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स्वास्थ्य प्रदायक नीम


ʹनिम्बति-स्वास्थ्य ददातिʹ अर्थात् जो निरोग करे दे, स्वास्थ्य प्रदान करे वह है ʹनीमʹ। नीम वृक्ष के पंचांग-पत्ते, फूल, फल, छाल एवं जड़ यानी सम्पूर्ण वृक्ष ही औषधीय गुणों से भरपूर है। नीम की छाया भी स्वास्थ्यप्रद है। अतः इसकी छाया व हवा में विश्राम करना श्रेयस्कर है। नीम ठंडा, कड़वा, पित्त व कफशामक परंतु वातवर्धक है।

नीम के पत्तेः उत्तम जीवाणुनाशक व रोग प्रतिकारक शक्ति को बढ़ाने वाले हैं। नीम की कोंपलें चबाने से रक्त की शुद्धि होती है। पत्तियों का 1-1 बूँद रस आँखों में डालने से आँखों को ठंडक व आराम मिलता है तथा मोतियाबिंद से आँखों की रक्षा होती है। रस में मिश्री मिलाकर पीने से शरीर की गर्मी शान्त हो जाती है। चुटकी भर पिसा हुआ जीरा, पुदीना और काला नमक मिला कर  पीने से अम्लपित्त (एसीडिटी) में राहत मिलती है। यह शरबत हृदय को बल व ठंडक पहुँचाता है। उच्च रक्तचाप में एक सप्ताह तक रोज सुबह रस पीयें, फिर 2 दिन छोड़कर 1 सप्ताह लगातार पीने से लाभ होता है। नीम के रस में 2 ग्राम रसायन चूर्ण मिलाकर पीना स्वप्नदोष में लाभदायी है।

नीम की पत्तियों का रस शहद के साथ देने से पीलिया, पांडुरोग व रक्तपित्त (नाक, योनि, मूत्र आदि द्वारा रक्तस्राव होना) में आराम मिलता है।

फिरंग (सिफिलिस) व सूजाक (गोनोरिया) में भी नीम की पत्तियों का रस विशेष लाभदायी है। विषैला पदार्थ पेट में चला गया हो तो नीम का रस पिलाकर उलटी करने से आराम मिलता है। नीम रक्त व त्वचा की शुद्धि करता है। अतः दाद, खाज, खुजली आदि त्वचारोगों से नीम के पंचागों का काढ़ा अथवा रस पिलायें तथा नीम का तेल लगायें। पत्तियाँ दही में पीसकर लगाने से दाद जड़ से नष्ट हो जाती है।

बहुमूत्रता (बार-बार पेशाब होना) में भी नीम के रस में आधा चम्मच हल्दी का चूर्ण मिलाकर पीना लाभदायी है।

नीम दाहशामक है। बुखार में होने वाली जलन अथवा हाथ – पैरों की जलन में नीम की पत्तियाँ पीसकर लगाने से ठंडक मिलती है।

नीम की पत्तियों के रस में शहद मिलाकर पिलाने से पेट के कृमि नष्ट होते हैं।

चेचक में नीम की पत्तियों का रस शरीर पर मलें। रस को गुनगुना करके सुबह दोपहर शाम पिलायें। बिस्तर पर पत्तियाँ बिछा दें तथा दरवाजे और खिड़कियों पर बाँध दें।

सभी प्रयोगों में रस की मात्राः 20 से 30 मि.ली.।

नीम की आंतर छाल (अंदर की छाल)- 3 ग्राम पिसी हुई छाल व 5 ग्राम पुराना गुड़ मिलाकर खाने से बवासीर में आराम मिलता है। इससे ज्वर भी शांत हो जाता है। छाल पीसकर सिर पर लगाने से नकसीर बंद हो जाता है।

नीम के फूलः ताजे फूलों का 20 मि.ली. रस पीने से फोड़े-फुँसियाँ मिट जाती हैं। चैत्र महीने ( 9 मार्च से 6 अप्रैल तक) में 15 दिन तक सुबह फूलों का रस पीयें। इन दिनों बिना नमक का भोजन करें, खट्टे, तीखे व तले हुए पदार्थ न खायें। इससे सभी  प्रकार के त्वचा विकारों में लाभ होता है और रोगप्रतिकारक शक्ति भी बढ़ती है।

निबौली (नीम का फल)- अप्रैल-मई में जब ताजे फल लग जाते हैं तब पकी हुई 10 निबौलियाँ रोज खायें। इससे रक्त की शुद्धि होती है तथा भूख भी खुलकर लगती है। निबौली की चटनी भी स्वादिष्ट व स्वास्थ्यवर्धक है। यह अर्श (बवासीर) नाशक है।

