Monthly Archives: July 2001

विविध व्याधियों में आहार-विहार


त्तैत्तरीय उपनिषद के अनुसारः

‘अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्-तस्मात् सर्वोषधमुच्यते।’ अर्थात् भोजन ही प्राणियों की सर्वश्रेष्ठ औषधि है,क्योंकि आहार से ही शरीरस्थ  सप्तधातु, त्रिदोष तथा मलों की उत्पत्ति होती है।

युक्तियुक्त आहार, वायु, पित्त और कफ इऩ तीनों दोषों को समान रखते हुए आरोग्य को प्रदान करता है और किसी कारण से रोग उत्पन्न हों भी जायें तो उचित आहार विहार के सेवन से रोगों को समूल नष्ट किया जा सकता है। आहार में अनाज, दलहन धान्य, घृत, तेल शाक, दूध, जल, इक्षु तथा फल का समावेश होता है।

अति मिर्चमसाला, अति नमक तथा तेलयुक्त, पचने में भारी पदार्थ, दूध पर विविध प्रक्रिया करके बनाये गये अति शीत अथवा अति उष्ण पदार्थ सदा अपथ्यकर हैं।

दिन में सोना, कड़क धूप में अथवा ठंडी हवा में घूमना, अति जागरण, अति श्रम करना अथवा नित्य बैठे रहना, वायु-मल-मूत्रादि वेगों को रोकना, ऊँची आवाज में बात करना, अति मैथुन, क्रोध-शोक आरोग्यनाशक माना गया है।

व्याधि अनुसार आहार-विहार

ज्वर(बुखार)- बुखार में प्रथम उपवास रखें। बुखार उतरने पर द्रव आहार लें। इसके लिए पुराने साठी के चावल, मूँग या मसूर में चौदह गुना पानी मिलायें। मुलायम होने तक पकायें। यह पचने में हल्का, अग्निवर्धक, मल-मूत्र और दोषों का अनुलोमन करने वाला और बल बढ़ाने वाला है।

प्यास लगने पर उबले हुए पानी में सोंठ मिलाकर लें अथवा ‘षडंगोदक’ का प्रयोग करें। (नागरमोथ, चंदन, सोंठ, खस, काली खस (सुगन्धवाला) तथा पित्तपापड़ा, पानी में उबालकर, षडंगोदक बनाया जाता है।) षडंगोदक के पान से पित्त का शमन होता है, प्यास तथा बुखार कम होता है। बुखार के समय पचने में भारी, विदाह उत्पन्न करने वाले पदार्थों का सेवन, स्नान, व्यायाम, घूमना-फिरना अहितकर है। बुखार में दूध सर्प विष के समान है।

पांडु (खून की कमी)- गेहूँ, पुराने साठी चावल, जौ, मसूर, घी, अनार विशेष पथ्यकर हैं। शाकों में पालक, तोरई, मूली, परवल, लौकी, फलों में अंगूर, मौसमी, अनार, सेवफल आदि पथ्यकर हैं। पित्त बढ़ाने वाले आहार, दिन में सोना, शोक-क्रोध अहितकर हैं।

अम्लपित्तः एसिडिटी- आहार हल्का, मधुर व रसात्मक हो। पुराने जौ, गेहूँ, चावल, मूँग, परवल, पेठा, लौकी, नारियल, अनार, मिश्री, शहद, गाय का दूध और घी विशेष पथ्यकर हैं। तिल, उड़द, कुलथी, लहसुन, नमक, दही, नया अनाज, मूँगफली, गुड़ का सेवन न करें।

अजीर्णः प्रथमतः उपवास रखें। बारबार थोड़ी-थोड़ी मात्रा में गुनगुना पानी पीना हितकर है। अग्नि प्रदीप्त होने पर अर्थात् अच्छी भूख लगने पर मूँग का यूष, नींबू का शरबत, छाछ आदि द्रवाहार लेने चाहिए। पचने में भारी, स्निग्ध तथा अतिमात्रा में आहार तथा भोजन के बाद दिन में सोना हानिकारक है।

चर्मरोगः पुराने चावल तथा गेहूँ, मूँग, मसूर,  परवल, लौकी, तुरई विशेष पथ्यकर हैं। अत्यन्त तीखे, खट्टे, खारे पदार्थ, दही, गुड़, मिष्ठान्न, खमिरीकृत पदार्थ, इमली, टमाटर, मूँगफली, फल, मछली आदि वर्ज्य हैं। साबुन सुगंधित तेल,  इत्र आदि का उपयोग न करें। चंदन चूर्ण अथवा चने के आटे या मुलतानी मिट्टी का प्रयोग करें। ढीले, सादे, सूती वस्त्र पहनें।

