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हीन व दुर्बल विचारों को त्याग दो


(राष्ट्रीय युवा दिवसः 12 जनवरी 2015)

एक आदमी एक रास्ते से गुजर रहा था। उसने देखा की पेड़ के नीचे कुछ हाथी बँधे हैं। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतने बड़े हाथी और छोटी-छोटी रस्सियों से बँधे हैं ! ये जरा सा भी झटका मारें तो रस्सियाँ टूट जायेंगी।

उसने महावत से कहाः “क्या तुमने इतना ख्याल नहीं किया कि इतने बड़े हाथियों को इतनी पतली रस्सियों से बाँधे नहीं रख सकते ! ये तो कभी भी तोड़कर चले जायेंगे।

महावत हँसा और बोलाः “ऐसा नहीं है। ये छोटे-छोटे थे न, तब से इन्हें ऐसी ही रस्सियों से बाँधते आये हैं। तब बार-बार प्रयास करने पर भी रस्सी न तोड़ पाने के कारण इन्हें धीरे-धीरे विश्वास हो गया है कि ये इन रस्सियों को तोड़ नहीं सकते। अब भले ये ऐसी दसों रस्सियाँ तोड़ सकते हैं लेकिन ये कभी इन्हें तोड़ने का प्रयास नहीं करते।”

वह व्यक्ति आश्चर्य में पड़ गया कि यह ताकतवर प्राणी सिर्फ इसलिए बंधन में पड़ा है क्योंकि इसे विश्वास हो गया है कि यह मुक्त नहीं हो सकता। विश्वास बहुत बड़ी चीज है। विश्वासो फलदायकः। जैसा विश्वास और श्रद्धा होगी, वैसा ही फल प्राप्त होगा। हम जैसा मन में ठान लेते हैं, वैसा ही होने लगता है। सच ही कहा हैः मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

उन हाथियों की तरह ही हममें से कितने ही लोग सिर्फ पहले मिली असफलता के कारण यह मान बैठते हैं कि ‘अब हमसे यह काम हो ही नहीं सकता। अब हम सफल नहीं हो सकते।’ और अपनी ही बनायी हुई मानसिक जंजीरों में जकड़े-जकड़े पूरा जीवन गुजार देते हैं। अगर आपने मन में ठान लिया कि ‘मैं यह नहीं कर सकता’ तो फिर ब्रह्माजी भी आपकी कोई मदद नहीं कर सकते। याद रखिये, असफलता जीवन का एक शिक्षाप्रद पड़ाव है जो हमें यह महान सीख देता है कि शांत होकर अपने भीतर गोता मारो। गलत मान्यताओं, दुर्बल विचारों को खोजो और तत्परता से शास्त्र-सम्मत निश्चय व पुरुषार्थ करो तो सफलता जरूर मिलेगी।

कई लोग मान्यता बना लेते हैं कि ‘हम संसारी हैं, हमें ईश्वरप्राप्ति हो ही नहीं सकती।’ और ऐसी हीन मान्याताओं के कारण वे दुर्लभ मानव-जीवन यों ही गँवा देते हैं। यदि इस मान्यता को छोड़ दें और किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के मार्गदर्शन में इस मार्ग का अवलम्बन लें तो जिस लक्ष्य को पाने के लिए मनुष्य जीवन मिला है उसे अवश्य ही पा सकते हैं।

पूज्य बापू जी कहते हैं- “वेदान्त का यह सिद्धान्त है हम बद्ध नहीं हैं बल्कि नित्य मुक्त हैं। इतना ही नहीं, ‘बद्ध हैं’ यह सोचना भी अनिष्टकारी है, भ्रम है। ज्यों ही आपने सोचा कि ‘मैं बद्ध हूँ, दुर्बल हूँ, असहाय हूँ’, त्यों ही अपना दुर्भाग्य शुरु हुआ समझो ! आपने अपने पैरों में एक जंजीर और बाँध दी। अतः सदा मुक्त होने का विचार करो। हीन विचारों को तिलांजलि दे दो और अपने संकल्पबल को बढ़ाओ। शुभ संकल्प करो। जैसा आप सोचते हो वैसे ही हो जाते हो। यह सारी सृष्टि ही संकल्पमय है। जैसा विश्वास और जैसी श्रद्धा होगी वैसा ही फल प्राप्त होगा।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 19, अंक 264

