिर आप महान संत कैसे ?″

कबीर जी बोलेः ″भाई ! हम महान नहीं हैं, हम तो कुछ नहीं हैं ।″

″नहीं, आप मुझे बताओ ।″

तो कबीर जी उनको अपने घर ले गये । दोपहर के 2 बजे का समय था, पत्नी को बोलाः ″लोई ! दीया लाओ, मैं अब जरा ताना बुनूँ धूप में ।″

ऐसा नहीं कि घर में कमरे के अंदर । पत्नी लोई दीया पकड़ के खड़ी हो गयी धूप में और पति ताना बुन रहे हैं । गोरखनाथ जी सोचते हैं- ‘कबीर तो पागल हैं पर लोई भी पागल है ! माथे पर अभी दोपहर का सूर्य तप रहा है फिर दीये की क्या जरूरत है !’

इतने में विद्यालय से कबीर जी की बेटी कमाली आ गयी । कमाली माँ के हाथ से दीया लेकर स्वयं दीया ले के खड़ी हो गयी । वह नहीं पूछती है कि ‘अम्मा ! यह क्यों कर रही है ?’ माँ जो कर रही है न, बस माँ को काम से छुड़ा के स्वयं ने सेवा ले ली ।

इतने में बेटा कमाल आ गया । देखा कि बहन के हाथ में दीया है, ‘अरे मेरी कुँवारी बहन बेचारी कष्ट सहन कर रही है !’ बोलाः ″नहीं बहन ! तू जा के भजन कर ।″ कमाल ने दीया ले लिया ।

गोरखनाथ जी देखते रह गये कि ‘यहाँ एक पागल नहीं है, माई भी पागल है, भाई भी पागल, बेटी भी पागल, बेटा भी पागल ! ये तो चारों पागल हैं ।

गोरखनाथ जी कबीर जी को बोलते हैं- ″मेरे को आप बताओ कि आप घर में कैसे रहते हैं ? आप बोलते हैं कि हम अकेले हैं घर में, आप तो चार हैं !″

कबीर जी ने कहाः ″महाराज ! चार कैसे, हम एक ही हैं ।″

बोलेः ″एक कैसे ? तुम्हारी पत्नी है, बेटा है, बेटी है ।″

″महाराज ! बेटा-बेटी, पत्नी और मैं – हम चार दिखते हैं परंतु हम सब एकमत हैं । जहाँ सबका एकमत होता है वहाँ सिद्धान्त, सफलता आ जाती है । जैसे तरंगे भिन्न-भिन्न दिखती हैं परंतु गहराई में शांत जल है, ऐसे ही ऊपर-ऊपर से भिन्न-भिन्न स्वभाव दिखते हैं परंतु अंदर से वही चैतन्य है । यह अद्वैत ज्ञान है । इससे सारे सद्गुण पैदा होते हैं । विश्वभर की शंकाओं का समाधान केवल वेदांत के ज्ञान से ही आता है । इसलिए अद्वैत ज्ञान, एकात्मवाद का जो प्रकाश है वह जीवन में सुख-शांति देता है । हम घर में भी साधु हैं । एकमत हो के बैठते हैं ।″

कबीर जी की ऐसी अद्वैतनिष्ठा देखकर गोरखनाथ जी बड़े प्रसन्न हुए कि ″आ हा ! गृहस्थी हों तो ऐसे हों ।″

ऐसा कोई आनंद और सामर्थ्य नहीं है जो अद्वैत की भावना से पैदा न हो । जिन-जिन व्यक्तियों के जीवन में जितना-जितना अद्वैत व्यवहार, अद्वैत ज्ञान है उन-उन व्यक्तियों के जीवन में सुख-शांति, मधुरता व प्रसन्नता है और सफलता है और प्रकृति हर पग पर उनको सहायता पहुँचाती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 11 अंक 353

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उस एक को नहीं जाना तो सब जानकर भी क्या जाना – पूज्य बापू जी


( देवर्षि नारद जी जयंतीः 17 मई 2022 )

देवर्षि नारद जी ने बहुत-बहुत परोपकार किये, बहुत शास्त्र पढ़े, बहुत लोक-मांगल्य के काम किये । नारद जी के लोक-मांगल्य का पुण्य उदय हुआ, उनके मन में विचार उठा कि ‘जिसको पाने के बाद कुछ पाना बाकी नहीं रहता, जिसको जानने के बाद कुछ जानना बाकी नहीं रहता और जिसको जानने से व्यक्ति शोकमुक्त हो जाता है वह मैंने नहीं जाना, नहीं पाया ।’

नारद जी पैदल यात्रा करते-करते जहाँ सनकादि ऋषि एकांत अरण्य में रहते थे वहाँ पहुँचे । दंडवत् प्रणाम किया और उनमें गुरुभाव रखते हुए स्तुति की ।

हालाँकि सनकादि ऋषि भी ब्रह्मा जी के पुत्र हैं और नारद जी भी । सनकादि ऋषि हैं पुरखों के पुरखे किंतु योगबल से सदा 5 साल के ही नन्हें-मुन्ने दिखते हैं । वस्त्रहीन भी रहें तो पवित्र बालक ही हैं । उनमें 3 तो बनते हैं सत्संग सुनने वाले श्रोता और एक बनते हैं वक्ता और ब्रह्मचर्चा, परमात्म-सुख की बात करते हैं । उनके पास नारद जी गये, बोलेः ″प्रभु ! मैं आपकी शरण आया हूँ ।″

