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पाओ अपने आपको…..


पूज्यपाद संतश्री आसारामजी बापू

सूर्य का स्वभाव है प्रकाश देना, चन्द्र का स्वभाव है शीतलता देना, माँ का स्वभाव है बच्चों को पोसना। ऐसे ही भगवान का और भगवान को पाये हुए महापुरुषों का स्वभाव है दूसरों का कल्याण करना। जो भी सामने आ जाए उसका कल्याण किये बिना वे नहीं रह सकते हैं।

जोगी मछन्दरनाथ ऐसे ही महापुरुष थे। एक बार जोगी मछन्दरनाथ किसी नगर में गये। वहाँ के लोगों ने मछन्दरनाथ को बतायाः

“इस नगर के राजा अपना राज्य अपने बेटों को सौंपकर जंगल में चले गये हैं। वहीं पर रहते हैं। जब भूख लगती है तब नगर में मधुकरी करने आते हैं। भिक्षा में जो भी रूखा-सूखा टुकड़ा मिलता है वह खा लेते हैं। कौपीन पहनकर रहते हैं। किसी के सामने आँख उठाकर देखते भी नहीं हैं तो बात करने का तो सवाल ही नहीं उठता है। बड़े तपस्वी हैं, महात्यागी हैं…”

एक दिन जब वह राजा नगर में आया और भिक्षा में जो कुछ मिला वह लेकर वापस जाने लगा तब मछन्दरनाथ ने जान-बूझ कर उसे जरा-सा धक्का मार दिया।

वह बोलाः “अरे ! आप मुझे धक्का देकर मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं ? परन्तु ऐसी हरकतें करके भी आप मुझे गुस्सा नहीं दिला सकते।”

मछन्दरनाथ ने कुछ जवाब नहीं दिया। पाँच-पच्चीस कदम आगे चलकर उन्होंने फिर से से उस त्यागी राजा को कोहनी मारी। उसका भिक्षापात्र गिरते-गिरते बच गया।

उस राजा ने पुनः कहाः

“आप क्या समझते हैं ? आपके ऐसे कृत्यों से परेशान होकर मैं गुस्सा हो जाऊँगा ? नहीं, यह नहीं होगा। महाराज ! तब करने के लिए मैंने राज-पाट छोड़ दिया है, वस्त्राभूषण छोड़ दिये हैं, सगे संबंधियों को भी छोड़ दिया है। अब मेरे पास क्या है जो आप मुझसे छीनना चाहते हैं ? मेरे पास कुछ नहीं हैं। मैं महात्यागी हूँ।”

तब मछन्दरनाथ ने कहाः

“अभी बहुत कुछ त्याग करना बाकी है।”

“अरे महाराज ! मेरे पास तो कुछ नहीं है। केवल यह कौपीन है। आप कहें तो उसका भी त्याग कर दिखाऊँ।”

मछन्दरनाथः “मैं कौपीन का त्याग करने के लिए तो नहीं कहता हूँ लेकिन तुम अगर कौपीन का त्याग कर भी दो तब भी बहुत कुछ त्याग करना बाकी रह जायेगा।”

राजा को मछन्दरनाथ की बात समझ में न आयी। तब उन दयालु महापुरुष ने अपनी करूणा-कृपा बरसाते हुए कहाः

“अभी बहुत कुछ त्याग करना बाकी है। अभी स्थूल और सूक्ष्म शरीर में से तुम्हारी अहंता नहीं छूटी है। तुम कहते होः “मैंने राजपाट, वस्त्रालंकार, सगे-संबंधियों को त्याग दिया।ʹ परंतु जब तुम इस धरती पर आये थे तब साथ में क्या लेकर आये थे ? वास्तव में तुम्हारा था ही क्या जो तुमने त्याग दिया ? राज्य तो तुम्हारे आऩे से पहले भी था और जब तुमने उसे त्याग दिया ऐसा मानते हो तब भी राज्य तो वहीं पर है। तुम इस संसार में अकेले आये हो और जाओगे भी अकेले, तब तुम जिनका (अपने सगे-संबंधियों का) त्याग करने की बात कर रहे हो उनका तो त्याग हो ही जायेगा। तुम्हारे पास तुम्हारा अपना क्या था जिसे तुमने त्याग दिया है ? माता-पिता के रज-वीर्य से तुम्हारे शरीर का जन्म हुआ और पहले किये हुए पुण्यों के प्रभाव से तुम्हें राज्य मिला। अब त्याग करना बाकी है अपना अहंकार। ʹमैं त्यागी हूँ…. मैंने राजपाट का त्याग करने वाला मैं कौन हूँ ?ʹ इसे जरा खोजो। ʹमैं कैसा हूँ ?ʹ इसे जानो। उसके लिए तुम महापुरुषों की शरण में जाओ, सत्संग सुनो और विचार करो। तब ही तुम अपने-आपको जान पाओगे।”

