कई लोगों को होता है कि ʹहम सियाराम-सियाराम…. हरि ૐ-हरि ૐ…ʹ करते हैं, शिविर भरते हैं, शराब-कबाब छोड़ दिया है फिर भी भगवान नहीं मिलते। क्यों ?
जो चीज अधिक आसान होती है, आसानी से मिलती है। उसका लाभ भी तुच्छ होता है, छोटा होता है। जिस मौसम में जो सब्जी या फल ज्यादा होते हैं उसकी कीमत भी कम होत है।
जीवन में सोना इतना काम नहीं आता जितना की लोहा। भोजन बनाने में, औजार बनाने में, मकान आदि बनाने में लोहा जितना उपयोगी है उतना उपयोग सोने का नहीं है। लेकिन कम मात्रा में मिलने के कारण महँगा सोना खरीदा भी जाता है और बड़े यत्न से रखा भी जाता है।
लखपति के लि 25-50 या 100-200 रूपये की कोई कीमत नहीं किन्तु गरीब व्यक्ति के लिए तो 1-2 रूपये भी कीमती हैं।
जिनके यहाँ साल-दो-साल में बालक आ जाते हैं उन्हें बालक मुसीबत से लगते हैं जबकि जिनके यहाँ 15-20 साल बाद बालक का जन्म होता है तो उन्हें लगता है कि मानो, साक्षात देवता ही आ गये हों।
इसी प्रकार अगर वह परब्रह्म-परमात्मा यदि आसानी से मिल जाता तो उसका आनंद, उसका माधुर्य नहीं ले पाते लेकिन बहुत यत्न करते-करते जब मिलता है तो खूब आनंद-माधुर्य छलकता है।
यहाँ दूसरा प्रश्न उठ सकता है कि ʹफिर भी सबको तो भगवान नहीं मिलते। क्यों ?
हाँ, यह बात सही है लेकिन सबको न मिलने का कारण होता है। एक होती है इच्छा और दूसरी होती है आकांक्षा। इच्छा केवल दिमाग को घुमाती है जबकि आकांक्षा मन-बुद्धि को उसमें सक्रिय भी करती है। दुर्बल इच्छा या दुर्बल आकांक्षा वाला व्यक्ति ईश्वर की प्राप्ति तक की यात्रा नहीं कर पाता है।
अच्छा, यह बात भी स्वीकार कर ली तो पुनः एक प्रश्न उठ सकता है कि ʹइच्छा बढ़कर आकांक्षा बनती है और आकांक्षा जब तीव्र होती है तब जीव ईश्वर को पाता है। यह बात भी ठीक है परंतु जिसकी दुर्बल इच्छा-आकांक्षा है तो वह यदि ईश्वर के रास्ते चला और ईश्वर नहीं मिला तो फिर उसकी इतनी मेहनत का क्या लाभ ? संसार के आकर्षणों के त्याग का क्या लाभ ?
इसका उत्तर है कि संसार की चीजों को पाने का आपने यत्न किया और वे नहीं मिलीं तो आपका यत्न व्यर्थ गया किन्तु ईश्वर को पाने का यत्न किया और ईश्वर इस जन्म में नहीं मिले तो भी वह यत्न व्यर्थ नहीं जाता।
संसार की चीजें जड़ हैं, उन्हें पता नहीं कि ʹआप उनको पाना चाहते हैंʹ। अतः अगर आपको वे चीजें नहीं मिलतीं, तब भी आपकी दुर्बल इच्छा-आकांक्षाओं को सबल बनाने की ताकत उन जड़ वस्तुओं में नहीं है जबकि आपकी आरंभिक दुर्बल इच्छा-आकांक्षा को देखकर अंतर्यामी परमात्मा सोचता है कि ʹनिर्बल के बल राम….।ʹ देर-सबेर, इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में, इस जन्म की गयी इच्छा-आकांक्षा को, इस जन्म की साधना को पुष्ट बनाकर वह प्रियतम परमात्मा स्वयं ही मिल जाता है।
इस जन्म का वकील, डॉक्टर दूसरे जन्म में पुनः वकील, डॉक्टर बनना चाहे तो जरूरी नहीं कि बन ही जाये ओर अगर बने भी तो उसे आरंभ तो क, ख, ग, घ… , A, B, C, D…. आदि से ही आरंभ करना पड़ेगा। लेकिन इस जन्म का अगर कोई भक्त है तो दूसरे जन्म में उसे फिर से भक्ति की A, B, C, D…. करने की जरूरत नहीं है वरन् जहाँ से भक्ति छूटी है, वहीं से शुरू हो जायेगी।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोઽभिजायते।।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।।
ʹयोगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है।ʹ (गीताः 6.41.42)
आध्यात्मिक सफलता ऊँची चीज है। वह अनायास और जल्दी नहीं मिलती है वरन् ऊँची चीजों के लिए ऊँचा प्रयत्न करना पड़ता और ऊँची चीजों की महत्ता को स्वीकारना पड़ता है। अमर तत्त्व की प्राप्ति, परमात्मा की प्राप्ति की तीव्र इच्छा कोई मजाक नहीं है। उसमें खूब विवेक चाहिए।
जिसकी ईश्वर प्राप्ति की आकांक्षा खूब तीव्र होती है, वह इसी जन्म में ईश्वर को पा लेता है और आकांक्षा अगर तीव्र नहीं है तो कालान्तर में वह तीव्र बनती है और वह ईश्वर को पा लेता है। किन्तु कालान्तर में तीव्र बने, इसका इन्तजार क्यों करो ? बल्कि अभी तीव्र बना लो। जैसे शहद के छत्ते में एक रानी मधुमक्खी होती है। रानी मधुमक्खी जहाँ जाती है वहाँ बाकी की सारी मधुमक्खियाँ उसी का अनुसरण करती हैं। ऐसे ही आपके जीवन में ईश्वरप्राप्ति की इच्छा को रानी बना दो, मुख्य बना दो तो जो कई जन्मों के बाद मिल सकता है वह अमर तत्त्व, वह अमर पद आप इसी जन्म में पा सकते हैं। केवल अपनी आकांक्षा को तीव्र कर दो, बस।
कई लोग व्यवहार में विफल होते हैं तो कहते हैं- ʹभाई ! मैंने धंधा तो किया किन्तु चला नहीं क्योंकि संघर्ष बहुत था… यह काम तो किया लेकिन क्या करें ? भाग्य ही ऐसा था…. पिता-भाई-भागीदार ने साथ नहीं दिया…ʹ वगैरह-वगैरह। सच बात तो यह है कि उनकी आकांक्षा की तीव्रता नहीं होती इसलिए वे विफल होते हैं और दोष देते हैं व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति को।
विफलता का मुख्य कारण यही है कि आकांक्षारूपी रानी मधुमक्खी के अभाव में साधारण मधुमक्खी बैठा देते हैं और दोष परिस्थितियों को देते हैं। ʹभाई ! इसने धोखा दे दिया… उसने ऐसा कर दिया….ʹ जबकि किसी की आकांक्षा तीव्र होती है तो वह कार्य को पूरा करके ही छोड़ता है और उस कार्य में सफल भी होता है।
जैसे, सांसारिक कार्यों में भी व्यक्ति दुर्बल इच्छा व आकांक्षा व असावधानी के कारण विफल होता है, ठीक वैसा ही ईश्वरप्राप्ति का कार्य है। यदि व्यक्ति की ईश्वरप्राप्ति की आकांक्षा तीव्र नहीं होती तो उसका ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य भी सिद्ध नहीं होता। अतः व्यक्ति को चाहिए कि आकांक्षा को तीव्र बनाये।
आकांक्षा को तीव्र कैसे बनाया जाये ? रोज सुबह उठकर संकल्प करें- “मैं अमर तत्त्व को पाऊँगा। जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रहता, जिसे जानने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रहता और जिसमें स्थिर रहने के बाद बड़े भारी दुःख से भी आदमी विचलित नहीं होता, जिसमें स्थिर होने के बाद इन्द्र का पद भी तुच्छ लगता है उसी में मैं स्थिर रहूँगा….।” इस संकल्प को रोज जोर से दुहरायें। सूर्योदय और संध्या के वक्त का फायदा लें, उपासना करें। महाभारत में यह लिखा है कि ऐसा करने वाले व्यक्ति की धृति, मेधा और प्रज्ञा बढ़ती है। अतः सूर्योदय और सूर्यास्त के वक्त का उपयोग उपासना में करो। चूको नहीं।
दृढ़तापूर्वक इस छोटे से नियम को पालो। तमाम व्यावहारिक विडंबनाएँ मिटाने का सामर्थ्य और ईश्वरप्राप्ति का रास्ता तय करने में भी इससे आसानी होगी। हिम्मत करो।
आलस कबहुँ न कीजिये आलस अरि सम जानि।
आलस से विद्या घटे बल-बुद्धि की हानि।।
रात को जल्दी सो जाओ, रात्रि का भोजन जल्दी कर लो। सुबह जल्दी उठो और इस संकल्प को आत्मसात् कर लो तो अमर तत्त्व पाने की आकांक्षा बढ़ेगी।
