बाबा बुल्लेशाह कथा प्रसंग भाग 10

बाबा बुल्लेशाह कथा प्रसंग भाग 10


बुल्ले शाह का ऐसा बेढंगा रूप देखकर इनायत शाह भी मंद मंद मुस्कुरा उठे, बुल्लेशाह दौड़कर महफिल के चबूतरे पर खड़ा होकर गाने लगा कि,चाहे यह दुनिया सौ बाते बनाएं, मखौलो के कितने ही तूफां उठाए।*मुझपर श्रद्धा की बीजली गिरी है, मुझे अब किसी की भी परवाह नहीं है।* बुल्लेशाह ने इनायत की तरफ इशारा करते हुए आगे गाया.. कि*रूहानी शाम का तोहफा ये लाया हूं तुम्हारे ही लिए,**मै सराफा सजके आया हूँ प्रभु तुम्हारे ही लिए।**यह खनकने वाले हर घुघंरू की छन-छन, हाथों की कत्थई मेहंदी, बाजूए में सजे कंगन,बालों का गजरा, पेशानी पर सजी बिंदिया की झिलमिल तेरी एक मुस्कान है मेरे सभी गहनों की मंजिल।**तुम कहो तो नीली नीली रात का सुरमा लगा लू,**दो इजाजत तो फूलों को अपने गालों पर सजा लू।* *तुम कहो तो मैं आसमा को खींचकर के ओढ लूंगा,**इन सितारों को उठाकर बालियों में जोड़ लूंगा।**तुम मेरे साजन.. गुरु… तुम मेरे रांझण… मेरे आका हो मेरे ओलिया हो…. चांद पर चढ़कर जमाने से कहूं तुम मेरे क्या हो,**दुल्हनों का पैरहन पहना है बस खातिर तुम्हारे ,ओ इनायत तुम मुझे इस जिंदगी से भी हो प्यारे।*बुल्ले शाह जज्बातों के तूफान से जूझ रहा था। इतना गाकर वह इनायत के चरणों में गिर पड़ा.. और सहसा फिर खड़ा होकर गाने लगा कि, *”बुल्ला में जोगी नाल ब्याही लोका कमलया खबर ना काई मैं जोगीदा माल पाजें पीर मनाके।* ए मेरे ओलीया इनायत! मेरी रूह का तेरे साथ निकाह हो चुका है जमाने को इसकी खबर नहीं शायद इसलिए हंसते हैं। *मैं वसा जोगीदा नाल ने मत्थे तिलक लगाके, मैं वससा न रहसा होड़े कौण कोई न जांदी न मोड़े।* मेरे जोगिया मैं तेरे निगाहों में रहकर आखरी मुकाम तक तेरे साथ जाऊंगी देखती हूं किस दुनिया में तुफा में ताकत है कि मेरा रुख मोड़ दे। *माही नहीं कोई नूर इलाही, अनहद दी जिस मुरली बाही। लक्खा गए हजारा आए उस देह किसे न पाए, जोगी नहीं कोई जादू साया। भर भर प्याला शौक पलाया, मैं पीती हुई निहाल अंग विभू रमाके। रांझा जोगीड़ा बन आया, वह सांगी सांग रचाया। कुन फैकुन आवाजा आया, तखत हजारों रांझा धाया* सुनो साक्षात खुदा ही अपना ला मुकाम छोड़कर मेरा माही जोगी बनकर उतर आया है। इसलिए मेरी रूहे हीर उसकी दीवानगी में गुम है । उसकी इश्क की मोहताज है । बुल्लेशाह अपनी अदंरूनी भावनाओं को काफियों के धागे में पिरोकर रख रहा था । शिष्य और आशिक मजाक भूलकर बुल्लेशाह की रवानगी में बहने लगे । गुरु भाई और संगत उसकी इस अलबेली अदाओं पर फिदा हो उठे । किसी ने कहा, वाह! तो किसी ने कहा, सुभान अल्लाह! मगर उधर इनायत बुल्ले को यूं अजनबी सी हालत में देखकर पहले तो मंद मंद मुस्कुराते रहे परंतु फिर अचानक गंभीर होकर तख्त छोड़कर अपनी