बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग -9

बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग भाग -9


बुल्लेशाह के पिताजी ने बुल्लेशाह को हँसी-खुशी उस के गुरु के पास रहने की अनुमति दे दी। इनायत की रंगी दुनिया में बुल्लेशाह का खूब-खासा बसर होने लगा।जाहिर है जब शिष्य समस्त क़ायनात के सुख-वैभव, नजारों को लतिया डाले तो गुरु के शाही खजाने उसके लिए लूटने को बेकरार कैसे न हो?इनायत शाह ने बुल्लेशाह को अपने इश्क़ का अनमोल नजराना दे डाला। उसके तन-मन और कतरे-2 को अपना आशियाना बना लिया। उसे खुद को दे दिया।अब तो बुल्लेशाह की आँखों का जलवा सिर्फ इनायत हो गये, उसके सद्गुरु हो गये। कानों की खुराक सिर्फ गुरु के ही बोल, साँसों का चलना-रुकना सिर्फ गुरु की एक मुस्कान का मोहताज़ !दिल का हँसना-रोना उनके ही इशारों का गुलाम! बुल्लेशाह की हर सोच के ताने-बाने में उसके गुरु गूथ गये।*ख्वाइशों-तम्मनाओं का फूल-2 भी न हो उठा इनायत,**दिल की फ़िजा में इश्क़-बहार छा गये!* *खोशा नसिब की इश्क़ पर छाई फ़सले बहार,* *घटाएँ झूम उठी, फजाएँ हो गई शरसार!*ऐसी रंगत ,ऐसी शरसारी चढ़ी कि बुल्लेशाह प्रेम की रंगशाला बनता गया।*प्राण पत्थर थे,अब फूलमाला हुए,**हम अँधेरों में हँसता उजाला हुए!**गुरु की प्रीति के रंग ने जब हमें रँग दिया,**हम स्वयं प्यार की रंगशाला हुए!*इन नवाजिशों को दामन में बटोरकर बुल्लेशाह प्रेमडगर पर डग भर रहा था कि एक दिन आश्रम के लिए कुछ खरीददारी करनी थी। बुल्लेशाह बाजार की तरफ चल पड़े। एकाएक उसकी नजर एक मकान के ऊँचे छज्जे पर गई। वहाँ एक युवती बैठी थी।युवती आईने के सामने साजो-श्रृंगार कर रही थी – “माँग में कुमकुम, माथे पर बिंदिया,नैनों में सुरमयी सुरमा, होठों पर लाली, कलाइयों में खनखन करती सतरंगी चूड़ियाँ!”बुल्लेशाह अचकचा गया। वह टकटकी लगाये उसे देखता रहा।ऐसा नहीं कि आज से पहले उसने किसी सजी-सँवरी युवती को नहीं देखा था या फिर इस सुंदर लड़की पर उसका मन तरंगित और ईमान डोल उठा था। नहीं,ऐसा भी नहीं कि वह श्रृंगाररस का बिल्कुल ही गैर जानकर था। वह अपनी चटकीली-तड़किली बहनों-भाभीयों की सोहबत में रह चुका था, लेकिन बस आजतक इस ओर उसने कभी ग़ौर ही नहीं फ़रमाया था। सिर्फ अपनी दुनिया में मशगूल रहता था, लेकिन आज इस नजारे ने उसकी सुरूर भरी आँखों पर दस्तक दे डाली। “यह कैसा अजीबो-गरीब शौक़!आखिर ये लीपा पोती क्यों, किसलिए ?” बुल्लेशाह सोचने लगा।वह सहसा बोल पड़ा- “आपा, सुनो बहन! तुम ऐसे सज-सँवर क्यों रही हो?”