पचास साल तक भले ही मन्दिर-मस्जिद में जाते रहो, पूजा पाठ करते रहो, आरती करते रहो लेकिन मंदिर के वे देव भी तुम्हें आत्मानुभव नहीं करा सकते। जब तक आत्मज्ञान का सत्संग नहीं मिलता है, आत्मज्ञानी गुरु की कृपा हजम नहीं होती है तब तक आत्मानुभव नहीं हो सकता। भीतर के देव का अनुभव करने के लिए सदगुरु की शरण में जाना ही पड़ता है।

सदगुरु के वचनों को आदरपूर्वक सुनकर उस पर अमल करने से सदियों से भटकता हुआ चित्त वश में होता है, अपने-आप में स्थिर होता है। चित्त को स्थिर करने के लिए एक यह भी उपाय है कि किसी एकांत स्थान में या तो अपने कमरे के कोने में बैठकर आँखों के सामने अपने इष्टदेव का या गुरुदेव का चित्र रखो। उससे तीन-चार फीट दूर बैठकर आँख की पलकें न गिरें उस तरह चित्र को एकटक निहारते रहो। बाद में आँखें बंद कर के गुरु के या इष्ट के चित्र को भ्रूमध्य में निहारो। इस प्रकार का प्रयोग हररोज पाँच मिनट के लिए भी करोगे तो मन की शक्ति बढ़ेगी और बलवान मन को जहाँ लगाना चाहोगे वहाँ लगेगा।

हम कहाँ हैं ? बाजार में हैं कि खेत में, घर में हैं कि दुकान में, उसका महत्त्व नहीं है परंतु हमारा मन कहाँ हैं, हमारे मन में समझ कैसी है उसका महत्त्व है। अगर हम सुख में आकर्षित और दुःख में अशांत हो जाते हैं तो हम स्वर्ग में होते हुए भी नरक बना लेते हैं।

संसार की चीज-वस्तुएँ कितनी भी हों, उससे मन की शांति नहीं मिलती है। अनेकों सुविधाएँ होने के बावजूद भी यदि मन में शांति नहीं है तो वे सुविधाएँ किस काम की ? जिसके पास बाहर  की सुविधाएँ भले नहीं हों लेकिन मन में यदि शांति और आनंद हो तो वह वास्तव में सुखी है और भीतर की शांति पाने का सब से सरल उपाय यह है कि न दुःख से भागो न सुख में चिपको, वरन् सुख और दुःख आते जाते रहते हैं। सुख जाता है तो दुःख दे जाता है और दुःख जाता है तो सुख दे जाता है।

एक भाई किसी महाराज के पास गये और कहने लगेः

“महाराज ! इस जिंदगी में मैंने दुःख-ही-दुःख देखे हैं।”

महाराज ने पूछाः “कितने दुःख देखे हैं ?”

उसने कहाः “कितने दुःख गिनाऊँ ? मैंने बहुत दुःख देखे हैं।”

महाराज ने कहाः “तूने सुख देखा ही न हो तो ʹबहुत दुःखʹ कैसे कह सकता है ? थोड़ा सुख भी मिला होगा तभी तो ʹबहुत दुःख मिलाʹ – ऐसा कह सकता है। केवल दुःख ही दुःख होता तो बहुत या थोड़ा हो नहीं सकतात। सुख भी आया और गया, दुःख भी आया और गया। ये तो आने जाने वाले मेहमान हुए। तू तो वही का वही रहा उसे देखने वाला साक्षी।”

