मदर टेरेसाः कर्म से नहीं, मीडिया से बनी संत

मदर टेरेसाः कर्म से नहीं, मीडिया से बनी संत


कनाडा की मोंट्रियाल यूनिवर्सिटी के सर्ज लैरिवी, जेनेवीव चेनचार्ड तथा ओटावा यूनिवर्सिटी के कैरोल सेनेवाल इन शोधकर्ताओं ने मदर टैरेसा पर किये गये शोध के द्वारा ईसाई सेवाभाव के खोखलेपन को उजागर किया है। रिपोर्ट में, जिसके मुख्य निष्कर्ष विश्वभर के समाचार पत्रों में छपे हैं, कहा गया है कि मदर टेरेसा ʹसंतʹ नहीं थी।

शोध टीम का नेतृत्व कर रहे प्रो. लिरवी ने कहाः “नैतिकता पर होने वाली एक विचारगोष्ठी के लिए परोपकारिता के उदाहरणों की खोज करते हुए हमारी नजर कैथोलिक चर्च की उस महिला के जीवन व क्रियाकलापों पर पड़ी, जो मदर टेरेसा के नाम से जानी जाती हैं और जिनका वास्तविक नाम एग्नेस गोंक्सहा था। हमारी उत्सुकता बढ़ गयी तथा हम और अधिक अनुसंधान करने के लिए प्रेरित हुए।”

तथ्यों ने किया मदर टेरेसा की झूठी महिमा का पर्दाफाश

मदर टेरेसा के बारे में पूर्व-प्रकाशित लगभग सम्पूर्ण (96 प्रतिशत) साहित्य का अध्ययन करने के पश्चात् शोधकर्ताओं ने पाया कि तथ्यों से मदर टेरेसा की झूठी महिमा की पोल खुल जाती है। मदर टेरेसा की छवि असरदार मीडिया-प्रचार के कारण थी, न कि किसी अन्य कारण से। वेटिकन चर्च ने मदर टेरेसा को ʹधन्यʹ (beatified) घोषित किया वह खाली होती हुई चर्चों की ओर लोगों को आकर्षित करने के लिए कहा था। वेटिकन चर्च ने मदर टेरेसा को ʹधन्यʹ घोषित करते समय रोगियों की सेवा के उनके संदेहास्पद ढंग, रोगियों की पीड़ा कम करने के स्थान पर उस पर गौरव अनुभव करने की विचित्र प्रवृत्ति, उनके संदिग्ध प्रकार के राजनेताओं से संबंध और उनके द्वारा एकत्रित प्रचुर धनराशि के संश्यास्पद उपयोग-इन सभी तथ्यों को नजर अंदाज किया।

किसी मिशनरी को ʹधन्यʹ घोषित करने के लिए उसके निधन के बाद एक चमत्कार का होना आवश्यक माना जाता है। मदर टेरेसा के चमत्कार का पर्दाफाश करते हुए साइंस एंड रेशनलिस्ट एसोसिएशन ऑफ इंडिया के जनरल सेक्रेटरी श्री प्रबीर घोष ने कहा कि ʹएक आदिवासी महिला मोनिका बेसरा को पेट में टी.बी. का टयूमर था और उसने मदर की प्रार्थना की और मदर का फोटो पेट पर रखा, जिससे वह स्वस्थ हो गयी यह बात  बकवाद है। उस महिला के चिकित्सक डॉक्टर तरूण कुमार बिस्वास और डॉक्टर रंजन मुस्ताफी ने कहा कि उसने 9 महीने तक टीबी का उपचार किया था, जिससे वह महिला स्वस्थ हुई थी।ʹ

वित्तिय अपारदर्शिता व सिद्धान्तहीनता

मदर टेरेसा पीड़ितों के लिए प्रार्थना करने में उदार किन्तु उऩके नाम पर एकत्रित अरबों रूपयों को खर्च करने में कंजूस थीं। अनेक बार आयी बाढ़ जैसी आपदाओं तथा ʹभोपाल गैस त्रासदीʹ के समय उन्होंने प्रार्थनाएँ तो बहुत कीं लेकिन अपनी फाऊँडेशन से कोई आर्थिक सहायता प्रदान नहीं की। उनके द्वारा चलाये जा रहे अस्पतालों की हालत दयनीय पायी ।

मदर टेरेसा के 100 से अधिक देशों 517 मिशन यानी ʹमरणासन्न व्यक्तियों के घरʹ (Homes for the dying) थे। गरीब रोगी इन मिशनों में आते थे। कोलकाता में इऩ मिशनों की जाँच करने वाले डॉक्टरों ने पाया कि उन रोगियों मे दो तिहाई की ही डॉक्टरी इलाज मिलने की आशा पूर्ण हो पाती थी, शेष एक तिहाई इलाज के अभाव में मृत्यु का ही इंतजार करते थे। डॉक्टरों ने पाया कि इन मिशनों में सफाई का अभाव, यहाँ तक कि गँदगी थी, सेवा-शुश्रुषा, भोजन तथा दर्दनाशक दवाइयों का अभाव था। पूर्व में भी चिकित्सा-जगत के सुप्रतिष्ठित जर्नलों (पत्रिकाओं) – ʹब्रिटिश मेडिकल जर्नलʹ व ʹलैन्सेटʹ ने इन मरणासन्न व्यक्तियों के घरों की दुर्दशा को उजागर किया था। ʹलैन्सेटʹ ने सम्पादकीय में यहाँ तक कहा कि ʹठीक हो सकने वाले रोगियों को भी लाइलाज रोगियों के साथ रखा जाता था और वे संक्रमण तथा इलाज न होने से मर जाते थे।ʹ

