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हनुमान जी ने भी उठाया था गोवर्धन


श्री हनुमान जयंतीः

लंका पर चढ़ाई करने हेतु समुद्र पर सेतु का निर्माणकार्य पूरे वेग से चल रहा था । असंख्य वानर ‘जय श्री राम !’ की गर्जना के साथ सेवा में जुटे थे । हनुमान जी उड़ान भर-भरके विशाल पर्वतों को श्रीरामसेतु के लिए जुटा रहे थे । दक्षिण के समस्त पर्वत सेतु में डाल दिये गये थे, इस कारण वे उत्तराखण्ड में हिमालय के समीप पहुँचे । उन्हें वहाँ द्रोणाचल का सात कोस (करीब 14 मील) का विस्तृत शिखर दिखा । पवनपुत्र ने उसे उठाना चाहा किंतु आश्चर्य ! सम्पूर्ण शक्ति लगाने पर भी वह टस-से-मस नहीं हुआ । हनुमान जी ध्यानस्थ हुए तो उन्हें उसका इतिहास पता चला । उन्होंने जान लिया कि भगवान श्री राम जी के अवतार के समय जब देवगण उनकी मंगलमयी लीला का दर्शन करने एवं उसमें सहयोग देने हेतु पृथ्वी पर अवतरित हुए, उसी समय गोलोक से पृथ्वी पर आये हुए ये महान प्रभुभक्त गोवर्धन हैं ।

हनुमान जी महिमामय गोवर्धन के चरणों में अत्यंत आदरपूर्वक प्रणाम किया और विनयपूर्वक कहाः “पावनतम गिरिराज ! मैं आपको प्रभुचरणों में पहुँचाना चाहता हूँ, फिर आप क्यों नहीं चलते ? वहाँ आप प्रभु की मंगल मूर्ति के दर्शन करेंगे और प्रभु आप पर अपने चरणकमल रखते हुए सागर पार करके लंका में जायेंगे ।”

गोवर्धन आनंदमग्न हुए बोलेः “पवनकुमार ! दया करके मुझे शीघ्र प्रभु के पास ले चलें ।”

अब तो हनुमान जी ने उन्हें अत्यंत सरलता से उठा लिया । हनुमानजी के बायें हाथ पर गोवर्धन फूल के समान हलके प्रतीत हो रहे थे ।

उधर श्रीराम जी ने सोचाः ‘गोवर्धन गोलोक के मेरे मुरलीमनोहर श्रीकृष्ण रूप के अनन्य भक्त हैं । यहाँ उन्होंने कहीं मुझसे उसी रूप में दर्शन देने का आग्रह किया तो मुझे मर्यादा का त्याग करना पड़ेगा । क्या किया जाय ?’

प्रभु सोच ही रहे थे कि उस पाँचवें दिन सौ योजन लम्बा और दस योजन चौड़ा सुविस्तृत दृढ़तम सेतु का निर्माणकार्य पूर्ण हो गया । फिर क्या था, तुरंत श्री राम जी ने आज्ञा कीः “सेतु का निर्माणकार्य पूर्ण हो गया है, अतः अब पर्वत एवं वृक्षादि की आवश्यकता नहीं है । जिनके हाथ में जो पर्वत या वृक्ष जहाँ कहीं हों, वे उन्हें वहीं छोड़कर तुरंत मेरे समीप पहुँच जायें ।”

वानरों ने दौड़ते हुए सर्वत्र श्रीराम जी की आज्ञा सुना दी । जिनके हाथ में जो पर्वत या वृक्ष थे, वे उन्हें वहीं छोड़कर प्रभु के समीप दौड़ चले । आज दक्षिण भारत में वीर वानरों के छोड़े हुए वे ही पर्वत विद्यमान हैं, वहाँ के पर्वत तो पहले सेतु के काम आ चुके थे । महामहिमाय गोवर्धन को अपने हाथ में लिए केसरीनंदन उस समय वज्रधरा तक पहुँचे ही थे कि उन्होंने प्रभु की आज्ञा सुनी । हनुमान जी ने गोवर्धन को तुरंत वहीं रख दिया किंतु उन्हें अपने वचन का ध्यान था । उसी समय उन्होंने देखा, गोवर्धन अत्यंत उदास होकर उनकी ओर आशाभरे नेत्रों से देख रहे हैं ।

हनुमान जी बोलेः “आप चिंता मत कीजिये, मेरे भ्रक्तप्राणध स्वामी मेरे वचनों की रक्षा तो करेंगे ही ।” और वे प्रभु की ओर उड़ चले ।

