श्रद्धावान लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् अचिरेणाऽऽधिगच्छति॥
श्रद्धावान, तत्पर और जितेंद्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करने से शीघ्र ही वो परम् शांति को प्राप्त होता है। जिसको हम ज्ञान कहते है कृष्ण की भाषा में वो ज्ञान परमात्म तत्व से संबंधित ज्ञान है।एक होता है ऐहिक ज्ञान, दूसरा होता है वास्तविक ज्ञान। वास्तविक ज्ञान की सत्ता से ही ऐहिक ज्ञान का भी कुछ गाड़ा चलता है। वास्तविक शुद्ध ज्ञान की सत्ता लेकर हमारी इन्द्रियाँ, हमारा मन अलग-अलग दिखाकर, अलग-अलग कल्प कर व्यवहार करता है।तो वास्तविक ज्ञान जबतक नही हुआ तबतक इस जीव को परम् शांति नही मिलती। जबतक इस जीव को परम् शांति नही मिली तबतक इस जीव के जन्म-मरण का दुःख और मुसीबतें, कष्ट का अंत नही आता।
आदिदैविक शांति, आदिभौतिक शांति और अध्यात्मिक शांति मतलब मानसिक शांति। ये शांतियाँ तो कईं बार बेचारी आती है फिर चली जाती है। जब आत्मसाक्षात्कार होता है, आत्मज्ञान होता है तो परम शांति का अनुभव होता है। परम शांति मिलती है तो फिर, फिर एक बार परम शांति मिली तो वो जाती नही । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् । वो परम शांति कैसी है? अचिरेणाऽऽधिगच्छति ।। ज्ञान हुआ की परम शांति हो गई फिर उसमें समय नही लगता। तो ज्ञान पाने के लिए भगवान साधन बता रहे है कि “श्रद्धावान लभते ज्ञानं, तत्परः संयतेन्द्रियः।। अकेली श्रद्धा रखी और फिर अपनी श्रद्धा का किसी ने उपयोग कर लिया, दुरुपयोग कर लिया और अपने मन-बुद्धि कुंठित रह गए। बस श्रद्धा करो मान लो। तथाकथित लोग कहते है कि बस श्रद्धा करो, बोलने की जरूरत नही श्रद्धा करो । श्रद्धा के साथ शंकराचार्य ने कहा कि श्रद्धा का अर्थ ये नही कि किसी मजहब को, किसी मत को, किसी पंथ को, किसी बात को मानकर एक कोने में मंडारते रहना, जिंदगी कोल्हू के बैल की नाई घूमते रहना इसका नाम श्रद्धा नही है। तो कईं बार श्रद्धालूओं को लगता है कि मेरे को बहुत श्रद्धा है। ऐसे श्रद्धालूओं को श्रद्धा का मापदंड निकालने का अवसर कृष्ण देते है कि आपकी श्रद्धा कितनी है? उसको जानना चाहो तो आपकी साधन भजन में तत्परता कितनी है? साधन भजन में अथवा मुक्ति लाभ में आपकी तत्परता कितनी है? और तत्परता जितनी होगी उतना इंद्रिय संयम होगा। जितना इंद्रिय संयम होगा उतना आपका अंतर मनस, आपका अंतर आत्मा बलवान होगा, आप सुख-दुःख में हिलेंगे नही। ऐसा भी अवसर आएगा कि दुनिया का बड़े में बड़ा लाभ भी आपको उल्लू नही बनाएगा और बड़े से बडी हानि भी आपको उल्लू नही बनाएगी। उल्लू को जैसे सूर्य नही दिखता ऐसे ही जिसको अपनी असलियत नही दिखती है वो ही आदमी छोटी-छोटी चीजों में सुखी-दुःखी होकर प्रभावित होकर अपनेआप को नाश कर देता है।