सफेद दागः चर्मरोग के अनुसार पथ्यपालन करें और दूध, खट्टी चीजें नींबू, संतरा, अमरूद, मौसमी आदि फलों का सेवन न करें।

संधिवात, वातरोगः जौ की रोटी, कुलथी, साठी के लाल चावल, परवल, पुनर्नवा, सहिजन की फली, पपीता, अदरक, लहसुन, एरण्डी का तेल, गौमूत्र अर्क (आश्रम में मिल सकता है), गरम जल सर्वश्रेष्ठ है। भोजन में गौघृत, तिल का तेल हितकर है।

श्वासः अल्प मात्रा में द्रव, हल्का, उष्ण आहार लें। रात्रि को भोजन न करें। स्नान एवं पीने लिए उष्ण जल का उपयोग करें। गेहूँ, बाजरा, मूँग का सूप, लहसुन, अदरक का उपयोग करें। अति शीत, तले हुए  पदार्थों का सेवन, धूल और धुआँ हानिकारक है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 103

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तुलसी मीठे वचन ते….


मधुर व्यवहार से सबके प्रिय बनिये

संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मीठी और हितभरी वाणी दूसरों को आनन्द, शांति और प्रेम का दान करती है और स्वयं आनन्द, शांति और प्रेम को खींचकर बुलाती है। मीठी और हितभरी वाणी से सदगुणों का पोषण होता है, मन को पवित्र शक्ति प्राप्त होती है और बुद्धि निर्मल बनती है। ऐसी वाणी में भगवान का आशीर्वाद उतरता है और उससे अपना, दूसरों का सबका कल्याण होता है। उससे सत्य की रक्षा होती है और उसी में सत्य की शोभा है।

मुख से ऐसा शब्द कभी मत निकालो जो किसी का दिल दुखाये और अहित करे। कड़वी और अहितकारी वाणी सत्य को बचा नहीं सकती और उसमें रहने वाले आंशिक सत्य का स्वरूप भी बड़ा कुत्सित और भयानक हो जाता है जो किसी को प्यारा और स्वीकार्य नहीं लग सकता। जिसकी जबान गन्दी होती है और उसका मन भी गन्दा होता है।

कुटुम्ब-परिवार में भी वाणी का प्रयोग करते समय यह अवश्य ख्याल में रखा जाय कि मैं जिससे बात करता हूँ वह कोई मशीन नहीं है, ‘रोबोट’ नहीं है, लोहे का पुतला नहीं है, मनुष्य है। उसके पास भी दिल है। हर दिल को स्नेह, सहानुभूति, प्रेम और आदर की आवश्यकता होती है। अतः अपने से बड़ों के साथ विनययुक्त व्यवहार, बराबरवालों से प्रेम और छोटों के प्रति दया तथा सहानुभूति सम्पन्न तुम्हारा  व्यवहार जादुई असर करता है।

किसी का दुकान-मकान, धन दौलत छीन लेना इतना बड़ा जुल्म नहीं है जितना कि किसी के दिल को तोड़ना क्योंकि दिल में दिलबर खुद रहता है। बातचीत के तौर पर आपसी स्नेह को याद रखकर सुझाव दिये जायें तो कुटुम्ब में वैमनस्य खड़ा नहीं होगा।

कहने के ढंग में मामूली फर्क कर देने से कार्यदक्षता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी से काम करवाना हो तो उससे यह कहें कि अगर आपके अनुकूल हो तो यह काम करने की कृपा करें।

बातचीत के सिलसिले में महत्ता दूसरों देनी चाहिए, न कि अपने आपको। ढंग से कही हुई बात प्रभाव रखती है और अविवेकपूर्वक कही हुई वही बात विपरीत परिणाम लाती है।

दूसरों से  मिलजुलकर काम वही कर सकता है जो अपने अहंकार को दूसरों पर नहीं लादता।

ऐसा अध्यक्ष अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से कोई गलती हो जाये तो वह उस गलती को स्वयं अपने ऊपर ले लेता है और कोई अच्छा काम होता है तो उसका श्रेय दूसरों को देता है।

अपने साथियों की व्यक्तिगत या घरेलू समस्याओं के प्रति सहानूभूति रखकर, यथाशक्ति उनकी सहायता करना दक्ष नेतृत्व का चिह्न है। कोई अगर अच्छा काम कर लाये तो उसकी प्रशंसा करना और जहाँ उसकी कमियाँ हों वहाँ उसका मार्गदर्शन करना भी दक्ष नेतृत्व की पहचान है।

अपने साथ काम करने वालों के साथ मैत्री और अपनत्व का सम्बन्ध कार्य में दक्षता लाता है। जहाँ परायेपन की भावना होगी वहाँ नेतृत्व में एकसूत्रता नहीं होगी और काम करने व वाले तथा काम लेने वाले के बीच समन्वय न होने के कारण कार्य में ह्रास होगा।