जैसे, हाईवे पर यदि तुम्हारा बंगला हो तो रोड़ पर से बस, टैक्सी, ऑटोरिक्शा, साईकिल, स्कूटर, कार आदि गुजरते हैं। कभी बारात भी गुजरती है और कभी अर्थी लेकर श्मशान में जाने वाले लोग भी गुजरते हैं। उन सबको अपने बंगले में बैठकर तुम देखते रहो तो ठीक है लेकिन जो आये और उसके साथ चलने लग जाओगे, बारात को देखकर नाचने लगो या अर्थी को देखकर रोने लगो तो बंगले में शांतिपूर्वक कैसे बैठ सकोगे ? ऐसे ही अपने मनरूपी हाईवे पर सुख-दुःख की वृत्तियाँ, मान-अपमान के प्रसंग आदि आते जाते रहते हैं। जब हम आत्मारूपी घर को छोड़कर उन वृत्तियों के साथ एक होकर मन को दौड़ाते रहते हैं तो परेशान हो जाते हैं परंतु यदि आत्मारूपी बंगले में बैठकर सुख-दुःख, मान-अपमान को केवल देखते रहें तो आनंद ही आनंद है।

जैसे सागर की उछलती तरंगों की गहराई में शांत उदधि है और उस शांत उदधि के आधार पर ही तरंगे उछलती हैं। ऐसी कोई तरंग नहीं है जो सागर से अलग होकर सड़क पर दौड़ सके। ऐसे ही अपने मन की तरंगें भी शांत आत्मा के आधार पर ही उठती हैं। ऐसा कोई मन नहीं है जो चैतन्य के आधार के बिना संकल्प-विकल्प कर सके। परमात्मा के इतने निकट होते हुए भी मानव दुःखी, चिंतित और भयभीत रहता है। क्यों ? क्योंकि आने-जाने परिस्थितियों को सत्य मानकर उनके साथ वह एक हो जाता है।

जब हम दरिया किनारे घूमने जाते हैं, तब उछलती तरंगें देखने का मजा आता है किन्तु वह मजा तभी तक आता है जब तक किनारे पर खड़ा रहकर उसे देखते रहें। अगर किनारा छोड़कर तरंगों के साथ घुलमिल जायें तो तरंग देखने का मजा तो क्या आयेगा लेकिन तरंगें ही हमको घसीटकर गहरे पानी में डुबा देंगी। ऐसे ही जीवन में सुख-दुःख की तरंगें, मान-अपमान की तरंगें, तंदुरुस्ती और बीमारी की तरंगे आती जाती रहती हैं। अगर आप अपने आप में स्थित रहकर आत्मारूपी किनारे पर खड़े होकर तरंगों को देखते रहोगे तो मजा आएगा परंतु उनके साथ एक हो जाओगे तो वे तुम्हें बहा ले जायेंगी। सुख-दुःख की, मान-अपमान की तरंगें आती और जाती हैं लेकिन उनको देखने वाले तुम वही के वही रहते हो। वही तुम आत्मा हो, चैतन्य हो और आत्मा सदा एकरस है, अबदल है। शरीर और संसार बदलता रहता है। बचपन गया तो जवानी आती है और जवानी चली जाये तो बुढ़ापा आता है। संसार की परिस्थितियाँ भी बदलती रहती हैं लेकिन इऩ सब बदलाहट को देखने वाला जो साक्षी है, वह नहीं बदलता है, वही आत्मा है। जो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय का साक्षी है, महाप्रलय भी हो जाये फिर भी जिसका बाल भी बांका नहीं होता है वही आत्मा है… वही परमात्मा है।

जो सुख-दुःख में, मान-अपमान में सम रहकर अपने आप में स्थित रहते हैं वे देर सबेर आत्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं। उनको फिर कुछ करना बाकी नहीं रहता है। वे भगवदरूप हो जाते हैं। ऐसे महापुरुष ईश्वर से कभी जुदा नहीं होते।

आप भी यदि ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हो तो मिथ्या शरीर और संसार को सत्य मानने का भ्रम मिटाना पड़ेगा। यह भ्रम दूर होगा तभी आप सदा के दुःखों से मुक्त हो सकोगे। जैसे स्वप्न के पदार्थों को लेकर कोई जाग नहीं सकता, ऐसे ही जगत की सत्यता को पकड़कर कोई जगदीश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकता और संसार को सत्य मानने का वह भ्रम सदगुरु की करूणा कृपा के बिना नहीं मिटता।

सदगुरु मेरा शूरमा करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का हरे भरम की कोट।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 7,8,9,23 अंक 50

