Tag Archives: Vivek Vichar

निर्मल वैराग्य का स्वरूप – स्वामी अखंडानंद जी



जो ईश्वर की प्राप्ति चाहते हैं, आत्मतत्त्व का ज्ञान चाहते हैं उन्हें
जीवन में साधना की आवश्यकता होती ही है । जब तुम कहीं जाना
चाहते हो तो जहाँ ठहरे हो उस स्थान और वहाँ की सुख-सुविधा का मोह
तो छोड़ना ही पड़ता है । इसी प्रकार परमार्थ के पथ पर चलने के लिए
संसार का राग छोड़ ही देना पड़ता है । इसीलिए आद्य शंकराचार्य जी
अपरोक्षानुभूति ग्रंथ (श्लोक 4) में पहले वैराग्य का स्वरूप बतलाते हैं-
ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु वैराग्यं विषयेष्वनु ।
यथैव काकविष्ठायां वैराग्यं तद्धि निर्मलम् ।।
‘ब्रह्मा से लेकर स्वार्थपर्यंत सब विषय-विकारों से वैराग्य होना
चाहिए । जैसी हेयबुद्धि काकविष्ठा में है वैसी समस्त विषयों में हो
जाय तो वह वैराग्य निर्मल होता है ।’
ब्रह्मा के पद से लेकर तृणपर्यंत विषयों में जिसे वैराग्य है वह
वैराग्यवान है । वैराग्य का अर्थ घृणा नहीं है । द्वेष का नाम भी वैराग्य
नहीं है । घृणा में वस्तु को निकृष्ट समझा जाता है । द्वेष होने पर
चित्त में जलन होती है । किसी वस्तु से इतना लगाव न हो कि उसके
पीछे हम ईश्वर तथा अपने आत्मा को भी भूल जायें, इसी का नाम
वैराग्य है ।
संसार के विषय-विकारों से राग करेंगे तो उनमें फँसेंगे । किसी से
द्वेष करेंगे तो जलेंगे । जो मन को बाँध ले उसे विषय कहते हैं । हम
विषयों से बँधे क्यों ? मार्ग में कौए की बीट पड़ी हो और हम चले जा
रहे हों तो क्या करेंगे ? उससे राग करेंगे या द्वेष । उसे जहाँ-का-तहाँ
छोड़कर चलते बनेंगे । इसी प्रकार अपनी दृष्टि संसार की ओर से
हटाकर परमात्मा में लगा लेने का नाम वैराग्य है । विषय का राग या

द्वेष ही अंतःकरण का मल है तथा वैराग्य अंतःकरण को निर्मल करता
है । जिसने संसार से दृष्टि हटा ली है उसे निश्चय ही निर्मल करने
वाला वैराग्य प्राप्त है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 23 अंक 364
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

चलता पुरजा चलता ही रहेगा – पूज्य बापू जी



कुछ लोग समझते हैं कि छल-कपट करने वाला व्यक्ति बड़ा होता
है । बोलते हैं- ‘यह बड़ा चलता पुरजा है ।’ तो वह पुरजा चलता ही
रहेगा कई चौरासी लाख योनियों में । चतुराई चूल्हे पड़ी… यह बात माने
तो ठीक है, नहीं तो बने चतुर । जो जितना ज्यादा चतुर बनता है वह
संसार में उतना ही ज्यादा फँसता है, उतने ही ज्यादा जन्म-मरण के
चक्कर में डालने वाले संस्कार उसके अंतःकरण में पड़ते हैं ।
सुकरात के पास एक देहाती गरीब व्यक्ति आया और उसने
निवेदन किया कि ‘मेरे को परमात्म-शांति चाहिए, मेरे सोल का – मेरे
आत्मा का अनुभव चाहिए । क्या मुझे हो सकता है ?”
सुकरात बोलेः “क्यों नहीं हो सकता, जरूर हो सकता है !”
“मेरे को कितने समय में हो जायेगा आत्मा का अनुभव ?”
“जैसी अभी तड़प है वैसी ही बनी रहे और तुम ठीक से लगो तो 6
महीने में हो जायेगा ।”
उस गरीब के साथ एक चतुर व्यक्ति, बड़ा व्यक्ति भी आया था,
उसने कहाः “इस देहाती को 6 महीने में हो सकता है तो मेरे जैसे को
तो जल्दी हो जायेगा !”
सुकरात बोलेः “तुम्हारे को तो 2 साल में भी होना मुश्किल है !”
“क्यों ?”
“तुम ज्यादा चतुर हो, तुम्हारे दिमाग में संसार का कचरा ज्यादा
घुसा हुआ है । यह तो समतल जमीन है, इस पर 6 महीने में इमारत
खड़ी हो जायेगी और तुम्हारा तो मजबूत नीँव वाला ऊँचा भव्य बना हुआ
है, यह सब हटाना पड़ेगा । समतल जमीन नहीं है, तुम्हारी तो इमारत
है । तुम्हारे अंदर तो संस्कार पड़े हैं इधर-उधऱ के । इसको पटाया,

