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Prerak Prasang

अब ‘आर बेला नाई’ – पूज्य बापू जी



कोलकाता की एक घटना है । किसी सेठ के यहाँ दूध देने वाली
ग्वालिन आती थी । उसने दूध देने के बाद मुनीम से पैसे माँगे । मुनीम
ने कहाः “अभी थोड़ा हिसाब कर रहा हूँ, बाद में आना ।”
वह गयी, उसको जहाँ कहीं दूध देना था, देकर थोड़ी देर के बाद
आयी । मुनीम व्यस्त था, उसने फिर कहाः “थोड़ी देर के बाद आना ।”
उसको जो कुछ खरीदना था, खरीद के फिर आयी । मुनीम ने
कहाः “इतनी जल्दी क्या है, जरा बाद में आना ।”
‘बाद में, बाद में….’ करते-करते शाम हो गयी । ग्वालिन को सूरज
डूबता हुआ दिखा । उसने कहाः “मुनीम जी हमको पैसा दे दो ।”
मुनीम ने कहाः “तू चक्कर मार के आ जा । मैं इतना थोड़ा सा
काम कर लूँ फिर दे दूँगा पैसे ।”
जाकर आयी तब तक सूरज डूब गया । अब तो ग्वालिन ने मुनीम
की तरफ ताका कि ‘यह काम कब निपटायेगा, कब पूरा करेगा !’
ग्वालिन का धैर्य टूटा और उसने झिड़कते हुए कहाः “पैसा दे दो, अब
मेरे पास समय नहीं है, जल्दी करो… पैसा दे दो ।”
उसकी झिड़कने वाली आवाज सेठ के कानों में पड़ी । ग्वालिन ने
फिर कहाः “बाबा ! पैसा दे दो । आर बेला नाई…’ यानी अब और समय
नहीं है ।
सेठ का कोई पुण्य उदय हुआ । सेठ ने मुनीम को कहाः “मुनीम !
आर बेला नाई… जिंदगी के दिन बीत गये, काम समेटो ।”
मुनीम चौंका । सेठ कहता हैः “इसमें आश्चर्य करने की बात नहीं
है, उसने ठीक कहा है । मेरे भी 50 वर्ष हो गये, अब ज्यादा समय नहीं
जिंदगी ।”

बहुत पसारा मत करो, कर थोड़े की आस ।
बहुत पसारा जिन किया, वे भी गये निराश ।।
क्या करिये क्या जोड़िये, थोड़े जीवन काज ।
छोड़ी-छोड़ी सब जात है, देह गेह (घर) धन राज ।।
हाड़ (कुल या वंश की परम्परा से मनुष्य का गौरव महत्त्व)
बढ़ा हरिभजन कर, द्रव्य (धऩ) बढ़ा कछु देय ।
अक्ल बढ़ी उपकार कर, जीवन का फल एह (यह) ।।
अक्ल बढ़ी आत्मज्ञान पा, जीवन का फल एह ।
सेठ का पुण्य मानो उसके भीतर उभर-उभरकर प्रेरणा दे रहा हैः
“आर बेला नाई ।”
और, और, और… नहीं, जितने है उसमें से भी समेटकर समय
बचाओ ।
पानी केरा बुलबुला (पानी के बुदबुदे के समान), यह मानव की
जात ।
देखत ही छुप जात है, ज्यों तारा प्रभात ।।
कबिरा यह तन जात है, राख सके तो राख ।
खाली हाथों वे गये जिन्हें करोड़ और लाख ।।
मानो उसका अंतरात्मा उसको झकझोर रहा है ‘अब और समय नहीं
है ।’
सेठ ने कहाः “मुनीम ! जल्दी करो, काम समेटो, अब मुझे व्यापार
नहीं करना है, विस्तार नहीं करना है ।” और वह बुद्धिमान सेठ
वास्तविक सेठ होने के रास्ते चल पड़ा ।
‘जितना है उतने का मैं तो क्या, मेरे पुत्र और पौत्र तक ब्याज भी
नहीं खा सकते हैं, फिर ‘हाय-हाय’ कब तक ? अब हरि-हरि करना है ।’