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नासमझी है दुःखों का घर


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

यह भी कैसी विचित्र बात है कि सभी दुःखों और परेशानियों को मिटाना चाहते हैं लेकिन फिर भी हर दिन बंधन बढ़ाते जा रहे हैं, परेशानियों को पोसते जा रहे हैं। मुक्ति सभी चाहते हैं किन्तु मुक्ति पाने की मुक्ति से दूर भागते हैं।

कुछ वर्ष पहले की बात हैः किसी व्यक्ति ने आकर मुझसे कहाः “बापू ! इतने सारे लोग भजन कर रहे हैं, एक मैं नहीं करूँ तो क्या घाटा होगा ? मुझे मुक्ति नहीं चाहिए।”

उसकी बात सुनकर मुझे हँसी आयी क्योंकि वह सरलता से बोल रहा था। मैंने कहाः “अच्छा, मुक्ति नहीं चाहिए किन्तु सुख तो चाहते हो न ? परेशानियाँ तो मिटाना चाहते हो न ?”

उसने कहाः “जी।”

“तो फिर हमारे ये सारे प्रयास किसलिये हैं ? हम कहाँ कहते हैं कि तुम मोक्ष पा लो। हम तो यही चाहते हैं कि तुम्हारी परेशानियाँ मिट जायें और परेशानी मिटाना ही तो मोक्ष है। छोटी परेशानी मिटाने में कम मेहनत है, बड़ी परेशानी के लिये ज्यादा, जन्म-मरण की परेशानी मिटाने के लिए आत्मज्ञान की मेहनत करनी पड़ती है।”

यदि थोड़ी-थोड़ी परेशानियों, दुःखों, बंधनों से थोड़ समय के लिए छूटना चाहते हो तो थोड़ा ज्ञान, थोड़ा पुरुषार्थ और थोड़ा सुख ही काफी है और यदि सदा मुक्ति चाहिए, पूर्ण निर्दुःख, पूर्ण निर्बन्ध, पूर्ण सुख चाहिए तो पूर्ण ज्ञान के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करना ही चाहिए।

दुःख कोई नहीं चाहता। मुक्ति नहीं चाहते तो क्या बंधन चाहते हो ? तुम्हें कोई जेल में डाल दे, कोई तुम्हारे पर आदेश चलाये, पत्नी तुम्हें आँखें दिखाये तो क्या तुम्हें अच्छा लगता है ? नहीं, क्योंकि तुम स्वतंत्रता चाहते हो, मुक्ति चाहते हो और मुक्ति पानी है तो फिर ध्यान भजन, जप, सेवा-स्वाध्याय भी करना पड़ेगा। मुक्ति की मंजिल तक पहुँचना है तो उसकी राह पर तो चलना ही होगा।

अनेकों को ऐसा लगता है कि ʹभाई ! हममें तो भगवान के रास्ते चलने की ताकत नहीं है, हमें ज्ञान नहीं चाहिए….ʹ ज्ञान नहीं चाहिए, मुक्ति नहीं चाहिए तो क्या मुसीबतें चाहिए ? दुःख चाहिए ? यह तो नासमझी है। आदमी तमोगुण में आ जाता है तब कहता है कि ʹहमें ईश्वर से क्या लेना देना ? संत-वंत कुछ नहीं, पुण्य-वुण्य कुछ नहीं।ʹ तो पाप करके भी तो तुम सुख ही चाहते हो न ? यदि पाप करने में सुख होता तो सभी पापी आज मजे में ही होते, अशान्त और दुःखी न होते और मरने के  बाद प्रेत या पशु होकर न भटकते, मुक्त हो जाते, शाश्वत स्वरूप से एक हो जाते।

सुख पाप में नहीं, सुख वासना में नहीं, सुख इच्छाओं की पूर्ति में नहीं वरन् सुख है मुक्ति में, सुख है मुक्ति पाये हुए ब्रह्मवेत्ताओं के श्रीचरणों में। इच्छा वासना की निवृत्ति में परम सुख है।

मैंने सुना है। एक बार हनुमानप्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोयन्द का आपस में चर्चा कर रहे थेः “आजकल तो कहलाने लगे बड़े ज्ञानी, बड़े संन्यासी… पहले लोग कितना-कितना तप करते थे। इन्द्र ने 108 वर्ष तक ब्रह्माजी की सेवा की, तब ब्रह्मज्ञान मिला। और आज…? घर छोड़कर बन गये साधु-संन्यासी और लिख देंगेः 1008 स्वामी फलानानंद जी…”