यह विचार छोड़ दो कि बिना डाँट-डपट के, बिना डराने-धमकाने के और बिना छल-कपट के तुम्हारे मित्र साथी, स्त्री-बच्चे या नौकर-चाकर बिगड़ जायेंगे। सच्ची बात तो यह है कि डर, डाँट और छल-कपट से तो तुम उनको पराया बना देते हो और सदा के लिए उऩ्हें अपने से दूर कर देते हो।

प्रेम, सहानुभूति, सम्मान, मधुर वचन, सक्रिय, हित, त्याग-भावना आदि से हर किसी को सदा के लिए अपना बना सकते हो। तुम्हारा ऐसा  व्यवहार होगा तो लोग तुम्हारे लिये बड़े-से-बड़े त्याग के लिए तैयार हो जायेंगे। तुम्हारी लोकप्रियता मौखिक नहीं रहेगी। लोगों के हृदय में बड़ा मधुर और प्रिय स्थान तुम्हारे लिए सुरक्षित हो जायेगा। तुम भी सुखी हो जाओगे और तुम्हारे सम्पर्क में आने वाले को भी सुख-शांति मिलेगी।

गोस्वामी तुलसी दास जी का वचन हमेशा याद रखने जैसा है-

तुलसी मीठे वचन से, सुख उपजहूँ चहूँ ओर।

वशीकरण यह मंत्र है, तज दे वचन कठोर।।

यदि सुन्दर रीति से, सांत्वनापूर्ण, मधुर एवं स्नेह संयुक्त वचन सदैव बोले जायें तो इसके जैसा वशीकरण का साधन संसार में और कोई नहीं है। परन्तु यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि अपने द्वारा किसी का शोषण न हो। मधुर वाणी उसी की सार्थक है जो प्राणिमात्र का हितचिंतक है। किसी की नासमझी का गैर-फायदा उठाकर गरीब, अनपढ़, अबोध लोगों का शोषण करने वाले शुरुआत में तो सफल होते दिखते हैं किन्तु उनका अन्त अत्यन्त खराब होता है। सच्चाई, स्नेह और मधुर व्यवहार करने वाला कुछ गँवा रहा है ऐसा किसी को बाहर से शुरुआत में लग सकता है किन्तु उसका अऩ्त अनन्त ब्रह्माण्डनायक ईश्वर की प्राप्ति में परिणत होता है। खुदीराम मधुरता और सच्चाई पर अडिग थे। लोग उनको भोला-भाला और मूर्ख मानते थे। प्रेम और सच्चाई से जीने वाले, हुगली जिले के देरे गाँव के ये खुदीराम आगे चलकर रामकृष्ण परमहंस जैसा पुत्ररत्न प्राप्त कर सके। सच्चाई और मधुर व्यवहार का फल शुरु में भले न दिखे किन्तु वह अवश्यमेव उन्नतिकारक होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 103

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सतयुग की पूजा पद्धति


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

पूर्वकाल में मंदिर-मस्जिद आदि कुछ नहीं था। लोग ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं को ईश्वररूप जानकर, उनका उपदेश सुनते, उनकी आज्ञा के अनुसार चलते एवं परमात्मज्ञान पा लेते थे।

बाद में रजो-तमोगुण बढ़ गया। महापुरुषों ने देखा कि ऐरे गैरे भी ‘ब्रह्मज्ञानी’ बनने का ढोंग करने लगे और इसके कारण लोग सच्चे ब्रह्मज्ञानियों पर भी शंका करने लगे इसलिए उन्होंने मूर्तियाँ लाकर रख दीं। सिर पटकते-पटकते 12 साल तप करो, पूजा-पाठ करते यात्रायें करो तब कुछ शुद्धि होगी, किसी सच्चे आत्मज्ञानी महापुरुष को खोजने की पुण्याई होगी। फिर आत्मज्ञान मिलेगा तो लाभ होगा। जब तक ब्रह्मवेत्ता सदगुरु नहीं मिलते तब तक भगवान की सेवा-पूजा करो, तीर्थों में जाओ, कहीं नाक रगड़ो, कहीं झख मारो। जब हृदय शुद्ध होगा, भगवान को पाने की तड़प होगी, सदगुरु की जरूरत पड़ेगी तब कोई गुरु मिलेंगे तो कदर होगी। मुफ्त में गुरु मिल जायेंगे तो क्या कदर करेंगे ?

