रावण के समकालीन एक बड़े उच्च कोटि के सम्राट – चक्ववेण हो गये । वे राज्य का मंगल चाहते थे । राज्य तो छोटा-सा था लेकिन प्रभाव इतना था कि उनकी सराहना स्वर्ग में भी होती थी । ऋषि मुनि, साधु-संत बोलते थे कि ‘हम तो साधुवेश में साधु हैं किंतु चक्ववेण राजा-वेश में साधुओं से आगे हैं ।
कुसंग का प्रभाव, रानी का बदला भाव
कुछ मनचली माइयाँ, सेठानियाँ गहने-गाँठे पहनकर महारानियाँ बन के राजा चक्ववेण की पत्नी के दर्शन करने को आयीं । उन्होंने देखा कि रानी साहिबा की साड़ी तो हाथ से काती हुई रूई के कपड़े की है और घर में भी सादा-सूदा भोजन बनता है ।
मनचली माइयाँ रानी से बोलीं- ″तुम्हारे पास तो गहने गाँठे, हार, सिंगार कुछ भी नहीं ! हमारे नौकरों के घर से भी तुच्छ तुम्हारे घर में… ऐसे बर्तन, ऐसे कपड़े… !″
एक सेठानी ने कहाः ″हम तो नौकरानियों को भी ऐसे कपड़े पहनने नहीं देतीं !″
दूसरी ने साथ आयी अपनी नौकरानी की ओर संकेत करते हुए कहाः ″इसके कपड़े देखो और महारानी ! आपके कपड़े देखो ।″
तीसरी ने अपनी नौकरानी की सहेली जो गहने-गाँठे वाली थी, उसकी ओर संकेत करते हुए कहाः ″यह हमारी नौकरानी की सहेली है, इसको भी हम ठीक-ठाक रखते हैं और तुम महारानी… तुम्हारा पति तुमको ऐसा नौकरानी से भी गया-बीता रखता है । ( दुःख व्यक्त करते हुए ) ऐ हे ! आप सहन कर रही हो ! कब तक सहोगी ? माता जी ! हमें बड़ा दुःख होता है ।″
माता जी जरा भोंदू थी, बुद्धु थी, ऐसी नहीं थी कि ‘सुनाने वाले बुद्धु बना रहे हैं’ यह समझकर उनका मुँह बन्द करा दे ।
जिनमें जगत की सत्यता का भूत घुसा होता है न, वे दूसरों में वही भूत घुसेड़ते हैं । धर्म में रुचि नहीं, साधन-भजन में रुचि नहीं… फरियाद करने और भिड़ाने की आदत जिनको होती है वे कहीं भी रहें, वही काम करते हैं ।
तो वे मनचली माइयाँ चक्ववेण राजा की पत्नी को ऐसा तो बहका गयीं कि वह सचमुच सोचने लगी कि ‘हमारे पति तो सारा जीवन हमको ‘मितव्ययिता-मितव्ययिता’ बोलते रहते हैं । ये तो सेठानियाँ हैं और मैं रानी हूँ । इनकी दासियों से भी मेरी हालत बुरी ! सचमुच, आज तक मेरे पति के प्रभाव में रहकर मैं कुछ बोलती नहीं थी, ये लोग तो सुखी हैं और मैं दुःख देख रही हूँ ।’
चक्ववेण राजा की पत्नी को वे पापिनियाँ ऐसा भिड़ा के गयीं कि उसकी शांति भंग हो गयी, साधुपुरुष की पत्नी और एक नौकर की औरत से भी ज्यादा नीचे गिर गयी । नौकरों की पत्नियाँ कितना कष्ट सहती हैं और खुश रहती हैं किंतु जो चक्ववेण राजा साधु थे, प्रसिद्ध थे और उनकी जिस पत्नी को लोग माता जी-माता जी करके आदर देते थे, वह माई इतनी दुःखी हो गयी कि नौकर की औरत से भी गयी-बीती हो गयी । शब्दों का कैसा प्रभाव ! निंदा कितना खतरनाक जहर है ! दोष-दर्शन अपना कितना अकल्याण कर देता है !