तब एक किसान ने उठकर पोद्दार जी से कहाः “भाई जी ! 108 वर्ष तक इन्द्र ने ब्रह्मा जी की सेवा की, तब ज्ञान मिला, तो 108 वर्ष देवताओं के कि मनुष्य के 108 वर्ष ? अगर देवताओं के वर्ष गिनते हो तो उनकी आयुष्य तो 100 वर्ष से अधिक नहीं होती और अगर मनुष्य के 108 वर्ष गिनते हो तो देवताओं के 108 दिन से अधिक नहीं होते।”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार को हुआ कि किसान के वेष में भी ये कोई पहुँचे हुए महात्मा लगते हैं। उनकी सात्त्विक श्रद्धा थी न !

एक बार पोद्दार जी के मुख से निकल गयाः “जो मिर्ची का अचार नहीं छोड़ सकते, जो चाय नहीं छोड़ सकते, जो दो वक्त का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे ब्रह्मज्ञान कैसे पा सकते हैं ?”

पहले वे इस प्रकार की आलोचना किया करते थे। साधना काल में इस प्रकार का कभी हो जाता है उऩकी इस बात को अखंडानंद सरस्वतीजी ने सुन लिया। वे भिक्षा लेने पोद्दार जी के घर। उनकी धर्मपत्नी ने बड़े प्रेम से भिक्षा दी। तब अखंडानंदजी ने कहाः “बहन जी ! मिर्ची का अचार है ?”

धर्मपत्नी ने कहाः “हाँ महाराज है।”

“अच्छा, तो दो-तीन टुकड़े दे दो।”

धर्मपत्नी ने अचार दिया। तब पुनः अखंडानंदजी बोलेः “बहन जी ! भाई जी घर पर हैं ?”

“जी हाँ महाराज ! भीतर के कक्ष में कुछ लेखन कार्य कर रहे हैं।”

“अच्छा ! जरा भाई जी को बुलाना।”

भाई जी बाहर आये और आकर प्रेम व श्रद्धा से प्रणाम कियाः “महाराज ! नमो नारायणाय।

अखंडानंद जीः नमो नारायणाय। सेठजी ! आपने प्रवचन में कहा थाः ʹअचार चाहिए, खिचड़ी चाहिए, चाय चाहिए… जो ʹचाहिए-चाहिएʹ में लगे हैं और अपने को ब्रह्मज्ञानी मानते हैं वे क्या ब्रह्मज्ञानी होते हैं ? जो दो समय का भोजन नहीं छोड़ सकते, वे क्या ब्रह्मज्ञान पा सकते हैं ?ʹ

….. तो जिन्हें वास्तव में ब्रह्म परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए सेठजी ! मैं पूछता हूँ कि कमबख्त दो मिर्चियाँ, क्या उऩकी ब्रह्मनिष्ठा के स्वाद को कम कर देगी ? क्या अचार की ये दो मिर्चियाँ उऩके परमात्मज्ञान के रस को छीन लेगी ?”

तब हनुमानप्रसाद पोद्दार जी हाथ जोड़ते हुए बोलेः “महाराज ! क्षमा कीजिए। आप जैसों के आगे तो हम नतमस्तक हैं।”

जिनको ब्रह्म-परमात्मा का अनुभव हो गया है उनके लिए मिर्ची का अचार तो क्या, छप्पन पकवान तो क्या देवताओं के भोग भी नीरस हैं। वे उनको आसक्त नहीं कर सकते। ऐसे दिव्य ब्रह्मज्ञान के रस का वे आस्वाद कर चुके होते हैं कि जिसके आगे ब्रह्मलोक के सुख तक फीके पड़ जाते हैं तो मनुष्य लोक के तुच्छ में वे क्या आसक्त होंगे ? जिनको आत्मा-परमात्मा का शुद्ध अनुभव हो जाता है, उनके लिए संसार के सुख-दुःख, ऊँचाई-नीचाई कोई मायने नहीं रखती क्योंकि उऩ्होंने अपने शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वरूप को जान लिया है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 50

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ईश्वर की विचित्र सृष्टि


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

भगवान की यह दुनिया बड़ी विचित्र है। इसे समझ पाना वैज्ञानिकों के लिए भी बड़ा कठिन हो रहा है।

फ्राँस के मोमिन्स नगर में एक बालक, जिसका वार्डिस, उसकी एक आँख भूरी है और दूसरी नीली। वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित हैं कि यह कैसे संभव हुआ ?

