सनातन धर्म का पर्वः श्राद्ध

सनातन धर्म का पर्वः श्राद्ध


(श्राद्ध पक्षः 29 सितम्बर स 15 अक्तूबर)

श्राद्धकर्म श्रद्धा-सम्पाद्य है। जो इसको करता है उसमें श्रद्धा का उदय होता है और उसे मृत्यु के बाद भी जीवात्मा का जो अस्तित्व रहता है उस पर विश्वास होता है। कर्म का फलदाता ईश्वर ही है। इसलिए श्रद्धा-प्रदत्त पदार्थ ईश्वर की दृष्टि में जाते हैं और फिर जहाँ जीवात्मा होता है वहाँ उसे सुख पहुँचाते हैं। यदि जीवात्मा मुक्त हो गया है तब श्राद्ध का फल कर्ता को मिल जाता है। वह फल प्रदत्त पिंड या पदार्थ के रूप में लौटता बल्कि उसका जो सुख है, उसकी प्राप्ति कर्ता को होती है। श्राद्ध में प्रदत्त पदार्थ तो श्रद्धा भेजने की प्रक्रियामात्र है क्योंकि श्रद्धा देवता है और वह देवता बिना किसी वाहन या क्रिया के कहीं नहीं जाता। लेकिन यदि हाथ जोड़ लो, दो फूल चढ़ा दो तो वह श्रद्धेय के पास चला जाता है। शास्त्रसम्मत श्राद्धकर्म अवैज्ञानिक नहीं है, इसके पीछे  बहुत बड़ा विज्ञान है।

जब जीवात्मा इस स्थूल देह से पृथक होता है तो उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं। यह भौतिक शरीर 27 तत्त्वों के संघात से बना है। स्थूल पंचमहाभूत एवं स्थूल पंचकर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात् मृत्यु के प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्त्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है। वह जीव स्वजनों में आसक्तिवश इर्दगिर्द घूमता रहता है। मोहवश वह भटके नहीं, उसकी आसक्ति मिटे और वह आगे की यात्रा करे इसलिए उसका ʹतीसराʹ मनाते हैं। इन दिन संबंधी इकट्ठे होकर चर्चा करते हैं कि ʹफलाना भाई, अमुक साहब हमारे बीच नहीं रहे, भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। स्थूल शरीर तो जड़ है और आत्मा कभी मरता नहीं, वह शाश्वत है, उसको कोई बंधन नहीं, वह स्वयं ही आनंदस्वरूप है।ʹ

सूक्ष्म शरीरधारी जीव इस लोक के सतत अभ्यास के कारण परलोक में भी इऩ्द्रियों के विषयों की अभिलाषा करता है परंतु उन अभिलाषाओं की पूर्ति ʹभोगायतनʹ देह न होने के कारण नहीं कर पाता, फलस्वरूप संताप को प्राप्त होता है। श्राद्धकर्म से उन जीवों को तृप्ति मिलती है।

श्राद्ध का वैज्ञानिक विवेचन

अन्य मासों की अपेक्षा श्राद्ध के दिनों में चन्द्रमा पृथ्वी के निकटतम रहता है। इसी कारण उसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव पृथ्वी तथा प्राणियों पर विशेष रूप से पड़ता है। इस समय पितृलोक में जाने की प्रतीक्षा कर रहे सूक्ष्म शरीरयुक्त जीवों को उनके परिजनों द्वारा प्राप्त पिंड के सोम अंश से तृप्त करके पितृलोक प्राप्त करा दिया जाता है।

श्राद्ध के समय पृथ्वी पर कुश रखकर उसके ऊपर पिंडों में चावल, जौ, तिल, दूध, शहद, तुलसीपत्र आदि डाले जाते हैं। चावल व जौ में ठंडी विद्युत, तिल व दूध में गर्म विद्युत तथा तुलसी पत्र में दोनों प्रकार की विद्युत होती है। शहद की विद्युत अन्य सभी पदार्थों की विद्युत और वेदमंत्रों को मिलाकर एक साथ कर देती है। कुशाएँ  पिंड़ों की विद्युत को पृथ्वी में नहीं जाने देतीं। शहद ने जो अलौकिक विद्युत पैदा की थी, वह श्राद्धकर्ता की मानसिक शक्ति द्वारा पितरों व परमेश्वर के पास जाती है जिससे पितरों को तृप्ति प्राप्त होती है।

श्राद्ध मृत प्राणी के प्रति किया गया प्रेमपूर्वक स्मरण है, जो कि सनातन धर्म की एक प्रमुख विशेषता है। आश्विन मास का पितृपक्ष हमारे विशिष्ट सामाजिक उत्सवों की भाँति पितृगणों का सामूहिक महापर्व है। इस समय सभी पितर अपने पृथ्वीलोकस्थ सगे संबंधियों के यहाँ बिना निमंत्रण के पहुँचते हैं। उनके द्वारा प्रदान किये ʹकव्यʹ (पितरों के लिए देय पदार्थ) से तृप्त होकर उन्हें अपने शुभाशीर्वादों से पुष्ट एवं तृप्त करते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2012, अंक 237, पृष्ठ संख्या 11, 15

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