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तुम संसार में किसलिए आये हो ? – पूज्य बापू जी



एक होता है कर्म का बल । जैसे मैं किसी वस्तु को ऊपर फेँकूँ तो
मेरे फेंकने का जोर जितना होगा उतना वह ऊपर जायेगी फिर जोर का
प्रभाव खत्म होते ही नीचे गिरेगी । गेंद को, पत्थर को ऊपर फेंकने में
आपमें जितना कर्म का बल है उतना वे ऊपर जायेंगे फिर बल पूरा हुआ
तो गिरेंगे । ऐसे ही कर्म के बल से जो चीज मिलती है वह कर्म का बल
निर्बल होने पर छूट जाती है ।
दूसरा होता है भाव का बल । जितनी देर भाव से भगवान के
श्रीचित्र को देखा उतनी देर भाव समाधि लगी अथवा भाव से भगवान
प्रकट हुए, उनसे वार्तालाप हुआ, यह दूसरे को नहीं दिखेगा । लेकिन
भाव बदला तो भगवान अंतर्ध्यान हो जायेंगे ।
तीसरी होती है वास्तविक स्थिति । यह कर्म या भाव के प्रभाव से
नहीं होती, जो जैसा है उसको उस रूप में ठीक से समझकर उसमें प्रीति
करके उसमें अपने मैं को मिला दिया, बस । जैसे सागर जैसा है वैसा है,
उसमें तरंग कितनी भी बड़ी बनना चाहे, भँवर बनना चाहे, बड़ी उछलती
हुई तरंग बनना चाहे तो उसकी क्रिया की एक सीमा है अथवा वह बैठे-
बैठे सोचे कि ‘बड़े-में-बड़ी तरंग मैं हूँ’ तो यह उसकी भावना है किंतु वह
अपने को पानीरूप जान ले तो निश्चिंत…! मौज हो गयी ! ऐसे ही जीव
अपने को ब्रह्मरूप में जान ले तो परम पद की प्राप्ति हो गयी, मौज हो
गयी ! इतना सरल है और करने योग्य यही काम है ।
एक गुरु ने अपने भक्तों से पूछाः “तुम लोग क्या बेचते हो ?”
एक बोलाः “मैं तो दूध बेचता हूँ ।” दूसरा बोलाः “मैं सोना बेचता हूँ
।” तीसरा बोलाः “मैं हीरे बेचता हूँ ।” कोई बोलाः “मैं लकड़े बेचता हूँ ।”

कोई बोलाः “मैं कपड़े बेचता हूँ ।” इस प्रकार सबने अपना-अपना बताया

उनमें से एक वास्तविक जिज्ञासु शिष्य को गुरु ने पूछाः “तुम क्या
बेचते हो ?”
उसने कहाः “बाबा ! ये लकड़े, कपड़े, जूते आदि तो क्या बेचते हैं,
वास्तव में 2 रोटी के लिए हम अपना आयुष्य बेच रहे हैं । ये चीजें तो
आती, बिकती रहेंगी लेकिन बेचने वाले मर जाते हैं । धनभागी तो वे हैं
जो अपनी बेवकूफी (अज्ञानजन्य मान्यताएँ) भगवान के चरणों में बेच दें
(समर्पित कर दें) और बदले में भगवान को ले लें । बाबा ! इसलिए तो
हम आपके द्वार पर आये हैं ।”
तुम जूता, कपड़ा, लकड़ा, सोना आदि बेचने और खरीदने के लिए
संसार में पैदा नहीं हुए हो, 2 रोटी, 2 जोड़ी कपड़ों के लिए जीवन गँवाने
के लिए पैदा नहीं हुए हो, तुम तो अपनी जन्मों-जन्मों की नासमझी,
अज्ञान को बेचकर (मिटाकर) कर्म-बल, भाव-बल का सदुपयोग करके
गुरुज्ञान के प्रकाश से वास्तविक स्थिति – अपने आत्म-ब्रह्मस्वभाव को
जानने के लिए संसार में आये हो ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 20 अंक 365
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जीवन सार्थक करने के 3 सूत्र – पूज्य बापू जी



