Monthly Archives: February 1997

स्वावलंबी बनो


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

हमारी दिव्य संस्कृति भूलकर हम विदेशी कल्चर के चक्कर में फँस गए हैं। लॉर्ड मैकाले की कूटनीति ने भारत की शक्ति को क्षीण कर दिया है।

लॉर्ड मैकाले जब भारत देश में घूमा तब उसने देखा कि भारत के संतों के पास ऐसी यौगिक विद्याएँ हैं, ऐसा मंत्रविज्ञान है, ऐसी योग शक्तियाँ हैं कि यदि भारत का एक नौजवान भी संतों से प्रेरणा पाकर उनके बताये हुए पदचिन्हों पर चल पड़ा तो ब्रिटिश शासन को उखाड़ कर फेंक देने में सक्षम हो जायेगा।

इसलिए लॉर्ड मैकाले ने सर्वप्रथम संस्कृत विद्यालयों और गुरुकुलों को बंद करवाया और अंग्रेजी स्कूलें शुरु करवायीं। हमारे गृहउद्योग बंद करवाये और शुरू करवायी फैक्टरियाँ।

पहले लोग स्वावलंबी थे, स्वाधीन होकर जीते थे, उन्हें पराधीन बना दिया गया, नौकर बना दिया गया। धीरे-धीरे करके विदेशी आधुनिक माल भारत में बेचना शुरु कर दिया जिससे लोग अपने काम का आधार यंत्रों पर रखने लगे और प्रजा आलसी, भौतिकवादी बनती गई। इसका फायदा उठाकर ब्रिटिश हम पर शासन करने में सफल हो गये।

एक दिन एक राजकुमार घोड़े पर सवार होकर घूमने निकला था। उसे बचपन से ही भारतीय संस्कृति के पूर्ण संस्कार मिले थे। नगर से गुजरते वक्त अचानक राजकुमार के हाथों से चाबुक गिर पड़ा। राजकुमार स्वयं घोड़े से नीचे उतरा और चाबुक लेकर पुनः घोड़े पर सवार हो गया। यह देखकर राह पर गुजरते लोगों ने कहाः “मालिक ! आप तो राजकुमार हो। एक चाबुक के लिए आप स्वयं घोड़े पर से नीचे उतरे ! हमें हुक्म दे देते…”

राजकुमारः “जरा-जरा काम में यदि दूसरों का मुँह ताकने की आदत पड़ जायेगी तो हम आलसी, पराधीन बन जाएँगे और आलसी पराधीन मनुष्य जीवन में क्या प्रगति कर सकता है ? अभी तो मैं जवान हूँ। मेरे में काम करने की शक्ति है। मुझे स्वावलंबी बनकर दूसरे लोगों की सेवा करनी चाहिए न कि सेवा लेनी चाहिए। यदि आपसे चाबुक उठवाता तो सेवा लेने का बोझा मेरे सिर पर चढ़ता।”

हे भारत के नौजवानों ! दृढ़ संकल्प करो किः “हम स्वावलंबी बनेंगे।ʹʹ नौकरों तथा यंत्रों पर कब तक आधार रखोगे ? हे भारत की नारी ! अपनी गरिमा को भूलकर यांत्रिक युग से प्रभावित न हो। श्रीरामचन्द्रजी की माता कौशल्यादेवी इतने सारे दास-दासियों के होते हुए भी स्वयं अपने हाथों से अपने पुत्रों के लिए पवित्र भोजन बनाती थीं। तुम भी अपने कर्त्तव्यों से च्युत मत हो। किसी ने सच ही कहा हैः

स्वावलंबन की एक झलक पर।

न्यौछावर कुबेर का कोष।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 24, अंक 50

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शरीर स्वास्थ्य


वर्ष के दो भाग होते हैं जिसमें पहले भाग आदान काल में सूर्य उत्तर की ओर गति करता है, दूसरे भाग विसर्ग काल में सूर्य दक्षिण की ओर गति करता है। आदान काल में शिशिर, वसन्त एवं ग्रीष्म ऋतुएँ होती हैं। आदान काल में वर्षा, शरद एवं हेमन्त ऋतुएँ होती हैं। आदान काल के समय सूर्य बलवान और चन्द्र क्षीणबल रहता है।

