अगर है शौक मिलने का तो कर खिदमत फकीरों की

अगर है शौक मिलने का तो कर खिदमत फकीरों की


संत श्री रैदास जी महाराज जयंतीः 8 फरवरी 2001

काशीनरेश अपने मंत्री से कहते हैं-

“बाहर से तो मैं बड़ा सुखी हूँ क्योंकि मेरे पास यौवन, आरोग्यता और संपत्ति है, लेकिन भीतर से दुःखी भी बहुत हूँ क्योंकि हृदय में शांति नहीं है। अभी मैंने परम शांति नहीं पाई है, अपनी अंतरात्मा के सुख का स्वाद नहीं पाया है।

काशीनरेश का मंत्री बुद्धिमान था। उसने कहाः “अगर परम शांति चाहिए तो जिन्होंने परम शांति पाई, उनकी संगति में जाना पड़ेगा। जिन्होंने परम शांति पायी है ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की निगाहें आप पर पड़ें, उनके हाथ का प्रसाद मिल जाये, उनकी करुणा-कृपा से हृदय की ज्योति जग जाये तभी शांति मिल सकती है, राजन् !”

काशीनरेशः “मैं कथा तो रोज सुनता हूँ।”

मंत्रीः “राजन् ! कथा तो आप पंडियों से सुनते हैं, कथाकारों से सुनते हैं। किन्हीं आत्मारामी संत का सत्संग सुनिये तो शांति मिलेगी। यदि ऐसे महापुरुष के बारे में आप मुझसे पूछें तो इस वक्त काशी में ब्राह्मण, पंडित, साधु तो बहुत हैं लेकिन आत्मपद को पाये हुए जिन महापुरुष को मैं जानता हूँ वे हैं संत श्री रैदासजी महाराज।”

काशीनरेशः “जूते सीने वाले रैदास ! एक उच्च कोटि के संत !!”

मंत्रीः “हाँ, राजन् ! उनका व्यवसाय भले मोची का है लेकिन वे परमपद को पाये हुए महापुरुष हैं। यदि वे आप पर कृपा कर दें तो आपको हृदय की शांति मिल सकती है।”

काशीनरेशः “मैं उन रैदासजी के पास कैसे जा सकता हूँ ? मैं काशी का राजा और वे जूते सीने वाले एक मोची…”

मंत्रीः “राजन् ! उन महापुरुष का व्यवसाय न देखिये। मैं उनके दर्शन करके आया हूँ, उनके श्रीचरणों में बैठकर आया हूँ। आप भी एक बार अवश्य उनके दर्शन करें।”

मंत्री की बात सुनकर राजा को थोड़ा भरोसा हुआ किन्तु अभी-भी मन में थोड़ी खटक थी कि ʹराजा होकर एक मोची के पास जाना !ʹ उन्होंने मंत्री से कहाः “मैं उन रैदासजी महाराज के पास कैसे जाऊँ ? लोग कहेंगे कि राजा होकर मोची के पास गये थे….”

उस जमाने में नात-जात का बड़ा बोलबाला था।

मंत्रीः “राजन् ! फिर भी आपको उन महापुरुष के पास अवश्य जाना चाहिए। जिन मीराबाई के श्रीचरणों में भारत के बादशाह अकबर ने सिजदा करके अपना भाग्य बनाया, उन मीराबाई ने भी रैदासजी महाराज का मार्गदर्शन पाया है। रैदास जी के कृपा-प्रसाद को विकसित करके मीराबाई ने मेवाड़ को पावन कर दिया।”

काशीनरेशः “ठीक है…. मैं भी मौका देखकर उनके पास जाऊँगा लेकिन ऐसे ढंग से जाऊँगा कि किसी को पता न चले।”

अवसर पाकर राजा सेठ के वेष में रैदासजी के पास पहुँचे।

उस वक्त रैदास जी महाराज जूते सी रहे थे। जूते सीने के ले चमड़े को भिगोना पड़ता है। जिस लकड़ी के बर्तन में पानी रखा जाता है उसे कठौती बोलते हैं। कठौती में चमड़ा भिगोने से पानी रंगीन हो जाता है। रैदासजी महाराज अपने काम में लगे हुए थे। राजा ने कहाः “महाराज ! मैं काशीनरेश हूँ। आपके यहाँ वेष बदलकर आया हूँ। मुझे पता चला है कि आप कृपा करते हैं। मुझे भी शांति का प्रसाद दीजिये।”