इन सब के लिए धन का अभाव जैसा कोई कारण नहीं था। प्रो. लिरवी कहते हैं कि  ʹअरबों रूपये ʹमिशनरीज ऑफ चैरिटीʹ के अनेकों बैंक खातों में जमा किये जाते थे किंतु अधिकांश खाते गुप्त रखे जाते थे। ….जैसी कृपणता से मदर टेरेसा द्वारा स्थापित कार्य चलाये गये, सवाल उठता है कि गरीबों के लिए इकट्ठा किये गये करोड़ों डॉलर गये कहाँ ?ʹ पत्रकार क्रिस्टोफर हिचेंस के अनुसार धन का उपयोग मिशनरी गतिविधियों के लिए होता था।

शोधकर्ताओं के अनुसार धन कहीं से भी आये, टेरेसा उसका स्वागत करती थीं। हैती () देश की भ्रष्ट व तानाशाह सरकार से प्रशस्ति-पत्र तथा धन प्राप्त करने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ। मदर टेरेसा ने चार्ल्स कीटिंग नामक व्यक्ति से, जो कि ʹकीटिंग फाइव स्कैंडलʹ नाम से जानी जाने वाली धोखाधड़ी में लिप्त था, जिसमें गरीबी लोगों को लूटा गया था, 12.50 लाख डॉलर (6.75 करोड़ रूपये) लिए और उसके गिरफ्तार होने से पूर्व तथा उसके बाद उसको समर्थन दिया।

क्रॉस पर चढ़े जीसस की तरह बीमार भी सहे पीड़ा – मदर टेरेसा

जो लोग मदर टेरेसा को निर्धनों का मसीहा, गरीबों की मददगार, दया-करूणा की प्रतिमूर्ति कहते हैं, वे मदर टेरेसा का यह असली चेहरा देखकर तो सहम ही जायेंगे – शोधकर्ताओं के अनुसार मदर टेरेसा को गरीब-पीड़ितों को तड़पते देखकर सुंदर लगता था। क्रिस्टोफर हिचेंस की आलोचना के प्रत्युत्तर में मदर टेरेसा ने कहा थाः “निर्धन लोगों को अपने दुर्भाग्य को स्वीकार कर ईसा मसीह के समान पीड़ा सहन करने में एक सुंदरता है। इनके पीड़ा सहन करने से विश्व को लाभ होता है।”

हिचेंस बताते हैं कि एक इंटरव्यू में मंद मुस्कान के साथ मदर टेरेसा कैमरे के सामने कहती हैं कि “मैंने उस रोगी से कहाः तुम क्रॉस पर चढ़े जीसस की तरह पीड़ा सह रही हो, इसलिए जीसस जरूर तुम्हें चुंबन कर रहे होंगे।” टेरेसा की इस मानसिकता का  प्रत्यक्ष परिणाम दर्शाने वाला तथ्य पेश करते हुए रेशनेलिस्ट इंटरनेशनल के अध्यक्ष सनल एडामारूकु लिखते हैं- “वहाँ रोगियों को दवा के अभाव में खुले घावों में रेंगते कीड़ों से होने वाली पीड़ा से चीखते हुए सुना जा सकता था।ʹ

शोधकर्ताओं के अनुसार जब खुद मदर टेरेसा के इलाज की बारी आयी तो टेरेसा ने अपना इलाज आधुनिकतम अमेरिकी अस्पताल में करवाया।

इस प्रकार ईसाई मिशनरियों के सेवाभाव के खोखलेपन के साथ उनके वैचारिक दोमुँहेपन एवं विकृत अंधश्रद्धा को भी शोधकर्ताओं ने दुनिया के सामने रख दिया है।

ईसाई धर्म में जीवित अवस्था में किसी को संत नहीं माना जाता। प्रारम्भ में तो अन्य धर्म के साथ युद्ध में जो शहीद हो गये थे, उनको ईसाई लोग संत मानते थे। बाद में अन्य विशिष्ट मिशनरियों एवं अन्य कार्यकर्ताओं को पोप के द्वारा उनके देहांत के बाद उनके ईश्वरीय प्रेम की प्राप्ति का दावा किसी बिशप के द्वारा करने पर और उस पर विवाद करने के बाद कम से कम एक चमत्कार के आधार पर संत घोषित करने की प्रथा चल पड़ी। इसलिए ईसाई संतों को कोई आध्यात्मिक महापुरुष नहीं मान सकते। जिनको ईश्वर प्राप्त नहीं हुआ है ऐसे पोप के द्वारा जिसे संत घोषित किया जाता हो वह महापुरुष नहीं हो सकता। इस प्रकार सनातन धर्म के संतों में और ईसाई संतों में बड़ा अंतर है। फिर भी भारत के मीडिया द्वारा विधर्मी पाखंडियों को आदरणीय संत के रूप में प्रचारित करने और लोक कल्याण में रत भारत के महान संतों को आपराधिक प्रवृत्तियों में संलग्न बताकर बदनाम करने का एकमात्र कारण यह है कि अधिकांश भारतीय मीडिया ईसाई मिशनरियों के हाथ में है और वे लाखों करोड़ों डॉलर लुटाकर भी हिन्दू धर्म को बदनाम करते हैं।

संदर्भः DNA, Times of India, www.wsfa.com etc.

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2013, पृष्ठ संख्या 20,21, अंक 244

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