शिशिर ऋतु उत्तम बलवाली, वसन्त ऋतु मध्यम बलवाली और ग्रीष्म ऋतु दौर्बल्यवाली होती है। विसर्ग काल में चन्द्र बलवान और सूर्य क्षीणबल रहता है। चन्द्र पोषण करने वाला होता है। वर्षा ऋतु दौर्बल्यवाली, शरद ऋतु मध्यम बल व हेमन्त ऋतु उत्तम बलवाली होती है।

वसन्त ऋतु

शीत ऋतु व ग्रीष्म ऋतु का सन्धिकाल वसन्त ऋतु का होता है। इस समय में न अधिक सर्दी होती है न अधिक गर्मी होती है। इस मौसम में सर्वत्र मनमोहक आमों के बौर से युक्त सुगन्धित वायु चलती है। वसन्त ऋतु को ऋतुराज भी कहा जाता है। वसन्त पंचमी के शुभ पर्व पर प्रकृति सरसों के पीले फूलों का परिधान पहनकर मन को लुभाने लगती है। वसन्तु ऋतु में रक्तसंचार तीव्र हो जाता है जिससे शरीर में स्फूर्ति रहती है।

वसन्त ऋतु में न तो गर्मी की भीषण जलन तपन होती है और न वर्षा की बाढ़ और न ही शिशिर की ठंडी हवा, हिमपात व कोहरा होता है। इन्हीं कारणों से वसन्तु ऋतु को ʹऋतुराजʹ कहा गया है।

वसन्ते निचितः श्लेष्मा दिनकृभ्दाभिरीरितः।

चरक संहिता के अनुसार हेमन्त ऋतु में संचित हुआ कफ वसन्त ऋतु में सूर्य की किरणों से प्रेरित (द्रवीभूत) होकर कुपित होता है जिससे वसन्तकाल में खाँसी, सर्दी-जुकाम, टॉन्सिल्स में सूजन, गले में खराश, शरीर में सुस्ती व भारीपन आदि की शिकायत होने की सम्भावना रहती है। जठराग्नि मन्द हो जाती है अतः इस ऋतु में आहार-विहार के प्रति सावधान रहो।

वसन्त ऋतु में आहार-विहार

      इस ऋतु में कफ को कुपित करने वाले, पौष्टिक और गरिष्ठ पदार्थों की मात्रा धीरे-धीरे कम करते हुए गर्मी बढ़ते ही बन्द कर सादा सुपाच्य आहार लेना शुरु कर देना चाहिए। चरक के अनुसार इस ऋतु में भारी, चिकनाई वाले, खट्टे और मीठे पदार्थों का सेवन व दिन में सोना वर्जित है। इस ऋतु में कटु, तिक्त, कषारस-प्रधान द्रव्यों का सेवन करना हितकारी है। प्रातः वायुसेवन के लिए घूमते समय 15-20 नीम की नई कोंपलें चबा-चबाकर खायें। इस प्रयोग से वर्ष भर चर्मरोग, रक्तविकार और ज्वर आदि रोगों से रक्षा करने की प्रतिरोधक शक्ति पैदा होती है।

यदि वसन्त ऋतु में आहार विहार के उचित पालन पर पूरा ध्यान दिया जाय और बदपरहेजी न की जाये तो वर्त्तमानकाल में स्वास्थ्य की रक्षा होती है। साथ ही ग्रीष्म व वर्षा ऋतु में स्वास्थ्य की रक्षा करने की सुविधा हो जाती है। प्रत्येक ऋतु में स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि आहार का महत्त्व है तो विहार भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।

इस ऋतु में उबटन लगाना, तैल मालिश, धूप का सेवन, हल्के गर्म पानी से स्नान, योगासन व हल्का व्यायाम करना चाहिए। देर रात तक जागने और सुबह देर तक सोने से मल सूखता है, आँख व चेहरे की कान्ति क्षीण होती है अतः इस ऋतु में देर रात तक जागना, सुबह देर तक सोना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। हरड़े के चूर्ण का नियमित सेवन करने वाले इस ऋतु में थोड़े से शहद में यह चूर्ण मिलाकर चाटें।

