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Prerak Prasang

हमारा हित किसमें है ? – पूज्य बापू जी


एक शिष्य गुरु के द्वार पहुँचा । गुरु जी ने कहाः ″सेवा करो, ध्यान-जप, अनुष्ठान करो ।″ चंचल चेला था, कुछ दिन चला, गुरु की आज्ञा मानने की कोशिश की किंतु उसका मन बंदर की नाईं भागता रहता था ।

एक दिन वह गुरु जी से कहने लगाः ″गुरु जी आज्ञा दो तो मैं तीर्थयात्रा करने जाऊँ ।″

गुरु जी ने कहाः ″मूर्ख !

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

जब सद्गुरु की हाजिरी तो अनंत फल मिल रहा है फिर क्यों भटकना चाहता है ! गुरु का सान्निध्य लो ।″

तब चुप हो गया लेकिन वह उछलता-कूदता बंदर, थोड़े दिन के बाद उसने अपना सामान बाँध लिया । बोलाः ″गुरु जी ! मुझे आज्ञा दो, इधर मन नहीं लगता ।″

″अरे ! मन लगे न लगे, तू तो बैठा रह । ऐसा होता रहता है, मन लगे तो भी दफ्तर में पगार चालू, नहीं लगे तो भी चालू ।″

″नहीं गुरु जी ! कब तक बैठा रहूँगा ? इतने दिन तो बैठा रहा न !″

″गुरु की आज्ञा मान ।″

″इतने दिन तो आज्ञा मान ली, अब कितनी आज्ञा मानना है ?″

″फिर तू बंदर की नाईं भटकने जा मूर्ख !″

वह तो चल दिया । कुछ समय एक दिन गुरु महाराज टहलते-टहलते आश्रम के बाहर के प्रांगण में गये तो पेड़ पर से बंदर का बच्चा उतरा और महाराज जी के चरणों से चिपक गया ।

गुरु महाराज ने कहाः ″अच्छा ! आखिर बंदर बन के भी आया तो सही बेचारा !″

गले में पट्टा बाँध दिया, आश्रम वालों को बोल दियाः ″यह वही साधक है बेचारा, जो चला गया था । अकाल मृत्यु हो गयी थी, अब बंदर के शरीर में आया है, माफी माँग रहा है । नहीं तो इतना कोमल बच्चा आ के चरणों में सिर रख दे, सम्भव नहीं । इसलिए मैंने ध्यान करके देखा तो पता चला कि जिसको मैंने ‘जाओ, बंदर की नाईं भटको’ कहा था उसी की बीच में किसी निमित्त से मृत्यु हो गयी और वह बंदर हुआ है । अब भटकान मिटाने के लिए माफी माँग रहा है ।″

फिर बोले कि ″भोजन-वोजन, भंडारा-प्रसाद हो, यह नजदीक आये तो इसको डाल दिया करो, खा लिया करेगा ।″

जब उसे जरूरत लगती, आता और खाता । शाम की आरती के समय और महाराज जी जब सत्संग करते तब आता और हाथ जोड़ के बैठ जाता था । वह बंदर का बच्चा चंचल बंदरों से अलग था । दिन बीते, सप्ताह बीते, वर्ष बीत गये । एक दिन वह आया नहीं । दूसरा दिन हुआ तो गुरु जी बोलेः ″आया नहीं वह । जरा खोजो कहाँ गया ।″

वैष्णव नाम रख दिया था उसका ।

शिष्यों ने कहाः ″पास के पेड़ पर ही रहता था ।″

इधर-उधर खोजा, पेड़ पर तो नहीं मिला, पास में छत पर मरा हुआ पड़ा मिला ।

बोलेः ″चलो, उसकी सद्गति हो गयी, वैष्णव था ।

डोली सजायी । जैसे किसी वैष्णव साधु की यात्रा निकलती है से ही गाते बजाते, शंखनाद-घंटनाद करते हुए यात्रा निकाली व नर्मदाजी को उसका शरीर अर्पण कर दिया । फिर भंडारा किया ।