दूसरी बात है कि भगवान की महत्ता जान लो कि भगवान सबसे महान हैं। सब पदों से भी परमात्मपद ऊँचा है। सब यशस्वी और सुखियों से भी परमात्मपद को पाये हुओं का यश और सुख ऊँचा है।
जो लोग दान-पुण्य करके सुखी और यशस्वी होना चाहते हैं, ठीक है… धन्यवाद के पात्र हैं वे, लेकिन परमात्मप्राप्ति वालों का यश और सुख अदभुत होता है। धन या सत्ता के बल से जो यशस्वी और सुखी होना चाहते हैं उनका यश सुख भी स्थायी नहीं होता। जो अपने मधुर स्वभाव के बल से यशस्वी-सुखी होना चाहते हैं उनसे भी परमात्मप्राप्तिवालों का सुख और यश ऊँचा होता है। जो दान-पुण्य नहीं करते हैं उनकी अपेक्षा दान-पुण्य करने वालों का यश-सुख टिकता है लेकिन अखंड आत्मतत्त्व को पाये हुओं का सुख अखंड टिकता है। यश तो उऩ्हीं का स्थायी होता है जो तीव्र प्रयास करके, ऊँचा प्रयास करके ऊँचे में ऊँची चीज आत्मदेव को पा लेता है।
इस प्रकार जितनी-जितनी आप ऊँची चीज पसंद करते हैं उतनी-उतनी ही तीव्र आकांक्षा रखनी पड़ती है। उतना ही ऊँचा पुरुषार्थ करना पड़ता है तभी उतना ऊँचा सुख या यश टिकता है।
बालक छोटे-छोटे खिलौनों से या लॉलीपॉप बिस्किट से भी रीझ जाता है किन्तु वही बालक जब बड़ा हो जाता है तो क्या उसे हीरे के लिए लालीपॉप या बिस्किट से रिझाया जा सकता है ? नहीं, क्योंकि उसकी मति अब कुछ सुयोग्य बनी हैं। ऐसे ही यह जगत भी लालीपॉप या बिस्किट के टुकड़े जैसा है और परमात्मा हीरों का हीरा है। आपकी मति ऐसी बने कि जगत की किसी भी ऊँचाई को पाने की लालच में ईश्वरप्राप्ति की इच्छा को न छोड़ दें। किसी शत्रु को ठीक करने में कहीं आपका ईश्वर न छूट जाये। किसी मित्र को रिझाने में कहीं आपका ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य न छूट जाये। किसी सुविधा को पाने में कहीं आप अपने लक्ष्य से च्युत न हो जायें। कोई असुविधा आपकी ईश्वरप्राप्ति की उमंग को न छुड़वा दे। ऐसी सतर्कता रखनी चाहिए।
गलती यह होती है कि ईश्वरप्राप्ति की इच्छा-आकांक्षा तीव्र न होने के कारण हम ईश्वरप्राप्त की बात को एवं जहाँ ईश्वरप्राप्ति की बात सुनने को मिलती है उन महापुरुषों को सुनते हुए भी नहीं सुनते हैं।
ʹमहाराज ! यह कैसे ? ईश्वरप्राप्ति की जो बातें बताते हैं उन महापुरुषों के वचनों को हम सुनते हुए भी नहीं सुनते, यह कैसे ?ʹ
एक बार गौतम बुद्ध ने यही बात आनंद से कही थी किः “आनंद ! मुझे कोई नहीं सुनता है। सब अपने-अपने को ही सुनते हैं।”
“भंते ! यह कैसे ? सब आपको सुनने के लिए ही तो आते हैं।”
“नहीं आनंद नहीं। सब मुझे सुनने के लिए नहीं आते बल्कि अपने को ही सुनने के लिए आते हैं और जो जैसा है वैसा ही सुनता है।”
आनंद फिर भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। तब बुद्ध बोलेः
“आज खुद ही इस बात का पता चल जायेगा, आनंद !”
शाम का सत्संग पूरा हुआ, तब बुद्ध ने प्रतिदिन की तरह आज भी दुहराया किः “जाओ, समय बीता जा रहा है… अपने-अपने काम में तत्परता से लगो। दिया हुआ वायदा जरूर निभाना चाहिए। बीता हुआ समय वापिस नहीं आता है। अपना वायदा निभाने वाला व्यक्ति ही सफल होता है।”
इतना कहकर बुद्ध उठे एवं राहगीरों के रास्ते पर आनंद को लेकर खड़े हो गये। पहले-पहले एक वेश्या निकली। उससे पूछाः “तुमको आज सत्संग में कौन सी बात अच्छी लगी ?”
