Monthly Archives: January 2009

समस्याएँ – विकास का साधन


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

ज्ञान का और जीवन का नज़रिया ऊँचा होने से आदमी सभी समस्याओं को पैरों तले कुचलते हुए ऊपर उठ जाता है । दुनिया में ऐसी कोई समस्या या मुसीबत नहीं है जो आपके विकास का साधन न बने । कोई भी समस्या, मुसीबत आपके विकास का साधन है यह पक्का कर लो । जिसके जीवन में मुसीबत, समस्या नहीं आती उसका विकास असम्भव है लेकिन जब डर जाते हो और गलत निर्णय लेते हो तो समस्या आपको दबाती है । समस्या का समाधान तथा उसका सदुपयोग करके आप आगे बढ़ो और सुख, सफलता आये तो उसे ‘बहुजनहिताय’ बाँटकर, उसकी आसक्ति और भोग से बचकर आप औदार्य सुख लो । समस्याएँ बाहर से विष की तरह तकलीफ देने वाली दिखती हैं लेकिन जो भी तकलीफ हैं वे भीतर से अपने में विकास का अमृत सँजोये हुए हैं । ऐसा कोई संत महापुरुष अथवा सुप्रसिद्ध व्यक्ति नहीं हुआ, जिसके जीवन में समस्याएँ और विरोध न हुआ हो ।

भगवान राम के जीवन में देखो, भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में देखो तो समस्याओं की लम्बी कतार…. ! श्रीकृष्ण का  जन्म होने के पहले ही उनके माँ-बाप को कारागृह में जाना पड़ा । श्रीकृष्ण के जन्मते ही वे पराये घर ले जाये गये । कितनी भारी समस्या है ! फिर छठे दिन पूतना जहर लेकर आयी । कुछ दिन बीते तो शकटासुर, धेनुकासुर, अघासुर, बकासुर मारने आ गये थे । 17 साल तक समस्याओं से जूझते-जूझते श्रीकृष्ण कितने मजबूत हो गये ! ऐसे ही रामजी के जीवन में 14 वर्ष का वनवास आदि कई समस्याएँ आयीं । समस्याओं से घबराना नहीं चाहिए, भागना नहीं चाहिए और अपने को कोसना नहीं चाहिए कि ‘मैं बड़ा अभागा हूँ’। दुःख और समस्याएँ आती हैं आसक्ति और लापरवाही मिटाने के लिए ।

आपकी लापरवाही के कारण असफलता आयी है तो आप लापरवाही मिटाओ । आसक्ति के कारण या खान-पान के कारण अगर बीमारी की समस्या आयी तो वह आपके खान पान में लापरवाही की परिचायक है । बीमारी की समस्या तब आती है जब आप स्वाद लोलुपता में पड़कर चटोरापन करते हो अथवा रात को देर से खाते हो, अधिक खाते हो या कोई ऐसी विरुद्ध खुराक ले लेते हो जो आपको पचती नहीं, शरीर को अनुकूल नहीं पड़ती । ऐसे ही विफलता की समस्या तब आती है जब आप अपने उद्देश्य, अपनी योग्यता और अपनी शक्ति का विचार किये बिना कोई काम करते हो । अपनी रूचि, अपनी योग्यता और अपना साधन समझकर उद्देश्य की पूर्ति का निर्णय करना चाहिए, फिर उसमें लग जाना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 13 अंक 193

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निद्रा-विचार


त्रय उपस्तम्भा इत्याहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति ।

‘आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य शरीर के तीन उपस्तंभ हैं अर्थात् इनके आधार पर शरीर स्थित है ।’ (चरक संहिता, सूत्रस्थानम्- 11.35)

इनके युक्तिपूर्वक सेवन से शरीर स्थिर होकर बल-वर्ण से सम्पन्न व पुष्ट होता है ।

‘निद्रा’ की महत्ता का वर्णन करते हुए चरकाचार्य जी कहते हैं-

जब कार्य करते-करते मन थक जाता है एवं इन्द्रियाँ भी थकने के कारण अपने-अपने विषयों से हट जाती हैं, तब मन और इन्द्रियों के विश्रामार्थ मनुष्य सो जाता है । निद्रा से शरीर को सर्वाधिक विश्राम मिलता है । विश्राम से पुनः बल की प्राप्ति होती है । शरीर को टिकाये रखने के लिए जो स्थान आहार का है, वही निद्रा का भी है ।