श्रद्धावान लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।। श्रद्धा तो करनी पड़ती है। भक्ति मार्ग में भी श्रद्धा की आवश्यकता है, व्यवहार में भी श्रद्धा की आवश्यकता है कि दो लाख रुपया गुडविल देकर दुकान लूँगा, दो लाख का माल भरूँगा फिर धंधा होगा, चार हजार रुपया महीने का ब्याज निकलेगा, हजार रुपया दुकान का खर्च, पांच हजार उसके ऊपर भी मुनाफा होगा, हमारा गुजारा चलेगा। तभी वो धंधा करता है। यहाँ से बद्रीनाथ जाना है न तो कईं ड्राइवरों पर, कंडक्टरों पर श्रद्धा रखनी पड़ती है। हालांकि बद्रीनाथ जाते-जाते लोग यमपुरी पहुँचा देते है, कईं गाडियाँ गिर जाती है फिर भी ड्राइवरों पर श्रद्धा रखनी पड़ती है। अपने बाप पर भी श्रद्धा रखनी पड़ती है। किसी ने कह दिया माँ ने कि “ये तेरा बाप है” मान लिया। तो श्रद्धा तो माँ- बाप पे भी रखनी पड़ती है और ये मेरा काका है, ये भी हमने श्रद्धा से माना, ये मेरा मामा है ये भी हमने श्रद्धा से माना और हम गुजराती है, हम पंजाबी है, हम सिंधी है, हम मारवाड़ी है ये भी तो सुन-सुन के माना। जय रामजी तो बोलना पड़ेगा।
“श्रद्धावान लभते ज्ञानं” तो ये श्रद्धा व्यवहारिक श्रद्धा है लेकिन श्रीकृष्ण कहते है वो श्रद्धा अपने आत्मदेव को पाने की। जन्म-मृत्यू जरा व्याधि से सदा के लिए छूटने की, सर्व दुःखों से सदा के लिए छूटने की, सबकी मुसीबतें सर्वकाल की मुसीबतों से सदा के लिए पार होने की। उनके प्रति हमारा आकर्षण है। जो अचल है उसके प्रति हमारी श्रद्धा नही है। जो अचल है उसकी तरफ हमारा उत्साह नही है इसीलिए हम अशांत होते है। जो नश्वर चीजें है, जो चल वस्तू है उनको पाकर सुखी होने की बेवकूफी हमारी बनी रही है और जो वास्तविक में शांतस्वरूप है, सुखस्वरूप है, जिसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नही रहता, जिसको जानने के बाद कुछ जानना शेष नही रहता, जिसमें स्थित होने के बाद मौत की भी मौत हो जाती है ऐसे परमात्मतत्व में अगर तत्परता आ जाए पाने की, उसमें अपने वास्तविक स्वरूप में अगर टिकने की दृढ़ता आ जाए तो शांति तो हमारा स्वभाव है । शांति आपका स्वभाव है, अमरता आपका स्वभाव है। आपको पता नही। मरनेवाले शरीर और मरनेवाली वस्तुओं में इतने हम विमोहित हो गए कि अपनी अमरता का आजतक हमने ज्ञान नही पाया।
अपने मुँह में बतीस दांत है। है तो पत्थर लेकिन कभी ऐसा नही हुआ कि क्यों पत्थर पड़े है निकाल के फेंक दूँ, ऐसा कभी विचार नही आता। रोटी का अथवा सब्जी का कोई तिनखा फँसता है न तो जीभ बार-बार वहाँ जाती है, उसको निकाले बिना चैन नही लेने देती। दाँत होना स्वाभाविक है और दाँत में कोई चीज फ़ँस जाना ये अस्वभाविक है, फँसी रहना ये अस्वभाविक है, उसको निकालना पड़ता है। ऐसे ही सुखी जीवन और शांत जीवन सब चाहते है। दुःख और अशांति कोई नही चाहता। तो सुख और शांति प्राणी