हनुमान जी श्रीराम जी के समीप पहुँचे । सर्वज्ञ राम जी ने समाचार पूछा तो उन्होंने कहाः “प्रभो ! मैंने गोवर्धन को आपके दर्शन व चरणस्पर्श का वचन दे दिया था किंतु आपका आदेश प्राप्त होते ही मेंने उन्हें व्रजभूमि में रख दिया है । वे अत्यंत उदास हो गये हैं । मैंने उन्हें पुनः आश्वासन भी दे दिया है ।”

भक्तवत्सल श्रीराम जी बोलेः “प्रिय हनुमान ! तुम्हारा वचन मेरा ही वचन है । गोवर्धन को मेरी प्राप्ति अवश्य होगी किंतु उन्हें मेरा मयूरमुकुटी वंशीविभूषित वेश प्रिय है । अतएव तुम उनसे कह दो कि जब मैं द्वापर में व्रजधरा पर उनके प्रिय मुरलीमनोहर रूप में अवतरित होऊँगा, तब उन्हें मेरे दर्शन तो होंगे ही, साथ ही मैं व्रज बालकों सहित उनके फल-फूल एवं तृणादि समस्त वस्तुओं का उपभोग करते हुए उन पर क्रीड़ा भी करूँगा । इतना ही नहीं, अनवरत सात दिनों तक मैं उन्हें अपनी उँगली पर धारण भी किये रहूँगा ।”

गोवर्धन के पास पहुँचकर हनुमान जी ने कहाः “गिरिराज ! आप धन्य हैं ! भक्तपराधीन प्रभु ने आपकी कामनापूर्ति का वचन दे दिया है ।” और गोवर्धन को भगवान का वचन यथावत सुनाया ।

गिरिराज आनंदमग्न हो गये । नेत्रों में प्रेमाश्रुभरे उन्होंने अत्यंत विनम्रतापूर्वक श्रीरामभक्त हनुमान जी से कहाः “आंजनेय ! आपके इस महान उपकार के बदले मैं आपको कुछ देने की स्थिति में नहीं हूँ । मैं आपका सदा कृतज्ञ रहूँगा ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2009, पृष्ठ संख्या 26,27 अंक 195

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विचार की शक्ति


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

गाड़ी-मोटर से, जहाज से, एटम बम से भी विचार की शक्ति ज्यादा है । विचारों से एटम बम फोड़े और रोके जाते हैं, खोजे और बनाये जाते हैं इसलिए विचारों की महत्ता है । विचार में जितना भगवान का आश्रय होगा, भगवान को पाने का विचार होगा उतना ही वह सुखदायी होगा । द्वेष का विचार अपनी और दूसरों की तबाही करता है । राग का विचार अपने को और दूसरे को भोगी बनाता है । ईश्वरप्रीति के उद्देश्य से विचार करने से राग और द्वेष शिथिल हो जाते हैं ।

एक विचार मित्रता बना देता है, एक विचार शत्रुता व कलह पैदा कर देता है । एक विचार साधक को गिराकर संसारी बना देता है, एक विचार संसारी को संयमी बनाकर भगवान बना देता है । सिद्धार्थ के एक सुविचार ने उनको संयमी बनाकर भगवान बना दिया । इसलिए सुविचार की बलिहारी है । सुविचार आये तो उसे पकड़ रखना चाहिए ।

एक नीच विचार करोड़ों आदमियों को परेशान कर देता है । रावण के एक छोटे विचार ने देखो, पूरी लंका को परेशान कर दिया, बंदरों को परेशान कर दिया । ऐसे ही सिकंदर के, हिटलर के एक नीच विचार ने कई लोगों की बलि ले ली, तबाही मचा दी ।

ब्रिटेन के विश्वविख्यात ‘कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय’ के अंग्रेज प्रोफेसरों ने अब्दुल लतीफ नाम के एक विद्यार्थी को हलकट विचार दिया कि हिन्दुस्तान का कुछ हिस्सा अलग करके पाकिस्तान बनाया जाय । अब्दुल पाकिस्तान के नक्शे बनाकर उसके संबंध में पोस्टर व छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ छापकर भारत में भेजने लगा । पहले तो किसी ने उसकी सुनी नहीं । मि. जिन्ना भी दंग रह गये कि यह क्या पागलपन है ! यह संभव ही नहीं है । लेकिन कुविचार को हवा देने वालों ने ऐसा सत्यानाश कर दिया कि भारत में से कुछ हिस्सा अलग होकर पाकिस्तान बना और अभी तक हम उसका भोग बन रहे हैं । उसी से आतंक चला और अब भी सज्जन लोग सताये जा रहे हैं । अलग से फौज, अलग से मिसाइलें, अलग से लड़ाई के जहाज…. एक ही हिन्दुस्तान के दो हिस्से हो के आपस में लड़कर अपनी शक्ति का ह्रास कर रहे हैं । कितने अरबों-खऱबों रूपये चट हो गये एक कुविचार के कारण ! उस कुविचार ने उस समय एक करोड़ लोगों को तो बेघर कर दिया था, लाखों निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया, हजारों महिलाओं की इज्जत लूटी व हजारों बच्चों की लाशें गिरा दी थीं ।