उसने बना रखी थी अपने घऱ में एक छोटी-मोटी कुटिया । थोड़ा बहुत
ध्यान भजन करता था ।
ध्यान का फल यह है कि अपनी बुद्धि की बेवकूफी देखने लग
जाय, अपने मन की मलिनता दिखने लग जाय । अपने बंधनों को
व्यक्ति देखने लग जायेगा, ध्यान ऐसी चीज है ।
सेठ 1-2 घंटा सुबह-शाम जो ध्यान-भजन करता था, उसने उसे
अब और बढ़ाया । तीर्थों में रहने लगा और विरक्त ब्रह्मवेत्ता महापरुषों
का संग करने लगा । सेठ के पुण्यपुंज से, ध्यान-भजन के प्रभाव से
बच्चों की बुद्धि भी शुद्ध रही । बच्चे जितना सँभाल सके, उनको
सँभलाया ।
अपनी बुद्धि को शुद्ध रखना है तो कमाई का 10 प्रतिशत दान-
पुण्य किया करो और वह दान-पुण्य भगवान के रास्ते जाने वालों की
सेवा में लगेगा तो दान होगा और गरीब गुरबे, अनाथ को दोगे तो वह
दया होगी ।
भगवान का एक ऐसा करुणामय प्रसाद उसके चित्त में प्रकट हुआ
कि उसे सत्संग रुचने लगा और विवेक जग गया । ‘जिसे सँभाल-सँभाल
के मर जाओ फिर भी वह न सँभले वह क्या है और जिससे हजार बार
विमुख हो जाओ फिर भी जो न मिटे वह क्या है ? सदियों से जिसको
पीठ देकर बैठे हैं फिर भी जो नहीं मिटता है वह मेरा ‘मैं’ चैतन्य आत्मा
है और जिसे युगों से सँभालते आये और हर जन्म में मृत्यु के झटके ने
छीन लिया वह माया है । पिछले जन्म में भी सँभाला था पुत्र को,
परिवार को, धन को, यौवन को किंतु मृत्यु के एक झटके ने सब पराया
कर दिया । उससे पहले भी यही हाल हुआ, उससे पहले भी, उससे पहले

भी… और इस वक्त भी यही होने वाला है ।’ ऐसा उसकी बुद्धि में
विवेक जगा ।
सत्संग का फल यह है कि विवेक जग जाय । नित्य क्या है,
अनित्य क्या है, शाश्वत क्या है, नश्वर क्या है, मैं कौन हूँ और वास्तव
में मेरा कौन है यह विवेक जग जाय । उसे सत्संग मिला, सत्संग से
विवेक जगा । अपने ‘मैं’ को और ‘मेरे’ को ठीक से जानने लगा । वह
विवेक नहीं है इसलिए लोग अपने असली ‘मैं’ को नहीं जानते हैं और
असली ‘मेरे’ को भी नहीं जानते हैं । नकली हाड़-मांस के पिंजर को ‘मैं’
मानते हैं बेवकूफी से ।
उस सेठ का मोह दूर हो गया । मोह दूर हो गया तो फिर शूल भी
दूर हो गये – बेटे का क्या होगा, इसका क्या होगा, उसका क्या होगा
?… ये सारी चिंताएँ उससे दूर भागीं । वह जितात्मा परमात्मा में
समाहित-चित्त होने लगा । उसके चित्त में शांति, माधुर्य, आनंद स्थिर
होने लगे । कभी-कभार प्रकाश दिखे तो कभी हास्य प्रकट हो, कभी नृत्य
प्रकट हो । अब तो सेठ के चित्त में द्वेष के समय द्वेष नहीं होता,
चिंता के समय चिंता नहीं होती, भय के समय भय नहीं होता और रोग
के समय वह अपने को रोगी नहीं मानता है । रोग आया है तो जायेगा
– यह ज्ञान उसका बिल्कुल प्रकट ज्ञान है । (सबके जीवन का प्रत्यक्ष
अनुभव है )। वह रोग में ज्यादा दिन रोगी नहीं रह पाता था । सेठ को
यह अनुभव हुआ कि
गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हर्ष शोक व्यापै नहीं, तब गुरु आपै आप ।।
वह तो खुद गुरु हो गया ।
ऋषि प्रसाद, फरवरी 2023, पृष्ठ संख्या 20, 21 अंक 362

