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Prerak Prasang

वास्तविक संजीवनी



ईरान के बादशाह नशीखान ने संजीवनी बूटी के बारे में सुना ।
उसने अपने प्रिय हकीम बरजुए से पूछाः “क्या तुमने कभी संजीवनी
बूटी का नाम सुना है ?”
हकीमः “जी बादशाह सलामत ! यह हिन्दुस्तान की एक मशहूर
बूटी है, जो मुर्दे को भी जिंदा कर देती है ।”
“तुम हिन्दुस्तान जाकर उस बूटी को इस मुल्क में ले आओ ।”
हकीम हिन्दुस्तान आकर संजीवनी की तलाश में खूब घूमा । कई
जगह गया । यहाँ का रहन-सहन, सांस्कृतिक रीति-रिवाज, किसी भी
जीव को दुःख न देने की भावना, आपसी सहयोग व परोपकार की
भावना से ओतप्रोत व्यवहार ने उसे बहुत प्रभावित किया । उसे
हिन्दुस्तान में जो-जो बेशकीमती लगा वह उसे ईरान ले जाने के लिए
इक्ट्ठा करता गया ।
अपनी खोज पूरी करने के बाद बरजुए अपने वतन पहुँचा । जब
वह दरबार में पहुँचा तो बादशाह ने बड़ी उत्सुकता से पूछाः “बरजुए !
जल्दी दिखाओ, कहाँ वह संजीवनी बूटी जो तुम्हें इतने दिनों तक
हिन्दुस्तान के चप्पे-चप्पे की सैर करके बड़ी मेहनत से मिली है ?”
हकीम ने बेशकीमती हीरे-मोतियों से जड़ित एक सजा-धजा चंदन
का संदूक पेश किया । बादशाह नशीखान की उत्सुकता अब सातवें
आसमान को छूने लगी । वह तख्त से उठकर स्वयं उस संदूक को
खोलने के लिए उसके पास पहुँचा । उसने वह संदूक खोला तो देखा कि
उसमें रेशम के वस्त्रों में लपेटकर कुछ वस्तुएँ रखी हुई हैं । उसने कहाः
बरजुए ! तुम तो एक बूटी लाने गये थे… लेकिन लगता है तुम्हें तो

उसका खजाना ही हाथ लगा है ! अब तुम्हें ही अपने पाक हाथों और
जबान से इसका राज खोलना पड़ेगा ।”
बरजुए ने एक-एक उपहार बाहर निकालते हुए कहाः “बादशाह
सलामत ! यही है वह संजीवनी बूटी ! ये वेद, पुराण, उपनिषद्, गीता
और संतों की वाणियाँ… इन्हीं में सिमटी हुई है मौत को जिंदगी में
बदलने की ताकत ! हिन्दुस्तान वह महान देश है जहाँ नूरानी निगाहों से
निहाल करने वाले ऐसे अलमस्त अलख के औलिया रहते हैं जिनके
दीदार और पैगाम से लोगों के गम, दुःख-दर्द दूर होते हैं और उन्हें
सच्चा सुकून मिलता है । असली संजीवनी बूटी तो उन मुर्शिदों के
कदमों में ही मिलती है । उसका कुछ अंश इन ग्रंथों में भी है । इन
पाक किताबों को पढ़ने-सुनने से हमारा सारा मुल्क संजीवनी प्राप्त कर
सकेगा । मैं बहुत परखकर यह अनमोल खजाना ले के आया हूँ बादशाह
!
बादशाह नशीखान ने उन सद्ग्रन्थों को ससम्मान सिर-आँखों को
लगाया, चूमा एवं स्वीकार किया और उनसे लाभान्वित हुआ ।
धन्य है वैदिक संस्कृति के सद्ग्रंथ ! धन्य है उनके ज्ञान से
समजा को आनंद शांति देने व ले भारत के ब्रह्मवेत्ता महापुरुष ! और
बरजुए जैसे पुण्यात्मा भी धन्य हैं, जो उनकी महिमा को कुछ जान पाते
हैं एवं स्वयं व औरों को लाभ दिला पाते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 17 अंक 365
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गुरुभाई को सताना बना प्रतिबंधक प्रारब्ध – पूज्य बापू जी