एक है तोड़ो व जोड़ो, दूसरा है खाली करो और भरो एवं तीसरा है
याद करो और भूल जाओ ।
तोड़ो और जोड़ो
नश्वर से स्नेह तोड़ो और शाश्वत से स्नेह जोड़ो । नश्वर की
सत्यता और आसक्ति तोड़ना, शाश्वत से प्रीति जोड़ना । देह के साथ के
अहं को तोड़ों और आत्मा के साथ, गुरु-तत्त्व के साथ जोड़ो । विकारों से
नाता तोड़ो, निर्विकारी सुख से जोड़ो । नश्वर से मन का संबंध तोड़ो,
शाश्वत से जोड़ो । जिन वस्तुओं या विषयों की मृत्यु हो जाती है उनसे
मृत्यु के पहले ही आसक्ति या संबंध तोड़ो और जो मृत्यु के बाद भी
हमारा साथ नहीं छोड़ता उससे संबंध जोड़ो ।
कबिरा इह जग आयके, बहुत से कीन्हे मीत ।
जिन दिल बाँधा एक से, वे सोये निश्चिंत ।।
एक परमात्मा, सद्गुरु से दिल जोड़ दो और अनेक विषय-विकारों
से दिल तोड़ दो । कर्ता किये बिना रह नहीं सकता और कर्ता कर्म
करता है तो बंधन हुए बिना रह नहीं सकता लेकिन वही कर्म अगर प्रभु
से जुड़ने के लिए करता है और विकारों से छूटने एवं कर्ताभाव तोड़ने के
लिए करता है तो कर्ता ‘अकर्ता’ आत्मपद में प्रतिष्ठित हो जाता है । यह
बहुत ऊँची बात है, बहुत ऊँचा लाभ देने वाली है । केवल यह चलते-
फिरते ध्यान रहे बस, आप जग जाओगे ।
‘महाराज ! जगते तो रोज हैं ।’
नहीं जगते बाबा ! यह तो शरीर जगा, आप जग जाओ । कैसे जगें
? जगने की क्या निशानी ?
जानिअ तबहिं जीव जग जागा ।

जब सब विषय बिलास बिरागा ।। (श्री रामचरित. अयो.कां. 92.2)
असली सुख में प्रीति और विकारी सुख में वैराग्य । नश्वर सुख से
उपरामता और शाश्वत सुख में आनंद आये, प्रीति बढ़े । अंतर के सुख
में मन लगे तो समझो कि आप जगने की तरफ हो । भीष्म पितामह
तोड़ने-जोड़ने में सफल व्यक्तित्व के धनी थे । भीष्म जी ने देह से
सत्यता तोड़ दी थी और श्रीकृष्ण से प्रीति जोड़ रखी थी तो भगवान
कृष्ण ने भी अपने प्यारे भीष्म की प्रतिज्ञा को सत्य बनाये रखने के
लिए अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी और भीष्म से नाता जोड़ के दिखा दिया ।
आप जितने भगवान के, गुरु के होते हो वे उससे कई गुना आपके हो
जाते हैं ।
भीष्म कहते हैं “श्रीकृष्ण ! मैं अपनी कन्या आपको दान करना
चाहता हूँ ।”
अब डेढ़ सौ साल के ब्रह्मचारी कन्यादान कहाँ से करेंगे ? कौन सी
कन्या लायेंगे ? बोलेः “मेरी बुद्धिरूपी जो कन्या है वह मैं आपको
अर्पित करता हूँ ।”
तो बुद्धि भगवान से जोड़ दो । प्रभात को उठो, थोड़ा शांत हो
जाओ । ‘बुद्धि में प्रकाश तेरा है, हम तेरे प्रकाश में जियें । मैं तेरा, तू
मेरा । शरीर मेरा नहीं और संबंध मेरे नहीं ।’ इतना याद करने से भी
तोड़ने और जोड़ने की शुरुआत हो जायेगी ।
खाली करो और भरो
मन को विकारों व देहाध्यास से खाली करते जाओ और
भगवत्प्रीति, भगवद्भाव, भगवद्ध्यान, भगवत्संबंध से भरते जाओ ।
फिर चाहे भगवान गुरु के भीतर प्रकट हुए हैं तब भी, श्रीकृष्ण के
अंतःकरण में छलक रहे हैं तब भी… जिस भगवान में प्रीति हो । अपने