आयुर्वैदिक योग

शरीरपुष्टिः एक गिलास पानी में एक नींबू का रस निचोड़कर उसमें दो किशमिश रात्रि में भिगो दें। सुबह स्नानादि के बाद छानकर पानी पी जाएँ व किशमिश चबा जाएँ। यह एक अदभुत शक्तिवर्धक योग है।

एपेन्डिक्सः दो मिनट और अभ्यास होने पर चार-पाँच मिनट पादपश्चिमोत्तानासन करने से कुछ ही दिनों में एपेन्डिक्स मिट जाता है। यह अनुभूत प्रयोग है।

नकसीर (नाक से रक्त गिरना)- फिटकरी के पानी की कुछ बूँदें नाक में डालने पर नाक से खून आना बंद हो जाता है।

सफेद दागः गाय के मूत्र में तीन ग्राम हल्दी मिलाकर या तुलसी का रस लगाने व 5-7 ग्राम शहद में 10 ग्राम तुलसी का रस पीने से सफेद दाग मिटते हैं।

आयुर्वैदिक चायः गेहूँ के आटे को छानने पर जो चोकर शेष बचता है वह स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। 10 ग्राम छान (चोकर) को एक प्याले पानी में अच्छी प्रकार उबालकर कपड़े से छान लें। तत्पश्चात उसमें दूध व मिश्री मिलाकर प्रातः व सायं पियें। इसके निरन्तर सेवन से शरीर दृढ़ व शक्तिशाली बनता है। यदि इसमें पाँच बादाम अच्छी तरह मिला दिये जायें तो वृद्धत्व शीघ्र नहीं आता व दिमाग तेज होता है। नजला, जुकाम, सिरदर्द के लिए गुणकारी है।

गंजापनः सिर पर पत्तागोभी के रस की निरन्तर मालिश की जाय तो गंजापन, बाल झड़ना आदि रोग दूर हो जाते हैं।

पेट के अनेक रोगों के लिएः अजवायन 250 ग्राम व काला नमक 60 ग्राम, दोनों को किसी काँच के बर्तन या चीनी के बर्तन में डालकर इतना नींबू का रस डालें कि दोनों वस्तुएँ डूब जायें। तत्पश्चात इस बर्तन को रेत या मिट्टी से दूर किसी छायादार स्थान पर रख दें। जब नींबू का रस सूख जाय तो पुनः इतना रस डाल दें कि दोनों दवाएँ डूब जायें। इस प्रकार 5 से 7 बार करें। दवा तैयार है। 2 ग्राम दवा प्रातः व सायं भोजन के पश्चात गुनगुने पानी के साथ पी लें। पेट के अनेक रोगों को दूर करने के लिए यह अदभुत दवा है। इससे भूख खूब लगती है। भोजन पच जाता है। अफारा व पेट-दर्द दूर होता है। उल्टी व जी मिचलाने में भी लाभ होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 25,32 अंक 50

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पयाहारी बाबा


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दुनियादार जहाँ सिर पटकते हैं।

वहाँ आशिक कदम रखते हैं।।

भोगी जिस संसार के पीछे आँखें मूंदकर अँधी दौड़ लगाता है, वह संसार उसका कभी नहीं होता। संसार उसे सुख तो नहीं देता वरन् देता है मुसीबतें, जिम्मेदारियाँ, तनाव और अशांति। जबकि योगी, भक्त या सेवक सेव्य को प्रसन्न करने के लिए संसार की सेवा करता है। वह संसार से कुछ चाहता नहीं है फिर भी उसे बिना माँगे ही बहुत कुछ मिल जाता है।

भोगी चाहता है यश और मान, फिर भी उसे इतना नहीं मिलता जबकि योगी नहीं चाहता है फिर भी उसे अथाह मान, अथाह प्रेम और अथाह आनंद मिलता है। दुनियादार जिस यश, मान और सुख को चाहते हैं – योगी सेवक उसकी परवाह तक नहीं करता वरन् यश, मान और सुख उसके पीछे पड़ता है।