अष्टावक्र मुनि ने राजा जनक को उपदेश दिया और उनको
आत्मसाक्षात्कार हुआ यह तो सुना-पढ़ा होगा लेकिन राजा जनक और
अष्टावक्र मुनि के पूर्वजन्म का वृत्तांत भी बड़ा रोचक और बोधप्रद है ।
राजा जनक पूर्वजन्म में किन्हीं ऋषि के शिष्य थे । अष्टावक्र जी
और जनक – दोनों गुरुभाई थे । अष्टावक्र जी को योग मार्ग में रुचि थी
और जनक को ज्ञान मार्ग में रुचि थी । कोई साधक विचार प्रधान होता
है तो कोई ध्यान-प्रधान होता है, अष्टावक्र जी ध्यान-प्रधान थे और
अऩ्य शिष्य विचार प्रधान थे ।
एक बार गुरु कहीं बाहर गये थे तो ये विचार-प्रधान शिष्यगण जो
अपने को बुद्धिशाली मानते थे, उन्होंने अष्टावक्र जी का खूब मजाक
उड़ाया, उसके साथ खूब छेड़खानी की । वे बेचारे घबरा गये, रो पड़े ।
गुरु जी जब आये तो उन्हें रोता हुआ देखकर पूछाः “बेटा ! क्या
बात है ?”
जनक उम्र में बड़े शिष्य थे । जनक की तरफ उँगली करके
अषटावक्र जी ने कहा कि “ये लोग मुझे सताते हैं कि ‘यह तो सिर्फ
प्राणायाम करता है, ध्यान करता है, बड़ा योगी आ गया…’ ऐसा करके
मेरी खूब मसखरी करते हैं । गुरु जी ! आपको क्या निवेदन करूँ, मेरे
को कई महीनों से परेशान करते हैं ।”
गुरु जी ने जनक से कहाः “तुम इसको छोटा गुरु भाई समझ के
इतना सताते हो और अपने को बड़ा विद्वान व ज्ञानी मानते हो तो कान
खोल के सुन लो कि इसकी कृपा के बिना तुमको आत्मसाक्षात्कार नहीं
होगा । आखिर इनकी शऱण जाओगे तभी तुम्हें ज्ञान होगा ।”

गुरु का शाप प्रतिबंधक प्रारब्ध बन गया । जनक ने पूर्वजन्म में
आत्मविचार तो किया था, ज्ञान तो सुना था परंतु आत्मसाक्षात्कार नहीं
हुआ । सुने हुए ज्ञान का फल हुआ कि अगले जन्म में वह राजा जनक
बन गया और किये हुए योग व सुने हुए ज्ञान का फल हुआ कि अगले
जन्म में अष्टावक्र जी को माता के गर्भ में ‘स्व’ स्वरूप की अनुभूति हुई

अष्टावक्र जी के पिता कहोड़ ब्राह्मण वेद पढ़े थे । एक दिन
पत्नीत सुजाता के आगे वेद का रहस्य बता रहे थे । सुजाता के गर्भ में
जो बालक था वह बोलाः “आप जो वेद-पाठ करते हैं वह शुद्ध उच्चारण
पूर्वक नहीं हो पाता । और आप जो बता रहे हैं वे वेद के केवल शब्द हैं,
वेद का रहस्य तो परम मौन है (मन और वाणी से परे है ) । वेद का
रहस्य, वेद का अमृत वेद-पाठ से नहीं मिलता, पाठ करते-करते जहाँ से
पाठ करने का स्फुरण होता है उसमें विश्रांति पाने से मिलता है । हे
ब्राह्मण ! आप अपने को बड़ा विद्वान, ज्ञानी समझते हैं लेकिन
तत्त्वज्ञान की यात्रा अभी अधूरी है ।”
पिता को क्रोध आ गया कि “अभी गर्भ में है, 8 महीने का है और
अभी से मेरी गलतियाँ निकालता है ! जा तेरे शरीर में 8 अंग टेढ़े होंगे
!”
शिशु बोलाः “आपका शाप मेरे शरीर तक पहुँच सकता है, मुझ तक
आपके शाप की गति नहीं है, मैं असंग निर्विकार चैतन्य हूँ ।”
कहोड ब्राह्मण को हुआ कि ‘यह तो होनहार बालक है !’
माता के गर्भ में ही अष्टावक्र जी को आत्मसाक्षात्कार हो गया ।
इन्हींने राजा जनक को ज्ञानोपदेश दिया और जनक को घोड़े की रकाब