नीम की टहनीः 1 अंगुल मोटी व 8-10 इंच लम्बी सीधी टहनी तोड़कर उसके अग्रभाग को दाँतों से चबाकर दातुन बनायें। उससे दातुन करने से दाँत स्वच्छ, चमकीले व मजबूत बनते हैं तथा मसूड़े व दाँतों के रोग नहीं होते। मुँह के कैंसर की तेजी से बढ़ती हुई समस्या को यह प्रयोग नियंत्रित कर सकता है। यह दाँत के कृमियों को नष्ट करता है।

बाह्य प्रयोगः नीम की छाल का काढ़ा बनाकर उससे घाव धोने से वह जल्दी भर जाता है।

पुराने घाव तथा मधुमेहजन्य घाव (Diabetic Ulcers), चर्मरोग, पैरों के तलुए की जलन आदि समस्याओं में नीम तेल लगाने से लाभ होता है। दाँतों की सड़न में नीम के पंचांग काढ़े के कुल्ले करने से राहत मिलती है।

नीम के पेड़ के नीचे पड़े हुए सूखे पत्ते व शाखाओं का धुआँ करने से वायुमंडल शुद्ध और स्वच्छ रहता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 231

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साधकों की सेवा का प्रेरक पर्वः अवतरण दिवस