हनुमानजी के पीछे क्या यश-मान नहीं पड़ा ? अभी तक हनुमानजी का यश है, मान है और अभी तक हनुमानजी को करोड़ों लोग प्रेम करते हैं और रावण….? रावण चाहता था यश-मान, लेकिन फिर भी हर साल आग लगा दी जाती है उसके पुतले को। रावण भोगवाद का प्रतीक है और हनुमानजी, श्रीरामजी और श्रीकृष्ण योगवाद के प्रणेता हैं।

एक बार पृथ्वीराज चौहाण सुप्रसिद्ध ʹभक्तमालʹ के रचयिता नाभाजी महाराज के शिष्य पयाहारी बाबा के चरणों में प्रणाम करने गये और बोलेः

“बाबा ! आप चलिए, मैं आपको द्वारिकाधीश की यात्रा करवाकर आऊँ।”

बाबा मुस्कराये। रात्रि को जब पृथ्वीराज चौहाण शयन कर रहे थे तब बाबा उनके बंद शयनखंड में प्रकट हुए और बोलेः

“पृथ्वीराज ! तू मुझे द्वारिकाधीश के दर्शन करवाने के लिए ले जाना चाहता है ? मैं तुझे यहीं द्वारिकाधीश के दर्शन करवा देता हूँ।”

बाबा ने पृथ्वीराज के नेत्रों पर हाथ रखा और थोड़ी ही देर में बोलेः

“खोल आँखें। क्या दिख रहा है ?”

पृथ्वीराज देखते हैं तो साक्षात् द्वारिकाधीश ! वे गिर पड़े पयाहारी बाबा के चरणों में।

पयाहारी बाबा श्रीरामजी को अपना इष्ट मानते थे। एक बार जयपुर के निकट गलता में अपनी गुफा में बैठे थे तब एक शेर आया और बाबा को हुआः

ʹयह शेर आकर द्वार पर खड़ा है, अतिथि के रूप में आया है और खुराक चाहता है। यह अतिथि रोटी-सब्जी तो खायेगा नहीं। इसे तो माँस की जरूरत है। अब क्या करें ?ʹ

पयाहारी बाबा ने उठाया चाकू और अपनी जाँघ का माँस काटकर रख दिया शेर के सामने। अतिथि देवो भव। द्वार पर अतिथि आया है तो उसकी भूख-प्यास मिटाना अपना कर्त्तव्य है। यह भारतीय संस्कृति है।

शेर तो माँस खाकर चल दिया किन्तु श्रीरामजी से रहा न गया। भगवान श्रीराम साकार रूप में प्रगट हो गये। पयाहारी बाबा ने श्रीराम का स्तवन किया और श्रीराम ने प्रेम से पयाहारी बाबा का आलिंगन किया। भगवान के संकल्प से पयाहारी बाबा की जाँघ पूर्ववत् हो गयी और चित्त श्रीरामदर्शन से पुलकित हो उठा।

दुनिया जिन श्रीराम के दर्शन करने के लिए तड़पती है, वे ही श्रीराम अतिथिधर्म के प्रति निष्ठा देखकर सेवक के दीदार के लिए आ गये। सेवा में कितनी शक्ति है ! दुनिया तो सेव्य को चाहती है और सेव्य सेवक को चाहता है।

जो सुख सेवा से मिलता है, जो सुख निष्कामता से मिलता है वह सुख डॉलरों से कहाँ ? वह सुख दुनिया के भोगों में कहाँ ? प्राणीमात्र में बसे परमात्मा के नाते कर्म करने से जिस शांति, सुख और सच्चे जीवन का छोर मिलता है वह दूसरों का शोषण करने की बेवकूफी में कहाँ ? दूसरों का शोषण करने वालों को फिर सुख के लिए शराब-कबाब और कुकर्मों की शरण लेनी पड़ती है।

निष्काम कर्म करने में जिन्हें मजा नहीं आता वे बेचारे कामना-कामना के चक्कर में चौरासी के चक्कर में चलते ही रहते हैं।

