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ऐसा वैभव है आत्मदेव का ! पूज्य बापू जी


पूज्य बापू जी का 55वाँ आत्मसाक्षात्कार दिवस 10 अक्तूबर 2018

यह प्रपंच मिथ्या है। प्रपंच क्यों बोलते हैं ? जैसे भेल पूड़ी में सब एकत्र कर देते हैं न, ऐसे पाँच भूतों का आधा-आधा हिस्सा तो अलग रहा, बाकी आधा हिस्सा मिश्रित किया। उसी से प्रपंच बना। जल में भी पृथ्वी के कण मिल जायेंगे, वायु में भी मिल जायेंगे, आकाश में भी मिल जायेंगे। और पृथ्वी में भी आकाश, वायु सब घुसा हुआ है। पाँचों के मिश्रण से 25 हो गये।

मिथ्या परपंच देखि दुःख जिन आनि जिय।

देवन को देव तू तो सब सुखरासी है।। (विचारसागरः 6.12)

प्रपंच को मिथ्या देखकर दुःख मत आने दे दिल में। ‘यह देवता है कि नहीं’ इसको प्रमाणपत्र देने वाला तू है। भगवान का भगवानपना भी सिद्ध तेरे से होता है। तू भगवान का भी भगवान है, गुरु का भी गुरु है, ऐसा तेरा आत्मा है। यह गुरु का ज्ञान जितना पच जाय उतना ही नम्र हो जायेगा, उतना ही गुरु का प्रिय बन जायेगा।

आपनै अज्ञान तैं जगत सब तू ही रचै।

अपने-आपका (आत्मा का) ज्ञान नहीं है न ! जैसे रात को नींद में अपने आपको भूल जाते हैं और स्वप्न का जगत बना लेते हैं और उसी में सिकुड़ते हैं- ‘हे साहब ! हे फलाने साहब !…’ आँख खोलोगे तो सब गायब हो जायेंगे। जो बड़े-बड़े खूँखार हैं, बड़ी-बड़ी हस्तियाँ हैं सपने वाली, तुम्हारे ही अज्ञान से उनका रुतबा। तुम आँख खोल दो तो तो उनका रुतबा पूरा हो जायेगा। ऐसे ही जगत में तुम अपनी ज्ञान की आँख खोलो तो रुतबा पूरा हो जाय सबका। ऐसा है वह तुम्हारा आत्मदेव !

‘इधर जाऊँ, उधर जाऊँ, उधर जाऊँ….’

ऐसा जो सोचेगा वह भटकेगा इस जगतरुपी सपने में।

आपने अज्ञान तैं जगत सब तू ही रचै।

सर्व को संहार करैं आप अविनाशी है।। (विचारसागरः 6.12)

आत्मा माने ऐसी कोई चीज नहीं, जहाँ से ‘मैं, मैं’ स्फुरित होता है वही अपना चैतन्य ! उस आत्मदेव में निःशंक होकर समझ में आ जाय (उसे जान ले) उसके लिए मेहनत नहीं है, मेहनत का विभाग अलग है, वह तपस्या विभाग है।

दो विभाग-तपस्या और उपासना

एक होता है तपस्या विभाग, उसमें कठिनाई सहने से सिद्धि, शक्ति आती है। दूसरा होता है उपासना विभाग, इष्टदेव में प्रीति, गुरुदेव में प्रीति – यह उपासना है। ‘उप’ माने समीप… इष्ट और सदगुरु के समीप आने की यह रीत है।

कर्म विभाग से वासनाएँ नियंत्रित होती हैं। गलत जगह जा के सुखी होने की आदत पर नियंत्रण करती है उपासना, धर्म। तो एक है मनमुखी कर्म, जैसा मन में आय ऐसा करो… तो वह तो और गिर रहा है गड्ढे में। अच्छे कर्म से हृदय पवित्र होता है और पवित्र हृदय में संकल्पबल आता है। कष्ट सहने से अंतःकरण की शुद्धि होती है। पीडोद्भवति सिद्धयः। पीड़ा सहने से सिद्धि प्राप्त होती है।

उपासना में एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, जिससे बल आ जाता है। इष्ट के, गुरु के सिद्धान्त के समीप हो जाते हैं। इष्ट के लोक में भी जा सकते हैं मरने के बाद। उपासना में इतनी ताकत है कि कोई इष्टदेव है, उसका लोक है तो ठीक, और नहीं भी है तो आपकी उपासना से आपके लिए बन जायेगा। सपने में बन जाता है न सब, ऐसे ही तुम्हारे लिए इष्टलोक बन जायेगा।

इतना आसान है आत्मसाक्षात्कार !