का मूल स्वभाव है, दुःख और अशांति मन की बेवकूफी से, इच्छा और वासना की बेवकूफी से आती है। कोई नही चाहता कि मुझे दुःख मिले, अशांति मिले कोई नही चाहता है। शांति और सुख ये तुम्हारा स्वभाव है, तुम्हारी स्वाभाविक माँग है। अशांति और दुःख तुम्हारी माँग नही है। फिर भी अशांति और दुःख पैदा करे ऐसे विकारों के साथ, ऐसी तुच्छ चीजों के साथ हम मिल जाते है। तो मिलने की आदत को तोड़ने के लिए साधन में तत्परता चाहिए। साध्य को पाए बिना साधक अगर रह जाता है तो उसकी श्रद्धा परमात्मा में इतनी नही है। तो परमात्मा कहते है “श्रद्धावान लभते ज्ञानं” का मतलब ये नही कि किसी मत, पंथ, मठ है कि तुम मर जाओगे कंधों हम पे उठा के तुम्हें बिस्त में ले जाएगा ये करेंगे। इसको अंधश्रद्धा बोलते है। श्रीकृष्ण बोलते है श्रद्धा के साथ तप्तरता चाहिए। अगर मरने के बाद कोई किसी को कंधों पे उठा के कहीं ले जाता हो, तो भगवान कृष्ण ने भगवदगीता कही ही क्यों अर्जुन को? अर्जुन को बोलते कि युद्ध कर ले, तू मर जाएगा तो मैं कंधों पे उठाके तुम्हें मुक्त कर दूँगा। रामजी को वशिष्ट महाराज ने उपदेश आत्मज्ञान क्यों दिया? राजा जनक को अष्टावक्र बोल देते कि तुम मंत्र दीक्षा ले ले और मरने के बाद मेरे कंधों पे चढ़ाके तेरे को पहुंचा दूँगा। नही ! श्रद्धा के साथ थोड़ी तप्तरता चाहिए।
श्रद्धावान लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।। अगर ज्ञान के लिए तत्पर होगा, साधन में तत्पर होगा तो इंद्रियों में संयम आएगा। बेसंयमी इंद्रिय मन को और चित कमजोर कर देती है। जो आदमी छोटी-छोटी बात की असर जिसके चित्त पर होती है वो आदमी बहुत छोटा हो जाता है। किसी आदमी का भविष्य तुम अगर जानना चाहते हो तो देखो कि उससे बात करते-करते छोटी-मोटी बात में उसके चित्त में असर होती है कि नही होती। अगर छोटी-छोटी बात की असर होती है तो समझ लेना कि उसका भविष्य छोटा है, होलसेल नही है चित्त। और जिसपर छोटी-मोटी बात की असर नही होती उसका हृदय विशाल होता चला जाएगा। ज्यों-ज्यों छोटी-मोटी बात की असर नही होगी, सुख-दुःख की, मान-अपमान की असर कम होती चली जाएगी त्यों-त्यों उसकी साध्य के प्रति तप्तरता सिद्ध होती है, हृदय उसका विशाल होता जाता है, हृदय उसका महान होता जाएगा और एक दिन वो महात्मा बन जाएगा।
ऐसा कोई भी धर्मगुरु अथवा घर का कुलपति, समाज का, कुल का कुलपति या ग्रह का कोई विशेष व्यक्ति अगर हो तो उसके घर की क्या परिस्थिती हुई मत देखो, उसके चित्त की क्या परिस्थिति? जैसी उसके चित्त की परिस्थिति है ऐसे ही घर में मिस मैनेजमेंट होगा या सु मैनेजमेंट होगा। अपने चित्त के ऊपर ही अपने व्यवहार का आधार है। हम लोग किसीको आदेश दे “ये काम करो” तो काम करने का जो हम कहने का ढंग है उसपर ही सामने वाले के कार्य करने की उत्साह की