एक दिन में 1440 मिनट का समय है हमारे पास। उसमें से कम-से-कम 20-20 मिनट सुबह, दोपहर, शाम तो निकालें निष्काम होने के लिए ! 24 घण्टों में से 1 घण्टे ही सही, निष्काम भाव से ईश्वर का भजन करें… आज तो भजन भी दुकानदारी हो गया है। ʹइतनी माला करें, जप-ध्यान करें तो जरा प्रॉब्लेम् न आयें…. नौकरी अच्छी चले…. छोकरे अच्छे रहें…।ʹ जप-ध्यान से भी यदि नश्वर ही चाहा तो फिर शाश्वत के लिए कब समय निकालोगे ? ईश्वर के लिए ईश्वर का भजन करना चाहिए।

महाभारत में एक बात आती है कि पाँच पाण्डवों सहित द्रौपदी जब वन में विचरण कर रही थी तब एक शाम को युधिष्ठिर महाराज पर्वतों की हारमाला की ओर निहारते हुए, शान्ति एवं आनंद का अनुभव करते हुए प्रसन्नमुख नजर आ रहे थे। द्रौपदी के मन में आयाः ʹमहाराज युधिष्ठिर संध्या करते हैं, ध्यान-भजन करते हैं, भगवान का सुमिरण-चिंतन करते हैं फिर भी हम दुःखी हैं….. वन में दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और दुष्ट दुर्योधन को कोई कष्ट नहीं ?ʹ अतः उसने महाराज युधिष्ठिर से पूछाः

“महाराज ! आप भजन कर रहे हैं, धर्म का अनुष्ठान कर रहे हैं, सच्चाई से चल रहे हैं और दुःख भोग रहे हैं जबकि वह दुष्ट दुर्योधन कपट करके, जुआ खेलकर भी सुखी है। यह कैसी बात है ? आप भजन करते हैं तो भगवान से क्यों नहीं कहते कि हमें न्याय मिले ?”

युधिष्ठिर महाराज ने बड़ा गजब का जवाब दिया है जो भारतीय संस्कृति के गौरव का एक ज्वलंत उदाहरण है। युधिष्ठिर ने कहाः “द्रौपदी ! उसके पास कपट से वैभव और सुख है। वैभव और सुख बाहर से दिखता है किन्तु वह भीतर से सुखी नहीं, वरन् अशांत है। जबकि हमारे पास बाहर की सुविधाएँ नहीं हैं फिर भी हमारे चित्त का सुख नहीं मिटता। मैं भजन इसलिए नहीं करता हूँ कि मुझे सुविधाएँ मिलें अथवा मेरे शत्रु का नाश हो जाए वरन् मैं भजन के लिए भजन करता हूँ। उस सुखस्वरूप, आनंदस्वरूप, चैतन्यघन से क्या माँगना ?”

भजन के लिए भजन तभी होगा जब भगवान से कुछ न माँगा जाये। ʹजो आयेगा देखा जायेगा…. जो आयेगा सह लेंगे… जो आयेगा गुजर जायेगा…ʹ इस भाव से भजन करें तभी भगवान के लिए भजन होगा अन्यथा, ʹयह हो जाये… वह हो जाये….ʹ इस भाव से किया गया भजन भगवान के लिए नहीं होगा। भगवान से कुछ माँगने के लिए भजन करना तो भगवान को नौकर बनाने के लिए भजन करना है।

भजन प्रेमपूर्वक किया जाय अहोभाव से किया जाये, भगवान को अपना और अपने को भगवान का मानकर भजन किया जाये, निष्काम होकर किया जाये तभी भजन, भजन के लिए होगा अन्यथा मात्र दुकानदारी ही रह जायेगा।

अतः सावधान ! समय बहुत कम है। भजन ही करें व्यापार नहीं, दुकानदारी नहीं। कहीं यह अनमोल मनुष्य जन्म यूँ ही व्यर्थ न बीत जाए….

