अपरोक्ष आनंद की अनुभूति : आत्मसाक्षात्कार

अपरोक्ष आनंद की अनुभूति : आत्मसाक्षात्कार


 

 

संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

(आत्मसाक्षात्कार दिवस : 2 अक्टूबर)

जो सभीके दिलों को सत्ता, स्फूर्ति और चेतना देता है, सब तपों और यज्ञों के फल का दाता है, ईश्वरों का भी ईश्वर है उस आत्म-परमात्म देव के साथ एकाकार होने की अनुभूति का नाम है – साक्षात्कार । यह शुद्ध आनंद व शुद्ध ज्ञान की अनुभूति है । इस अनुभूति के होने के बाद अनुभूति करनेवाला नहीं बचता अर्थात् उसमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव नहीं रहता, वह स्वयं प्रकट ब्रह्मरूप हो जाता है ।

जैसे लोहे की पुतली का पारस से स्पर्श हुआ तो वह लोहे की पुतली नहीं रही सोने की हो गयी, ऐसे ही आपकी मति जब परब्रह्म परमात्मा में गोता मारती है तो ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाती है । ऋतंभरा प्रज्ञा यानि सत्य में टिकी हुई बुद्धि । ऐसा प्रज्ञावान पुरुष जो बोलेगा वह सत्संग हो जायेगा ।

राजा परीक्षित ने सात दिन में साक्षात्कार करके दिखा दिया… किसीने चालीस दिन में करके दिखा दिया… मैं कहता हूँ कि चालीस साल में भी परमात्मा का साक्षात्कार हो जाय तो सौदा सस्ता है । वैसे भी करोड़ों जन्म ऐसे ही बीत गये साक्षात्कार के बिना ।

तुम इंद्र बन जाओगे तो भी वहाँ से पतन होगा, प्रधानमंत्री बन जाओगे तो भी कुर्सी से हटना पड़ेगा । एक बार साक्षात्कार हो जाय तो मृत्यु के समय भी आपको यह नहीं लगेगा : ‘मैं मर रहा हूँ ।’ बीमारी के समय भी नहीं लगेगा : ‘मैं बीमार हूँ ।’ लोग आपकी जय-जयकार करेंगे तब भी आपको नहीं लगेगा कि ‘मेरा नाम हो रहा है ।’ आप फूलोगे नहीं । निंदक आपकी निंदा करेंगे तब भी आपको नहीं लगेगा कि ‘मेरी निंदा हो रही है ।’ आप सिकुड़ोगे नहीं, बस हर हाल में मस्त ! देवता आपका दीदार करके अपना भाग्य बना लेंगे पर आपको अभिमान नहीं आयेगा, साक्षात्कार ऐसी उच्च अनुभूति है ।

साक्षात्कार को आप क्या समझते हो ? यह तो ऐसा है कि सब्जी मंडी में कोई हीरे-जवाहरात लेकर बैठा हो । लोग सब्जी लेकर और हीरे-जवाहरात देख के चलते जायेंगे । फिर वहाँ हीरे-जवाहरात खोलकर कोई कितनी देर बैठेगा – ऐसी बात है साक्षात्कार की । संसार चाहनेवालों के बीच साक्षात्कार की महिमा कौन जानेगा ? कौन सराहेगा ? कौन मनायेगा साक्षात्कार दिवस और कैसे मनायेगा ? इसीलिए जन्मदिन मनाने की तो बहुत रीतियाँ हैं परंतु साक्षात्कार दिवस मनाने की कोई रीति प्रचलित नहीं है । फिर भी सत्शिष्य अपने सद्गुरु का प्रसाद पाने के लिए उनके साक्षात्कार दिवस पर अपने ढंग से कुछ-न-कुछ कर लेते हैं ।