निद्रा के लाभः

सुखपूर्वक निद्रा से शरीर की पुष्टि व आरोग्य, बल एवं शुक्र धातु की वृद्धि होती है । साथ ही ज्ञानेन्द्रियाँ सुचारू रूप से कार्य करती है तथा व्यक्ति को पूर्ण आयु-लाभ प्राप्त होता है ।

निद्रा उचित समय पर उचित मात्रा में लेनी चाहिए । असमय तथा अधिक मात्रा में शयन करने से अथवा निद्रा का बिल्कुल त्याग कर देने से आरोग्य व आयुष्य का ह्रास होता है । दिन में शयन स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकर है  परंतु जो व्यक्ति अधिक अध्ययन, अत्यधिक श्रम करते हैं धातु-क्षय से क्षीण हो गये हैं, रात्रि-जागरण अथवा मुसाफिरी से थके हुए हैं वे तथा बालक, वृद्ध, कृश, दुर्बल व्यक्ति दिन में शयन कर सकते हैं ।

ग्रीष्म ऋतु में रात छोटी होने के कारण व शरीर में वायु का संचय होने के कारण दिन में थोड़ी देर शयन करना हितावह है ।

घी व दूध का भरपूर सेवन करने वाले, स्थूल, कफ प्रकृतिवाले व कफजन्य व्याधियों से पीड़ित व्यक्तियों को सभी ऋतुओं में दिन की निद्रा अत्यंत हानिकारक है ।

दिन में सोने से होने वाली हानियाँ-

दिन में सोने से जठराग्नि मंद हो जाती है । अन्न का ठीक से पाचन न होकर अपाचित रस (आम) बन जाता है, जिससे शरीर में भारीपन, शरीर टूटना, जी मिचलाना, सिरदर्द, हृदय में भारीपन, त्वचारोग आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं । तमोगुण बढ़ने से स्मरणशक्ति व बुद्धि का नाश होता है ।

अतिनिद्रा दूर करने के उपाय

उपवास, प्राणायाम व व्यायाम करने तथा तामसी आहार (लहसुन, प्याज, मूली, उड़द, बासी व तले हुए पदार्थ आदि) का त्याग करने से अतिनिद्रा का नाश होता है ।

अनिद्रा

कारणः वात व पित्त का प्रकोप, धातुक्षय, मानसिक क्षोभ, चिंता व शोक के कारण, सम्यक् नींद नहीं आती ।

लक्षणः शरीर मसल दिया हो ऐसी पीड़ा, शरीर व सिर में भारीपन, चक्कर, जँभाइयाँ अनुत्साह व अजीर्ण ये वायुसंबंधी लक्षण अनिद्रा से उत्पन्न होते हैं ।

अनिद्रा दूर करने के उपायः

सिर पर तेल की मालिश, पैर के तलुओं में घी की मालिश, कान में नियमित तेल डालना, संवाहन (अंग दबवाना), घी, दूध (विशेषतः भैंस का), दही व भात का सेवन, सुखकर शय्या व मनोनुकूल वातावरण से अनिद्रा दूर होकर शीघ्र निद्रा आ जाती है ।

सहचर सिद्ध तैल (जो आयुर्वेदिक औषधियों की दुकान पर प्राप्त हो सकेगा) से सिर की मालिश करने से शांत व प्रगाढ़ नींद आती है ।

कुछ खास बातें

कफ व तमोगुण की वृद्धि से नींद अधिक आती है तथा वायु व सत्त्वगुण की वृद्धि से नींद कम होती है ।

रात्रि जागरण से वात की वृद्धि होकर शरीर रुक्ष होता है । दिन में सोने से कफ की वृद्धि होकर शरीर में स्निग्धता बढ जाती है परंतु बैठे-बैठे थोड़ी सी झपकी लेना रूक्षता व स्निग्धता दोनों को नहीं बढ़ाता व शरीर को विश्राम भी देता है ।

सोते समय पूर्व अथवा दक्षिण की ओर सिर करके सोना चाहिए ।

हाथ पैरों को सिकोड़कर, पैरों के पंजों की आँटी (क्रास) करके, सिर के पीछे तथा ऊपर हाथ रखकर व पेट नहीं सोना चाहिए ।

सूर्यास्त के दो ढाई-घंटे पूर्व उठ जाना उत्तम है ।

सोने से पहले शास्त्राध्ययन करके प्रणव (ॐ) का दीर्घ उच्चारण करते हुए सोने से नींद भी उपासना हो जाती है ।

निद्रा लाने का मंत्रः

शुद्धे शुद्धे महायोगिनी महानिद्रे स्वाहा ।

इस मंत्र का जप करते हुए सोने से प्रगाढ़ व शांत निद्रा आती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 193