सनकादि ऋषियों में से सनत्कुमार जी ने पूछाः ″तुम क्या-क्या जानते हो ?″

बोलेः ″मैं चार वेद जानता हूँ, इसके उपरांत इतिहास-पुराणरूप पंचम वेद, वेदों का वेद ( व्याकरण ), इसके उपरांत श्राद्धकल्प, गणित, उत्पात-विद्या, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, देव विद्या, निरुक्त, वेद विज्ञान, भूत तंत्र, क्षत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, सर्प विद्या ( गारूड मंत्र ) देवजन विद्या ( नृत्य संगीत ) आदि सभी विद्याएँ जानता हूँ । कंस जैसों को कुछ कहना और वसुदेव जैसों को कुछ कहकर भी भगवान की कृपा का प्रसाद समाज में कैसे बँटवाना यह भी जानता हूँ । कलह करवा के भी कल्याण करना जानता हूँ । ये सब जानता हूँ महाराज ! किंतु जिसको जानने से सब जाना जाता है, जिसको पाने से सब पाया जाता है उसको नहीं पाया है, नहीं जाना है । जिसमें स्थित होने के बाद बड़े भारी दुःख से भी व्यक्ति चलायमान नहीं होता उस निर्दुःख पद का, उस आत्मानुभव का आनंद अभी तक नहीं मिला । आप जैसों से सुना है कि

तरति शोकं आत्मवित् ।

आत्मा को जानने वाला शोकरहित हो जाता है । किंतु मुझे अभी तक हर्ष-शोक व्यापता है ।″

मनुष्य-जीवन में अगर शोकरहित नहीं हुए, परम पद नहीं पाया तो जीवन पशु की तरह व्यर्थ गया । पशु तो अपनी पशुता के कर्म काट के मनुष्यता की तरफ आ रहा है और मनुष्य अगर वह परम पद नहीं पाता है तो मनुष्यता खोकर पशुता की तरफ जायेगा, प्रेत योनियों में जायेगा । मनुष्य-जीवन का यही फल है कि शोक से पार हो जायें, भय से पार हो जायें । शोक बीत हुए का होता है और भय आने वाला का होता है । प्रतिष्ठा चली न जाय, धन चला न जाय इसका भय रहता है, सत्ता और स्वास्थ्य चला न जाय इसका भी भय रहता है । कहा गया हैः

निरभउ जपै सगल भउ मिटै ।।

प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै ।।

आप उस निर्भय को अपना मानिये, जपिये । जो पहले आपका था, अभी है, बाद में रहेगा । आपकी कुर्सी पहले नहीं थी बेटे ! बाद में भी नहीं रहेगी, अब भी समय की धारा में नहीं की तरफ जा रही है । शरीर, पद, सत्ता भी नहीं की तरफ जा रहे हैं । जो नहीं था उसको ‘नहीं’ मान लो फिर उसका उपयोग करो, तत्परता से व्यवस्था करो पर उसको सत्य मत मानो । और जो सत्य है उसको ‘सत्य’ मान लो, जान लो बस !

तो सनत्कुमार जी ने उपदेश दियाः ″यह सारा विश्व ही नारायण स्वरूप है । पृथ्वी ब्रह्म है ।″

नारदजी ने कहाः ″पृथ्वी ब्रह्म तो है परंतु पृथ्वी में उथल-पुथल होती है ।″

″ठीक है नारद ! तुम्हारी बुद्धि विकसित है । पृथ्वी से जल सूक्ष्म है, रसमय है, पृथ्वी की अपेक्षा व्यापक भी है । जल ब्रह्म है ।″

″जल ब्रह्म है किंतु इसमें भी परिवर्तन और विकार है प्रभु !″

″तेज ब्रह्म है ।″

″तेज ब्रह्म है लेकिन तेज भी 5 भूतों का एक अंश है । तेज तत्त्व में परमात्म-सत्ता है परंतु तेज पूर्ण ब्रह्म तो नहीं है ।″

″नारद जी ! और अंतर्मुख हो रहे हो, ठीक बात है । वायु ब्रह्म है । अग्नि से भी वायु अधिक व्यापक है । प्राण ही तो ब्रह्म है, प्राण निकल गये तो सब व्यर्थ हो जाता है । पेड़-पौधों में भी चेतनता प्राण से ही है और मनुष्यों, जीव-जन्तुओं और जहाज का गमनागमन भी तो प्राण के बल से – हवा के बल से ही होता है । और प्राण और अधिक व्यापक है ।″

नारद जी उसमें संतुष्ट होने लगे । दयालु सनत्कुमार जी ने करूणा करके कहाः नारद ! नहीं-नहीं, इससे भी आगे चलो । आकाश ब्रह्म है । किंतु यह आकाश तो दृश्य है, भूताकाश है । भूताकाश से भी और आगे… भूताकाश जिससे दिखता है वह ब्रह्म है ।″

बोलेः ″वह चित्ताकाश है ।″

″चित्ताकाश भी परिवर्तित होता है, उसको जो जानता है नारद ! वह है भूमा, नित्य सुख, उसके परमात्मा कहते हैं । यो वै भूमा तत्सुखम् ।

उस भूमा, व्यापक ब्रह्म-परमात्मा को ज्यों-का-त्यों जानो । आकृतियों में जो देवी-देवता हैं वे सब अच्छे हैं परंतु ये सारी आकृतियाँ जहाँ से प्रकट होती हैं, जिसकी सत्ता से बोलती हैं और जिसमें विलय हो जाती हैं उस भूमा ईश्वर को जानोगे तब पूर्ण सुखी हो जाओगे ।″

सनत्कुमार जी के तत्त्वज्ञान के उपदेश से नारद जी हर्ष-शोक से परे उस भूमा में स्थित हुए । इस प्रकार गुरु ने उपदेश दे के एक से एक सूक्ष्म-सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम की यात्रा कराते-कराते सबके सार में, चिदाकाश ब्रह्म में नारद जी को प्रतिष्ठित कर दिया ।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 353

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