चित्त से कर्ताभाव को खाली करो और द्रष्टाभाव को भरो । सुख-दुःख की
तरंगों वाले मसाले को खाली करो और समता को भरो । मान-अपमान
को सत्य मानने के बुद्धि में जो संस्कार पड़े हैं उनको खाली करो और
‘मान-अपमान सपना है’ इस ज्ञान को, समता को भरो ।
याद करो और भूल जाओ
जो काम करना है उसे याद किया… और किया तो फिर कर्तापन
को भूल जाओ । काम करने में जो सुख-दुःख आया या जैसा भी
परिणाम आया उसे याद करो, सावधान रहो लेकिन उसकी सत्यता को
भूल जाओ ।
इन 3 सूत्रों को जीवन में लाओगे तो परम सुख में टिकने में
आसानी हो जायेगी, मनुष्य-जीवन सार्थक हो जायेगा, जन्म-मरण का
चक्र समाप्त हो जायेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 365
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बाहरी शरीर के साथ आंतरिक शरीर की चिकित्सा करो, इसके बिना पूर्ण स्वस्थता सम्भव नहीं – पूज्य बापू जी



रोग दो शरीरों में होते हैं – बाह्य शरीर में और आंतरिक शरीर
(मनःशरीर, प्राणशरीर) में । उपचार बाहरी शरीर के होते हैं और रोग
मनःशरीर, प्राणशरीर में होते हैं । आंतरिक शरीर का इलाज नहीं हुआ
तो रोग पूर्णरूप से ठीक नहीं होता और लम्बे समय तक रहता है ।
‘मलेरिया ठीक हो गया…’ फिर से मलेरिया हो जाता है । ऐसे ही कई
बीमारियाँ थोड़ी ठीक हुईं लेकिन फिर दूसरा रूप ले लेती हैं, 2-5 साल में
फिर से उभर आती हैं । कइयों को दवाइयों के रिएक्शन (दुष्प्रभाव) भी
होते हैं । तो आंतरिक शरीर को रोग तोड देता है और चिकित्सा बाहर
के शरीर की होती है इसलिए वे प्रयास विफल हो जाते हैं ।
वैद्यों और डॉक्टरों को केवल बाहरी शरीर का ज्ञान है अतः वे
केवल बाहरी शरीर की चिकित्सा करते हैं या औषधि के द्वारा बाहरी
शरीर को ही स्वस्थ करने का प्रयत्न करते हैं जबकि चिकित्सा करते हैं
या औषधि के द्वारा बाहरी शरीर को ही स्वस्थ करने का प्रयत्न करते हैं
जबकि चिकित्सा आंतरिक शरीर की करना भी अनिवार्य है । रोग सीधे
आंतरिक शरीर को जकडता है । पूर्णतः रोगमुक्त होने के लिए औषधि
पूर्ण उपाय नहीं है अपितु पूर्ण स्वस्थता तो वैदिक मंत्रों के द्वारा ही
सम्भव है ।
यजुर्वेद और अथर्ववेद में विविध रोगों की निवृत्ति के लिए चिकित्सा
के विविध उपाय, मंत्र एवं विधियाँ बतायी गयी हैं । अमुक-अमुक रोग
के लिए अमुक-अमुक मंत्र जपो या निरंतर श्रवण करो तो ऐसे आंदोलन
पैदा होंगे जिनसे प्राणशरीर, मनःशरीर स्वस्थ हो जायेंगे तो व्यक्ति पुनः

स्वस्थ हो जायेगा । 6 महीने औषधियों का उपयोग करने से जो काम
होता है वह मंत्रध्वनि से 6 दिन में हो सकता है ।
यह मंत्र मूल पर असर करेगा, त्रिदोषों को हर लेगा
कुछ मंत्र समस्त व्याधियों को समाप्त करने में समर्थ हैं फिर चाहे
वे व्याधियाँ पित्त संबंधी हों, चाहे वात या कफ संबंधी । वायु से 80
प्रकार की, पित्त से 40 प्रकार की और कफ से 20 प्रकार की बीमारियाँ
बनती हैं । इनमें से 2-2 दोषों की एक साथ विकृति के भी अन्य अनेक
प्रकार की बीमारियाँ बनती हैं ।
ऐसे ही छोटी-मोटी कई बीमारियाँ बन जाती है पर सभी बीमारियों
की जड़ है – वात, पित्त व कफ का असंतुलन । और मंत्र इसी जड़ पर
असर कर दे तो बस, हो गया संतुलन !
वात-पित्त-कफ के असंतुलन से होने वाली सभी बीमारियों को इस
विशिष्ट मंत्र से दूर किया जा सकता है । मंत्र है
त्र्यम्बकं यजामहे ऊर्वारुकमिव स्तुता वरदा प्र चोदयन्ताम् ।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं ब्रह्मवर्चसं मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ।।
यह 3 मंत्रों का समन्वित रूप है और इसके उच्चारण अथवा श्रवण
से सभी प्रकार की बीमारियाँ दूर हो जाती हैं ।
मेरे पास ऋषिकेश की एक बच्ची आयी थी आखिरी बार दर्शऩ
करने, घरवाले उठा के ले आये थे । बोलीः “साँईं मैं जा रही हूँ । मुझे
कैंसर है, सारे शरीर में फैल गया है । डॉक्टरों ने ऐसा-ऐसा कहा है ।”
मैंने कहाः “अरे क्या है ! ऐसे कैसे जायेगी ?” मैंने उत्साह भरा,
मंत्र दे दिया । 6-8 दिन बाद आकर बोलती है कि “साँईं ! रिपोर्ट्स
नॉर्मल आयी हैं ।”