वृत्ति उठेगी कि अर्ध-उत्साह रहेगा कि विपरीत रहेगा उसका ख्याल आप ला सकते है। तुम्हारे चित्त में जितनी-जितनी राग-द्वेष की ठोकरें कम लगेगी, जितनी तुम्हारी कोई भी कार्य में श्रद्धा होगी, तप्तरता होगी उतना ही तुम्हारा व्यवहार विशालतामय होगा और जितना विशालतामय व्यवहार होगा और एक चित्त होगा उतना ही सामने वाले के चित्त पर प्रभाव पड़ेगा, वो आपके इर्दगिर्द होंगे।
जो बोलता है जा जा जा तो उसको जा जा करने वाले मिलते है। जो दूसरों को ठग की नजर से देखता है उसको ठग ही मिलते है। जो दूसरों को चोर की निगाहों से देखता है उसको प्रायः चोर आ मिलते है। लेकिन जो दूसरों में अपने प्यारे इष्ट को परब्रह्म परमात्मा की निगाह से देखता है उसका चित्त परमात्ममय बन जाता है आपकी जैसी दृष्टि होती है ऐसा ही परिणाम आता है। ओत-प्रोत अनंत ब्रह्मांडों में फैला हुआ परब्रह्म परमात्म तत्व है फिर भी तात्विक दृष्टि से देखा जाए तो एकमएव अद्वितीय है। व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो उसकी आल्हादिनी शक्ति माया में ये सब पाँच भूत और पंच भौतिक वस्तुएँ है। तो ये व्यवहारिक सत्ता को स्वीकार करके अगर सोचा जाए तो भगवान के अवतार कईं किस्म के होते है।
अवतरती इति अवतारः।। जो अवतरित हो उसको अवतार बोलते है। जो ऊपर से नीचे आए, अपने शुद्ध-बुद्ध निरंजनस्वरूप को छोड़कर माया का स्वीकार करके अगर नीचे आता है तो उसको अवतार कहते है। ये अवतार कईं किस्म के होते है। एक होता है नित्य अवतार। नित्य अवतार उसे कहते है जो समाज की उन्नति करने के लिए मानव तन धारी पुरुष आते है और जैसे हम खाते-पीते, रोते-हँसते, उठते-बैठते, चढ़ते-उतरते, सुखी-दुःखी आदि परिस्थितियों में रहते है ऐसे ही परिस्थितियों को पार करते हुए अपने परब्रह्मस्वरूप में जगे हुए पुरुष समाज में जब अवतरित होते रहते है उनको नित्य अवतार कहा जाता है। कंस को अथवा राम को या मरिख बादशाह को या और किसी निमित को लेकर जो परब्रह्म परमात्मा की सत्ता प्रगट होती है उसको नैमेतिक अवतार कहते है। तीसरा होता है आवेश अवतार। जैसे किसी भक्त पर अति मुसीबत पड़ी। प्रल्हाद पर खूब मुसीबत गुजरी तो भगवान नरसिंहरूप होकर प्रगट हुए, आवेश अवतार।
नित्य अवतार, नैमेतिक अवतार, आवेश अवतार, प्रवेश अवतार कभी-कभी किसी के अंदर भगवद शक्ति का प्रवेश होकर समाज का प्रकाश करने का कभी हमने सुना देखा हो तो उसे प्रवेश अवतार कहते है।