संत रैदासजी ने सोचा किः “राजा बनकर आया है, वह भी ईमानदारी से नहीं। बेईमानी से सेठ जैसा कोट पहनकर आया है। इसका अहं भी तो थोड़ा पिघलना चाहिए।ʹ अगर इसमें योग्यता है, अधिकारिता है और थोड़ा मिटेगा तो कुछ पा लेगा।ʹ रैदासजी ने युक्ति की। उन्होंने कठौती में से आधी कटोरी पानी राजा को दिया एवं कहाः “यह पानी पी लो। इससे शांति मिल जायेगी।”

राजा अहं लेकर आया है लेकिन कैसे होते हैं वे करुणामय संत ! कठौती के पानी के रूप में कृपा बरसाने को तैयार हो जाते हैं कि ʹअगर थोड़ा अहं पिघलेगा तो शांति पा लेगा।ʹ लेकिन राजा तो राजा था ! एक तो राजा… फिर मुश्किल से वेष बदलकर आया…. ऊपर से प्रसाद में चमड़े का पानी ! राजा ने सोचाः “अररर… नहीं पीते हैं तो देने वाले का अपमान होता है और पीते हैं तो कै (उल्टी) होती है। अब क्या करें ?ʹ

आखिर राजा था… राजवी आदमी को किस समय क्या करना चाहिए उसकी थोड़ी बहुत सूझ-बूझ तो होती ही है। रैदासजी को बुरा भी न लगे और पानी भी न पीना पड़े, इसलिए राजा ने मुँह घुमा लिया और पीने की अदा करके कटोरी का पानी कोट के अंदर कमीज पर गिरा दिया ताकि बाहर भी न ढुले। राजा ने वहाँ से विदा ली।

महल में आकर काशीनरेश ने अपने खास धोबी को बुलवाया और कहाः “इस कमीज को चुपचाव धुलवा देना। किसी को पता न चले।”

धोबीः “क्या हुआ, राजन् !”

राजाः “यह मत पूछो। बस, इसको जल्दी से धुलवाकर भिजवा देना।”

धोबी ने अपनी बेटी सुजलु को वह कमीज धोने के लिए दे दी। राजा साहब की कमीज धोते समय उस रंग का उसे स्पर्श हुआ। स्पर्श होते ही सुजलु भीतर से ईश्वरीय रंग में रंगती गयी। कमीज का बाहर का रंग धुलता गया और सुजलु के हृदय में प्रेमरस उभरने लगा, ईश्वरीय मस्ती उभरने लगी।

प्रेम न खेतों ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा चहो प्रजा चहो, शीश दिये ले जाय।।

रैदासजी ने उस चमड़े के पानी के रूप में आत्मशांति का, भक्ति का प्रेम-प्रसाद दिया था। राजा को तो अपने राजापने का अहं था अतः उसने तो पानी गिरा दिया लेकिन धोबी की वह बच्ची निर्दोष थी, अहंकाररहित थी अतः उस पानी के स्पर्श से ही उसे भक्ति का, ईश्वरीय मस्ती का प्रसाद मिल गया।

संत-महापुरुष कब, कैसे, किस पर कृपा कर दें कहना कठिन है लेकिन उनकी कृपा पचाने का अधिकारी वही होता है जो छल-कपट एवं अहंकार रहित होता है। ʹश्रीरामचरितमानसʹ में भी आता हैः

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।

मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

रैदास जी के उस कृपा-प्रसाद युक्त जल के स्पर्श से धोबी की बच्ची सुजलु की सुषुप्त शक्ति जाग्रत हो उठी। वह शांत भाव से बैठती तो उसे अंदर से आनंद आने लगता। कभी हँसने लगती तो कभी आँसू बहने लगते, कभी-कभी प्रेमविभोर होकर नृत्य करने लगती…. ऐसा करते-करते उसकी आंतरिक योग्यता विकसित होती गयी। उसकी निष्कामता एवं ईश्वरीय मस्ती बढ़ती गयी। उसकी वाणी सुनकर लोग प्रभावित होने लगे। दो, पाँच, पंद्रह, पचीस…. करते-करते कई लोग उसके दर्शन-सत्संग के लिए आने लगे।