पति चक्ववेण आये और उसको उदास देखकर बोलेः ″क्या बात है, आज उदास हो ?″
बोलीः ″बस, हमारा भाग्य भगवान ने ऐसा बना दिया ! अब बुढ़ापा थोड़ा बीत जायेगा… ।″ सिसक-सिसक के रोने लगी ।
″अरे ! तेरे को इतना दुःख ! ऐसी विपदा कहाँ से आयी ?″
″देखो, विधाता ने हमारे जीवन में विपदा ही लिखी है !″
″आज तक तो पूजी जा रही थी, इतने लोग तेरे को ‘माता जी-माता जी’, राजमाता’ कहते हैं… ।″
वह रोती हुई बोलीः ″इससे क्या होता है ! मेरा तो नौकरानी जितना भी आदर नहीं । अरे, सेठानियों की नौकरानी की सहेली – कुमड़ी को मैंने देखा, उसके कपड़े भी अच्छे थे और मेरे को ये देखो… मैं तो उससे भी गयी बीती हूँ ! मैं तो सारा जीवन सहती रही, बाकी थोड़े दिन हैं, बुढ़ापे में सह लूँगी… ।″
चक्ववेण ने देखा कि इसको बुद्धि भ्रष्ट करने वाली अभागिनियाँ मिल गयी हैं । चक्ववेण ने बड़ा परिश्रम किया तो बाई ने सारी बातें बता दीं । उन्होंने कहाः ″अच्छा तो तुमको अब ठीक-ठाक कपड़े चाहिए, गहने-गाँठे चाहिए !″
बोलीः ″अब क्या ! थोड़ा सा जीवन है, यूँ ही मर जाऊँगी ।″
″नहीं-नहीं । किंतु देखो, यह प्रजा का पैसा है, प्रजा की धरोहर है । अधर्म तो हम नहीं कर सकते हैं पर एक उपाय है ।″
फिर राजा ने मंत्री को बुलाया और कहाः ″तुम्हारी माता जी के गहने-गाँठे और कपड़े के लिए मुझे धन चाहिए । अपने लिए प्रजा पर कर डालना यह राजा के लिए उचित नहीं है । प्रजा तो अपने आश्रित है । आश्रित का शोषण करके, उन पर कर डाल के राजा भोग विलास करे या रानी को ऐश कराये तो नरक में जाय ।
मंत्री ! सुनो, रावण बलवान है । तुम जाओ, उसे कह दो चक्ववेण राजा की आज्ञा है कि ‘सवा मन सोना दे दो । और दया-धर्म में नहीं, दान में नहीं… तुम कभी-कभी हमारे राज्य से उड़ान भरते हो, उसका तुम पर कर डाला जाता है ।″
ब्रह्मज्ञानी के नाम की दुहाई का प्रभाव
मंत्री गया और राजा चक्ववेण का संदेशा सुनाया तो रावण ‘ हा हा हा हा हा….!’ करके खूब हँसा, बोलाः ″मुट्ठीभर लोगों के एक छोटे से राज्य, तहसील भी न बने इतने लोगों का अगुआ राजा चक्ववेण और सम्राट रावण पर कर ! हा हा हा हा…. ! अच्छी सुनायी ! बहुरत्ना वसुन्धरा । धरती पर कई रत्न पड़े हैं ।
मंत्रीः ″महाराज ! राजा की आज्ञा मैंने आपको सुनायी है । आप चक्ववेण जी को साधारण न समझिये और आप यदि लंका की सुरक्षा चाहते हो तो सवा मन सोना दिलवा दीजिये, नहीं तो फिर राजा चक्ववेण की दुहाई से कुछ भी हो सकता है !″
″क्या मतलब ? अच्छा जाओ ! क्या हो सकता है जरा दिखाना ।″
″अच्छा महाराज !″
मंत्री समुद्र-तट पर चला गया । रातभर उसने मिट्टी-विट्टी इकट्ठी कर के, पीले फूल-वूल लाकर थोड़े रगड़-वगड़ के सोने की लंका दिखे ऐसा नमूना बनाया और रावण के पास जा के कहाः ″महाराज ! मैं आपको एक कौतूहल दिखाना चाहता हूँ । आप समुद्र-तट पर चलिये ।″
रावण सभासदों सहित वहाँ गया ।
मंत्री ने कहाः ″मैंने लंका का नमूना तैयार किया है । यहाँ नमूने की लंका के पूर्व-द्वार के कँगूरों (शिखरों) को गिराऊँगा तो वहाँ तुम्हारे पूर्व-द्वार के कँगूरे गिरते दिखेंगे । भवन को यहाँ तोड़ूँगा तो वहाँ तुम्हारा भवन धराशायी होगा ।
चक्ववेण राजा को आप क्या समझते हो ! वे ब्रह्म-परमात्मा से एकाकार हुए साधुपुरुष हैं ! राजा हैं लेकिन ब्रह्मज्ञानी राजा हैं । ब्रह्मज्ञानी की निंदा करने वाले का पुण्य और प्रसन्नता नष्ट हो जाते हैं, बुद्धि मारी जाती है और ब्रह्मज्ञानी की सेवा करने वाले की प्रसन्नता, पुण्य और बुद्धि का विकास होता है महाराज !″