पयाहारी बाबा एक बार घूमते-घामते जयमल के राज्य में आये। उस समय जयमल खड़े-खड़े अपना महल बनवा रहा था। महल बनवाने में पानी की जरूरत पड़ती है। पानी भरने वाला एक पखाली पाड़े पर तालाब से पानी ले जाता  था।

पयाहारी बाबा तालाब के किनारे जा बैठे थे। उऩ्हें पता चला कि यह राजा का पखाली है अतः उन्होंने कहाः

“तुम्हारे राजा से कहना कि साधु आये हैं। उनके लिए पावभर दूध सुबह और पावभर दूध शाम को यहाँ भेज दिया करें।”

जयमल को पता ही न था कि संत-सेवा की महिमा का, अतः पखाली के कहने पर जयमल के अहं को चोट लगी। वह ठहाका मारकर हँसा।

अहंकार कहीं झुकना नहीं चाहता, अहंकार मजाक उड़ाना चाहता है। यह सुविदित सत्य है कि आप जो देते हो वही पाते हो। आप जो चाहते हो वह दो तो वह अनंत गुना होकर आपको मिलता है। आप अपमान चाहते हो तो दूसरों का अपमान करो। फिर आप देखोगे कि ʹहोलसेलʹ में आपको अपमान मिल रहा है। अगर आप धोखा चाहते हो तो दूसरों को धोखा दो। आपको खूब धोखा मिलेगा। अगर आप अशांति चाहते हो तो दूसरों को अशांति पहुँचाओ। आपको खूब अशांति मिलेगी। आप अशांति दोगे किसी को और मिलेगी किसी और से, किन्तु मिलेगी जरूर।

ईश्वर के केवल दो ही हाथ नहीं हैं। आप किसी व्यक्ति की सेवा करते हो तो जरूरी नहीं है कि वही व्यक्ति उन्हीं हाथों से तुम्हारी सेवा का बदला दे। भगवान के अनंत-अनंत हाथ हैं, अनंत-अनंत हृदय हैं। अनंत-अनंत हृदयों के द्वारा यह सेवा कर देता है। आप जो देते हैं, वह अनंतगुना पाते हैं।

सूरत में एक संत-महापुरुष किसी भक्त के अतिथि हुए थे जिसके यहाँ दो-चार भैंसें बँधी थीं। एक और भैंस का दूध रखा हुआ था, जिसे देखकर संत ने पूछाः

“वह क्या है ?”

भक्तः “भैंस का दूध है।”

संतः “लाओ।”

भक्त ने बड़े प्रेम से दूध दिया और संत प्रेम से वहीं पर दूध छींटने लगे। भक्त की तो श्रद्धा थी अतः उसने कुछ नहीं कहा किन्तु बेटों को हुआ कि ʹसाधु बाबा के चक्कर में आकर पिता ने पूरा दूध छिंटवा दिया ! यह कोई रीत है ?ʹ

पिता बोलाः “तुम लोगों को कुछ समझ में नहीं आयेगा, जाने दो। क्या हुआ ? 10-12 सेर दूध ही तो गया ! वह भी गुरु जी की सेवा में ही तो लगा है !”

दूसरे-तीसरे दिन भी संत ने दूध लेकर छींट दिया। बेटे परेशान हो गये तब भक्त ने हाथ जोड़कर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक संत से पूछाः “गुरु जी ! यह क्या कर रहे हैं ?”

संतः “दूध बोता हूँ।”

वे महापुरुष तो चल दिये लेकिन वहाँ भैंसे खड़ी करने पर इतना दूध आता कि समय पाकर वही जगर ʹभैंसों का तबेलाʹ नाम से प्रसिद्ध हो गयी।

जब जड़ वस्तु फेंकते हो तो वह अनंतगुनी होकर आती है तो चेतन विचार फेंकने पर भी अनंतगुने होकर आयेंगे ही, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

शक्कर खिला शक्कर मिले।

टक्कर खिला टक्कर मिले।।

यह कलजुग नहीं करजुग है।

इक हाथ ले इक हाथ दे।।

जो औरों को डाले चक्कर में।

वह खुद भी चक्कर खाता है।।

औरों को देता शक्कर जो।

वह खुद भी शक्कर पाता है।।

….किन्तु जयमल को तो इन सब बातों का पता ही नहीं था। अतः वह हँसकर अपने मंत्री से बोलाः “आजकल साधु-बाबाओं का दिमाग भी आसमान में है। राजा को कहलाकर भेजा कि पावभर दूध सुबह-शाम भेजना !” फिर पखाली से  बोलाः