मेरे गुरुदेव का एक सुविचार कि उस परमात्मा को खोजोगे, लाखों-लाखो लोगों को भगवान के ज्ञान, सज्जना व सात्त्विक जीवन से मिला रहा है । लोगों का कितना भला हो रहा है ।

सुविचार मिलता है सत्संग से और कुविचार मिलता है भड़काने वालों से । ‘इस्लाम खतरे में…. मारो-काटो काफिरों को !’ – यह कुविचार है लेकिन बख्तू बीबी ने अपने बेटे को कहाः “बेटा ! इस कुविचार का शिकार मत बनना । हिन्दुओं में भी वही अल्लाह है और मुसलमानों में भी वही राम है । ईश्वर-अल्लाह तेरे नाम । सबको सन्मति दें भगवान ।।”

बख्तू बीबी ने अपने बेटे फरीद को ऐसा सुविचार दिया कि वह बाबा फरीद हो गया । अब भी मुझे बख्तू बीबी और बाबा फरीद के लिए सद्भाव है, इज्जत है । गाँधी जी ने ‘राजा हरिश्चन्द्र’ नाटक देखा और ऊँचा विचार किया कि झूठा नहीं बोलेंगे, परहित करेंगे तो फायदा भी ऐसा हुआ । सनकादि ऋषियों के ब्रह्मज्ञान के विचार ने नारद जी को ‘श्रीमद्भागवत’ की तरफ प्रेरित कर दिया । राजा परीक्षित का कल्याण करने के निमित्त श्री शुकदेव जी ने ‘भागवत’ कही । उनके विचार ने करोड़ों लोगों का भला किया । अब्दुल के कुविचार ने करोड़ों लोगों की तबाही की तो शुकदेव जी और वेदव्यास जी के सुविचार ने करोड़ों लोगों का भला किया । संत तुलसीदास जी के सुविचार ने करोड़ों लोगों को शांति दी, ‘रामायण’ के रस से आनंदित कर दिया । रामानंद सागर के सुविचार ने हम लोगों को घर बैठे रामायण दिखाया । विचारों की बड़ी भारी महत्ता है । जिसके प्रति द्वेष-विचार आया तो सद्गुण दिखते हैं लेकिन श्रद्धा विचार आया तो उसमें परमात्मा दिखेंगे । नामदेव जी महाराज को भूत में भी परमात्मा दिखा, जिनको गुरु जी में भी परमात्मा नहीं दिखते, कैसे हैं उन लोगों के विचार !

अब्दुल लतीफ का पाकिस्तान बनाने का कुविचार अब भी मानव के गले की फाँसी बन बैठा है । इसलिए जो कुविचार देते हैं वे अपने लिए व दुसरों के लिए मुसीबत करते हैं । कुविचार का जहर घोलने वाले मर-मिट गये हैं लेकिन समाज उनके कुविचारों की पीड़ा से पीड़ित हो रहा है, आतंकित हो रहा है ।

एक नूर ते सब जग उपजा, कौन भले कौन मंदे ?

एक ही उस चैतन्य प्रभु से सब उपजे हैं । कुविचार भड़काने वाले तो चले जाते हैं, फिर न जाने कौन-से नरक में पड़ते हैं लेकिन प्रजा शोषित होती है और सुविचार चलाने वाले तो भगवान को पाते हैं और प्रजा पोषित होती है ।

जहाँ सुविचार मिलते हैं उसको सत्संग कहा जाता है और कुविचार मिलते हैं उसको कुसंग कहा जाता है । विचारवान मनुष्य की पहचान है कि वह सत्संग को खोजेगा, सत्पुरुष को देखते-देखते प्रीतिपूर्वक आनंदित हो जायेगा । एकलव्य विचारवान थे, गुरुमूर्ति को देखते-देखते कैसी विद्या जगा ली ! ध्रुव विचारवान थे, नारद जी का संग करके कितने महान बन गये ! मीरा विचारवान थी, गुरु रविदास जी की कृपा कैसे पचा ली !