कुछ अवतार ऐसे होते है जिन्हें अर्चना अवतार कहा जाता है। जैसे भक्त के पास अपनी प्रतिमा है।। फिर चाहे शालिग्राम हो, चाहे शिवलिंग हो, चाहे झूलेलाल की मूर्ति हो, चाहे अपने गुरु की हो, चाहे कृष्ण की हो, कोई भी अर्चना करने योग्य जो उसकी सेवा पूजा की मूर्ति है उसमें उसकी श्रद्धा और तप्तरता है तो अर्चना अवतार में भगवान भक्त के भाव के आधीन भगवान उसके पत्र, पुष्पं, फल आदि प्रसाद आदि भावमात्मक ले लेते है। और भक्त की अति तप्तरता और अति श्रद्धा होती है तो कभी-कभी जैसे धन्ना जाट के जीवन में सिलबट्टे से भगवान प्रगट हो गए और भगवान ने भोजन ले लिया, श्रीनाथ जी के आगे नरो नाम की लड़की ने दूध धरा और अर्चना अवतार में से भगवान ने वो ले लिया। तो ऐसे मूर्ति में से जो भगवान की चेतना विशेष प्रगट होती है और भक्त के भावना के अनुसार वो भगवान ग्रहण करते है उसको अर्चना अवतार बोलते है। कुछ अवतार होते है जिन्हें प्रेरक अवतार और अंतर्यामी अवतार भी कहते है। जो भक्त श्रद्धालू है, तप्तर है तो उसके अंदर प्रेरणा होती रहती है कि अब इस जगह सत्संग में जा, इधर इस गरीब के आँसू पोंछने का काम कर, ये सेवा कर लेकिन दिखावे का ढोंग मत कर। तो ये अगर थोड़ी बहुत भक्त की श्रद्धा और तत्परता है तो अंतर्यामी परमात्मा प्रेरणा करता है कि ये उचित है, ये अनुचित है, यहाँ जाना है, यहाँ नही जाना है, ये करना है, ये नही करना है।
हम नर्मदा किनारे अकेले उस परमात्मा के लिए रातियाँ बिताते थे तो अंदर से तूफान पैदा होता था। “अब यहाँ जाओ ये करो” ये कौन कह रहा है? कि “जिसकी तुम पूजा करते हो, जिसको तुम चाहते हो। फिर अंदर से आवाज आता कि मन की कल्पना-वल्पना नही है, तुम लीलाशाह बापू के पास जाओ, मैं बिल्कुल पूर्ण रूप से तुम्हें वहाँ समझ में आ जाऊँगा । ” तो ये भगवान का प्रेरणा अवतार हम मान सकते है। कुछ अवतार ऐसे होते है प्रेरणा अवतार साधकों के हृदय में होते रहते है। तो भगवान युग-युग में तो आते है लेकिन युग में कईं बार आते है। और प्रेरणा अवतार, अर्चना अवतार की तो कोई गिनती ही नही। जितने हृदय है उतनी बार भगवान प्रेरणा कर सकते है। जितने हृदय उतने हृदयों को भी प्रेरणा कर सकते है। लेकिन बदकिस्मती यह है कि वह हृदय श्रद्धा और तत्परता से भरते नही इसीलिए प्रेरणा अवतार का, अर्चना अवतार का अथवा भगवान के आवेश अवतार का, प्रवेश अवतार का हम लोग लाभ नही ले सकते।
पाश्चात्य जगत में अभी श्रद्धा के विषय पर थोड़ा अध्ययन हो रहा है। आदमी के मन की मान्यता क्या-क्या परिणाम ला सकती है उस पर विज्ञानी लोग प्रयोग कर रहे है। एक घटित घटना है। कुछ वर्ष पूर्व की, किसी आदमी को खून केस के आरोप में पकड़ा गया और सेशन कोर्ट ने दो खून साबित कर दिखाए उस पर, फाँसी का हुकुम हुआ। हाई कोर्ट में गया सुप्रीम कोर्ट में गया लेकिन हारता चला गया। आखिर उस आरोपी ने राष्ट्रपति को दया की अर्जी दे दी, वो भी ठुकरा दी गई। विज्ञानियों ने उस आदमी को कहा कि फलानी तारीख को अब तू अपने पाप का फल भोगने के लिए फाँसी चढ़ेगा। उसने कहा इसमें तो कोई संदेह नही है, तो कोई बचने का उम्मीद नही है। जब बचने की उम्मीद नही तो मरते-मरते एक काम ऐसा कर जा कि मानव जात के काम आ जाए तेरा