युवती ने कनखियों से निचे झाँका। लिबास और हुलिए से पहचान गई कि,शाह इनायत का कोई शागिर्द है। उनके आश्रम का अनब्याहा शिष्य है। दिखने में जरूर छड़ा नौजवान है मगर चेहरे पर किसी बच्चे का भोला परछावा है,आँखों मे मासूमियत का भाव है,फिर पुकार भी तो आपा रहा है अर्थात बहन कहकर बुला रहा है। इसलिए वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। चुटकी कसते हुए बोली, “क्या बताऊँ,तुम जैसे बरवे कलंदर को? जाओ शेख जी,जाओ! शागिर्दी करो! बा-ईमान इबादत करो, वरना नाहक़ तुम्हें अपने गुरु की नाराजगी झेलनी पड़ेगी।”बुल्लेशाह ने उसी सादे मिजाज से फिर पूछा,”बताओ न आपा! यह ज़ेबों-ज़ीनत, बनाव-सजाव क्यों?आखिर किस वजह से, सबब क्या है इनका?”युवती झेंपते हुए बोली,”उफ़! एक तो गुस्ताख़ और अड़ियल हो, उपर से नादान डप्पू भी। अरे मियाँ! तुम क्या जानो इश्क़ के राज! मोहब्बतों-उलफ़्तों के किस्से तुम्हारे अल्हड़ वैरागी खोपड़ी में कहाँ घुसने वाले है?”अच्छा, जरा बताओ – “परवाना शम्मा पर क्यूँ फ़िदा होता है?इसलिए ना क्योंकि, शम्मा नारंगी अंगारों का श्रृंगार करती है!चटकीली चिंगारियो और शरारों से सजी-धजी रहती है! है ना?”बुल्लेशाह ने बाँवरे की तरह हाँ में सिर हिला दिया।”समझो मियाँ! सजीले-सँवरे रूप पर ही आशिक़ सैदा होते है। मैं भी अपने शौहर के लिए सँवर रही हूँ।” युवती खनकती हँसी के साथ छमछम करती हुई अंदर चली गई।बुल्लेशाह ने सोचा कि,”बुल्ले मोहब्बत तो तूने भी की है। मुकामे इश्क़ को फ़तह करने के ख्वाब तो तूने भी देखे हैं। अरे पगले! इनायत तेरे हबीब-महबूब है, दिलबर-दिलनशीं है, तेरे खसम, खाविंद, शौहर, सिरताज सबकुछ वही तो है! जहानवालों की इश्कबाजी तो रँगमिजाजी है, ऐशपरस्ती है,अय्याशी का जरिया है,जिस्मानी है। बुढ़ापे या फिर कब्र के अजाब में दफन हो जाती है, मगर तेरा तो इश्क और माशूक़ दोनों ही रूहानी है, ईलाही है। तेरी तो रूह ने अपने गुरु से पाक आशिक़ी की है और यह ईलाही इश्क़ ऐसा कि कयामत तक बरकरार रहेगी। कयामत के दिन भी तेरी धड़कनों को गुलजार करेंगी गुरु की याद से। फिर तू अपने माशूक़ के वास्ते क्यूँ नहीं सजता-सँवरता? हो सकता है इनायत रीझकर मुस्कुरा दे! गुरु की मुस्कान कितनी प्यारी होती है कि समस्त संसार उस एक मुस्कान पर न्योछावर! हाँ-2 चल, बन-ठन श्रृंगार कर!”*दिल ये कहता है तुझे सजना-सँवरना होगा,**अपनी साँसों से बँधी शांतिपूर्ण आयत के लिए,**अपने नस-2 में बसे रिश्ते की सतित्व के लिए।**ये रस्म अच्छी है इस इश्क़ की निस्बत के लिए,**की तू प्रेयसी सा सजे अपने इनायत के लिए!* *सुर्ख सिंदूर अब इस माँग में भरना होगा,* *दिल ये कहता है बुल्ले,**तुझे सजना-सँवरना होगा!*बुल्लेशाह पोशाक सज्जावाले दर्जी समशेरखाँ की दुकान पर चला गया। दर्जी बुल्लेशाह का पुराना मित्र था। “भाई हमें एक बढ़िया सा लिबास उधार दे दो। हो सके तो भाभीजाँ का कुछ साजो-श्रृंगार भी देना।”