“पखाली ! महाराज को बोलना की पाड़ा दुहकर जितना भी दूध निकले वह रोज ले लिया करें…. जयमल ने ऐसा कहा है।”

पखाली ने जाकर राजा का संदेश सुना दिया पयाहारी बाबा को। पयाहारी बाबा आ गये अपनी यौगिक मस्ती में। संकल्प करके पखाली के पाड़े पर पानी छींटा, हाथ घुमाया और वह पाड़ा भैंस बन गया। उसके थन दूध से भर गये। वह देखकर पखाली बाबा के चरणों में गिर पड़ा।

पखाली पानी भरकर पाड़े को ले जाने लगा तो उसके थनों से दूध टपक रहा था। वह रास्ते चलते लोगों को भी यह चमत्कार बताने लगाः “देखो देखो… बाबा ने यह कैसा जादू कर दिया !”

जब जयमल ने देखा तो उसे हुआ कि ʹधत् तेरे की ! लोगों का शोषण करके फिर हम मजा लेना चाहते हैं किन्तु इनका तो संकल्प मात्र ही प्रकृति में परिवर्तन कर देता है !ʹ

जयमल आया और पयाहारी बाबा के चरणों में गिरता हुआ बोलाः

“महाराज ! क्षमा करें। यह सब कैसे होता है, बताने की कृपा करें।”

पयाहारी बाबाः “हरि अनंत हैं। हरि की शक्ति अनंत है। वही अनंत शक्तिमान ब्रह्माण्डनायक हरि तेरा अन्तरात्मा बनकर बैठा है, मूर्ख ! इस महल को बना-बनाकर फिर छोड़कर मरेगा। इससे तू हृदय के महल को बना ताकि तेरा परलोक सुधर जाये। इन परिस्थितियों का सुख तू कब तक लेगा ? चापलूसों की खुशामद का सुख तू कब तक लेगा ? मूर्ख ! तू दिखता तो बाहर से राजा है किन्तु भीतर से महाकंगाल है…”

जयमल का हृदय बदल गया। पुनः चरणों में गिरकर बोलाः “फिर सुख कैसे मिलेगा ?”

पयाहारी बाबाः “जो सुखस्वरूप श्रीहरि हैं उनकी पूजा उपासना और भजन करना सीख।”

जयमन ने प्रार्थना करके थोड़ी बहुत पूजा की विधि सीख ली और अपने महल के ऊपर एक सुन्दर कक्ष बनवाया। जयमल ने श्रीहरि का पूजाकक्ष सात्त्विक ढंग से सजाया और उसमें ऐसी सीढ़ी रखी जिससे केवल वही जा सके। बाद में सीढ़ी उठाकर रख दी जाये। अपने सेवकों को सख्त आदेश दे दिया कि ʹउसके सिवाय यदि कोई उस सीढ़ी का उपयोग करके ऊपर के कक्ष में जायेगा तो उसे कठोर दंड दिया जायेगा।ʹ

उस कक्ष में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा करके जयमल रोज उसकी पूजा करता और गुरुमंत्र का जप करता। इस प्रकार दिन बीत चले।

एक दिन जयमल थका हुआ था अतः रात्रि में जल्दी से नीचे के कमरे में आकर सो गया। तब उसकी पत्नी को हुआः ʹदेखा जाये, ऊपर क्या है ? ये रोज आकर पूजा करते हैं, भोग चढ़ाते हैं और सबको प्रसाद बाँटते हैं। आजकल बड़े भक्त हो गये हैं तो किस प्रकार सेवा-पूजा करते हैं ?ʹ

पत्नी ने धीरे-से सीढ़ी उठाकर रखी और धीरे-धीरे कमरे में गयी। वहाँ जाकर क्या देखती है कि जयमल जिनकी रोज पूजा करते हैं वे ही ठाकुर जी एक तेजोमय पुरुष के रूप में शैया पर विश्रान्ति कर रहे हैं ! जयमल की पत्नी दंग रह गयी कि ʹमैं क्या देख रही हूँ !ʹ