मंत्र अंदर के शरीर को ठीक कर देता है तो बाहर का शरीर भी
उसके अनुरूप चलने लगता है । रोगी स्वयं जपे, नहीं तो फिर हवन
आदि करके अन्य लोग भी यह मंत्र जपें तब भी उसको फायदा हो
सकता है ।
त्रिदोषजन्य बीमारियों में आऱाम हेतु
वायु सम्बंधी बीमारी है तो महाशिवरात्रि के दिन शिवजी को
बिल्वपत्र चढ़ायें और रात को ‘ॐ बं बं बं बं…’ इस प्रकार ‘बं’ बीजमंत्र
का सवा लाख जप करें तो जोड़ों का दर्द, गठिया, यह-वह… 80 प्रकार
की वायु संबंधी बीमारियाँ शांत हो जायेंगी । अथवा तो ‘ॐ वज्रहस्ताभ्यां
नमः’ इस मंत्र का जप करें तो भी वायु-सम्बंधी बीमारियों से आराम
मिलेगा ।
पित्त सम्बंधी बीमारियों में बायें नथुने से श्वास लेकर रोकें और ‘ॐ
शांति… ॐ शांति…’ जप करें फिर दायें नथुने से छोड़ें । ऐसा केवल 5
बार करें । ज्यादा करेंगे तो भूख कम हो जायेगी ।
ऐसे ही कफ सम्बंधी बीमारियाँ मिटानी हों तो दायें नथुने से श्वास
लेकर रोकें और ‘रं’… रं… रं… रं… ‘ इस प्रकार मन में जप करें और
‘कफनाशक अग्नि देवता का प्राकट्य हो रहा है’ ऐसी भावना करें । श्वास
60 से 100 सेकेंड तक रोक सकते हैं फिर बायें नथुने से धीरे-धीरे छोड़
दें । यह प्रयोग खाली पेट सुबह शाम 3 से 5 बार करें । कफ-सम्बंधी
गडबड़ छू हो जायेगी ।
हवा, पानी जगह बदलने से भी रोग होते हैं । कहीं पित्त की
प्रधानता होती है, कहीं वायु की और कहीं कफ की प्रधानता होती है ।
रोगप्रतिकारक शक्ति कमजोर होती है तो वातावरण के असर से
बीमारियाँ जल्दी आ जाती हैं, बाहर कहीं जाते हैं तो बीमार हो जाते हैं