में पैर डालते-डालते ज्ञान हो गया । अब वह उपदेश ‘अष्टावक्र गीता’ के
रूप में हजारों लाखों लोग सुनते-पढ़ते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 365
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आया, बैठा और पा के मुक्त हो गया – पूज्य बापू जी



एक दिन महात्मा बुद्ध अपनी झोंपड़ी के बाहर बैठे थे, उनका
शिष्य आऩंद अंदर था । एक व्यक्ति आया, बोलाः “भंते ! मैं आपके
पास वह बात सुनने को आया हूँ जो कही नहीं जाती, वह बात समझने
को आया हूँ जो समझायी नहीं जाती, मैं उसको जानने आया हूँ जिसको
जानने वाला स्वयं रहता नहीं ।”
उसने अहोभाव से, धन्यवाद से बुद्ध की तरफ देखा, बुद्ध ने
उसकी तरफ देखा । बुद्ध के नेत्र बंद हो गये, उस व्यक्ति भी आँखें बंद
हो गयीं ।
आनंद ने दूर से झाँका तो सोचने लगा, ‘वह व्यक्ति चुप है, भंते
को हाथ नहीं हिलते, होंठ भी नहीं हिलते, क्या बात है ? हो सकता है
भंते ध्यान में हों और वह व्यक्ति कल्पनाओं के राज्य में खो गया हो ।’
भगवान कहते हैं-
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चितो युक्त आसीत मत्परः ।।
‘योगी को प्रशांतचित्त, निर्भय, ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित हो के
और मन को संयत करके मेरे में ही चित्त लगाकर एवं मुझको ही अपना
परम पुरुषार्थ समझते हुए योगयुक्त हो के बैठना चाहिए । (गीताः 6.14)
प्रशांतत्मा… शांत नहीं, प्रशांत आत्मा । शांत तो थोड़ी देर के लिए
हो जाते हैं परंतु ठीक से शांत… प्रशांत ! जैसे ब्रह्मचारी अपने गुरु के
आश्रम में रमण करता है ऐसे ही श्रमरहित विश्राम में रमण करने की
अवस्थावाले को बोलते हैं ‘प्रशातत्मा’ । आपाधापी-आपाधापी, हाय-हाय,
यह-वह… नहीं ।
बोलेः ‘मेरा जिगरी दोस्त मर गया इसलिए रो रहा हूँ ।’