उसका शरीर पुलकित हो उठा, हृदय रोमांचित और आनंद-माधुर्य से परिपूर्ण हो उठा तथा नेत्रों से प्रेमाश्रु बरस पड़े। वह ज्यादा वहाँ न रह सकी क्योंकि जयमल के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थी। अतः श्रीहरि को प्रणाम करके धीरे-धीरे सीढ़ी उतरने लगी। ज्यों ही आखिरी सीढ़ी से जरा जोर से कूदी त्यों ही गहनों की आवाज सुनकर जयमल की नींद टूट गयी। सीढ़ी लगी देखकर वह पत्नी को डाँटने लगाः “क्यों गयी थी ऊपर ?!”

तब पत्नी ने कहाः “चाहे आप मुझे प्राणदण्ड दे दें किन्तु अब मुझे कोई डर नहीं है।”

जयमलः “तुम्हें मेरे से डर नहीं लगता ?”

पत्नीः “जब डरती थी तब डरती थी किन्तु आज मुझे डर नहीं लग रहा है। पतिदेव ! मैं आपकी अवज्ञा करके चुपके से ऊपर गयी और वहाँ क्या देखा कि जिनकी आप पूजा करते हैं वे ही भगवान मानो साकार होकर आपके पूजाकक्ष की शैया पर शयन कर रहे हैं…”

जयमल को पत्नी के हाव-भाव और मुखमुद्रा देखकर हुआ कि सचमुच ही इसने साकार विग्रह के दर्शन किये हैं। अतः वह तुरंत सीढ़ी से चढ़कर पूजाकक्ष में गया किन्तु उसे कुछ भी दिखाई न पड़ा। वहाँ ठाकुर जी को न पाकर भी उसे उस शैया को प्रणाम किया और कहाः “प्रभु ! अभी मेरे चित्त में दोष हैं। मेरे कषाय अभी परिपक्व नहीं हुए हैं। मैंने अनेकों का शोषण किया है और विलासी जीवन जिया है इसीलिए मेरा भक्तियोग सफल नहीं हुआ। फिर भी गुरुकृपा से आप आते तो हो। पत्नी का निर्दोष हृदय है अतः उसे दीदार दिया। देर सवेर आप मुझे भी दर्शन दोगे ही। अगर नहीं भी दिया तब भी यह मानकर प्रसन्नता आ रही है कि मेरी पूजा आप तक पहुँच तो रही है…..”

आप जो  देते हो वह जरूर उस अन्तर्यामी ईश्वर तक पहुँचता ही है। इसमें संदेह मत करो कि ʹपहुँचता है कि नहीं पहुँचता….ʹ जब आपकी देखने की आँखें खुल जायेंगी तब आपको दिखेगा भी सही।

किसी के लिए आप कुभाव करें और जब वह व्यक्ति मिले तब आप देखें कि वह आपसे कैसा व्यवहार करता है। किसी के लिए आप सदभाव भेजें फिर उसके मिलने पर आप देखें कि वह आपसे कैसा व्यवहार करता है।

भारत कर्मभूमि है। मुक्ति का द्वार है यह देश। उत्तम कर्म एवं सत्संगति, महापुरुषों का सान्निध्य एवं उपदेश मनुष्य को मुक्तिधाम तक ले जा सकता है। शास्त्र कहते हैं।

ʹआसक्ति कभी जीर्ण होने वाली नहीं है किन्तु वही आसक्ति संत महापुरुषों के चरणों में और उनके वचनों में हो जाये, स्वामी लीलाशाह बापू के श्रीचरणों और वचनों में हो जाये, भगवान वेदव्यास जी के श्रीचरणों एवं कथनों में हो जाये तो वही आसक्ति मुक्ति देने वाली है।

डिस्को में, वाइन में, क्लब में स्त्री-पुरुषों के नाचगान में आसक्ति करके तो बरबादी ही होती है, पायमाली ही होती है लेकिन भगवान में और भगवान के प्यारे संतों के वचनों में आसक्ति करने से मुक्ति और भुक्ति दोनों दासियाँ बन जाती हैं…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 12,13,14,15,16,6 अंक 50

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