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स्वास्थ्यवर्धक आँवला


आँवला एक ऐसा श्रेष्ठ फल है जो वात, पित व तीनों दोषों का शमन करता है तथा मधुर, अम्ल, कड़वा, तीखा व कसैला इन पाँच रसों की शरीर में पूर्ति करता है। आँवले के सेवन से आयु, स्मृति, कांति एवं बल बढ़ता है। हृदय एवं मस्तिष्क को शक्ति मिलती है। आँखों के तेज में वृद्धि, बालों की जड़ें मजबूत होकर बाल काले होना आदि अनेकों लाभ होते हैं। शास्त्रों में आँवले का सेवन पुण्यादायी माना गया है। अतः अस्वस्थ एवं निरोगी सभी को आँवले का किसी-न-किसी रूप में सेवन करना ही चाहिए।

आँवले के मीठे लच्छे

सामग्रीः 500 ग्राम आँवला, 5 ग्राम काला नमक, चुटकीभर सादा नमक, चुटकीभर हींग, 500 ग्राम मिश्री, आधा चम्मच नींबू का रस, 150 ग्राम तेल।

विधिः आँवलों को धोकर कद्दूकश कर लें। गुलाबी होने तक इनको तेल में सेंके फिर कागज पर निकालकर रखें ताकि कागज सारा तेल सोख ले। इनमें काला नमक व नींबू का रस मिलाकर अलग रख दें। मिश्री चाशनी बना के इनको उसमें थोड़ी देर पका लें। बस, हो गये आँवले के मीठे लच्छे तैयार ! इन्हें काँच के बर्तन में भरकर रख लें।

पंचामृत रस

लाभः यह अनुभूत रामबाण योग है, जो सर्दी के दिनों में विशेष लाभदायी है।

इससे पेट साफ रहता है।

रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है।

रक्तशुद्धि होती है एवं रक्तसंचरण भी सुचारूप से होने लगता है।

शरीर में स्फूर्ति बढ़ती है।

ओज-तेज की वृद्धि के लिए बहुत ही फायदेमंद है।

कोलेस्ट्राल के बढ़ने से होने वाली बीमारियाँ, जैसे हृदयरोग, मस्तिष्क के रोग, उच्च रक्तचाप आदि में लाभदायी है।

विधिः 1 किलो आँवला, 100 ग्राम कच्ची ताजी हल्दी, 100 ग्राम ताजा अदरक, 100 ग्राम पुदीना,  50 से 100 तुलसी के पत्ते – पाँचों का रस निकाल कर छाने के मिला लें और काँच की बोतल में भर के ठंडे स्थान या फ्रिज में रखें। यह रस करीब 5 दिन टिक जाता है, फिर नया बना लें।

मात्राः रोज बोतल हिलाकर 50 मि.ली. रस सुबह खाली पेट लें (बच्चों के लिए आधी मात्रा। पानी या शहद के साथ ले सकते हैं। कोलेस्ट्रॉल की समस्याओं में 100 ग्राम लहसुन का रस मिलाकर लेने से विशेष लाभ होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 30, अंक 264

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शब्द का प्रभाव – पूज्य बापू जी


शब्दों का बड़ा भारी असर होता है। दिन रात अज्ञानता के शब्द सुनते रहने से अज्ञान दृढ़ हो जाता है, विकारों के शब्द सुनते रहने से मन विकारी बन जाता है, निंदा के शब्द सुनते रहने से चित्त संशयवाला बन जाता है, अपनी प्रशंसा के शब्द सुनते रहने से चित्त में अहंभाव आ जाता है। परमात्मस्वरूप के शब्द सुनकर चित्त देर-सवेर आत्मा-परमात्मा में भी जाग जाता है।