शरीर। फाँसी पर लगकर मरो अथवा हमारे प्रयोग में आते-आते मरो, मरना तो है तुम्हें। तो वो आदमी सहमत हो गया। हाई कोर्ट से उन लोगों ने लिखित अनुमति भी प्राप्त कर ली। अब जिस दिन उस आदमी को फाँसी लगनी है उस दिन मनोविज्ञानियों ने और डॉक्टरों ने अपने साधन सामग्री से सुसज्ज होकर उसके आगे एक प्रयोग करना चाहा। विज्ञानियों ने उसको कहा कि “सर्प के दंश से तेरी मृत्यू हम कराएँगे और फिर साँप के डँखने के बाद कितनी देर में जहर कितना आगे बढ़ता है और कैसी असर होती है, आदमी कैसे मरता है और उसके निवारण का उपाय हमको खोजना है” इसलिए तेरी बॉडी को हम सर्पदंश से फाँसी जैसा काम करेंगे, मतलब तेरी मृत्यू फाँसी के द्वारा नही सर्पदंश के द्वारा हम कराएँगे और हाई कोर्ट भी सहमत हुई है, तू भी सहमत हुआ है। समय सुनिश्चित था उस समय पर उन्होंने क्या किया घोड़ा लाकर रख दिया सामने। अभी समय में थोड़े कुछ मिनट बाकी है 25, 30, 40 मिनट साँप निकाला और सर्प का पकड़ के घोड़े को डंख लगवा दिया। उस कैदी ने, उस मुजरिम ने देखा, मुजरिम ने देखा तो सर्पदंश हुआ और घोड़े पर जहर की असर हुई और छटपटाते हुए घोड़ा गिर पड़ा और थोड़ी देर में प्राण दे दिए। विज्ञानियों ने कहा कि इसी सर्प से अभी हम तुम्हारी आखरी यात्रा पूरी कराएँगे। प्रयोग करना है। पट्टियाँ बाँध दी गई, कंधे तक काला कपड़ा लगा दिया गया, कहा कि बस अब दो मिनट बाकी है, अब एक मिनट, अब आधी मिनट, अब तेरा समय फाँसी का आ गया। सर्पदंश के बदले उन लोगों ने चूहा कटवा दिया। पट्टा तो आँखों पे बंधा था, चूहा कटवा दिया और कह दिया कि उसी साँप ने तेरे को काँटा मर गया तू। उसकी श्रद्धा थी, मान्यता थी, प्रत्यक्ष की नाई विश्वास हो उसको श्रद्धा बोलते है। तो चूहे ने काँटा लेकिन उसने समझा कि मुझे साँप ने काँटा है। साँप ने काटा है और फाँसी लगनी थी बिल्कुल सुव्यवस्थित था, सुनिश्चित था पहले, प्री- प्लैंनिंग था ही। ज्यों चूहे ने काँटा, सर्प ने काँटा ऐसी उसकी आंतरिक श्रद्धा ने उसके शरीर में छटपटाहट पैदा कर दी। ज्यूँ घोड़ा छटपटाया त्यों वो आदमी सर्पदंश का प्रभाव समझकर छटपटाया। विज्ञानियों ने उसके शरीर में से ब्लड चेक करने के लिए खून लेते गए। तो वो ताज्जूब में पड़ गए कि खून में जहर कैसे आ गया? थोड़ी देर में वो आदमी तो मर गया, चूहे को जाँच किया तो चूहे में तो जहर था नही और उसके शरीर में जहर कैसे बना? साँप ने काँटा है काँटा है, मैं मर गया मर गया ऐसे आदमी मर सकता है, हार्ट फेल वाले आदमी भी कभी-कभी ऐसे ही हार्ट फेल होई जाते है, मेरा क्या होगा