समशेरखाँ आँखे मटकाते हुए दोस्ताना अंदाज में पूछ ही बैठा कि,”जनाब! तबियत तो ठीक है!” बुल्लेशाह ने कहा कि ,”तबियत को ही तो हरा करने की कोशिश कर रहा हूँ मियाँ!”बुल्लेशाह सारा साजो-सामान जुटाकर अस्ताने अर्थात आश्रम लौट आया। सीधा अपनी कुटिया की राह ली। किवाड़ बन्द कर साकल लगा दी। संध्या हो चली। रोजाना की तरह आश्रम के बीच के खुले आँगन में कव्वाली और मुशायरे के लिए खुदा के आशिक जुट रहे थे। मुहूर्त हो चुका था।महफ़िल शबाब में थी।गुरुभाइयों ने बुल्लेशाह का किवाड़ खटखटाया। “बुल्ले!शाहजी तख्त पर तशरीफ़ रख चुके हैं, इसलिए फौरन बाहर आओ।”आवाज को कोई जबाब नहीं मिला, मानो बन्द किवाड़ से निगल गया। दोबारा, तिबारा उन्हें खटखटाया मगर हरबार उन्हें चीरकर सिर्फ़ सन्नाटा ही बाहर आया। गुरुभाई भी कुछ समय बाद वापस महफ़िल में आकर बैठ गए।यहाँ इनायत अपने नूरानी जलाल से शिष्यों को नूर नवाज रहे थे।काफियों के तरन्नुम पर फ़िज़ा झूमने लगी। हारमोनियम, नफिरियाँ, ढोलकियाँ साथ बज रही थी, परन्तु तभी इन धुनों से जुदा एक निराली छमछम ने दखल दिया। यह घुंघरुओं की रुनझुन रुनक-झुनक थी, कंगनों की खनक थी। सभी की नजरे झंकार की ओर मुड़ गई। यह क्या? सामने जो नजारा था, वह आश्रम के इतिहास में पहली बार दिखा था।एक छरहरे शरीर और लम्बे डील की युवती तड़किले-भड़कीले शरारे में चमकीलीे ज़री और गोटों से मढ़ा सिर पर लम्बा घुँघट!सबकी भौहें कमान सी तन गई।आँखों मे हैरानी तैर गई। मन की जमीन पर क्यों और कैसे के सवाल आकार ले उठे। इससे पहले कि यह सवाल कोई अंजाम लेते कि झन्नाटे से घुँघट उठ गया।सामने सजीला बाका बुल्लेशाह खड़ा था। मोटी-2 भौवों के बीच टिकी-बिंदिया, घनी-बिखरी दाढ़ी-मूँछो के बीच से चमकते लाली पुते होंठ, दाढ़ी के बीच गालो पर चढ़ी गाढ़ी लाली, अपलम-चपलम उसने अपने उलझे बालों को ही गूथ लिया था, टेढ़ी-मेढ़ी माँग में सिंदूर भरा था।भरा नहीं था, उड़ेल डाला था।जितना सजना मुमकिन था, उतना सजा हुआ था।यह देख गुरुभाइयों की आँखों की पुतलियाँ बाहर सी आ गई। कुछ पल तो सबको समझने में लगा कि,”आखिर यह अजीबो-गरीब जन्तु कौन है? जब दिमाग ने जरा कसरत की तब पता चला कि बुल्लेशाह है।”बुल्लेशाह शरमाऊँ ढंग से मुस्कुरा उठा। बस अब क्या था, इस मुस्कान ने मौजूदा रसिकों में एक लहर दौड़ा दी। एक नर्म गुलगुली सब दाँत निरोपते हुए पूरी की पूरी बत्तीसी दिखा उठे। ढोलकी, नफिरियाँ एक तरफ चुप, बस हर तरफ किलकारियाँ थी। कोई चुटकियाँ तो कोई तालियाँ बजाकर खिलखिलाने लगा था।कोई ठहाका लगाकर दोहरा हुआ। कोई पेट पकड़कर लोटमपोट हँसने लगा। परन्तु क्या बुल्लेशाह की इस हरकत पर उसके गुरु प्रसन्न होंगे या नाराज़….?—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *