डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खण्डन -1

डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खण्डन -1


(1) आपने लिखा हैप्रभुजी ने बापूजी से मंत्र नही लिया है प्रभुजी का योगमार्ग से sree लीलाशाहजी महाराज से संपर्क है और उनकी आज्ञा  से बापू के घर मे आया है। …. प्रभुजी ने मंत्र मैया से लिया है औरश्री लीलाशाह बापूजी से लिंक है।

प्रभुजी ने बापूजी से मन्त्र न लिया हो तो भी बापूजी उनके पिताजी है इस बात को तो नहीं भूलना चाहिए.

अपने माता पिता का आदर करना संतान का कर्तव्य है. पिताजी के द्वारा नियुक्त किये गए संचालकों के दोष निकालना भी पिताजी के दोष देखने के बराबर ही है, क्योंकि पिताजी के शिष्य जो भी करते है वो पिताजी की आज्ञा और संकेत से ही करते है. जब वे कहते है कि “कांच के घर में रहनेवाले लोग…” तो यह सीधा आक्रमण उनके पिताजी पर कर रहे है क्योंकि वह घर पिताजी के संकेत से बनाया गया है. अगर प्रभुजी के स्थान पर मैं होता और मेरे कुछ शिष्यों ने गैरकानूनी ढंग से कोई निर्माण कार्य शुरू किया होता और मेरे पिताजी के आश्रम के साधक उसे नष्ट करवा देते तो मैं उनका धन्यवाद मानता कि उन्होंने चाहे पिताजी के संकेत से गैरकानूनी भी किया हो, पर वे मुझे तो ऐसे कार्य से रोकते है तो उनका आशय येही है कि उनको जो मुसीबतें उठानी पड़ी वो मुझे न उठानी पड़े. मानों मेरे पिताजी शराबी हो, बरसों से शराब पीते हो और कभी मैं शराब की बोतल लाकर पिने की शुरुआत करूँ तब पिताजी आकर उस बोतल को मुझसे छिनकर तोड़ दे तो मैं ऐसा नहीं कहूंगा कि आप तो बरसों से पीते हो और मुझे रोकते हो? मैं ऐसा सोचूंगा कि पिताजी ने जिस व्यसन की हानियों का अनुभव किया है उस से मुझे बचाने के लिए वे मेरी बोतल तोड़ रहे है, यह उनकी करुणा है. उनके दोष देखने के बदले मैं अपना दोष मिटाने का प्रयास करता.

मतभेद तो सभी पार्टियों में और संस्थाओं में होते है. मानों हमारा किसी हिन्दू संस्था से कभी मतभेद हो जाए, तो उसका उपाय परस्पर विचार विनिमय से शांतिपूर्ण ढंग से भी हो सकता है. इस तरह से अपनी समस्या को सुलझाने का प्रयास मैं करता, माइक पर आवेश में आकर द्वेषपूर्ण प्रवचन से अपनी भड़ास निकालकर लाखों गुरु भक्तों को गुमराह करने का पाप मैं नहीं करता. 

एक हिन्दू धर्म की संस्था के हेड होने के नाते भी प्रभुजी को किसी हिन्दू संस्था के दोषों को उजागर नहीं करना चाहिए. ईसाई धर्म में सैकड़ो पंथ है उनमें आपसी मतभेद बहुत है फिर भी दुसरे धर्म के साथ कभी संघर्ष हो जाए तब वे सब एकजूट हो जाते है, जबकि हिन्दू के आपसी मतभेद के कारण उनको divide and rule की पालिसी से आतंरिक कलहों में उलझाने में विधर्मी इसलिए सफल होते है कि हिन्दू में अपने स्वार्थ की पूर्ती के लियी अपने ही धर्म के दुसरे सम्प्रदाय का विरोध करने में संकोच नहीं होता, अपने ही भाई से लड़ाई करने में संकोच नहीं होता. इसी वजह से इतने विशाल भारत पर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने ७०० साल तक शासन किया और अंग्रेजों ने २०० साल तक इस देश पर शासन करके उसका शोषण किया. अगर हिन्दुओं में गद्दारी का दुर्गुण नहीं होता तो उनको कोई पराजित नहीं कर सकता था. दुसरे सम्प्रदाय तो ठीक पर एक ही गुरु की संतानें भी सत्ता पाने के लिए आपस में संघर्ष करती देखि गई है इस देश में, जैसा गुरु अर्जनदेव और प्रिथिचंद के दृष्टांत से स्पष्ट मालूम पड़ता है. वे दोनों गुरु रामदास के पुत्र थे. जबसे गुरु रामदासजी ने अर्जनदेव को अधिकारी समझकर गुरुगद्दी देने का विचार किया तब से प्रिथिचंद ने अर्जनदेव को सताने के षड्यंत्र शुरू कर दिए. और उनको कारावास की सजा और यातनाएं भी हिन्दू मंत्री चंदू शाह के षड्यंत्रों के द्वारा दी गई. हिन्दुओं की आपसी फूट के कारण आजतक भारत हिन्दू बहुल राष्ट्र होने पर भी भारत के हिन्दुओं का शोषण विधर्मी लोग कर रहे है. कम से कम अपने पिताजी की संस्था से तो प्रभुजी को द्वेषपूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिए. दोष देखने हो ता सब संस्थाओं में मिल जायेंगे, फिर भी जैसे इसाई धर्म के सैकड़ो सम्प्रदाय एक दुसरे के दोष प्रकट करने के बदले संगठित रहकर धर्म प्रचार करते है वैसे अगर हिन्दू धर्म के सम्प्रदाय के हेड करें तो विधर्मी ताकते विफल हो सकती है.

मानो प्रभुजी ने बापूजी से मन्त्र नहीं लिया हो, और माताजी से मन्त्र लिया हो तो भी बापूजी उनके दादागुरु लगते है क्योंकि उनकी गुरु माताजी के पतिदेव है बापूजी. और हिन्दू धर्म में पतिव्रता स्त्री को अपने पति को गुरु मानने का विधान है. और माताजी ने बापूजी से मन्त्र लिया हो तो भी मेरे गुरुदेव प्रभुजी के दादागुरु हुए. अतः दादागुरु की संस्था से भी द्वेषपूर्ण व्यवहार  नहीं करना चाहिए और उनके दोष नहीं देखने चाहिए.

मानों प्रभुजी मेरे गुरुदेव को पिताजी ही मानते हो, गुरु न मानते हो तो भी पिताजी क्या है, और उनसे क्या माल मिलता था इस विषय में अपनी मंद बुद्धि से निर्णय नहीं लेना चाहिए. मैंने अगले पत्र में विस्तार के भय से कुछ बातें नहीं लिखी थी वे इस के साथ लिखता हूँ ताकि प्रभुजी को पता चले कि उनके पिताजी से क्या माल लोगों को मिलता था, जिस से प्रभुजी वंचित रह गए. अगर वंचित नहीं रहे होते तो वे ऐसा बोल ही नहीं सकते कि उनके सत्संग में वह माल मिलता है जो बापूजी से मिलता था.“लोगों को माल देने के विषय में मेरे गुरुदेव के समकक्ष होने का दावा अगर कोई अवतार भी करे तो मैं उनको नहीं मान सकता. अगर कृष्ण भी कहे कि मैंने वही माल दिया था लोगों को जो पूज्य बापूजी से लोगों को मिला है तो मैं उनसे सविनय पूछूँगा, “भगवान आपने ब्रह्मज्ञान का उपदेश कितने लोगों को दिया? अर्जुन, उद्धव और १० – २० लोगों के नाम ही वे बता सकेंगे. तब मैं कहूँगा कि मेरे गुरुदेव ने लाखों नहीं करोड़ों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश सुनाया है. आप उनसे अपनी तुलना नहीं कर सकते. अगर वे कहे कि मैंने भक्तों को प्रेमा भक्ति का अमृत पिलाया है. तो मैं सविनय पूछुंगा कि आपने कितने लोगों को और कितनी बार प्रेमा भक्ति का अमृत किस प्रकार के लोगों को पिलाया है? तब वे इतना ही कह सकेंगे कि वृन्दावन में रहने वाले निर्दोष ह्रदय के गोप और गोपियों को पिलाया है और विशेष रूप से एक ही बार रासलीला के समय पिलाया है. तब मैं कहूंगा कि मेरे गुरुदेव ने हजारों बार कलियुग के झूठे और कपटी, जटिल लोगों को वैसा प्रेमा भक्ति का अमृत पिलाया है. उनके हर शिबिर में रासलीला से अधिक लोग प्रेमा भक्ति के अमृत से तृप्त होते मैंने देखे है. और उनको सिर्फ प्रेमा भक्ति के भावों में मग्न करके छोड़ नहीं देते थे. उनको ज्ञानामृत से भी तृप्त करते थे मेरे गुरुदेव. अगर भगवान् कृष्ण कहे कि मैंने भक्तों को मक्खन भी खिलाया है. तो मैं कहूँगा कि आपने सिर्फ आपके ग्वालबाल जो वृन्दावन में रहते थे, जिनकी संख्या १०० या १००० से ज्यादा नहीं हो सकती, उनको ही १० या १५ साल तक मक्खन खिलाया है, वो भी चोरी करके खिलाया है! मेरे गुरुदेव ने पूरे भारत देश और विदेशों से आनेवाले लाखों भक्तों को करीब ५० साल मक्खन मिश्री, काजू, किशमिश, आदि सूखे मेवे, अनेक प्रकार की मिठाइयां, आम आदि फलों का रस, और अन्य शरबत, चोकलेट, पिपरमेंट आदि खिलाये है और वो भी अपनी कमाई से, चोरी करके नहीं! अगर कोई कहे कि ये चीजें तो भक्त लाते थे और गुरुदेव बाँटते थे तो उनको मालूम होना चाहिए कि कलियुग के महास्वार्थी मनुष्य कोई न कोई बड़ा लाभ होता है तभी संतों के पास उनको जितना लाभ हुआ हो उसका हजारवां या लाखवां हिस्सा मेवे, मिठाई आदि के रूप में रखते है. किसी को मेरे गुरुदेव के सामर्थ्य संपन्न आशीर्वाद से २–५ लाख रुपयों का लाभ होता (किसीको असाध्य रोग से मुक्ति का, तो किसीको आर्थिक लाभ तो किसीको कोर्ट के झूठे मुक़दमे से मुक्ति का, तो किसीको ऑपरेशन के बिना स्वस्थ होने का, तो किसीको अकस्मात् से बचने का या अन्य किसी प्रकार का) तब वह १ या २ किलो मिठाई और १०० या २०० रुपये अर्पण करते थे. उनमें से भी कईयों की भेंट गुरुदेव स्वीकार नहीं करते थे. इसलिए ये सब मेरे गुरुदेव की कमाई का माल था जो वो बाँटते थे, चोरी करके नहीं बाँटते थे! अगर भगवान् कहते कि मैंने भक्तों के कष्ट मिटाए, तो मैं कहता भगवान, आपको अपने पृथ्वीलोक के निवास के दौरान भगवान् मानकर पूजनेवाले भक्त ही कितने थे? आपके भक्त ही गिनेगिनाये थे तो उनके कष्ट भी गिनेगिनाये ही होगे. मेरे गुरुदेव को उनके पृथ्वीलोक निवास के दौरान इस समय तक भगवान् मानकर पूजनेवाले लाखों भक्त है और उन में से प्रत्येक को मेरे गुरुदेव की कृपा से कम से कम ५—१० कष्ट निवारण के अनुभव तो हुए ही है. उन सबका संकलन कोई करे तो १० भागवत पुराण जितना बड़ा ग्रन्थ बन सकता है.  अतः आप उनसे अपनी तुलना नहीं कर सकते. अगर भगवान् बुद्ध कहे कि मैंने वही माल दिया था लोगों को जो पूज्य बापूजी से लोगों को मिला है तो मैं उनसे कहूँगा भन्ते, आपने स्वमुख से धर्म का उपदेश पूरे जीवन में जितने लोगों को सुनाया है उतने लोगों को मेरे गुरुदेव का उपदेश प्रतिदिन सुनने का सौभाग्य मिलता था क्योंकि आपके समय में साउंड सिस्टम, लाइव टेलीकास्ट, इन्टरनेट आदि नहीं थे. और आपने सिर्फ धर्म और योग का उपदेश दिया जब की मेरे गुरुदेव ने धर्म, निष्काम कर्म योग, भक्ति योग, राज योग, हठयोग, कुण्डलिनी योग, नादानुसंधान योग, ज्ञान योग, व्यवहार कुशलता, और स्वास्थ्य विषयक उपदेश भी दिए है. अगर चैतन्य महाप्रभु कहे कि मैंने वही माल दिया था लोगों को जो पूज्य बापूजी से लोगों को मिला है तो मैं उनसे सविनय कहूँगा महाप्रभुजी, आपने हरी नाम संकीर्तन और कृष्ण भक्ति का उपदेश पूरे जीवन में जितने लोगों को सुनाया है उतने लोगों को मेरे गुरुदेव का उपदेश प्रतिदिन सुनने का सौभाग्य मिलता था क्योंकि आपके समय में साउंड सिस्टम, लाइव टेलीकास्ट, इन्टरनेट आदि नहीं थे. और आपने सिर्फ कीर्तन, और कृष्ण भक्ति का उपदेश दिया जब की मेरे गुरुदेव ने धर्म, निष्काम कर्म योग, भक्ति योग, राज योग, हठ योग, कुण्डलिनी योग, नादानुसंधान योग, ज्ञान योग, व्यवहार कुशलता और स्वास्थ्य विषयक उपदेश भी दिए है.  इस तरह आज तक में जितने भी अवतार, और महापुरुष हुए है उन सबको अगर वे मेरे गुरुदेव के साथ अपनी तुलना करेंगे तो हार माननी पड़ेगी. मेरे गुरुदेव ने क्या माल दिया है उसका आकलन करनेवाल आज तक कोई पैदा नहीं हुआ और आगे होगा भी नहीं. पिताजी ने ऐसा उत्तम कोटि का माल इतनी व्यापक मात्रा में बांटा है यह समझकर भी उनसे या उनकी संस्था से द्वेष नहीं करना चाहिए. उपरोक्त और अन्य सभी अवतारों, महापुरुषों, संतों, भक्तों, आदि का हम आदर करते है, वंदन करते है, और उन्होंने तत्कालीन समाज की आवश्यकतानुसार जो कुछ माल दिया उसके लिए धन्यवाद देते है पर अभी इस युग में जो माल अवतारवरिष्ठ मेरे गुरुदेव ने दिया है उसकी तुलना उन में से किसी के द्वारा दिए गए माल से नहीं हो सकती. देखो यहाँ हम तुलना उनके द्वारा दिए गए माल की करते है, उनकी तुलना नहीं करते क्योंकि भिन्न भिन्न युगों में हुए वे सब अवतार एक ही सत्ता के है जो आज इस घोर कलियुग में मेरे गुरुदेव के रूप में कार्य कर रही है.

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