प्रकृति की हर गहरी चेष्टा तुम्हारे तन-मन से संबंध रखती है इसलिए उत्तरायण का दिन भी बहुत महत्त्वपूर्ण दिन है । इन दिन से सूर्य का रथ दक्षिण से मुड़कर उत्तर को चलता है । नैसर्गिक, पौराणिक, वातावरण और शरीर की रचनी दृष्टि से इस दिन का अपना गहरा मूल्य है । उत्तर की तरफ हमारा रथ चल जाय ( अर्थात् हमारी चित्तवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामी हों, हम परमात्मप्राप्ति की यात्रा करें ) इसलिए प्रकृति की अपनी व्यवस्था है ।
कुसंग से बचो
संत कहते हैं, अनुभवी कहते हैं कि उस वातावरण से, उन व्यक्तियों से बचो जो तुमको भगवान या गुरु के रास्ते जाने से रोक रखते हैं या तुम्हारी श्रद्धा डाँवाडोल करते हैं । पैसे का नाश हो जाना कोई नाश नहीं है, श्रद्धा का नाश हुआ तो समझो तुम्हारा सर्वनाश हुआ । श्रद्धा नाश से तुम्हारा सत्यानाश हो जायेगा, किया कराया चौपट हो जायेगा । जो सेवा की है, जो पुण्य कमाया है जो परलोक में काम देगा वह सब चौपट हो जायेगा । अतः कुसंग से बचो । क्या पता यह किश्ती कब दरिया के हवाले हो जाय !
तुम अपना उद्धार करते हो तो 21 पीढ़ियों का भी उद्धार कर लेते हो और तुम अपना अधोगमन, सत्यानाश करते हो तो कुटुम्ब का भी करते हो और समाज को भी नीचे गिराते हो । इस देश में कई ऐसे जटिल समाज हैं कि जब-जब उनमें बुद्धपुरुष हुए और उत्तर अर्थात् सर्वांगीण उन्नति की यात्रा कराने लगे तब-तब उन जटिल समाजों ने उनसे लोगों को दूर करने की कोशिश की और जब वे बुद्धपुरुष चले गये तो समाज अभागा होकर शराब आदि नशाखोरी में, लड़ाई-झगड़ों में मरता रहा, सड़ता-गलता रहा ।
ऋषियों की अनमोल देन
प्रकृति के शरीर के साथ जुड़ा हुआ यह सूर्य उत्तरायण को अपनी दिशा बदलता है । सूर्य की दिशा बदलना हम लोगों के साथ सम्बंध रखता है । इस दिन से देवताओं का प्रातःकाल ( ब्राह्ममुहूर्त ) शुरु होता है । अतः इन दिनों में मांगलिक कार्य किये जाते हैं ।
उत्तरायण के पर्व को सिंधी में ‘तिर-मूरी’ कहते हैं । इस पर्व पर मूली खायी जाती है । बच्चे पतंग उड़ाते हैं । तिल, घी और गुड़ या शक्कर मिलाकर लड्डू बनाये जाते हैं । तिल-पापड़ी खायी-खिलायी जाती है, दी जाती है । तिल में स्निग्धता है । सर्दियों में तन में पुष्टि चाहिए, मन में मिठास चाहिए और जीवन में कुछ उत्तर की ( यानी ऊपर के केन्द्रों की ओर ) गति चाहिए । उस गति के लिए भी शक्ति चाहिए तो ऋषियों ने इस गति और शक्ति से हमारे जीवन को सम्पन्न करने के लिए उसमें तिल और मूली का प्रयोग करा दिया ।
महापुरुष हमारे लिए समाज में आते हैं
मनुष्य के तन-मन पर ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव पड़ता है । इन ग्रहों और नक्षत्रों का प्रभाव तब तक पड़ता रहेगा जब तक तुम्हारा मन उत्तर की तरफ नहीं चला, तुम जब तक नीचे के केन्द्रों में हो । तुम्हारा चित्त कुछ ऊपर चला जाता है तो फिर कर्म-बंधन का, जन्म-मरण का चक्कर अथवा प्रकृति का प्रभाव तुम पर काम नहीं करता । उसको कहा जाता है ‘मुक्त अवस्था’, ‘आत्मसाक्षात्कार की अवस्था’ । ऐसा कोई मनुष्य नहीं मुक्ति न चाहता हो । मुक्त होना, उत्तर की तरफ जाना तुम्हारा स्वभाव है परंतु तुम मन के पंजे में आ गये इसलिए दक्षिण की तरफ ( नीचे के केन्द्रों में ) तुम्हारा रथ बार-बार चला जाता है । बार-बार चला जाता है नहीं, दक्षिण की तरफ ही रह जाता है, उत्तर भूल ही जाता है !
जब शिष्य या साधक ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को प्रणाम करता है तो उसको शांति, शीतलता का एहसास होता है और वह उनके चरणों में बिना मूल्य बिक जाता है । मैंने जब पूज्यपाद भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज के चरणों में एक बार प्रणाम किया तो शीतलता का एहसास हुआ और बिना मूल्य उनके चरणों में सदा के लिए बिक गया ।
सद्गुरु लोग वे होते हैं जिनका रथ उत्तर की तरफ यात्रा कर चुका है, प्रकृति के बंधनों से पार है । जिन महापुरुषों को उत्तरायण का पूरा लाभ मिल जाता है वे समझते हैं कि ‘दक्षिण में ( नीचे के केन्द्रों में ) जीने वाले सब उत्तर की ओर आने वाले नहीं’, फिर भी वे हिम्मत करते हैं । वे जानते हैं कि कई महापुरुष सूली पर चढ़ गये फिर भी वे सूली को स्वीकार करके हमारे लिए समाज में आते हैं ।
जैसे सूर्य उत्तर को छोड़ के दक्षिण में आता है, दक्षिण में जी के फिर उत्तर की तरफ चलता है ऐसे ही महापुरुष उत्तर की यात्रा करते हुए भी हम लोगों के बीच दक्षिण की तरफ आते हैं । हम उनके साथ चल पड़ें और उत्तर की यात्रा कर लें तो हमें पता चलेगा कि उत्तरायण कितना मूल्यवान पर्व है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 348
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