रो मत । एक व्यक्ति की जिम्मेदारी से तू छूट गया, उसकी
बीमारी में जाना-आना तेरा माफ हो गया, उसके शादी उत्सव में दौड़ धूप
करना, ऊर्जा खर्च करना तेरा छूट गया, उसके पुत्र-परिवार की मांगलिक-
अमांगलिक महफिलों में तेरा घसीटा जाना माफ हो गया । किस बात
पर रोता है ? आये उसको एक धन्यवाद, जाय उसको सौ धन्यवाद कि
जान छोड़ी और कभी न आये उसको हजार धन्यवाद, हमें विश्रांति
मिलेगी ।
बुद्ध खोये रहे और उनके प्रभाव में वह व्यक्ति भी खोया रहा ।
समय बीतता गया । आनंद देखता रहा । जब वह व्यक्ति उठा तो
उसकी आँखों में चमक थी, चेहरे पर कुछ अलौकिक तेज था, हृदय भरा-
भरा था । बोलाः “भंते मिल गया । धन्यवाद ! मैं कृतज्ञ हूँ, आपका
आभारी हूँ ।”
आनंद सोचता रहा, ‘भंते कुछ बोले नहीं और यह बोलता है कि हो
गया, मिल गया… ।’
वह व्यक्ति गया । आनंद शिष्य भी था, चचेरा भाई भी था,
मुँहलगा भी था, अटपटी बातें पूछने की उसमें हिम्मत भी थी । बोलाः
”भंते ! आपने उस व्यक्ति से कुछ कहा भी नहीं, कोई सत्संग या चर्चा
हुई नहीं परंतु वह जाते समय धन्यवाद से भर गया और आपने भी
कृपापूर्ण हाथ उसके सिर पर रख दिया । हालाँकि आप जल्दी से जिस
किसी के सिर पर हाथ नहीं रखते हैं । आखिर उस व्यक्ति के पास
क्या था और उसको क्या मिला ?”
बुद्धः “आनंद ! तुम-हम घर में थे न, तो तुम्हें घुड़सवारी का शौक
था । घोड़ा कैसे भागता था पता है ? कुछ ऐसे घोड़े होते हैं कि सवार
चढ़े, एड़ी मारे, चाबुक मारे तब चलते हैं । कुछ ऐसे घोड़े होते हैं कि

सवार ने रकाब में पैर रखा, बैठा, लगाम हिलायी और घोड़ा चल पड़ा ।
कुछ ऐसे घोड़े होते हैं कि सवार ने लगाम भी नहीं खींची, केवल बैठा
और घोड़ा हवा हो गया । वह व्यक्ति इसी कोटि के घोड़े जैसा था ।
मेरी हाजिरीमात्र से शक्तिक्षीणता से बचने के रास्ते चल पड़ा और
आत्मविश्रांति में, परमात्म-योग में सराबोर हो गया ।”
संकल्प-विकल्प में भी शक्ति खर्च होती है इसलिए मैं बार-बार ‘हरि
ॐ’ का दीर्घ गुंजन करवाता हूँ – हरि ओऽऽऽ… म्… इसमें ‘अ’ और ‘म’
के बीच विश्रांति है । इसलिए मेरे साधक बहुत फायदे में हैं । निःसंकल्प
अवस्था… शांत ! शांत होते-होते फिर प्रशांत !…. अंतरात्मा का आनंद
और शांति आने लगें तो अंतरात्मा में चुप होना, विश्राम करना यह भी
लक्ष्य रखना । सत्संग में आये-गये, यह मिला – वह मिला, बड़ा मजा
आया लेकिन फिर थोड़े दिन में कुछ खाली पन महसूस हुआ और भागे
बैटरी चार्ज करने को, फिर बैटरी डिस्चार्ज करके फिर चार्ज करने को
आये । अरे, स्वयं पॉवर हाउस बन जाओ । ॐॐॐ…
जो सुख में सुखी हो जाते हैं उनकी शक्ति क्षीण होती है, दुःख में
दुःखी हो जाते हैं तो शक्ति क्षीण होती है । सुख में शक्ति कम क्षीण
होती है, दुःख में ज्यादा क्षीण होती है परंतु सुख और दुःख को देखकर
अपने में (साक्षीस्वरूप आत्मा में) आ गये तो शक्ति का संचय होता है ।
कितनी ऊँची बात है ! यह सुनने और समझने के लिए तो मेरे को
इतने-इतने साल लगे तब आयी समझ में बात । आपको यह ज्ञान मुफ्त
में मिल रहा है, कद्र करना… हाथ जोड़ता हूँ । बहुत ऊँची बाते हैं ।
लाखों-करोड़ों रूपयों से भी नहीं मिलेगा ऐसा आपके अंदर का खजाना
खुलेगा फिर लखपति, करोड़पति और बड़े नेता भी आपकी दुआ लेकर
अपना भाग्य बना लेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023 पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 365
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