कुटिया में चले गए । परंतु ऐसा क्यों ? इनायत तो महफिल की आखरी कव्वाली तक को इज्जत बक्श के जाते थे। यहां जुटे अपने हर एक शिष्य हर आशिक की हर कही अनकही भावना को सुनकर जाते थे। साथ ही अपनी रहमतों के नजराने नवाज कर जाते थे। मगर, आज क्या हो गया ? अभी तो बहुत कुछ बाकी था। अभी तो गुरु के दीद से दिल भरा ही ना था । गुरु के रवाना होते ही महफिल में सन्नाटा छा गया.. जैसे झन्ना के चटक जाए किसी साज का तार …जैसे रेशम की किसी डोर से कट जाती है उंगली ….ऐसे एक दर्द सा होता है …कहीं सीने में खींचकर तोड़नी पड़ जाती है जब तुझसे नजर। तेरे जाने की घड़ी सख्त घड़ी होती है। बुल्ले शाह इसी सोच के दायरे में था कि तभी एक गुरु भाई ने उसे आकर कहा कि, बुल्ले! शाहजी तुम्हें याद फरमाए है। बुल्ले शाह तुरंत इनायत शाह की तरफ दौड़ पड़ा । परंतु यह क्या इनायत बाहर शामियाने में कुछ और थे कुटिया में कुछ और उनके होठों पर खिलती मुस्कान गायब थी। चेहरे पर नितांत गंभीरता थी।बुल्ले शाह डर सा गया। दोनों हाथ एकाएक कानो तक उठ गए। इनायत ने निगाहें उठाकर उसे सिर से पैर तक निहारा… बड़ी पैनी नजर थी.. गुरू की । जिन अंगो को भी ये निगाहें छुती वही वही से बुल्ला सिमटता सिकुड़ता चला जाता। कुछ देर बाद तो वह एक सिमटी हुई पुड़िया बन गया। गर्दन झुक गई । ठुड्डी छाती से जुड़ी । तभी इनायत शाह बोले बुल्ले हमें पता है तेरी मनसा का.. हम वाकिफ है तेरी जज्बातों से… अच्छी तरह जानते हैं कि तू ऐसे क्यों सजा धजा है… हम तेरे इन भावों की कद्र के साथ-साथ इज्जत भी करते हैं । मगर बुल्ले! हमें तेरा यह अंदाज पसंद नहीं आया। दुनिया का इश्क जिस्मानी है इसलिए वो जिस्म को ही सजाते सवारते है। लेकिन तेरा और मेरा रिश्ता तो रूहानियत का है। इस रूहानी इश्क के रस्मो रिवाज अलग है । इसमें जिस्म को नहीं आत्मा को सजाना होता है। इनायत की निगाहें बुल्ले शाह के एक एक श्रृंगार को निहारने लगी फिर बोले, बुल्ले! मुझे तेरी आत्मा का श्रृंगार चाहिए। उसके लिए इन सोने-चांदी के गहनों की जरूरत नहीं। श्रद्धा ही आत्मा की बिंदिया है.. विश्वास ही आत्मा का सिंदूर है… और धैर्य ही आत्मा की लाली है । प्रेम और शांति ही आत्मा के जेवर है.. तुझे सजना है तो ऐसा आत्मिक श्रृंगार कर। यही शिष्य का सच्चा श्रृंगार होता है। जिस्म फ़ानी को सजाने से क्या हासिल होगा मौत के घर में उसे एक दिन तो जाना है तू अपनी रूह को सवार.. उसे झाड़ और पोछ कि जिसकी मंजिल उस खुदा का आशियाना है। बुल्ला अपने गुरु को एक टक देखता और सुनता रहा । और पछतावे की खाई में मानो अपने आपको गिरता हुआ पाया। परंतु गुरु उसे ऐसा ना देख सके गुरु होते ही ऐसे हैं आकाश की बुलंदियों से शिक्षाओं के इशारे करते हैं । मगर शिष्य गर्दन उठाने के सिलसिले में अगर हीनता का झटका खाकर फर्श पर आ गिरे तो वे बेचैन हो उठते हैं। झठ ऊपर से उतरकर अपने शिष्य को बांहों में थाम लेते हैं । क्योंकि गुरु का एक मकान ऊंचा आसमान है.. तो दूसरा शिष्य का हदय है। वे अपने इस प्यारे आशियाने को तिनका तिनका बिखरते कैसे देख सकते हैं? दिल में बस कर जिसके वो हर वक्त रहते हैं, उसे फिर दर्द के घेरों में कैसे देख सकते हैं ?