साक्षात्कार पूरी धरती पर किसी-किसीको होता है । साक्षात्कार धन से, सत्ता से, रिद्धि-सिद्धियों से भी बड़ा है । साक्षात्कारी महापुरुष कई धनवान, कई सत्तावान पैदा कर सकते हैं । कई ऐसे महापुरुष हैं जो लोहे से सोना बना दें । ऐसे भी महापुरुष मैंने देखे जो हवा पीकर जीते हैं, उनके पास अदृश्य होने की भी शक्ति है । ऐसे भी संत मेरे मित्र हैं जिनके आगे गायत्री देवी प्रकट हुईं, हनुमानजी प्रकट हुए, सूक्ष्म शरीर से हनुमानजी उनको घुमाकर भी ले आये परंतु इन सभी अनुभवों के बाद भी जब तक इस जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता तब तक वह चाहे स्वर्ग में चला जाय, वैकुंठ में चला जाय, पाताल में चला जाय, सारे ब्रह्मांड में भटक ले पर ‘निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा ।’ आत्मसाक्षात्कार के बिना पूर्ण तृप्ति, शाश्वत संतोष नहीं होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के मित्र थे और सारथी बनकर उसका रथ चला रहे थे, तब भी अर्जुन को साक्षात्कार करना बाकी था । उस आत्मसुख की प्राप्ति अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण के सत्संग से हुई, हनुमानजी को रामजी के सत्संग से हुई । राजा जनक को अष्टावक्र मुनि की कृपा से वह पद मिला और आसुमल को पूज्य लीलाशाह बापूजी की कृपा से आज (आश्विन शुक्ल द्वितीया) के दिन वह आत्मसुख मिला था ।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान । आसुमल से हो गये, साँईं आसाराम ।।

इंद्रपद बहुत ऊँचा है लेकिन आत्मसाक्षात्कार के आगे वह भी मायने नहीं रखता । साक्षात्कार के आनंद से त्रिलोकी को पाने का आनंद भी बहुत तुच्छ है । इसीलिए

‘अष्टावक्र गीता’ में कहा गया है :

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः ।

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ।।

‘जिस पद को पाये बिना इंद्र आदि सब देवता भी अपनेको कंगाल मानते हैं, उस पद में स्थित हुआ योगी, ज्ञानी हर्ष को प्राप्त नहीं होता, आश्चर्य है ।’ (अष्टावक्र गीता : 4.2)

आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष को इस बात का अहंकार नहीं होता कि ‘मैं ब्रह्मज्ञानी हूँ… मैं साक्षात्कारी हूँ… इस दुनिया में दूसरा कोई मेरी बराबरी का नहीं है… मैंने सर्वोपरि पद पाया है…’

उस परमात्म-सुख को, परमात्म-पद को पाये बिना, निर्वासनिक नारायण में विश्रांति पाये बिना हृदय की तपन, राग-द्वेष, भय-शोक-मोह व चिंताएँ नहीं मिटतीं । अगर इनसे छुटकारा पाना है तो यत्नपूर्वक आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों का संग करें, मौन रखें, सत्शास्त्रों का पठन-मनन एवं जप-ध्यान करें । निर्वासनिक नारायण तत्त्व में विश्रांति पाने में ये सब सहायक साधन हैं ।

ऐसा नहीं है कि परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया तो कोई आपकी निंदा नहीं करेगा, आपके सब दिन सुखद हो जायेंगे । नहीं… परमात्म-साक्षात्कार हो जाय फिर भी दुःख तो आयेंगे ही । भगवान राम को भी चौदह वर्ष का वनवास मिला था । महात्मा बुद्ध हों या महावीर स्वामी, संत कबीरजी हों या नानकदेव, श्री रमण महर्षि हों या श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ हों या पूज्य लीलाशाहजी बापू विघ्न-बाधाएँ तो सभी देहधारियों के जीवन में आती ही हैं लेकिन इनका प्रभाव जहाँ पहुँच नहीं सकता उस आत्मसुख में वे महापुरुष सराबोर होते हैं ।

जैसे जंगल में आग लगने पर सयाने पशु सरोवर में खड़े हो जाते हैं तो आग उन्हें जला नहीं सकती, ऐसे ही जो महापुरुष आत्मसरोवर में आने की कला जान लेते हैं वे संसार की तपन के समय अपने आत्मसुख का विचार कर तपन के प्रभाव से परे हो जाते हैं ।

(ऋषि प्रसाद : सितम्बर 2006)

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