सारे देवताओं का, सारे उपास्यों का, उपासकों का मूल तत्त्व अपना आत्मदेव है। तपस्या, धर्म-परायणता अंतःकरण को शुद्ध करती है। उपासना अंतःकरण को एकाग्र करती है। जितना उसे एकाग्र करते हैं, उतनी शक्तियाँ भी आती है। कोई सोने की लंका भी पा सकता है उपासना के बल से। लेकिन मूल तत्त्व जो सृष्टि का, इष्टदेवता का…. अपना मूल तत्त्व…. उसका साक्षात्कार नहीं हुआ तो देर-सवेर सब नीचे आ जाते हैं। जैसे कमाई हुई और खर्च हो गया। घाटा हुआ और फिर नफा हुआ तब भर गया। ऐसे ऊपर नीचे चौदह लोकों में लोग घूमते रहते हैं… उत्थान-पतन, उत्थान पतन के चक्र में घूमते रहते हैं। तो अब उत्थान-पतन नहीं करना है, जन्म मरण के चक्र में नहीं आना है।

जो इष्टदेव की पूजा अर्चना करता है उसको गुरुदेव मिलते हैं और गुरुदेव भी कई किस्म के होते हैं। उनमें भी तत्त्ववेत्ता, आत्मसाक्षात्कारी गुरु बड़े दुर्लभ होते हैं। वे मिल जायें तो वे संस्कार डालते हैं कि ‘भाई ! तुम आत्मतत्त्व हो।’ जब तक तत्त्ववेत्ता गुरु नहीं मिले थे तब तक हमको भी पता नहीं था आत्मसाक्षात्कार क्या होता है, तुमको भी पता नहीं था, किसी को भी पता नहीं था।

तो सृष्टि के मूल तत्त्व का अनुभव करना तो बड़ा आसान है। कर्मी कर्म कर-करके थक जाय, उपासक उपासन कर-करके कई जन्म बिता दे… लेकिन यह तत्त्वज्ञान, आत्मसाक्षात्कार तो एक हफ्ते में भी हो जाय, इतना आसान भी है ! राजा परीक्षित को एक हफ्ते में हो गया था। उन्हें शुकदेव जी का उपदेश मिला और कैसी तड़प थी कि अन्न जल छोड़कर सत्संग में ही बैठे रहते, खाने पीने का भी ख्याल नहीं रहता था क्योंकि मौत सामने है। एक शब्द भी सत्संग का चूकते नहीं थे। आखिर में गुरु ने कहाः ‘वह (आत्मा-परमात्मा) तू ही है।’ और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया। बहुत ऊँची चीज है। इसकी ऊँचाई के आगे कुछ भी नहीं है।

कभी न छूटे पिंड दुःखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।

आत्मा का स्वरूप क्या है ?

आत्मा किसको बोलते हैं ? जहाँ से ‘मैं’ स्फुरित होता है। सभी के हृदय में ‘मैं’, ‘मैं’ होता है। तो इतना व्यापक है यह… यह तो अपने चमड़े के अंदर बोलते हैं इधर-इधर, बाकी केवल इधर नहीं है, सर्वत्र वही है… वृक्षों में यही आत्मदेव रस खींचने की सत्ता देता है। यह जो पक्षियों का किल्लोल हो रहा है, यह भी आत्मा की सत्ता से हो रहा है। इन पेड़-पौधों, पत्थरों में भी वही आत्मचेतना है किंतु उनमें सुषुप्त है। सारा जगत उस आत्मा का विवर्त है। (वस्तु में अपने मूल स्वभाव को छोड़े बिना ही अन्य वस्तु की प्रतीति होना यह ‘विवर्त’ है। सीपी में चाँदी दिखना, रस्सी में साँप दिखना विवर्त है।) जैसे सागर की एक भी तरंग सागर से अलग नहीं है, ऐसे ही सृष्टि का एक कण भी आत्मा से अलग नहीं है।