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गणेश शंकर विद्यार्थी का संस्कृति प्रेम – पूज्य बापू जी



गाँधी जी गणेश शंकर विद्यार्थी की खूब सराहना करते थे । वे
अपने विद्यार्थी काल में विद्यालय में धोती-कुर्ता और टोपी पहन के
जाते थे । उनके भारतीय परिधान (पोशाक) की मनचले मूर्ख लोगों ने
हँसी उड़ायी तो उन्होंने कहाः “मैं अपनी संस्कृति के, अपने देश के
वातावरण के अनुकूल परिधान पहन के आया हूँ । विदेश में ठंड पड़ती है
इसलिए वहाँ के लोग टाई बाँधते हैं ताकि नाक बहे तो उससे पोंछ लें
और ठंड अंदर न घुसे । हमारे देश में इतनी ठंड नहीं है, गर्म देश है ।
यहाँ कुर्ता-पाजामा, धोती आदि पहने जाते हैं और सिर पर टॉपी पहनी
जाती है जिससे धूप न लगे, ज्ञानतंतु कमजोर न हों और बुढ़ापे में
स्मरणशक्ति खत्म न हो ।
मैंने हमारे देश व सभ्यता के अनुरूप और स्वास्थ्य के अनुकूल
वस्त्र पहने हैं तो तुमको आश्चर्य लगता है लेकिन तुम्हें यह आश्चर्य नहीं
लगता है कि पैंट-शर्ट, टाई आदि जो विदेश के कपड़े हैं वे इस वातावरण
के अनुकूल नहीं हैं फिर भी अंग्रेज अपने कल्चर का ही परिधान पहनकर
दूसरे देशों में रहते हैं ! वे विदेशों में प्रतिकूलता सहकर भी अपने कल्चर
के परिधान पहन के घूम-फिर सकते हैं तो हम अपने देश में अपने
परिधान को पहनकर विद्यालय में क्यों नहीं आ सकते हैं ?”
गणेश शंकर विद्यार्थी के तर्क से सभी का सिर झुक गया और वे
पूरे विद्यालय में छा गये ।
ऋषि प्रसाद, फरवरी 2023 पृष्ठ संख्या 18 अंक 361
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उनके हराने वाले दाँवों में भी छुपी होती है हमारी जीत ! – पूज्य
बापू जी



एक लड़का संयमी था । उसने अपने पहलवान गुरु से खूब मल्ल-
विद्या सीखी । गुरु ने उसकी पीठ ठोक दीः “बेटा ! जा विजयी भव ।”
वह तहसीलों में, जिलों में तो विजयी हुआ, पूरे राज्य में भी उसने
डंका बजा दिया । तो वाहवाही की भूख जगी, ‘मैं राज्य विजेता बन
जाऊँ, मेरे को प्रमाण पत्र मिले ।’
राजा के पास गया, बोलाः “पूरे राज्य में मेरी बराबरी का कोई
पहलवान नहीं है । आप मेरे को राज्य पहलवान घोषित कर दें, प्रमाणित
कर दें ।”
राजा सत्संगी था, किन्हीं पहुँचे हुए गुरु (बह्मवेत्ता महापुरुषों के
चरणों में जाता था । ऐसे गुरु के सम्पर्क में जो रहते हैं वे सौभाग्यशाली
होते हैं, बाकी तो संसार में पछाड़े जाते हैं । हिटलर पछाड़ा गया,
सिकंदर पछाड़ा गया, सीजर पछाड़ा गया लेकिन शिवाजी महाराज नहीं
पछाड़े गये, समर्थ रामदास जी के चरणों में रहते थे । हम नहीं पछाड़े
जायेंगे कभी भी क्योंकि हम हमारे सद्गुरु के सम्पर्क में हैं ।
राजा ने कहाः “पूरे राज्य में तुम सर्वोपरि पहलवान हो ? सबको
हरा दिया ?”
पहलवान बोलाः “हाँ ।”
“अपने राज्य में तो तुम्हारे गुरु जी का अखाड़ा भी है । तुम्हारे गुरु
जी भी अपने राज्य में ही रहते हैं । तुम उनको हराओ तब हम मानेंगे
।”