तो ये मानसिक असर, इतना आदमी तत्पर हो जाए, तो बच्चे का मन भी उस समय वीक हो जाता है कि एकी-बेकी कर लेता है ये भी हमने देखा सुना है। तो तुम्हारा मन का प्रभाव तन पे पड़ता है लेकिन वैज्ञानिक चकित है कि मन का प्रभाव तन पे तो पड़ा लेकिन तन में विष कैसे बन गया? उन बेचारों को बहुत सोच-विचार करके ये निर्णय करना पड़ा कि मन में ये शक्ति है जो जहर बना लेता है लेकिन उनको पता नही कि हिंदू संस्कृति में हजारों वर्ष लाखों वर्ष पहले छोटे-छोटे योगी भी कहते थे कि तुम अगर तुम्हारे मन में तीव्र श्रद्धा है तो अमृत से विष बन सकता है और विष से अमृत बन सकता है।
ठुंठे में चोर देखते हो और काँपने लगते हो, रस्सी में साँप देखते हो मन भाव बना लेता है, काँपने लग जाते हो। और रस्सी में साँप दिखता है तो आदमी काँपता है और साँप में रस्सी दिखती है तो उसके ऊसके सिर पे पैर रखके चला भी जाता है। तो तुम्हारे मन की जो अवस्था है उस समय तुम्हारे तन पर और तुम्हारे व्यवहार पर ऐसी असर पड़ती है। तो मन तुम्हारा कल्पवृक्ष है। इसीलिए कपड़ा बिगड़ जाए तो चिंता नही, पैसा बिगड़ जाए तो चिंता नही लेकिन अपना मन मत बिगाड़ना क्योंकि उसी के द्वारा मालिक का साक्षात्कार भी हो सकता है। कभी छोटी-मोटी बातों में घबड़ा जाना नही, घबड़ा के जो आदमी निर्णय करता है वो बहुत धोखा खाता है। भयभीत होकर, कुपीत होकर जो आदमी डिसिजन लेता है उसको बहुत कुछ सफर करना पड़ता है। भय और कोप कुपीत होकर कोई निर्णय नही करना चाहिए, शांतमना होकर अच्छा मानसिक संतुलन लेकर फिर निर्णय करना चाहिए और फिर अमुक-अमुक प्रवृत्ति के डिसिजन लेना चाहिए।
मरीख बादशाह को बहकाया गया कि हिंदुओं को मुसलमान बनाओगे तो खुदा ताला बिस्त में ले जाएगा। उन बेवकूफों को ये पता नही कि
शक्कर खिला शक्कर मिले,
टक्कर खिला टक्कर मिले,
नेकी का बदला नेक है,
बदों को बदी देख ले
इसे तू दुनिया मत समझ मियाँ
ये सागर की मझधार है,
औरों का बेड़ा पार कर
तो तेरा बेड़ा पार है।
दूसरों को तलवार के बल से, राजसत्ता के अँधे बल से अगर दूसरे का धर्म बदलकर उनको मुसलमान बनाकर अगर खुदा ताला राजी होता है तो वो खुदा हो नही सकता है। जो खुद ही है रोम-रोम में उसी को खुदा बोलते है। जो आप ही आप है, ना कोई माई ना कोई बाप, आपेआप। वो ही जो खुद ही खुद बस रहा है उसको खुदा बोलते है, जो रोम-रोम में बस रहा है उसको राम बोलते है। एक का एक है नाम अनेक है। जैसे गंगा एक और घाट अनेक ऐसे ही ज्ञानस्वरूप परमात्मा एक और उसकी उपासना आराधना के घाट अनेक हो सकते है, जरूरी थोड़े ही है कि सब कोई इंदौर के घाट से ही गंगा पे जाए। जरूरी थोड़े ही है कि सब कोई आगरा लोकल से ही दिल्ली होते हुए हरिद्वार जाए। कोई कही से जाए, कोई कही से जाए, पहुँचना हरिद्वार है हरि के द्वार है लेकिन ये मति अंधश्रद्धा वाली मति को पता नही चलता। श्रद्धा के साथ तत्परता और इंद्रिय संयम हो तभी आदमी ठीक निर्णय लेता है।