तो ये जीव न जाने कौन सी गलती से किन-किन योनियों में चले जाते हैं और सत्संग की सूझबूझ से कई योनियों से पार होकर परमात्मा तक भी पहुँच सकते हैं । तो गिरने से बचाने वाला, सूझबूझ देने वाला है  ‘सत्संग’, और कोई उपाय नहीं है – सत्पुरुष की आज्ञा और सत्संग का ही आश्रय है ।

अग्या सम न सुसाहिब सेवा ।

सुलझे हुए महापुरुषों की आज्ञा में रहने से हमारा जितना हित होता है उतना हम अपने-आप नहीं कर सकते हैं । जानते ही नहीं और करने का सामर्थ्य भी नहीं । अगर आप जानते होते, कर पाते तो अभी दुःखी क्यों हैं ? अभी बीमार क्यों होते हैं ? अभी मरते और जन्मते क्यों हैं ? कुछ-न-कुछ कमी है न अपने में, तभी तो जीव शरीर में हैं ! आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ तो कमी है न ! तो कमी मिटती है पूर्ण पुरुष परमात्मा के जप से, पूर्ण पुरुष परमात्मा के ज्ञान से और पूर्ण पुरुष परमात्मा के अनुभव से सम्पन्न सत्पुरुष की कृपा से ।

धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 354

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हनुमान जी के सद्गुण अपनायें, जीवन को सफलता से महकायें – पूज्य बापू जी


हनुमान जी के जीवन की ये चार बातें आपके जीवन में आ जायें तो किसी काम में विफलता का सवाल ही पैदा नहीं होताः 1 धैर्य 2 उत्साह 3 बुद्धिमत्ता 4 परोपकार ।

फिर पग-पग पर परमात्मा की शक्तियों का चमत्कार देखने को मिलेगा । हनुमान जी का एक सुंदर वचन हृदय पर लिख ही लोः

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई ।

जब तव सुमिरन भजन न होई ।। ( श्री रामचरित. सुं.कां. 31.2 )

विपत्ति की बेला वह है जब भगवान का भजन-सुमिरन नहीं होता । तब जीव अपनी हेकड़ी दिखाता हैः ″मैं ऐसा, मैं ऐसा…″ अरे ! अनंत-अनंत ब्रह्मांड जिसके एक रोमकूप में हैं, जिनकी गिनती ब्रह्मा जी नहीं कर सकते हैं, ऐसे भगवान तेरे साथ हैं और तू अपनी छोटी-सी डिग्री-पदवी लेकर ‘मैं-मैं-मैं…’ करता है तो फिर ‘मैंऽऽऽ… मैंऽऽऽ…’ करने वाला ( बकरा ) बनने की तैयारी कर रहा है कि नहीं ?

मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर ।

तेरा तुझको देत हैं, क्या लागत है मोर ।।

अहंकाररहित, विनम्रता की मूर्ति

हनुमान जी की प्रशंसा राम जी करते हैं तो जैसे सूखा बाँस गिर जाय अथवा कोई खम्भा गिर जाय ऐसे हनुमान जी एकदम राम जी के चरणों में गिर पड़ते हैं- ″पाहिमाम् ! पाहिमाम् प्रभु ! पाहिमाम् !! प्रभु ! मैं बहुत पीड़ित हूँ, बहुत दुःखी हूँ ।″

रामजी बोलेः ″हनुमान तुम सीता की खोज करके आये । ऋषि-मुनियों के लिए दुर्लभ ऐसी तुम्हारी गति ! ब्रह्मचारी होते हुए भी महिलाओं के विभाग में गये और वहाँ जाकर भी निष्काम ही रहे । कुछ लेना नहीं फिर भी सब कुछ करने में तुम सफल हुए फिर तुम्हें क्यों कष्ट है ?″

हनुमान जीः ″आप मेरी प्रशंसा कर रहे हैं तो मैं कहाँ जाऊँगा ?″

साधारण व्यक्ति तो किसी से प्रशंसा सुनकर फूला नहीं समाता और भगवान प्रशंसा करें तो व्यक्ति की बाँछें खिल जायें परंतु हनुमान जी कितने सयाने, चतुर, विनम्रता की मूर्ति हैं ! तुरंत द्रवीभूत होकर रामजी के चरणों में गिर पड़ते हैं कि ‘पाहिमाम् पाहिमाम् पाहिमाम्…’