छल, छिद्र, कपट मनुष्य को कुविचारी बना देता है, तबाह कर देता है । ये तीन दुर्गुण जिसमें नहीं हैं वह तो संत बन जायेगा । ईश्वर के सिवाय कौन-सी चीज हमारी रहेगी, विचार करके देखो । किसके लिए कपट करना, किसके लिए द्वेष करना, किसके लिए पापकर्म करना ? क्यों दोषारोपण करना ? सब अपने-अपने प्रारब्ध और प्राकृतिक स्वभाव के अनूरूप जीते हैं बेचारे । ‘सबका मंगल, सबका भला…’ ऐसा विचार करके आदमी सुखी हो जाता है ।

जो लोग फरियाद करते रहते हैं- ‘ऐसा नहीं है, वैसा नहीं है’, वे लोग अपने विचारों से ही अपना गला घोंटते हैं । फरियादात्मक विचार नहीं, ऐसे उन्नत विचार करो जिससे आत्मा-परमात्मा की भूख  जगे । गलत विचार करने से सत्यानाश हो जाता है । फरियादात्मक विचार, द्वेषपूर्ण विचार, झगड़ा करने-कराने वाले विचार से तो आदमी की कीमत नष्ट हो जाती है । तोड़ने वाला आदमी खुद ही टूट जाता है । फरिदायादात्मक विचार व्यक्ति को खिन्न बना देते हैं, तुच्छ बना देते हैं । दुर्जन सज्जन हो जाय, सज्जन को शांति मिले, शांत मुक्तात्मा हो जाय और मुक्तात्मा ब्रह्मज्ञानी दया करके संसारी लोगों के बीच में आयें-जायें, रहें ताकि संसारी ऊपर उठें, नहीं तो पशु की नाईं नीचे गिरेंगे ।

विचार करो ! मन में जैसा आया ऐसा भजन तो सभी लोग करते हैं । सारी जिंदगी कर-करके बूढ़े होकर, दुःखी होके मर रहे हैं । कौन दुःखों के ऊपर पैर रखकर महान हुआ ? ऐसा विचार करके ऐसे मुक्तात्मा गुरु की शरण में जाओ, ऐसे गुरु से वफादार रहो । वफादारी होगी सद्विचार से, गद्दारी होगी अविचार से । द्वेष होगा अविचार से, समता आयेगी विचार से ।

‘श्री योगवासिष्ठ’ में वसिष्ठ जी कहते हैं- “हे राम जी ! विचार से जीव ऐसे पद को प्राप्त होता है जो नित्य, स्वच्छ, अनंत पर परमानंदरूप है उसको पाकर फिर उसके त्याग की इच्छा नहीं होती है ।

जब ब्रह्मविचार की प्राप्ति हो तब जगत-भ्रम नष्ट हो जाय । कीचड़ का कीट, गर्त का कंटक और अँधेरे बिल में सर्प होना भला है परंतु विचार से रहित होना तुच्छ है ।”

उतना रुदन रोगी और कष्टवान पुरुष भी नहीं करता जितना रुदन विचारहीन व्यक्ति दुःख, पीड़ा, क्लेश, कलह, निंदा, बकबक, झकझक करके परेशान होकर करता है ।

वसिष्ठ जी कहते हैं- “जो पुरुष विचार से रहित होकर भोग में दौड़ता है वह श्वान है ।”

कुत्ते जैसे विचारहीन होकर भौंकते रहते हैं, कितने परेशान होते है ! एक कुत्ता भौंके तो उसके सामने दूसरा भी भौंकता है । रात भर दो-तीन गुट बनाकर भौंकते रहते हैं । देखो तो कुछ अर्थ नहीं निकलता । राग-द्वेष से प्रेरित होकर कर्म करना, अपने अहं को पोसना यह विचाररहित होना है । ‘अपना अहं ईश्वर में कैसे विसर्जित हो ?’ – यह सुविचार है ।

ऐसा विचार करें कि ‘मैं कौन हूँ ? यह जगत क्या है ? दुःख किसको होता है ? सुख किसको होता है ? जन्म-मरण क्यों होता है ? जन्म-मरण से पार कैसे होऊँ ? भगवान अपने आत्मा होकर बैठे हैं तो भी मिले नहीं हैं, तो कैसे पायें ?’ – ऐसे ऊँचे विचार को पकड़कर लग जाना चाहिए । नीच लोग नीच विचार को पकड़कर लग जाते हैं लेकिन ऊँचे लोगे ऊँचे विचार को पकड़कर फिर छोड़ देते हैं, उसमें महत्त्वबुद्धि नहीं रखते !

ऊँचे  विचारों में सबसे ऊँचा विचार है आत्मा – परमात्मा को पाने का, उससे ऊँचा और कोई विचार नहीं है । परमात्मा को पाने का विचार हो और अपनी योग्यता के अनुसार साधन करे । अपनी योग्यता के अनुसार साधन करे । अपनी योग्यता के अनुसार साधन आदमी को परम लक्ष्य परमात्मप्राप्ति तक पहुँचा देता है । लेकिन अपनी योग्यता का पता कैसे चले ? भगवान कहते हैं इसके लिए ज्ञानियों के पास जाओ ।

तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।

‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे ।’ (भगवद्गीताः 4.34)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2009, पृष्ठ संख्या 2-4 अंक 195

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