एक बार उस आत्मा-परमात्मा को जान लो, उसमें 3 मिनट बैठ जाओ, टिक जाओ, गुरु की कृपा से आत्मसाक्षात्कार हो जाय केवल 3 मिनट के लिए तो पार हो गये…. फिर गर्भवास नहीं होता, जन्म मरण नहीं होता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 309

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ब्रह्मज्ञानी साक्षात् ब्रह्म ही हैं


पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू का 54वाँ आत्मसाक्षात्कार दिवसः 21 सितम्बर

मुंडकोपनिषद् (3.2.1) में आता हैः

स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति

नास्याब्रह्मवित्कुले भवति।

‘निश्चय ही जो कोई उस परम ब्रह्म-परमात्मा को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है। उसके कुल में (अर्थात् संतानों में) कोई भी मनुष्य ब्रह्म को न जानने वाला नहीं होता।’

अर्थात् ब्रह्म ज्ञानी की संतानें एक न एक दिन अवश्य ही ब्रह्म को जान लेती हैं। आज्ञापालक शिष्य, भक्त उनकी संतानें हैं। भगवान शिवजी ने कहा हैः

मातृकुलं पितृकुलं गुरुरेव न संशयः।।

गुरुभक्तों के मातृकुल व पितृकुल ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु ही हैं, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। जो शिष्य, गुरुपुत्र इस भगवद् वचन में दृढ़ निष्ठा रखते हैं एवं उपरोक्त नाता जितनी तत्परता से निभाते हैं, उतनी ही शीघ्र उनकी मुक्ति हो जाती है।

सदगुरु के उपदेश तथा उऩकी कृपा से ही सर्व संशयों की निवृत्ति एवं आत्मस्वरूप का बोध होता है। सद्गुरु खी शरण गये बिना जीवन की भ्रांति दूर नहीं होती। स्वामी शिवानंद जी कहते हैं- जीवन्मुक्त महापुरुष आध्यात्मिक शक्ति के भण्डार होते हैं। वे संसार की भिन्न-भिन्न दिशाओं में आध्यात्मिक शक्ति की धाराएँ अथवा लहरें भेजते रहते हैं। उनकी शरण में जाइये, आपके संशय स्वयं ही निवृत्त हो जायेंगे। आप उनकी उपस्थिति में एक विशेष प्रकार के आनंद और शांति का अनुभव करेंगे।”

गीता की विश्वप्रसिद्ध टीका ‘ज्ञानेश्वरी’ के रचयिता संत ज्ञानेश्वर महाराज स्थितप्रज्ञ पुरुष की महानता बताते हुए कहते हैं- “जो आत्मज्ञान से संतुष्ट और परमानंद से पुष्ट हो गये हों, उन्हीं को सच्चे स्थितप्रज्ञ जानो। वे अहंकार का मद दूर कर देते हैं, सब प्रकार की कामनाओं को त्याग देते हैं और स्वयं विश्वरूप होकर विश्व में विचरण करते हैं।”

अष्टावक्र गीता (4.5) में आता है कि ‘ब्रह्मा से तिनके तक चार प्रकार के प्राणियों (जरायुज, उद्भिज्ज, अंडज, स्वेदज) में एकमात्र तत्त्वज्ञ पुरुष की यह शक्ति है कि वह इच्छा और अनिच्छा – दोनों का त्याग कर सके।’

ज्ञानी में कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि नहीं रहता।

जा लगी माने कर्तव्यता ता लगी है अज्ञान।

कभी-कभी किसी को प्रश्न हो सकता है कि ब्रह्म सदा अकर्ता है तो ऐसे ब्रह्मस्वरूप में स्थित होने के बाद ज्ञानी महापुरुष लोकहित के लिए ही सही, वृत्तियों को वस्तुओं में क्यों लगाते हैं ?