(पूज्य बापू जी का 72वाँ अवतरण दिवसः 11 अप्रैल)
जीवन के जितने वर्ष पूरे हुए, उनमें जो भी ज्ञान, शांति, भक्ति थी, आने वाले वर्ष में हम उससे भी ज्यादा भगवान की तरफ, समता की तरफ, आत्मवैभव की तरफ बढ़ें इसलिए जन्मदिवस मनाया जाता है।
ʹजन्मʹ किसको बोलते हैं ? जो अव्यक्त है, छुपा हुआ है वह प्रकट हुआ इसको ʹजन्मʹ बोलते हैं। और ʹअवतरणʹ किसको बोलते हैं ? जो ऊपर से नीचे आये। जैसे राष्ट्रपति अपने पद से नीचे आये और स्टेनोग्राफर को मददरूप हो जाय, उनके साथ मिलकर काम करे-कराये इसको बोलते हैं, ʹअवतरणʹ। अवतरण, जन्म, प्राकट्य इन सबकी अपनी-अपनी व्याख्या है परंतु हमको क्या फायदा ? हम यह व्याख्या समझेंगे, विचारेंगे तो हम अपने कर्म-बन्धन से, देह के अहं से, दुःख के साथ तादात्म्य से और सुख के भ्रम से पार हो जायेंगे।
भगवान की जयंती, महापुरुषों का अवतरण दिवस अथवा अपना शास्त्रीय ढंग से मनाया गया जन्मदिवस एक लौकिक कर्म दिखते हुए भी इसके पीछे आधिदैविक उन्नति छुपी है। और इसके पीछे आधिदैविक उन्नति छुपी है। और किन्हीं संत-महात्मा की हाजिरी में यह होता है तो आध्यात्मिक उन्नति का प्राकट्य होता है।
कुछ लोग केक काटते हैं, मोमबत्तियाँ फूँकते हैं और फूँक के द्वारा लाखों-लाखों जीवाणु थूकते हैं, ʹहैप्पी बर्थ डे, हैप्पी बर्थ डे…ʹ करते हैं। यह जन्मदिवस मनाने का पाश्चात्य तरीका है लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति में इस तरीके को अस्वीकार कर दिया गया है। हमारा जीवन अंधकार में से प्रकाश की ओर जाने के लिए है। अंधकारमयी कई योनियों से हम भटकते हुए आये, अब आत्मप्रकाश में जियें। तमसो मा ज्योतिर्गमय – हम अंधकार से प्रकाश की तरफ जायें। वे जो मोमबत्तियाँ, दीये जले होते हैं, उन्हें फूँकते-फूँकते बुझाकर प्रकाश को अंधकार में परिवर्तित करना तथा बासी अन्न (केक) का काट-कूट करना और फिर बाँटना…. छी ! छी ! अगर बुद्धिमत्ता हो तो केक खाने वाले को देखकर वमन आ जाय। क्योंकिक जो फूँकता है न, फूँक में लाखों-लाखों जीवाणु थूकता है। ऐसा भी लोग जन्मदिवस मनाते हैं। खैर अब सत्संग द्वारा जागृति आने से उस अंध-परम्परा में कमी हुई है, सजगता आयी है लेकिन अभी भी कहीं-कहीं मनाते हैं।
जन्मदिवस मनाने के पीछे उद्देश्य होना चाहिए कि आज तक के जीवन में जो हमने अपने तन के द्वारा सेवाकार्य किया, मन के द्वारा सुमिरन किया और बुद्धि के द्वारा ज्ञान-प्रकाश पाया, अगले साल अपने ज्ञान में परमात्म-तत्त्व के प्रकाश को हम और भी बढ़ायेंगे, सेवा की व्यापकता को बढ़ायेंगे और भगवत्प्रीति को बढ़ायेंगे। ये तीन चीजें हो गयीं तो आपको उन्नत बनाने में आपका यह जन्मदिवस बड़ी सहायता करेगा। परंतु किसी का जन्मदिवस है और झूम बराबर झूम शराबी… पेग पिये और क्लबों में गये तो यह सत्यानाश दिवस साबित हो जाता है।
शरीर आधिभौतिक है, मन, बुद्धि, अहं आधिदैविक हैं और अध्यात्म-तत्त्व इन दोनों से परे है, उनको जाननेवाला है। भगवान श्रीकृष्ण कृपा करके अपना अनुभव बताते हैं-
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः
(गीताः4.9)
अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है ऐसा जो जानता है उसके भी जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं और वह मुझे मिलता है, ऐसे मिलता है जैसे दो सरोवर के बीच का पाल टूट जाय तो कौन-से सरोवर का कौन सा पानी यह पृथक करना सम्भव नहीं रहता। ऐसे ही जीव का जीवत्व छुट जाय और ईश्वर का अपना ईश्वरत्व बाधित हो जाय तो वास्तव में दोनों में एक परब्रह्म परमात्मा लहरा रहा था, लहरा रहा, लहराता रहेगा।
जीव जो अव्यक्त है, अप्रकट है वह प्रकट होता है तो उसका जन्म होता है और प्रकटी हुई चीज फिर विसर्जित होती है, होने को जाती है तो वह मृत्यु होता है। जैसे शरीर मर गया तो इसको श्मशान में जलाने को ले जायेंगे तो जलीय अंश जल में चला जायेगा, वायु का अंश वायु में, अग्नि का अंश अग्नि में, पृथ्वी तत्त्व का अंश कुछ राख, हड्डियाँ बच जायेंगी तो वह अव्यक्त हो गया। मृत्यु हो गयी और कहीं फिर जन्म हुआ, व्यक्त हुआ तो जन्म। तो अव्यक्त होना विसर्जित होना इसको मृत्यु कहा और विसर्जित में सुसर्जित होना इसको जन्म कहा। ये जन्म और मृत्यु की परम्परा है। तो
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोઽर्जुन।।
ʹहे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक है – इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।ʹ (गीताः 4.9)
तो भगवान का जन्म होता है करूणा-परवश होकर, दयालुता से। भगवान करूणा करके आते हैं तो यह भगवान का जन्म दिव्य हो गया, अवतरण हो गया। हमारे कष्ट मिटाने के लिए भगवान का जो भी प्रेमावतार, ज्ञानावतार अथवा मर्यादावतार आदि होता है, तब वे हमारे नाईँ जीते हैं, हँसते-रोते हैं, खाते-खिलाते हैं, सब करते हुए भी सम रहते हैं तो हमको उन्नत करने के लिए। उन्नत करने के लिए जो होता है वह अवतार होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 231
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परहित में छुपा स्वहित


(पूज्य बापू जी की परम हितकारी अमृतवाणी)

आपके जीवन में देखो कि आप बहू हो तो सासु के काम आती हो कि नहीं ? देरानी हो तो जेठानी के और जेठानी हो तो देरानी के काम आती हो ? पड़ोसी हो तो पड़ोस के काम आती हो ? आप ईश्वर के काम आते हो ? समाज में किसी के काम आते हो ? आपके द्वारा किसी का मंगल होता है कि नहीं होता ? रोज देखो कि आप किसके-किसके काम आये और किसका-किसका मंगल हुआ ? जितना-जितना आप दूसरे के काम आयेंगे, दूसरे के मंगल में आप हाथ बँटायेंगे उतना ही घूम-फिर के आपका मंगल होगा। सब स्वस्थ रहेंगे और सब ठीक खायेंगे तो आपको भी तो खाना मिलेगा। सब प्रसन्न रहेंगे तो आपको भी तो प्रसन्नता मिलेगी। ʹसब भाड़ में जायें और मैं…मैं…. मैं….ʹ तो फिर मैं…. मैं… बैं…. बैं…. बकरा, भेड़ बनना पड़ेगा।