मरीख ने थोड़ा गलत निर्णय लिया लेकिन गलत निर्णय तो कोई ले ले आप गलत निर्णय के शिकार बनो या ना बनो उसमें आप स्वतंत्र है। कोई गलत निर्णय लेता है और आप के ऊपर जुलूम करता है, आप उसके जुलूम के शिकार बनो या ना बनो उसमें आप स्वतंत्र है। कोई आप पर कुपित होता है और आप पर कोप का जहर-विष फेंकता है। उस विष को पीकर तुम बीमार हो तो तुम्हारी मर्जी और न हो तो तुम्हारी मर्जी। वो तो कुपित होता है लेकिन उस समय तुम सोचो कि वो कोप तो कर रहा है, कोप कर रहा है इस शरीर को देखकर, हाड़ माँस के शरीर पर नाराज हो रहा है, मुझ चैतन्य का क्या बिगड़ता है? हरि ॐ तत्सत बाकी सब गपशप। अपने दिल की अपने चित्त की जो रक्षा नही करता है वो चाहे कितने मंदिरों में जाए, कितने मस्जिदों में जाए, कितने गिरजाघरों में जाए, लेकिन अपने दिल के घर में जाने का द्वार बंद कर देता है तो गिरजाघर में जायेया मंदिर, मस्जिद में भी भगवान नही मिलते। अगर जिसने अपने हृदय की रक्षा किया वो मंदिर में जाता है तो उसके आगे मंदिर के भगवान भी। वास्तव में कण-कण में भगवान है तो मूर्ति में भी उसको भगवान के दीदार हो सकते है।
जो स्नेहियों में, कुटुम्बियों में, समाज के पिछड़े हुए लोगों में परमात्मा निहार नही सकता है वो मरने के बाद किसी लोक में जाकर भगवान को देखे ये बात गले नही उतरती।
हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।। परमात्मा तो सर्व व्यापक है, सर्वत्र है, जितना हमारी वृत्ति तदाकार होती है, प्रेम उभरता है उतना ही वो परमात्म रस से भरती है और देर सवेर हमारे आवरण भंग हो जाते है, परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है।
डीठो मुख शेंशाह जो हियरे थियो करार।
लथा रोग शरीर जा मुहिंजे सतगुरु जे दीदार।।
सतगुरु शाह तारया श्रद्धा वारा ।
लख बामभन क्षत्री वैश क्षुद्र।।
ऊँचा निचा मानख मु: झेरा ।
मुर्ख के तारया केतरा।।
सद्गुरु जब निगाह देते है तो फिर ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो, क्षुद्र हो, कईं आदमी जब सतगुरुओं की निगाह में अपनी निगाह मिला देते है, सतगुरुओं की श्रद्धा और तप्तरता में अपनी तप्तरता और श्रद्धा मिला देते है। जैसे दूज का चाँद देखना है तो जिस आदमी को चाँद दिखता है उसके साथ हम अपनी दृष्टि मिला देते है तो हमको भी दिख जाता है। वो था तो पहले लेकिन दृष्टि सूक्ष्म नही थी इसलिए नही दिख रहा था। ऐसे ही वो परमात्मा पहले था, अब भी है, बाद में रहेगा लेकिन हमारी दृष्टि जब सूक्ष्म होती है उसी समय उसके दीदार हो जाते है।
लेकिन एक फर्क ये है कि वो चंद्रमा आज दूज का दिखा, कल बदल जाएगा तीज का और अमावस्या को नही दिखेगा। लेकिन ये चाँद एक बार दिख गया तो फिर कभी अदिखा नही होता है क्योंकि वो सदा एक रस रहता है, शाश्वत रहता है।
तो अब अवतारों की परंपरा ऐसी है कि नित्य अवतार, नैमेतिक अवतार, अर्चना अवतार, आवेश अवतार, प्रवेश अवतार, अंतर्यामी अवतार, प्रेरक अवतार।