सतयुग में मूर्तिपूजा नहीं थी, त्रेता में भी नहीं थी। द्वापर-त्रेता के संगम से मूर्तिपूजा चली। एक त्रिकालज्ञ ब्रह्मवेत्ता महापुरुष कहते हैं कि- पौराणिक युग से आज तक जो भी मूर्ति के भगवान हैं वे सब ब्रह्मज्ञानियों के बेटे हैं। ये जो भी देवी-देवता हैं या भगवान हैं, सारे के सारे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के मानसिक पुत्र हैं। ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों ने समाज को उन्नत करने के लिए मन से भगवत्तत्व की भावना की और तदनुसार शिल्पियों ने मूर्तियों की रचना की।

कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। जो सभी को आकर्षित करता है उसका नाम है श्री कृष्ण। रोम रोम में रम रहा है इसलिए उसका नाम रखा श्री राम। वह कल्याण करता है इसलिए उसका नाम रखा शिव। वह आद्यशक्ति है इसलिए उसको जगदम्बमा कहके भी पूजते हैं।

महापुरुषों की ऊँची सूझ-बूझ और लोक मांगल्य की भावना के अनुसार मूर्तियों की रचना हुई एवं उऩ्होंने ध्यानावस्था में अपने परमात्मस्वरूप में एकाकार होकर जो बोला, वह शास्त्र बन गया। जितने भी शास्त्र हैं सब ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की समाधिभाषा हैं। ज्ञानवान अपने आत्मानुभव में आकर जो वचन बोलते हैं, वे शास्त्र बन जाते हैं।

गुजरात में अखा भगत नाम के एक आत्मज्ञानी महापुरुष हो गये। लोगों को जगाने के लिए उन्होंने कहा हैः

सजीवाए निर्जीवा ने घडयो, पछी मने कहे मने कंई दे।

अखो तमनने ई पूछे, तमारी एक फूटी के बे ?

‘सजीव (मानव) ने निर्जीव मूर्ति का निर्माण किया, फिर उससे ही प्रार्थना करता है कि मुझे कुछ दे। अखा तुमसे पूछा है कि तुम्हारी एक आँख फूटी है कि दोनों ?’

आप सजीव हैं और मूर्ति निर्जीव है। मंदिर मस्जिद और चर्चों ने इंसान को नहीं बनाया, इन्सान ने उन्हें बनाया है।

गुजरात के ऊँझा नामक स्थान में उमिया माता का मंदिर है। उस मंदिर का उदघाटन था तो वहाँ मेरा जाना हुआ। सारा पटेल समाज वहाँ उपस्थित था।  लोग वहाँ के एक वृद्ध ‘चेयरमैन’ को मेरे पास लाये एवं बोलेः “स्वामी जी ! ये साठ वर्ष से काँवर में पानी लाकर माता जी को पानी चढ़ाते हैं।”

लोगों ने उन्हें हार पहनाया, मेरे आशीर्वचन दिलाये फिर मुझे विचार आया कि साठ वर्ष से कंधे पर काँवर रखकर पानी लाते हैं और माता जी को चढ़ाते हैं, अगर साठ वर्ष तो क्या साठ माह भी किसी ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के श्रीचरणों में शांत बैठे होते तो बेड़ा पार हो गया होता।

जो माता जी को पानी नहीं चढ़ाते हैं, नास्तिक हैं, उनकी अपेक्षा तो इन काका को धन्यवाद है लेकिन हमें ऐसे काका नहीं होना है। हमें तो तेजी से चलना है। वर्तमान में जिस प्रकार यात्रा के तीव्र साधन हुए, संदेश पहुँचाने के तार, टेलिफोन आदि के तीव्र साधन हुए, रसोई बनाने के तीव्र साधन हुए वैसे ही प्रभुप्राप्ति के लिए भी तीव्र गति से यात्रा करके मंजिल तक पहुँच जायें।

मुख में पत्थर रखकर राजसी मनुष्य तप करते हैं। आखिरी समय तपस्याकाल में धृतराष्ट्र केव पवनाहार करते थे, गांधारी केवल जलाहार करती थीं और कुंताजी महा में केवल एक ही बार भोजन करती थीं। आप भी ऐसे ही तप करो ऐसा कहने का हेतु नहीं है क्योंकि उस समय का शरीर एवं उस  समय की निष्ठा आज के शरीर एवं आज की निष्ठा से बिल्कुल भिन्न थी। फिर भी कभी-कभी तो उपवास अवश्य करना चाहिए।

कभी स्वाभाविक श्वासोच्छवास को गिनते जायें तो कभी हरि के ध्यान में तल्लीन हो जायें। कभी जप करते-करते शांत होते जायें। कभी जप करते-करते मनन-निदिध्यासन करते जायें तो कभी सेवा द्वारा अंतःकरण को पावन करते जायें।

किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष को खोज लें और उनकी बतायी हुई युक्तियों का अनुसरण करें तो शीघ्र ही बेड़ा पार हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 103

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