श्री उड़िया बाबा जी के समक्ष किसी ने शंका प्रकट करते हुए कहाः “ज्ञानी को तो निवृत्त ही रहना चाहिए….?”

बाबा ने कहाः “निवृत्त होना ज्ञानी का लक्षण नहीं है, यह तो शांत अंतःकरण का लक्षण है। ज्ञानी का लक्षण है प्रवृत्ति और निवृत्ति – दोनों में सम रहना।”

महापुरुषों को कर्म करना आवश्यक नहीं रहता। फिर भी प्रवृत्ति, निवृत्ति – दोनों में समता और मिथ्यात्व का अनुभव होने से लोकहित के लिए उनके द्वारा कर्म हो जाते हैं। गीता (3.22-23) में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं- “हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ। क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।”

भगवान के अवतार तो नैमित्तक होते हैं। वे प्रत्येक युग में कभी-कभी आते हैं लेकिन ब्रह्मज्ञानी अवतारी महापुरुष तो नित्य अवतार हैं तथा सदैव – हर क्षण, हर पल, हर युग में हर समय में लोक-मांगल्य के लिए किसी न किसी महापुरुष के रूप में धरती पर विद्यमान रहते हैं।

स्वार्थी व्यक्ति अपने लिए जीवनभर लगा रहता है और जीवन्मुक्त महापुरुष सबके कल्याण के लिए जीवन न्योछावर कर देते हैं। वे विश्व कल्याण के लिए लगे रहते हैं इसीलिए शास्त्रों में उन्हें ‘सर्व-सुहर्द’ कहा गया है।

श्रीमद्भागवत (11.7.12) में भगवान कहते हैं-

सर्वभूतसुहृच्छान्तो ज्ञानविज्ञाननिश्चयः।

पश्यन् मदात्मकं विश्वं न विपद्येत वै पुनः।।

‘जिन्होंने श्रृतियों के तात्पर्य का यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चय से सम्पन्न हो गये हैं, वे समस्त प्राणियों के हितैषी, सुहृद होते हैं और उनकी वृत्तियाँ सर्वथा शांत रहती हैं। वे समस्त प्रतीयमान विश्व को मेरा ही स्वरूप – आत्मस्वरूप देखते हैं इसलिए उन्हें फिर कभी जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ता।

आचार्य कोटि के जो ब्रह्मज्ञान महापुरुष होते हैं वे शांत, समाधिस्थ होकर सूक्ष्म सृष्टि के जीवों को लाभान्वित करते हैं। वे मौन रहकर आध्यात्मिक शक्तिपात द्वारा जिज्ञासुओं का उत्थान करते हैं। जो मौन की भाषा को नहीं समझ सकते, उनको वे महापुरुष वाणी द्वारा प्रवचन दे के उनके अंतरात्मा को जागृत करते हैं। सामान्य लोग भी उन्नत हो सकें इसलिए वे नृत्य, कीर्तन आदि करते हैं और सेवा-प्रवृत्तियों के निमित्त से उन तक पहुँच के भी उनको उन्नत करते हैं। जो जहाँ हैं उसे वहाँ से ऊँचा उठाते हैं इसलिए वे ‘सर्वसुहृद’ कहे जाते हैं।

भगवत्प्राप्त तत्त्ववेत्ता संत घाटवाले बाबा कहा करते थेः “संत भगवान से भी बड़े हैं। भगवान तो दुष्ट और सज्जन (गुण) दिखते हैं किंतु संत गुणातीत होते हैं, समता होती है उनकी दृष्टि में। गुरुवाणी में आता हैः

साध की महिमा बेद न जानहि।

संत की महानता वेद भी नहीं जानते।’ वेद भी तीन गुणों में हैं। भगवान भी कहते हैं-

त्रैगुण्यविषय वेदा…..