“भगवन् ! आप और यहाँ !! आप सचमुच में भगवान हैं, अंतर्यामी हैं। आज की यह बात तो बहुत ही बढ़िया थी कि ʹदिया हुआ वचन निभाना चाहिए।ʹ आज मैं एक बड़े सेठ को वक्त दे आयी थी और आपने मुझे वक्त पर ही अपना वायदा याद दिला दिया। आप सचमुच ही अंतर्यामी हैं।”
इस प्रकार वेश्या ने अपने को ही सुना, बुद्ध को नहीं।
इतने में दूसरा आदमी निकला। उससे पूछाः “भाई ! आज तुम्हें सबसे ज्यादा क्या बढ़िया लगा ?”
उसने कहाः “वायदा निभाने वाली बात बहुत बढ़िया थी। आज हमने साथियों को वायदा दे रखा है और जहाँ डाका डालना है वहाँ यदि वक्त निकल जायेगा तो हम विफल हो जायेंगे। अतः वक्त कहीं बीत न जाये, इसकी याद दिला दी भंते ने।”
डाकू ने भी अपने को ही सुना। इतने में एक भिक्षु को रोका और उससे पूछाः
“भैया ! आज तुमने क्या सुना ?”
भिक्षुः “हर मनुष्य माँ के गर्भ में प्रार्थना करता है कि ʹहे प्रभु ! बाहर निकलकर तेरा भजन करेंगे।ʹ यह वादा करके गर्भ से बाहर निकलता है कि ʹअब वक्त व्यर्थ नहीं करेंगे, अपना जीवन सार्थक करेंगे।ʹ भंते ! आप भी रोज कहते हैं कि ʹसमय बीत रहा है…ʹ मौत कब आकर गला दबोच ले इसका कोई पता नहीं है इसलिए वक्त का सदुपयोग करेंगे। कहीं असत् वस्तुओं में वक्त न चला जाये, असत् आकांक्षाओं में वक्त न चला जाये, असत् इच्छाओं में वक्त न चला जाये क्योंकि ʹबीता हुआ समय फिर वापस नहीं आता।ʹ आपकी यह बात हमें बहुत जँची।”
तब बुद्ध ने आनंद से कहाः “देख आनंद ! इसने भी अपने को ही सुना है। यह भिक्षु है, इसलिए अपने को ठीक ढंग से सुना है। डाकू और वेश्या ने अपने ढंग से सुना था और भिक्षु ने अपने ढंग से। इस प्रकार सब अपने को ही सुनते हैं।”
फिर भी जैसे पिता बच्चे की हजार-हजार बात मान लेते हैं और बच्चे की भाषा में अपनी भाषा मिला देते हैं, ʹरोटीʹ को ʹलोतीʹ बोल लेते हैं ताकि बच्चा आगे चलकर पिता की भाषा सीख ले। ऐसे ही बुद्ध पुरुष आपकी हजार-हजार ʹहाँʹ में ʹहाँʹ भर लेते हैं ताकि एक दिन तुम भी उनकी हाँ में हाँ भरने की योग्यता पा लो। ईश्वरप्राप्ति की इच्छा-आकांक्षा तीव्र करके मुक्त होने का सामर्थ्य पा लो।
ईश्वरप्राप्ति की आकांक्षा अगर तीव्र हो गयी तो फिर मुक्ति पाना तो वैसे भी सहज ही हो जायेगा और इसके लिए आवश्यक है साधन भजन की तीव्रता।
मान लो, किसी दुकानदार का लक्ष्य है रोज 2000 रूपये का धंधा करना। रात होते-होते उसका 2500-3000 रूपयों का धंधा हो जाता है। एक दिन अगर उसने सुबह-सुबह ही 4500 रूपयों का धंधा कर लिया तो क्या वह दुकान बंद कर देगा कि आज का लक्ष्य पूरा हो गया ? नहीं नहीं, वह सारा दिन दुकान चालू रखेगा कि 5000 रूपयों का धंधा हो जाये… 6000 रूपयों का हो जाये। जब मनुष्य को नश्वर धन मिलता है तब भी वह लोभ बढ़ा लेता है ऐसे ही शाश्वत साधन-भजन और निष्ठा में लोभ बढ़ा दे तो तीव्र आकांक्षा आत्मसाक्षात्कार करा देगी।
कबीरजी ने कहा हैः