उसको पटाया… इसलिए ज्यादा देर लगेगी । जो सीधा-सादा होता है वह
जल्दी आनंदित हो जाता है और जो चतुर होता है उसको बहुत देर
लगती है ।”
सच्चा चतुर तो वह है जिसकी भगवान में रुचि हो जाय, जो
परिणाम का विचार करके व्यवहार करे । मूर्ख का नाम सीधा-सादा नहीं
है, जो छल-कपटरहित है ऐसा सीधा-सादा । कुछ लोग सीधे-सादे होते हैं
लेकिन अक्ल नहीं होती, परिणाम का विचार किये बिना काम करते हैं ।
‘आखिर यह सब कब तक ? आखिर क्या ?’ इस प्रकार परिणाम का
विचार करके तत्परता से परमात्मा में लगे ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 25 अंक 364
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

इन आठ पुष्पों से भगवान तुरन्त प्रसन्न होते हैं – पूज्य बापू जी



एक बार राजा अम्बरीष ने देवर्षि नारदजी से पूछाः “भगवान की
पूजा के लिए भगवान को कौन से पुष्प पसंद हैं ?”
नारदजीः “राजन ! भगवान को आठ प्रकार के पुष्प पसंद हैं । उन
पुष्पों से जो भगवान की पूजा करता है, भगवान उसके हृदय में प्रकट हो
जाते हैं । उसकी बुद्धि भगवद्-ज्ञान में गोता लगाकर ऋतम्भरा प्रज्ञा हो
जाती है । उसकी 21 पीढ़ियाँ तर जाती हैं !”
अम्बरीषः “महात्मन् ! कृपा करके जल्दी बताइये । वे पुष्प अगर
बगीचे में नहीं होंगे तो उनके पौधे मँगवाकर उन्हें अपने बगीचे में जरूर
लगवाऊँगा एवं प्रतिदिन उन्हीं पुष्पों से भगवान की पूजा करूँगा ।”
नारद जी मंद-मंद मुस्कराये एवं बोलेः “अम्बरीष ! वे पुष्प किसी
माली के बगीचे में नहीं होते । वे पुष्प तो तुम्हारे हृदयरूपी बगीचे में ही
हो सकते हैं ।”
“महाराज ! अगर मेरे हृदय में वे पुष्प हो सकते हैं तो मैं वहाँ
जरूर बोऊँगा और वे ही पुष्प भगवान को चढ़ाऊँगा । देवर्षि ! जल्दी
कहिये कि जिन पुष्पों से श्रीहरि संतुष्ट होते हैं और पूजा करने वाले को
भगवन्मय बना देते हैं वे कौन से पुष्प हैं ?”
राजा अम्बरीष यह कह टकटकी लगाये देवर्षि की ओर देखने लगे

तब नारद जी ने कहाः “पुण्यात्मा अम्बरीष ! भगवान इन आठ
पुष्पों से प्रसन्न होते हैं एवं इन पुष्पों से पूजा करने पर प्रकट हो जाते
हैं तथा भक्त को अपने से मिला लेते हैं । जैसे तरंग को पानी अपने में
मिला ले, घटाकाश को महाकाश अपने में मिला ले वैसे ही जीव को
ब्रह्म अपने में मिला लेता है । फिर वह बाहर से भले सजा ही दिखे

लेकिन भीतर से परमात्मा साथ एक हो जाता है । ऐसे वे आठ पुष्प हैं

राजा अम्बरीष का धैर्य टूटा । वे बोलेः “देवर्षि ! देर न कीजिये,
अब बता भी दीजिये ।”
नारदजीः “वे आठ पुष्प इस प्रकार हैं-
1.इन्द्रियनिग्रहः व्यर्थ देखने, सूँघने, सोचने, इधऱ-उधर व्यर्थ जगह
पर भटकने की आदत को रोकना – इसको कहते हैं इन्द्रियनिग्रहररूपी
पुष्प ।
2.अहिंसाः मन-वचन-कर्म से किसी को दुःख न देना।
3.निर्दोष प्राणियों पर दयाः मूक एवं निर्दोष प्राणियों को न सताना
। दोषी को अगर दंड भी देना हो तो उसके हित की भावना से देना ।
4.क्षमारूपी पुष्प ।
5.मनोनिग्रह (शम)- मन को एक जगह पर लगाने का अभ्यास
करना, एकाग्र करना ।
6.ध्यानः भगवान का ध्यान करना ।
7.सत्य का पालन ।
8.श्रद्धाः भगवान और भगवान को पाये हुए महापुरुषों में दृढ़
श्रद्धा रखना ।
इन आठ पुष्पों से भगवान तुरंत प्रसन्न होते हैं एवं वे साधक को
सिद्ध बना देते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 7 अंक 364
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