‘अंधे की औलाद अंधी….’ द्रौपदी के इन शब्दों ने ही महाभारत का युद्ध करवा दिया। ये शब्द ही दुर्योधन को चुभ गये और समय पाकर भरी सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास इन्हीं शब्दों ने करवाया।

हाड़ मांस की देह मम, तापर जितनी प्रीति।

तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।

रत्नावली के इन्हीं शब्दों ने उसके पति को संत तुलसी दास बना दिया। ध्रुव को अपनी सौतेली माँ के शब्द लग गये और वह चल पड़ा तो अटल पदवी पाने व ईश्वरप्राप्ति में सफल हो गया, महान हो गया।

ऋषभदेव मुनि के शब्दों ने सम्राट भरत को योगी भरत बना दियाः

गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्

पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्।

दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्या-

न्न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्।।

‘जो अपने प्रिय संबंधी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।’ (भागवतः 5.5.18)

अजनाभखण्ड के एकछत्र सम्राट भरत, जिनके नाम से हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा, अपने पिता के इन शब्दों को याद रखते हुए चल पड़े तो योगी भरत बन गये।

आप भी अपने घर की दीवार पर ये शब्द लिख दो, ‘आखिर कब तक ?’ ‘इतना मिला… इतना पाया… फिर क्या ? आखिर कब तक ?’

पंडित नेहरू और उनकी सुपत्री इंदिरा गाँधी जिनके चरणों में मस्तक नवाते थे, उन आनंदमयी माँ को सत्संग सुनाने की योग्यता खेत की रखवाली करने वाले शांतनु में कैसे आ गयी।

शांतनुबिहारी के पिता पुरोहिती का कार्य करते थे और थोड़ी-बहुत खेती बाड़ी भी करते थे।

उनके खेत में रोज एक बकरा घुस जाता था। वह इतना मजबूत और कुशल था कि खेत बिगाड़ कर चला जाता और हाथ नहीं आता था। एक दिन 6-7 साल का शांतनु सुबह-सुबह हाथ में चाकू लेकर यह सोचकर खेत में छुप गया कि ‘यह बकरे का बच्चा मेरा खेत खा जाता है। आज इसका पेट फाड़ डालूँगा।’

इतने में उसी गाँव के एक पंडित वहाँ से गुजरे। उनकी नजर शांतनु पर पड़ी तो पूछाः “हे ब्राह्मणपुत्र शांतनु ! इस प्रकार छुप कर क्यों बैठे हो ? क्या बात है ? 2-3 बार यही बात पूछी तो शांतनु ने सारी बात सच-सच बता दी।

पंडितः “शांतनु ! यह काम तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम ब्राह्मण हो। बकरे को चाकू मारना तो कसाई का काम है।”

‘यह तुम्हारे योग्य नहीं है…..’ ये शब्द सुनकर शांतनु के हाथ से चाकू गिर पड़ा, उसके जीवन ने करवट बदली और वही शांतनु ‘स्वामी अखंडानंद सरस्वती’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पं. नेहरू और इंदिराजी की पूजनीया आनंदमयी माँ शांतनु से प्रकटे इन्हीं अखंडानंदजी के सत्संग में, चरणों में नतमस्तक होती थीं।

कितना सामर्थ्य छुपा है शब्दों में ! किताबें पढ़कर, लकीर के फकीर होकर अथवा अनपढ़ होकर भी क्या करोगे ? न अधिक ऐहिक पढ़ाई अच्छी है न अनपढ़ रहना अच्छा है। अच्छे में अच्छा तो परमात्मदेव का ज्ञान है, परमात्मप्रीति है, परमात्मरस है, वही सार है। अतः उसी का नाम-स्मरण करो, उसी के शब्द सुनो, उसी की ओर ले जाने वाले शब्द बोलो-सोचो और उसी की शांति, आनंद पाने का पूरा-पूरा प्रयत्न करो, मुक्तात्मा हो जाओ। ॐ आनन्द…. ॐ शांति….. ॐ… ॐ…..ॐ…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 18, 26 अंक 264

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