धीरे-धीरे उसकी ख्याति उस पुण्यात्मा मंत्री तक पहुँची जिसने काशीनरेश को संत रैदास जी से मिलवाया था। सुजलु का दर्शन-सत्संग करने वह उसके घर गया। वह स्वयं भी रँगा  हुआ तो था ही, समझदार भी था। सुजलु के वचन सुनकर बड़ा प्रभावित हुआ एवं राजा से कहाः

“राजन् ! आप रैदासजी के पास गये तो सही लेकिन वे मोची हैंʹ ऐसा सोचकर उनके सत्संग का लाभ नहीं ले पाये। खैर, सुजलु तो आपके धोबी की पुत्री है। अपने धोबी की पुत्री के पास जाने में क्या हर्ज है ? राजन् ! आप उससे तो सत्संग-लाभ उठा ही सकते हैं।”

मंत्री के आग्रह से राजा सुजलु के पास गये और बोलेः “सुजलु मुझे शांति चाहिए।”

जिन्हें परमात्म-तत्त्व का साक्षात्कार हो गया है ऐसे महापुरुष जो वस्त्र पहनते हैं उसमें भी उनके आध्यात्मिक आन्दोलन (वायब्रेशन) होते हैं। वे जिस वस्तु को छू देते हैं वह भी प्रसाद हो जाती है। जिस पर उनकी निगाहें पड़ती हैं वह भी निहाल हो जाता है।

यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।

स्थावरणापि मुच्यन्ते किं पुनः प्राकृताः जनाः।।

ʹब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से जिन जड़ पदार्थों को अपने हाथों से स्पर्श करते हैं, आँखों के द्वारा देखते हैं वे भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर-सबेर होने वाले मोक्ष के बारे में तो शंका ही कैसी ?ʹ

भले ही वह कठौती का पानी था, चमड़े का रंग से रँगा हुआ पानी था लेकिन रैदासजी के करकमलों के स्पर्श को प्राप्त हुआ था, उनकी कृपादृष्टिवाला पानी था एवं उसमें उनका सत्य संकल्प भी था तो उसका प्रभाव पड़ा।

सुजलु ने कहाः “आप मेरे पास शांति लेने आये हैं ? आपकी कमीज धोकर तो मैं इतनी महान हुई हूँ और आप मुझसे शांति पाना चाहते हैं ?”

राजा की बुद्धि में प्रकाश हुआ किः ʹअरे ! मैंने मिला हुआ मौका खो दिया…. मैं रैदासजी को नहीं पहचान पाया….ʹ

अगर है शौक मिलने का, तो कर खिदमत फकीरों की।

ये जौहर नहीं मिलता, अमीरों के खजाने में।।

संत-महापुरुष का बाह्य वेष या व्यवहार देखकर ही उनके बारे में अनुमान लगा लेने वाले, निंदकों के चक्कर में आने वाले यूँ ही कोरे-के-कोरे रह जाते हैं। उनके कृपा-प्रसाद को तो वे ही पचा पाते हैं जो निरभिमानी होकर उनके श्रीचरणों में नतमस्तक होते हैं।

मीरा ने पहचाना था रैदासजी को। उन्होंने सच्ची श्रद्धा से रैदासजी के श्रीचरणों में सिर झुकाया था और उनकी कृपा-प्रसाद को पचायी थी। उनका मार्गदर्शन पाकर मीरा लाखों विघ्न-बाधाओं के बीच भी मेवाड़ में, प्रभु-प्रेम में मग्न होकर नाचती रहीं, गुनगुनाती रहीं, मुस्कराती रहीं।

छोटी जाति में जन्म लेकर भी रैदास जी ने उन ऊँचाइयों को छुआ था, जहाँ विरले ही पहुँचते हैं। वे स्वयं कहते हैं-

जाति भी ओछि, करम भी ओछा, ओछा किसब हमारा।

नीचे से प्रभु ऊँच कियो है, कह ʹरैदासʹ चमारा।।

उनके ईश्वर प्रेम से परिपूर्ण इस भजन को तो आज भी भारतवासी बड़े प्रेम से गाते हैं-

प्रभु जी ! तुम चंदन हम पानी। जाकी अँग अँग वास समानी।।

प्रभु जी ! तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा।।

प्रभु जी ! तुम दीपक हम बाती। जाकि जोति बरै दिन राती।।

प्रभु जी ! तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।।

प्रभु जी ! तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 17-19, अंक 98

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