व्यावहारिक सत्ता में भगवान को सज्जन और दुर्जन दिखते हैं फिर भी पारमार्थिक सत्ता में भगवान गुणातीत तत्त्व हैं, जो संत का स्वरूप है।

राजस्थान से वैदिक ज्ञान की गंगा बहाने वाली तत्त्वज्ञानी सहजो बाई कहती हैं-

हरि ने कर्म भर्म भरमायौ (भ्रम में भ्रमित किया)।

गुरु ने आतम रूप लखायौ।।

फिर हरि बंधमुक्ति (ऐसी मुक्ति जिसमें सूक्ष्म माया का बंधनन लगा रहता है।) गति लाये।

गुरु ने सब ही भर्म मिटाये।।

लोग जब तीर्थ में जाते हैं तब पावन होते हैं लेकिन करूणासिंधु ब्रह्मज्ञानी महापुरुष स्वयं लोगों के पास जाकर ईश्वर की प्यास जगा के उन्हें पावन करते हैं। इसलिए ‘परम सुहृद’ कहे गये हैं। भगवान तो हम भजते हैं तब कृपा करते हैं लेकिन महापुरुष तो हम भजे नहीं तो भी कई बार अहैतुकी कृपा करते हुए हमारे पास पहुँच के कृपा करते हैं। भगवान भी जब परमा करूणावान होते हैं तब अपना भगवानपना भूल के (कर्मफल की तराजू छोड़कर) सद्गुरु का रूप धारण कर अर्जुन, उद्धव आदि को उपदेश देते हैं। इसलिए विष्णुसहस्रनाम में भगवान का एक नाम ‘गुरुः’ आया है।

यदि हम तत्त्वदृष्टि से देखें तो भगवान और गुरु एक हैं-

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने।

लेकिन व्यावहारिक तौर पर भी उनकी तुलना करें तो परम सत्य का प्रतिपादन करने वाले सत्यवक्ता संत कबीर जी ने अपनी लोकहितकारी अमृतवाणी में कहा हैः

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाये।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताये।।

तत्त्वदृष्टि से गुरु और भगवान एक हैं – ऐसा कहा गया है लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से जब देखते हैं तो पहला प्रणाम गुरुदेव को है।

ब्रह्मवेत्ता संत सहजोबाई कहती हैं-

राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ।

गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ।।

अनादि काल से चली आयी गुरु-शिष्य परम्परा में प्राचीन काल से गायी जाती रही निम्नलिखित वैदिक प्रार्थना भारत के घर-घर एवं विद्यालयों में आज भी तो गुँजती है-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ब्रह्मा जी की नाईं हमारे चित्त में सुसंस्कारों की सृष्टि करने वाले गुरुदेव ! विष्णुजी की नाईं पालन करने वाले प्रभु ! आपने हमारे चित्त में सुसंस्कारों का पोषण किया। महेश्वर की नाईं हमारी कुवासनाओं, कुविचारों और रोगों को स्वाहा करने वाले प्रभु ! इतना ही नहीं, साक्षात् परब्रह्मस्वरूप और हमें भी उसमें जगाने वाले मेरे गुरुदेव ! तं नमामि गुरुं परम्। तं नमामि गुरुं परम्। तं नमामि हरिं परम्।

हे महापुरुषो ! आपने खून का पानी करके भी समाज को ब्रह्मरस से सींचने का जो साहस किया, जो प्रेरणा की, जो प्रसाद दिया आज उसी प्रसाद से समाज में थोड़ी नैतिकता दिखती है, थोड़ा स्वास्थ्य दिखता है, थोड़ी आध्यात्मिकता दिखती है और प्रभु को अवतरित करने का छुपा सामर्थ्य भी कभी न कभी प्रकट होता है। अपने दिल के देवता (अंतर्यामी परमात्मा) को पाने की क्षमता रखने वाले मनुष्य के परम सुहृद, परम हितैषी, अकारण दया करने वाले अयाचक महापुरुषो ! आपके चरणों में प्रणाम हो। जय हो देव, जय हो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 2, 8,9 अंक 297

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अपरोक्ष आनंद की अनुभूति : आत्मसाक्षात्कार