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वे पाप जो प्रायश्चितरहित हैं


धर्मराज (मृत्यु के अधिष्ठाता देव) राजा भगीरथ से कहते हैं- “जो स्नान अथवा पूजन के लिए जाते हुए लोगों के कार्य में विघ्न डालता है, उसे ब्रह्मघाती कहते हैं । जो परायी निंदा और अपनी प्रशंसा में लगा रहता है तथा जो असत्य भाषण में रत रहता है, वह ब्रह्महत्यारा कहा गया है ।

जो अधर्म का अनुमोदन करता है उसे ब्रह्मघात का पाप लगता है । जो दूसरों को उद्वेग में डालता है, चुगली करता है और दिखावे में तत्पर रहता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहते हैं ।

भूपते ! जो पाप प्रायश्चितरहित हैं, उनका वर्णन सुनो । वे पाप समस्त पापों से बड़े तथा भारी नरक देने वाले हैं । ब्रह्महत्या आदि पापों के निवारण का उपाय तो किसी प्रकार हो सकता है परंतु जो ब्राह्मण अर्थात् जिसे ब्रह्म को जान लिया है ऐसे महापुरुष से द्वेष करता है, उसका पाप से कभी भी निस्तार नहीं होता ।

नरेश्वर ! जो विश्वासघाती तथा कृतघ्न हैं उनका उद्धार कभी नहीं होता । जिनका चित्त वेदों की निंदा में ही रत है और जो भगवत्कथावार्ता आदि की निंदा करते हैं, उनका इहलोक तथा परलोक में कहीं भी उद्धार नहीं होता ।

भूपते ! जो महापुरुषों की निंदा को आदरपूर्वक सुनते हैं, ऐसे लोगों के कानों में तपाये हुए लोहे की बहुत सी कीलें ठोक दी जाती हैं । तत्पश्चात् कानों के उन छिद्रों में अत्यंत गरम किया हुआ तेल भर दिया जाता है । फिर वे कुम्भीपाक नरक में पड़ते हैं ।

जो दूसरों के दोष बताते या चुगली करते हैं, उन्हें एक सहस्र युग तक तपाये हुए लोहे का पिण्ड भक्षण करना पड़ता है । अत्यंत भयानक सँडसों से उनकी जीभ को पीड़ा दी जाती है और वे अत्यंत घोर निरूच्छवास नामक नरक में आधे कल्प तक निवास करते हैं ।

श्रद्धा का त्याग, धर्मकार्य का लोप, इन्द्रिय-संयमी पुरुषों की और शास्त्र की निंदा करना महापातक बताया गया है ।

जो परायी निंदा में तत्पर, कटुभाषी और दान में विघ्न डालने वाले होते हैं वे महापातकी बताये गये हैं । ऐसे महापातकी लोग प्रत्येक नरक में एक-एक युग रहते हैं और अंत में इस पृथ्वी पर आकर वे सात जन्म तक गधा होते हैं । तदनंतर वे पापी दस जन्मों तक घाव से भरे शरीर वाले कुत्ते होते हैं, फिर सौ वर्षो तक उन्हें विष्ठा का कीड़ा होना पड़ता है । तदनंतर बारह जन्मों तक वे सर्प होते हैं । राजन् ! इसके बाद एक हजार जन्मों तक वे मृग आदि पशु होते हैं । फिर सौ वर्षों तक स्थावर (वृक्ष आदि) योनियों में जन्म लेते हैं । तत्पश्चात् उन्हें गोधा (गोह) का शरीर प्राप्त होता है । फिर सात जन्मों तक वे पापाचारी चाण्डाल होते हैं । इसके बाद सोलह जन्मों तक उनकी दुर्गति होती है । फिर दो जन्मों तक वे दरिद्र, रोगपीड़ित तथा सदा प्रतिग्रह लेने वाले होते हैं । इससे उन्हें फिर नरकगामी होना पड़ता है ।

राजन् ! जो झूठी गवाही देता है, उसके पाप का फल सुनो । वह जब तक चौदह इंद्रों का राज्य समाप्त होता है, तब तक सम्पूर्ण यातनाओं को भोगता रहता है । इस लोक में उसके पुत्र-पौत्र नष्ट हो जाते हैं और परलोक में वह रौरव तथा अन्य नरकों को क्रमशः भोगता है ।”

(नारद पुराण, पूर्व भाग-प्रथम पादः अध्याय 15)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 25 अंक 193

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