राजा युधिष्ठिर अक्रोध और क्षमा के मूर्तिमान स्वरूप थे । ‘महाभारत’ के वन पर्व में कथा आती है कि द्रौपदी ने एक बार युधिष्ठिर जी के मन में क्रोध का संचार करने की अतिशय चेष्टा की । उसने कहाः “नाथ ! मैं राजा द्रुपद की कन्या हूँ, पाण्डवों की धर्मपत्नी और ध्रुष्टद्युम्न की बहन हूँ । मुझको जंगलों में मारी-मारी फिरती देखकर तथा अपने छोटे भाइयों को वनवास के घोर दुःख से व्याकुल देखकर भी यदि आपको धृतराष्ट्र के पुत्रों पर क्रोध नहीं आता तो इससे मालूम होता है कि आपमें जरा भी क्रोध नहीं है । परंतु देव ! जिस मनुष्य में क्रोध का अभाव है, जो क्रोध के पात्र पर भी क्रोध नहीं करता, वह तो क्षत्रिय कहलाने योग्य ही नहीं है ।
जो उपकारी हो, जिसने भूल या मूर्खता से कोई अपराध कर दिया हो अथवा अपराध करके जो क्षमाप्रार्थी हो गया हो, उसको क्षमा करना तो क्षत्रिय का परम धर्म है, परंतु जो जानबूझकर बार-बार अपराध करता हो, उसको भी क्षमा करते रहना क्षत्रिय का धर्म नहीं है । अतः स्वामी ! जानबूझकर नित्य ही अनेकों अपराध करने वाले ये धृतराष्ट्र-पुत्र क्षमा के पात्र नहीं बल्कि क्रोध के पात्र हैं । इन्हें समुचित दण्ड मिलना ही चाहिए ।”
यह सुनकर राजा युधिष्ठिर ने उत्तर दियाः “परम बुद्धिमती द्रौपदी ! क्रोध ही मनुष्यों को मारने वाला और क्रोध ही यदि जीत लिया जाय तो अभ्युदय करने वाला है । उन्नति और अवनित दोनों का मूल क्रोध ही है ।
अतः हे द्रौपदी ! धीर पुरुषों द्वारा त्यागे हुए क्रोध को मैं अपने हृदय में कैसे स्थान दे सकता हूँ । क्रोध के वशीभूत हुआ मनुष्य तो सभी पापों को कर सकता है । वह अपने गुरुजनों की हत्या भी कर सकता है । श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान भी कर देता है ।
यदि सभी क्रोध के वशीभूत हो जायें तो पिता पुत्रों को मारेंगे और पुत्र पिता को, पति पत्नियों को मारेंगे और पत्नियाँ पतियों को । क्रोधी पुरुष को अपने कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान बिल्कुल नहीं रहता, वह जो चाहे सो अनर्थ बात-की-बात में कर डालता है । उसे वाच्य-अवाच्य का भी ध्यान नहीं रहता, वह जो मन में आता है वही बकने लगता है । अतः तुम्हीं बतलाओ, महाअनर्थों के मूल क्रोध को मैं कैसे आश्रय दे सकता हूँ ?
आत्मानं च पराश्चैव त्रायते महतो भयात् ।
क्रध्यन्तमप्रतिक्रुध्यन द्वयोरेष चिकित्सकः ।।
‘क्रोध करने वाले पुरुष के प्रति जो बदले में क्रोध नहीं करता, वह अपने को और दूसरों को भी महान भय से बचा लेता है । वह अपने और पराये दोनों के दोषों को दूर करने के लिए चिकित्सक बन जाता है ।’ (महाभारत, वन पर्वः 29.9)
द्रौपदी ! मूर्ख लोग क्रोध को ही सदा तेज मानते हैं परंतु रजोगुणजनित क्रोध का यदि मनुष्यों के प्रति प्रयोग हो तो वह लोगों के नाश का कारण होता है । क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज, तपस्वियों का ब्रह्म, सत्यवादी पुरुषों का सत्य है । क्षमा यज्ञ है और क्षमा शम (मनोनिग्रह) है । जिसका महत्त्व ऐसा बताया गया है उसे मेरे जैसा मनुष्य कैसे छोड़ सकता है ! अतः मैं यथार्थ रूप से क्षमा को ही अपनाऊँगा ।”
धर्मराज युधिष्ठिर जैसे अक्रोध के उपासकों का आचार-व्यवहार उन्नति के इच्छुक व्यक्तियों, साधकों के लिए बहुत ही उपयोगी है । महर्षि दुर्वासा, ब्रह्मर्षि विश्वामित्रजी, रमण महर्षि जैसे जीवन्मुक्त महापुरुष आवश्यकता पड़ने पर क्रोध को वश में रखते हुए उसका आवाहन और विसर्जन करते हैं । रमण महर्षि के आगे तर्क-कुतर्क करके अपनी विद्वता दिखाने वाले एक पंडित पर वे से तो बरस पड़े कि डंडा उठाकर दूर तक उसका पीछा किया । वापस आये तो चेहरे पर वही परम शांति झलक रही थी । घमंडियों, दुर्जनों से पिण्ड छुड़ाने के लिए ऐसी फुफकार लगाना क्रोध नहीं कहा जाता, अतः यह वर्जित नहीं है ।
माँ बालक की और सद्गुरु शिष्य की नासमझी पर कई बार क्रोध करते दिखते हैं परंतु उससे उनके हृदय में जलन नहीं पैदा होती, अतः यह डाँटना-फटकारना भी शास्त्र-निंदित क्रोध नहीं है । इस प्रकार हृदय को उद्विग्न किये बिना शुद्ध हितभावना से फुफकार या डाँट लगाना भारतीय संस्कृति में वर्जित नहीं है, क्योंकि इसमें हित की प्रधानता है ।
भारतीय संस्कृति का क्या दिव्य ज्ञान है, क्या सुंदर उपदेश है ! कितने उच्च भाव हैं ! तेज, क्षमा, समता, विवेक, शांति, हित व व्यवस्था का कितना सुंदर सम्मिश्रण है अपनी संस्कृति में ! प्रत्येक मनुष्य इस ज्ञान को जीवन में लाकर दुःख, शोक, अशांति, उद्विग्नता से परे सुख, शांति एवं आनंदमय जीवन जी सकता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 228
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