अपने दुःख में रोने वाले ! मुस्कराना सीख ले।

दूसरों के दुःख-दर्द में, तू काम आना सीख ले।।

आप खाने में मजा नहीं, जो औरों को खिलाने में है।

जिंदगी है चार दिन की, तू किसी के काम आना सीख ले।।

अर्जुन में और दुर्योधन में क्या फर्क है ? अर्जुन कहता है कि मैं जिनके लिए युद्ध करूँगा वे लोग तो सामने के पक्ष में और मेरे पक्ष में मरने-मारने को तैयार है। वे अगर मर जायेंगे तो मुझे राज्य-सुख क्या मिलेगा ! मुझे ऐसा युद्ध नहीं करना। दूसरों का रक्त बहे और रक्त बहाने वाले चले जायें तो मैं राज्य का क्या करूँगा ! मुझे नहीं करना युद्ध !

और दुर्योधन क्या बोलता है ? दुर्योधन का दृष्टिकोण बिना विवेक का है और अर्जुन का दृष्टिकोण विवेकपूर्ण है। दुर्योधन बिना विवेक के आज्ञा देता है। उसका उद्देश्य स्वार्थ-साधन है।

दुर्योधन बोलता हैः मदर्थे त्यक्तजीविताः… (गीताः1.9) मेरे लिए ये जान कुर्बान करने को तैयार हैं। यो तो मर जायेंगे लेकिन मुझे राज्य मिलेगा। दुर्योधन की नजर स्वार्थी है। स्वार्थी नजरिये वाला अशांत रहता है, दुःखी रहता है और उसकी बुद्धि मारी जाती है।

अर्जुन क्या बोलता है ? अर्जुन की दृष्टि लोकहित की है।

येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।

त इमेवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।

ʹहमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।ʹ (गीताः 1.33)

जिनके लिए मैं युद्ध करना चाहता हूँ वे ही युद्ध के लिए खड़े हैं तो मैं युद्ध क्यों करूँ ? अर्जुन की चेष्टा में सबका भला छुपा है और सबकी भलाई में युद्ध होता है तो उसमें युधिष्ठिर की जीत भी होती है, उनको राज्य भी मिलता है। श्रीकृष्ण के ज्ञान की महिमा भी होती है। लोकहित भी होता है और दुष्टों का दमन भी होता है और सज्जनों की सेवा भी होती है। अर्जुन का युद्ध बहुतों का मंगल लेकर चलता है और दुर्योधन का युद्ध अपना स्वार्थ, वासना, अहं पोसने को लेकर चलता है।

आपका जीवन दिव्य कब होता है ? आपका जो संकल्प है, जो कर्म है वह बहुतों का हित लेकर चले। आपकी बुद्धि परिवारवालों के हित में है  तो आपका बोलना उनका दुःख दूर करने वाला तो है न ? आपका हिलना-डुलना-चलना औरों के लिए हितकारी है, मंगलकारी है कि दूसरों की आँख में चुभने वाला है ? ऐसे कपड़े न पहनो कि जो किसी की आँख में चुभें और उसको जलन हो। ऐसे बोल न बोलो कि अंधे की औलाद अंधी। इन द्रोपदी के दो कटु वचनों ने दुर्योधन को वैरी बना दिया, महाभारत का युद्ध हुआ और लाखों-लाखों लोगों की जान ले ली।

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।।

कागा काको धन हरै, कोयल काको देत।

मीठा शब्द सुनाय के, जग अपना करि लेत।।

अर्जुन सबका भला चाहते हैं तो अर्जुन का बुरा होगा क्या ? मैं सबका भला चाहता हूँ तो सब मेरा भला नहीं चाहते हैं क्या ? मैं सबको स्नेह करता हूँ तो सब मेरे लिए पलकें बिछा के नहीं बैठते हैं क्या ? यह भगवत्प्रसादजा बुद्धि नहीं तो और क्या है ? अगर मैं स्वार्थपूर्ण हृदय से आऊँ तो इतने लोग घंटों भर बैठ नहीं सकते और बैठे तो अहोभाव नहीं रख सकते।

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

दूसरे के हित में आपका हित छुपा है क्योंकि दूसरे की गहराई में आपका परमेश्वर है वही का वही !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 231

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