रावण ने कहाः ″तुम्हारे चक्ववेण राजा के नाम की दुहाई से…!″
″हाँ महाराज !″
मंत्री ने तनिक चिंतन किया चक्ववेण राजा का । ‘ॐ श्री परमात्मने नमः…. ‘ करके थोड़ा शांत होकर संकल्प कियाः ″चक्ववेण राजा की दुहाई से पूर्व द्वार के कँगूरे गिर जायें ।″
मंत्री ने नमूने के पूर्व-द्वार के कँगूरे गिराये तो असली लंका के पूर्व द्वार के कँगूरे गिर गये ।
मंत्री ने कहाः ″महाराज ! राजा चक्ववेण की दुहाई से लंका नष्ट करने के लिए मैं अकेला ही काफी हूँ ।″
रावण ने कहाः ″भाई ! तू चुपचाप सवा मन सोना ले जा । किसी को बताना नहीं ।″
सत्संग का प्रभाव, रानी का मिटा कुभाव
मंत्री सोना लेकर गया और रानी के सामने राजा के चरणों में रखा । रानी को बड़ा आश्चर्य हुआ, बोलीः ″इतना बड़ा सम्राट लंकेश ! और सवा मन सोना हमारे राजा साहब के नाम से दे देता है !″
मंत्री ने कहाः ″नहीं माता जी ! पहले तो नहीं दे रहा था और मान रहा था कि धरती पर छोटे-से राज्य के राजा चक्ववेण जैसे भी लोग हैं और मेरी भी उसने खूब खिल्ली उड़ायी लेकिन मैं तो महाराज जी को जानता हूँ कि ब्रह्मज्ञानी हैं ।
ब्रह्मज्ञानी का निंदक महाहत्यारा, ब्रह्मज्ञानी का निंदक परमेश्वर मारा । तो जो ब्रह्मज्ञानी की निंदा करते हैं, सुनते हैं, सुनवाने में भाग लेते हैं उनकी तो मति मारी जाती है । इसलिए मैं ज्यादा खड़ा नहीं रहा और मैंने जाकर सोने की लंका का नमूना बनाया और रावण को बुलाया…″ और क्या-क्या किया वह सारी बात सुना दी ।
मंत्री की बातें सुनीं तो रानी पति के चरण पकड़कर माफी माँगती है कि ″देव ! मुझे यह बाहर का सोना, गहने-गाँठे, हीरे नहीं चाहिए, मुझे तो आप हीरों-के-हीरे, गहनों के गहने’ पतिरूप में मिले हैं, मैं भाग्यशाली हूँ । न जाने मेरी कैसी विलासी माइयों से बातचीत हुई और मेरी बुद्धि बिगड़ी महाराज ! अब मैं आपकी बुद्धि की शरण आती हूँ, मुझे क्षमा करें !″
राजा ने पत्नी को सत्संग की दो बातें सुनायीं । अपना बल-बुद्धि, योग्यता दूसरों के दुःख मिटाने के लिए है, आपको सुख के लिए कुछ नहीं चाहिए । आपका अपना आपा परम सुखस्वरूप है ।
मति कीरति गति भूति भलाई ।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ ।
लोकहूँ बेद न आन उपाऊ ।।
‘जिसने जिस समय, जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, वह सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए । वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है ।’ ( श्री रामचरित. बा. कां. 2.3 )
जो सत्य के संग का प्रभाव है वह लोकों में और वैदिक कर्मों में भी नहीं है । मंत्री सवा मन सोना फिर वापस ले गया और रावण को कहाः ″राजा साहब की पत्नी को विलासी माइयों के कुसंग से कुविचार उत्पन्न हुए थे और राजा का सत्संग मिलने से सुविचार आये । बाहर के गहने-गाँठों से सुखी होने की बेवकूफी अब छूट गयी है, अंतरात्मारूपी हीरे से वे प्रसन्न हो गयीं । इसलिए राजन् ! सवा मन सोना आप वापस ले लीजिये ।″
लंकेश देखता ही रह गया कि ‘हद हो गयी ! ऐसे पुरुषों के कारण ही पृथ्वी चल रही है ।’
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 22-25 अंक 347
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