इनायत भी ना देख सके इसलिए अपनी गुरुता को एक ओर छोड़कर जोर से ताली बजा उठे। निगाहों में मस्ती से लिए बोले…”अच्छा छोड़… जो हो गया सो हो गया… वैसे माशाल्लाह.. तु बेहद हसीन लग रहा है । अच्छा तूने यह चुटीया गुथनी कहां से सीखी ? बुल्ले शाह पल्लू उंगली पर लपेटता हुआ बोला, “शाह जी मैं तो सब उल्टा पुल्टा कर बैठा। गुस्ताखी माफ हो।”इनायत उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, “ओ ना न यह गुस्ताखी नहीं है , हमें तो इससे तेरी शिष्शत्व की खुशबू आ रही है। तेरे सीने में धधकती मशाले इश्क की सीख मिल रही है.. तेरी मोहब्बत का सबूत है।” “मगर उसे पेश करने का तरीका तो गलत ही था ना शाह जी।” बुल्ले शाह बीच में ही बोल गया ।इनायत शाह मुस्कुरा उठे, परंतु न हाँ कहा न ना । बुल्ला समझता था कि गुरु की मुक मुस्कान गलती का इजहार होती है । वह झठ खड़ा हुआ सीने पर हाथ रखकर बोला”इजाजत दो गलती सुधारने का मौका चाहता हूं।” अब बुल्ला फूर्ती से कुटिया से निकला और अपनी कुटिया में जा पहुंचा। कुछ ही देर में वह फिर बाहर आया मगर अब अपने लिबास में आया। श्रृंगार जल्दबाजी में उतरा हुआ था। पोछने के चक्कर में लाली कानों तक जा पहुंची । पानी के छक्के मारकर काजल उतारने की पूरी पूरी कोशिश की हुई थी ..मगर इससे बुल्ला और भी भयानक लगने लगा । सिर के सिंदूर का भी यही हाल था। वह भी मांग की तंग सड़क छोडकर बाहर आ गई। खैर बुल्ले को इस सबकी खबर कहाँ, उस पर तो कोई और ही धून सवार थी । पूरी रफ्तार से वह फिर महफिल मे जा पहुंचा। गुरू भाई उसे फिर से देखकर दंग रह गए। परंतु बुल्ला सीधा मंच पर जा खड़ा हुआ इस दफा कोई लटका ..झटका नहीं, पूरे होशो हवास में था। अब कि वह दीवानगी में झुमने नहीं आया था.. गुरु का संदेश देने आया था। *कर कतण वन ध्यान कुड़े तु आपड़ा दाज रंगा लैनी, तु तद होवे परधान कुड़े। इक औखा वेला आवेगा, सब साके सैठा भज जावेगा। कर मदद पार लम्हावेगा ओ बुल्ले दा सुल्तान कूड़े* अर्थात… हे मेरी आत्मा रूपी लड़की… शरीर को सजाना छोड़ उस सिमरन के दहेज को इकट्ठा कर जो तेरे साथ जाएगा। इसी से तेरे गुरु रीझेंगे। आखिरी वक्त में मुश्किल की घड़ियों में तेरा सच्चा सुल्तान तेरे गुरु ही तुझे पार लगाएंगे। इसलिए सतगुरु के शिष्यों हे मेरे भाइयों ! एक लम्हा भी बर्बाद ना करो ।

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