 

 

संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

(आत्मसाक्षात्कार दिवस : 2 अक्टूबर)

जो सभीके दिलों को सत्ता, स्फूर्ति और चेतना देता है, सब तपों और यज्ञों के फल का दाता है, ईश्वरों का भी ईश्वर है उस आत्म-परमात्म देव के साथ एकाकार होने की अनुभूति का नाम है – साक्षात्कार । यह शुद्ध आनंद व शुद्ध ज्ञान की अनुभूति है । इस अनुभूति के होने के बाद अनुभूति करनेवाला नहीं बचता अर्थात् उसमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव नहीं रहता, वह स्वयं प्रकट ब्रह्मरूप हो जाता है ।

जैसे लोहे की पुतली का पारस से स्पर्श हुआ तो वह लोहे की पुतली नहीं रही सोने की हो गयी, ऐसे ही आपकी मति जब परब्रह्म परमात्मा में गोता मारती है तो ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाती है । ऋतंभरा प्रज्ञा यानि सत्य में टिकी हुई बुद्धि । ऐसा प्रज्ञावान पुरुष जो बोलेगा वह सत्संग हो जायेगा ।

राजा परीक्षित ने सात दिन में साक्षात्कार करके दिखा दिया… किसीने चालीस दिन में करके दिखा दिया… मैं कहता हूँ कि चालीस साल में भी परमात्मा का साक्षात्कार हो जाय तो सौदा सस्ता है । वैसे भी करोड़ों जन्म ऐसे ही बीत गये साक्षात्कार के बिना ।

तुम इंद्र बन जाओगे तो भी वहाँ से पतन होगा, प्रधानमंत्री बन जाओगे तो भी कुर्सी से हटना पड़ेगा । एक बार साक्षात्कार हो जाय तो मृत्यु के समय भी आपको यह नहीं लगेगा : ‘मैं मर रहा हूँ ।’ बीमारी के समय भी नहीं लगेगा : ‘मैं बीमार हूँ ।’ लोग आपकी जय-जयकार करेंगे तब भी आपको नहीं लगेगा कि ‘मेरा नाम हो रहा है ।’ आप फूलोगे नहीं । निंदक आपकी निंदा करेंगे तब भी आपको नहीं लगेगा कि ‘मेरी निंदा हो रही है ।’ आप सिकुड़ोगे नहीं, बस हर हाल में मस्त ! देवता आपका दीदार करके अपना भाग्य बना लेंगे पर आपको अभिमान नहीं आयेगा, साक्षात्कार ऐसी उच्च अनुभूति है ।

साक्षात्कार को आप क्या समझते हो ? यह तो ऐसा है कि सब्जी मंडी में कोई हीरे-जवाहरात लेकर बैठा हो । लोग सब्जी लेकर और हीरे-जवाहरात देख के चलते जायेंगे । फिर वहाँ हीरे-जवाहरात खोलकर कोई कितनी देर बैठेगा – ऐसी बात है साक्षात्कार की । संसार चाहनेवालों के बीच साक्षात्कार की महिमा कौन जानेगा ? कौन सराहेगा ? कौन मनायेगा साक्षात्कार दिवस और कैसे मनायेगा ? इसीलिए जन्मदिन मनाने की तो बहुत रीतियाँ हैं परंतु साक्षात्कार दिवस मनाने की कोई रीति प्रचलित नहीं है । फिर भी सत्शिष्य अपने सद्गुरु का प्रसाद पाने के लिए उनके साक्षात्कार दिवस पर अपने ढंग से कुछ-न-कुछ कर लेते हैं ।