1829 में लंदन का एक बालक चार्ल्स वर्थ जब 4 साल का हुआ तभी उसे दाढ़ी-मूंछ उग आयी। इतना ही नहीं उसका व्यवहार और बुद्धि भी बड़े मनुष्य जैसी ही थी। सात साल की उम्र में उसके बाल सफेद हो गये और आठवें साल का प्रारंभ होने पर वह मर गया। अभी तक वैज्ञानिकों की  बुद्धि में यह बात समझ में नहीं आ रही है कि यह हुआ कैसे ?

फ्राँस में टुर कुईंग नामक नगर में एक ऐसी बालिका का जन्म हुआ, जिसकी सामान्य मनुष्य की तरह दो आँखें नहीं, वरन् जहाँ तिलक करते हैं आज्ञाचक्र में एक आँख है। सब हैरान हो रहे हैं कि एक आँख कैसे ? वह भी आज्ञाचक्र में !

सुमात्रा में एक ऐसा कुआँ है, जिसमें झाँकने पर दो प्रतिबिंब दिखते हैं। वास्तव में दिखना तो एक चाहिए, किन्तु दो दिखते हैं। उसमें भी एक अपना प्रतिबिंब दिखता है दूसरा किसी अन्य का… तो क्या दो व्यक्ति होते हैं ? नहीं, एक ही व्यक्ति के दो प्रतिबिंब दिखते हैं। यदि दो व्यक्ति झाँकेंगे तो 4 प्रतिबिंब दिखेंगे और तीन व्यक्ति झाँकेंगे तो 6 प्रतिबिंब दिखेंगे, वह भी दर्पण की तरह बिल्कुल स्पष्ट। हालाँकि नीचे कोई दर्पण नहीं लगा हुआ है।

फ्राँस के लेटले नामक स्थल पर एक बार एक किसान के खेत में विद्युत गिरने से उसकी भेड़ों में से सब काली भेड़ें मर गयीं किन्तु सफेद भेड़ों का बाल तक बाँका नहीं हुआ।

अमेरिका की एडिस्टन लाइब्रेरी में सन 1961 से वॉयलिन की ध्वनि सुनायी दे रही है। कई लोग जा-जाकर सुनकर आये हैं। वॉयलिन की ध्वनि जरूर सुनाई देती है किन्तु कौन बजाता है यह नहीं दिखता।

कुछ समय पहले की बात हैः भारत के मैसूर में एक दुष्ट राजा राज्य करता था। एक बार उसने किसी साधु से कुछ कहा, किन्तु उस साधु ने राजा की बात सुनी-अनसुनी कर दी। इससे कुपित होकर राजा ने साधु को प्राणदंड देने का आदेश कर दिया। प्राणदंड भी किस प्रकार का ? तोप से मार डालने का हुक्म कर दिया गया। इतना दुष्ट था वह राजा !

सैनिकों ने आज्ञा पालन किया। वे साधु को पकड़कर ले आये और तोप के मुँह पर उसे बिठाकर तोप दगा दी। साधु उछलकर हाथी के हौदे पर जा पहुँचे। राजा ने दुबारा पकड़कर तोप के मुँह पर बैठाकर तोप चलवायी तो एक ऊँची छत पर साधु जा पहुँचे किन्तु मरे नहीं। राजा और भड़का। उसने तीसरी बार पकड़वाकर तोप चलवायी। तीसरी बार भी साधु एक रेती के टीले पर जा बैठे।

जा के राखे साईंया मार सके नहीं कोई।

बाल न बाँका कर सके चाहे जग वैरी होई।.

अफगानिस्तान में काबुल के पास एक रेतीला स्थान है जहाँ घोड़ों के दौड़ने की आवाज आती है हालाँकि वहाँ घोड़े दिखते नहीं हैं। इसी प्रकार नगाड़ों के बजने की आवाज भी आती है। लोग छान-बीन करके थक गये किन्तु अभी तक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके कि ये कैसे होता है ?