मूर्ख लोग बोलते हैं कि ‘प्रशंसा से भगवान भी राजी हो जाते हैं ।’

अरे मूर्खो ! तुम भगवान के कितने गुण गाओगे ? अरब-खरबपति को बोलो कि ″सेठ जी ! तुम तो हजारपति हो, लखपति हो…″ तो तुमने उसको गाली दे दी । ऐसे ही अनंत-अनंत ब्रह्मांड जिसके एक-एक रोम में है ऐसे भगवान की व्याख्या, प्रशंसा हम पूर्णरूप से क्या करेंगे !

रामु न सकहिं नाम गुन गाई । ( रामायण )

भगवान भी अपने गुणों का बयान नहीं कर सकते तो तुम-हम क्या कर लेंगे ?

सात समुँद1 की मसि2 करौं, लेखनी सब वनराई3

धरती सब कागद4 करौं, प्रभु गुन लिखा न जाई ।।

गुरु गुन लिखा न जाई ।।

1 समुद्र 2 स्याही 3 वन-समूह 4 कागज

हम भगवान की प्रशंसा करके भगवान का अपमान ही तो कर रहे हैं । फिर भी भगवान समझते हैं- ″भोले बच्चे हैं, इस बहाने बेचारे अपनी वाणी पवित्र करते हैं ।…’

एक आशाराम नहीं, हजार आशाराम और एक जीभ नहीं, एक-एक आशाराम की हजार-हजार जीभ हो जायें फिर भी भगवान की महिमा गाऊँ तो भी सम्भव ही नहीं है । ऐसे हमारे प्रभु हैं ! और प्रभु के सेवक हनुमान जी… ओ हो ! संतों-के-संत हैं हनुमान जी !

विभीषण कहते हैं

अब मोहि भा भरोस हनुमंता ।

बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।। ( श्री रामचरित. सुं.कां. 6.2 )

हे हनुमान ! अब मुझे भरोसा हो गया है कि हरि की मुझ पर कृपा है तभी मुझे आप जैसे संत मिले हैं, नहीं तो संत का दर्शन नहीं हो सकता है ।

काकभुशुंडि जी कहते हैं-

जासु ना भव भेषज5 हरन घोर त्रय सूल ।

सो कृपाल मोहि तो6 पर सदा रहउ अनुकूल ।। ( श्री रामचरित. उ.कां. 124 )

5 संसाररूपी रोग की औषधि 6 तुम

जिनका सुमिरन करने से आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक – तीनों ताप मिट जाते हैं वे भगवान मेरे अनुकूल हो जायें, बस !

हम तो यह कहते हैं कि भगवान अनुकूल हों चाहे न हों, हनुमान जी ! आप अनुकूल हो गये तो राम जी अनुकूल हो ही जायेंगे ।

ईश्वर की कृपा होती है तब ब्रह्मवेत्ता संत मिलते हैं और ब्रह्मवेत्ता संतों की कृपा होती है तब ईश्वर मिलते हैं ( ईश्वर का वास्तविक पता मिल जाता है ) । दोनों की कृपा होती है तब अपने आत्मा का साक्षात्कार होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 13, 14 अंक 352

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सुखी और प्रसन्न गृहस्थ जीवन के लिए… – पूज्य बापू जी ( श्री सीता नवमी 10 मई 2022 )


एक समय की बात है । दंडकारण्य में भगवान श्री रामचन्द्र जी और सीता जी बैठे थे । लक्ष्मण जी गये थे कंद-मूल आदि लेने । सीता जी की दृष्टि पड़ी उस विशाल वृक्ष पर जिसको छूती हुई एक लता ऊपर चढ़ी थी । सीता जी को अपने और राम जी के संबंध का सुमिरन हो आया । उनका हृदय गद्गद होने लगा । सीता जी कहती हैं- ‘प्रभु !…’

सीता जी अपने पति को ‘प्रभु’ बोलती हैं और प्रभु प्रेम से बोलते हैं- ‘सीते !…’

ऐसा नहीं कि पति कहेः ″इधर आ ! कहाँ भटक रही है ?″

पत्नी कहेः ″चल मुआ ! यह टुकड़ा खा, मैं जाती हूँ मायके ।″

पति-पत्नी हो कि डंडेबाज हो ! फिर बोलेंगेः ‘डाइवोर्स ( तलाक ) करो ।’ इससे कुछ नहीं होगा । जो हो गया सो हो गया । फेरे फिरे न, अब भोगो… चाहे रो के भोगो या हँस के भोगो पर प्रारब्ध को भोग के छूटो । वह कहती हैः ″मैं मायके जाती हूँ ।…″

यह कहता हैः ″मैं दूसरी लाता हूँ ।″ दूसरी लाने से भी कुछ नहीं होगा । और माई ! मायके जाने से भी कुछ नहीं होगा । तुम दोनों संयम करो तो सब अच्छा हो जायेगा । सदैव सम और प्रसन्न रहना ईश्वर की सर्वोपरि भक्ति है ।

सीता जी कहती हैं- ″प्रभु ! यह लता कितनी भाग्यशाली है कि इसको पेड़ का सहारा मिला है और ऊपर तक इसकी सुंदरता दिखती है । दूर के लोग भी इस लता का प्रभाव देखकर आह्लादित होते हैं ।″

राम जी समझ गये कि सीता क्या कहना चाहती है । एक-दूसरे को मान देने की आदत थी तो राम जी बोलते हैं- ″लता भाग्यशाली नहीं है सीते ! वृक्ष कितना भाग्यशाली है कि ऐसी पवित्र लता इस वृक्ष से जुड़ी है, तभी यह वृक्ष अन्य वृक्षों से निराला लग रहा है ।″

सीताजी कहती हैं- ‘लता भाग्यशाली है’, राम जी कहते हैं- ‘पेड़ भाग्यशाली है ।’ दोनों का आपस में झगड़ा हो गया । प्रेमी-प्रेमिका जैसा नहीं, सिया-राम जैसा झगड़ा । दोनों एक दूसरे को मान दे रहे हैं । इन दोनों का आपस में जरा मधुर, स्नेहयुक्त कलह चला । इतने में लक्ष्मणजी आ गये ।

सीता जी ने कहाः ″हम लोगों के झगड़े का निपटारा तो लखन भैया करेंगे ।″

राम जी ने कहाः ″लखन भैया ! बोलो, यह पेड़ भाग्यशाली है न ? और कई पेड़ हैं परंतु इतने सुंदर नहीं लगते । देखो, लता का सहयोग मिलने से पेड़ दूर तक अपना सौंदर्य बिखेर रहा है ।″

सीता जी बोलती हैं- ″भैया ! रुको, लता भाग्यशाली है न ? इसे पेड़ का सहारा मिला है तो देखो दूर तक अपनी शोभा बिखेर रही है, नहीं तो धरती पर ही पड़ी रहती ।″

लक्ष्मण जी भी कम नहीं थे, वे समझ गये कि यह पति-पत्नी का झगड़ा है। लक्ष्मण जी बोलते हैं- ″निर्णय करना अपने वश की बात नहीं है ।″

″नहीं-नहीं, तुम जो बोलोगे वह हम दोनों को स्वीकार है ।″

लक्ष्मण जी बोलते हैं- ″अगर आप मेरा निर्णय मानने को तैयार हैं तो मेरा निर्णय इन दोनों से अलग, तीसरा है । न लता भाग्यशाली है, न पेड़ भाग्यशाली है, भाग्यशाली तो लखनलाला है कि दोनों की छाया, महिमा और कृपा का आश्रय ले अपना जीवन उत्तम कर रहा है ।″

लक्ष्मण जी ने दोनों का आदर-मान कर दिया । यह गृहस्थ-जीवन में, परिवार में संयम से, सद्भाव से, निर्विकार पवित्र स्नेह से सुख और प्रसन्नता लाने की व्यवस्था है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 21, 25 अंक 352

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