साक्षात्कार पूरी धरती पर किसी-किसीको होता है । साक्षात्कार धन से, सत्ता से, रिद्धि-सिद्धियों से भी बड़ा है । साक्षात्कारी महापुरुष कई धनवान, कई सत्तावान पैदा कर सकते हैं । कई ऐसे महापुरुष हैं जो लोहे से सोना बना दें । ऐसे भी महापुरुष मैंने देखे जो हवा पीकर जीते हैं, उनके पास अदृश्य होने की भी शक्ति है । ऐसे भी संत मेरे मित्र हैं जिनके आगे गायत्री देवी प्रकट हुईं, हनुमानजी प्रकट हुए, सूक्ष्म शरीर से हनुमानजी उनको घुमाकर भी ले आये परंतु इन सभी अनुभवों के बाद भी जब तक इस जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता तब तक वह चाहे स्वर्ग में चला जाय, वैकुंठ में चला जाय, पाताल में चला जाय, सारे ब्रह्मांड में भटक ले पर ‘निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा ।’ आत्मसाक्षात्कार के बिना पूर्ण तृप्ति, शाश्वत संतोष नहीं होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के मित्र थे और सारथी बनकर उसका रथ चला रहे थे, तब भी अर्जुन को साक्षात्कार करना बाकी था । उस आत्मसुख की प्राप्ति अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण के सत्संग से हुई, हनुमानजी को रामजी के सत्संग से हुई । राजा जनक को अष्टावक्र मुनि की कृपा से वह पद मिला और आसुमल को पूज्य लीलाशाह बापूजी की कृपा से आज (आश्विन शुक्ल द्वितीया) के दिन वह आत्मसुख मिला था ।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान । आसुमल से हो गये, साँईं आसाराम ।।

इंद्रपद बहुत ऊँचा है लेकिन आत्मसाक्षात्कार के आगे वह भी मायने नहीं रखता । साक्षात्कार के आनंद से त्रिलोकी को पाने का आनंद भी बहुत तुच्छ है । इसीलिए

‘अष्टावक्र गीता’ में कहा गया है :

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः ।

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ।।

‘जिस पद को पाये बिना इंद्र आदि सब देवता भी अपनेको कंगाल मानते हैं, उस पद में स्थित हुआ योगी, ज्ञानी हर्ष को प्राप्त नहीं होता, आश्चर्य है ।’ (अष्टावक्र गीता : 4.2)

आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष को इस बात का अहंकार नहीं होता कि ‘मैं ब्रह्मज्ञानी हूँ… मैं साक्षात्कारी हूँ… इस दुनिया में दूसरा कोई मेरी बराबरी का नहीं है… मैंने सर्वोपरि पद पाया है…’

उस परमात्म-सुख को, परमात्म-पद को पाये बिना, निर्वासनिक नारायण में विश्रांति पाये बिना हृदय की तपन, राग-द्वेष, भय-शोक-मोह व चिंताएँ नहीं मिटतीं । अगर इनसे छुटकारा पाना है तो यत्नपूर्वक आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों का संग करें, मौन रखें, सत्शास्त्रों का पठन-मनन एवं जप-ध्यान करें । निर्वासनिक नारायण तत्त्व में विश्रांति पाने में ये सब सहायक साधन हैं ।

ऐसा नहीं है कि परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया तो कोई आपकी निंदा नहीं करेगा, आपके सब दिन सुखद हो जायेंगे । नहीं… परमात्म-साक्षात्कार हो जाय फिर भी दुःख तो आयेंगे ही । भगवान राम को भी चौदह वर्ष का वनवास मिला था । महात्मा बुद्ध हों या महावीर स्वामी, संत कबीरजी हों या नानकदेव, श्री रमण महर्षि हों या श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ हों या पूज्य लीलाशाहजी बापू विघ्न-बाधाएँ तो सभी देहधारियों के जीवन में आती ही हैं लेकिन इनका प्रभाव जहाँ पहुँच नहीं सकता उस आत्मसुख में वे महापुरुष सराबोर होते हैं ।

जैसे जंगल में आग लगने पर सयाने पशु सरोवर में खड़े हो जाते हैं तो आग उन्हें जला नहीं सकती, ऐसे ही जो महापुरुष आत्मसरोवर में आने की कला जान लेते हैं वे संसार की तपन के समय अपने आत्मसुख का विचार कर तपन के प्रभाव से परे हो जाते हैं ।

(ऋषि प्रसाद : सितम्बर 2006)