वाहवाही की लालसा ने ऐसा बिल्लौरी चश्मा (बिल्लौरी काँच से
बना चश्मा, जिसमें से वस्तुएँ देखने पर वे बड़े आकार की दिखायी देती
हैं ।) चढ़ा दिया कि वाहवाही बड़ी लगने लगी ।
वह पहलवान अपने गुरु जी को बोलाः “गुरु जी ! अब आप तो बूढ़े
हो गये हैं, हो जाय दो-दो हाथ । आपको मैं हरा देने में सक्षम हूँ ।
आपको हरा दूँगा तो मेरे को राज्य पहलवान का पद मिलेगा ।”
गुरु ने देखा कि ‘पहलवानी का कर्म नश्वर और पद नश्वर, यह
नश्वर को पाने के लिए शाश्वत की बलि दे रहा है, मूर्ख है ।’
अब शिष्य की, भक्त की मूर्खता मिटाना गुरु का और भगवान का
स्वभाव होता है ।
गुरु बोलेः अच्छी बात है बेटे ! तुम बोलते हो तो कुश्ती कर लेते हैं
पर मेरी इच्छा नहीं है । मैं तो पतला-दुबला हो गया हूँ, पहलवानी छोड़
दी, कई वर्ष हो गये ।”
“नहीं-नहीं गुरुजी ! शिष्य के लिए एक बार जरा सा कर लो । मेरे
को मेहनत नहीं करनी पड़ेगी और आप हार जाओगे ।”
शिष्य ने सोचा, ‘गुरु जी जोर मारेंगे तो हम जरा सवाया जोर ठोक
देंगे, क्या फर्क पड़ता है ! कुश्ती तो कुश्ती होती है ।’
कुश्ती हुई और गुरु ने उसे घुमा-फिरा के धरती सुँघा दी । शिष्य
ने खूब कोशिश की लेकिन दाँव पलटे नहीं । फिर गुरु ने दूसरे दाँव से
घुमा-फिरा कर आसमान के तारे दिखा दिये । फिर एक दाँव से उसके
पकड़ के, जकड़ के गुरु जी उसकी छाती पर चढ़ के बैठे । आखिर
निर्णायक ने गुरु की विजय की सीटी बजायी । राजा ने कहाः “साधो !
साधो ! जय हो ! जय हो !”
चेले ने गुरु के पैर पकड़ेः “गुरु जी ! यह कौन सा दाँव है ?”

गुरु बोलेः “बेटा ! शिष्य या भक्त जब अहंकारी हो जाता है अथवा
नश्वर में फँसने लगता है तो उसको सबक सिखाने के लिए एक दाँव गुरु
और भगवान अपने पास रखते हैं ।”
गुरु और भगवान का दाँव हितकारी होता है । दुश्मन का दाँव
खतरनाक होता है । माता-पिता, सद्गुरु और भगवान के दाँव कैसे भी
हों, हमारे को हराने के हों फिर भी उनमें हमारी जीत छुपी है । और
वाहवाही करने वाले हमारे को कितना भी जिता दें, उसमें हमारी हार
छुपी है ।
ऋषि प्रसाद, फरवरी 2023, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 362
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