जो भी देखने में आ रहा है, जानने में आ रहा है, उससे भी कहीँ करोड़गुना अधिक विचित्रताएँ हैं किन्तु हमारी इन्द्रियाँ इतनी सक्षम नहीं है कि उन्हें जान पायें।

कैलिफोर्निया में एक बालू के टीले में से रोने की आवाज आती है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी उस स्थान पर जाकर आये किन्तु वे भी नहीं जान सके कि आवाज कहाँ से आती है… कैसे आती है।

हवाई द्वीप में एक टीले से कुत्ते के रोने की आवाज आती है। कोई कह सकता है कि मरकर कोई भूत बना होगा और रो रहा होगा इसलिए आवाज आती है। तो क्या कुत्ता भी मरकर भूत होता है क्या ?

दक्षिण अफ्रीका की दीवालों से अट्टहास्य की, जोर-जोर से हँसने की आवाज आ रही है। यूरोप के कुछ समुद्र तट ऐसे हैं, जहाँ मधुर संगीत की आवाज आती है किन्तु गाने बजाने वाले का कोई पता नहीं।

बिजनौर के निवासी रामअवतार शर्मा ने पुनर्जन्म का खंडन करते हुए 2000 पृष्ठ की किताब लिखी लेकिन उन्हीं के यहाँ एक ऐसा पुत्र पैदा हुआ जो पुनर्जन्म की बातें बताता था।

प्रकृति के रहस्य बड़े अनूठे हैं। कांगड़ा जिले के दादा सिरवा गाँव में एक किसान ने अपनी जमीन को ठीक करने के लिए एक पहाड़ी को खोदना शुरु किया। खोदते-खोदते उसे एक अदभुत पत्थर मिला। उसकी जाँच करने पर पता चला कि उस पर एक चिड़िया अंकित है। कोई कहेगाः “हो सकता है किसी ने पहले अपने महल में चिड़िया बनवायी हो और समय पाकर वह महल जमीनदोस्त हो गया हो, फिर खोदने पर वही चिड़िया मिली हो…ʹ किन्तु ऐसा नहीं है।

प्रकृति के पास भी ऐसी कला है, जिससे चिड़िया बन सके। भगवान कब, कहाँ, कैसे और क्या कर दें यह किसी की समझ में नहीं आता है।

बुद्धि  को लड़ा-लड़ाकर, थककर अंत में जब कुछ समझ में नहीं आया, तब आईन्स्टाईन ने कहाः “मैं ईश्वर को मानता हूँ। इस अविज्ञात सृष्टि में, अविज्ञात अदभुत रहस्यों में ईश्वर की शक्ति ही परिलक्षित होती है।”

हरबर्ट स्पेन्सर ने कहाः “जिस शक्ति को मैं बुद्धि से परे मानता हूँ वह धर्म का खण्डन नहीं करती अपितु उसे अधिक बल पहुँचाती है।”

बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किये बिना नहीं रह सके। उऩ्होंने भी ईश्वर की सत्ता को माना है लेकिन आजकल जो लोग ईश्वर को नहीं मानते, जो नास्तिकता की ओर बढ़ रहे हैं उनकी सचमुच बड़ी दयनीय स्थिति है। बड़े-बड़े बुद्धिमान लोग भी भगवान की प्रकृति के रहस्य को ही नहीं जान पाते तो भगवान को भला इस बुद्धि से कैसे जाना जा सकता है ?

सोई जानइ जेहि देहु जनाई।

जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई।।

यह फल साधन ते न होई….

भगवान को केवल भगवान की कृपा से ही जाना जा सकता है। कोई सोचे कि अपने बलबूते पर भगवान को जान लें कि ʹनंगे पैर चलेंगे…. इतनी तीर्थयात्रा करेंगे इतना उपवास करेंगे… हम इतना साधन-भजन करेंगे…. इतनी माला घुमायेंगे…. हम इतना योग करेंगे… इतने-इतने नियम करके हम भगवान को पा लेंगे….ʹ तो यह बात बड़ी कठिन है। किन्तु यदि हो जाय सदगुरु कृपा, ईश्वर-कृपा तो यह कठिन-सा दिखने वाला काम, असंभव सा दिखने वाला काम भी सहज हो जाता है, सरल हो जाता है। जैसे राजा जनक, खट्वांग, परीक्षित, शबरी आदि के जीवन में हुआ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 21,22,23 अंक 50

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