और फिर अपने मूल जन्म-स्थान के वातावरण में आते हैं तो सब ठीक
हो जाता है ।
स्थूल शरीर के साथ प्राणशरीर, मनःशरीर का सीधा संबंध है । जो
मन से ज्यादा कमजोर होता है उसको बीमारी ज्यादा पकड़ती है और
मनोबल बढ़ता है तो बीमारी जल्दी निकल भी जाती है ।
दूसरों का आश्रय जितना कम लें उतना अच्छा
जो सेठ-सेठानियाँ है, बड़े लोग हैं वे थोड़ी असुविधा हुई तो नौकर
सेविकाएँ रख लेते हैं और जरा-जरा बात में सुविधा के अधीन होकर
जीते हैं, उनको रोग भी लम्बे समय तक घेरे रखते हैं । अपना काम
खुद ही करें, मन-प्राण मजबूत रखें । नौकरों से सेवा लेने की आदत नहीं
डालनी चाहिए, नहीं तो फिर नौकरों के नौकर हो जाते हैं, सेवकों के ही
सेवक बन जाते हैं । दूसरों की सेवा लेना ज्यादा बुद्धिमानी नहीं है ।
रोग बीमारी में अकेले रहना चाहिए । दूसरों का आश्रय ज्यादा नहीं लेना
चाहिए । नर्स का डॉक्टर का आश्रय जितना कम लें उतना अच्छा ।
अंतर्मन का आश्रय लें । हमको फालसीपेरम मलेरिया (जहरी मलेरिया)
हुआ तो कभी-कभी स्थिति बहुत खराब होती तो ‘ॐ…ॐ…’ बोलता फिर
मन को पूछता कि ‘ॐ…ॐ…’ कौन कर रहा है ? ऐसा करके साक्षी भाव
से पीड़ा का आनंद लेता तो खूब हँसी आती । हम अपने-आपसे खूब
मजाक करते, ‘पीड़ा हुई है शरीर को, मुझ आत्मा को पीड़ा नहीं होती ।
‘ॐ… ॐ…’ क्या है ? ॐ… ॐ…
बीमार रहना पाप है
ॐकार मंत्र भी आयु बढ़ाने वाला है, कई बीमारियों को भगाने की
ताकत रखता है । भगवान का मंत्र फिर भी लोग अस्वस्थ हैं ! मुफ्त में
चीज मिलती है तो महत्त्व नहीं जानते इसलिए दूसरों का सहारा खोजते

रहते हैं- ‘फलानी औषधि ठीक करेगी, फलाना ठीक करेगा, फलानी जगह
ठीक होंगे…। उपचार तो बाहर के शरीर का हुआ, अंदर का शरीर तो वही
रहेगा तो फिर वह दूसरी बीमारियाँ ले आयेगा । इसलिए अंतःशरीर को
मजबूत करो ।
पूर्ण आरोग्यता तो मनःशरीर और प्राणशरीर – दोनों को स्वस्थ
रखने से ही मिलती है । इन दोनों शरीरों को स्वस्थ करने के लिए प्रणव
(ॐकार) का जप करें । प्रणव परब्रह्म है । उसका जप सभी पापों का
हनन करने वाला है । प्रातः स्नान के पश्चात दायें हाथ की अंजलि में
या कटोरी म जल लेकर उसे निहारते हुए ॐकार का 100 बार जप्
करके अभिमंत्रित किये गये जल को जो पीता है वह सब पापों से मुक्त
हो जाता है । चाँदी अथवा सोने की कटोरी हो तो अति उत्तम, नहीं तो
ताँबे आदि की भी चलेगी ।
पानी को निहारते हुए ॐ का जप करें । नेत्रों के द्वारा मंत्रशक्ति
की तरंगे पानी में जायेंगी और ॐ के जप से मनःशक्ति तथा प्राणशक्ति
का विकास होगा । यह अंतरंग प्रयोग सब कर सकते हैं ।
अंतःशरीर को मजबूत करो तो बाह्य शरीर के थोड़े उपचार से भी
व्यक्ति स्वस्थ हो जायेगा । अंतर्मन स्वस्थ नहीं होता है तो बाहर के
बहुत उपचार के बाद भी जान नहीं छूटती जवानी में भी ! चलो बुढ़ापा
है, कोई तीव्रतम प्रारब्ध है तो श्रीरामकृष्णदेव को, महावीर स्वामी को,
रमण महर्षि को भी रोग से जूझना पड़ा वह अलग बात है लेकिन जरा-
जार बात में लम्बे समय तक बीमार रहना पाप है । हाँ-हाँ, काहे को
बीमार रहना लम्बे समय तक ?
केवल ॐकार अथवा ह्रीं के जप से दिव्य लाभ होते हैं । गौ-चंदन
धूपबत्ती से धूप करें और ॐ ह्रीं, ॐ ह्रीं… जप करें तो अंतरिक्षगत

(आकाशगत) तथा भूमिगत उत्पातों की शांति होगी तथात भूत-पिशाच,
टोना-टोटका – सबका प्रभाव हट जायेगा ।
बिना लोहे का शस्त्र
शक्त्यान्नदानं सततं तितिक्षार्जवामार्दवम् ।
यथार्हप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम् ।।
‘अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता,
सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (गुरुजनों का आदर-पूजन)
करना – यही बिना लोहे का बना हुआ शस्त्र् है ।
(महाभारत, शांति पर्वः 81.21)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023 पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 365
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