संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
श्रीमद् भगवदगीता में आता हैः
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।
ʹजो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाववाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा स्तुति में समान भाववाला है (ऐसा पुरुष गुणातीत कहा जाता है)ʹʹ गीताः 14.24
यह श्लोक बताता है कि हमारे जीवन में उपलब्धि की पराकाष्ठा है समता। यह समता तभी आती है जब हममें अभ्यासयोह हो। अभ्यास का तात्पर्य क्या है ? किसी भी चीज को बार-बार सोच-विचारकर उसमें तदाकार होना-यह अभ्यास है। ऐसा अभ्यास तो बहुत होता है लेकिन अभ्यास में अगर योग न मिले ते वह अभ्यास संसारचक्र में घुमाता है। गीताकार भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।
ʹहे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।ʹ (गीताः8.8)
अभ्यास तो सभी करते हैं… कोई रोटी बनाने का, कोई पढ़ने का तो कोई सेवा करने का अभ्यास करते हैं लेकिन जब तक अभ्यास में योग नहीं मिलता तब तक जीव संसार-भट्टी में ही पचता रहता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ʹहे अर्जुन ! तू ऐसा ज्ञानी बन जो सुख-दुःख और निंदा-स्तुति में सम रहता है। मिट्टी, पत्थर एवं स्वर्ण में जिसको समान भाव रहता है। उसको बाहर से तो भेद दिखता है लेकिन उसके चित्त में से सुवर्ण की आसक्ति और मिट्टी से घृणा, सुख की आसक्ति और दुःख का भय चला जाता है।ʹ
ऐसा पुरुष अपनी आत्मा में स्थित रहता है, वही स्वस्थ कहा जाता है।
जिसको अपनी आत्मा का ज्ञान नहीं है ऐसा मनुष्य दुःख में तो दुःख से अस्वस्थ रहता ही है, सुख में भी स्वस्थ नहीं रहता है। ʹसुख आये तो सदा टिका रहे एवं और ज्यादा बढ़े…..ʹ इस चिंता-चिंता में वह उस प्राप्त सुख को नहीं भोग सकता। इसलिए वह सुख में भी अस्वस्थ रहता है। लेकिन जिनको आत्मज्ञान हो चुका है ऐसे महापुरुष सुख-दुःख दोनों में स्वस्थ रहते हैं।
जो स्वस्थ होता है उसको सुख-दुःख भयभीत नहीं कर सकते। अस्वस्थ व्यक्ति पर ही जहर का असर होता है। जो संपूर्णतः स्वस्थ है वह जहर को भी पचा लेता है। महाबली भीम को जहर दिया गया तो उनका बल बढ़ गया था। जो स्वस्थ होता है उसे संसार में दुःख-मुसीबत के कड़वे घूँट मिलते हैं तो उसकी योग्यता बढ़ती है और संसार के लोगों का प्यार मिलता है तो भी आनंद में रहता है। मीराबाई को जहर का प्याला मिला तो भी स्वस्थ रहीं और प्रेम से तो गिरधर के भजन गाती ही थीं।
सुख-दुःख में स्वस्थ रहना ही योग है। हम भगवान की मूर्ति के आगे फल-फूल रखकर पूजा करते हैं, वह तो अच्छा है लेकिन उसमें योग मिलाना चाहिए, नहीं तो वही अभ्यास सालों तक चलता रहेगा। पूजा अच्छी होगी तो मन स्वस्थ रहेगा और अच्छे से न होगी तो वह दिन बेकार लगेगा एवं मन अस्वस्थ रहेगा। क्यों ? क्योंकि सेवा-पूजा करने का अभ्यास तो है लेकिन उसमें योग नहीं है।
साधना अभ्यास में अगर योग मिल जाये तो साधक सिद्ध पुरुष हो जाये। फिर वह पूजा करे तो भगवान की पूजा है ही और पूजा न करे भी भगवान की पूजा है।
भगवान श्रीकृष्ण जी कुछ करते हैं वह योग हो जाता है क्योंकि वे सुख-दुःख में स्वस्थ हैं। कंस उनकी कितनी भी निंदा करे, उनके खिलाफ षड्यन्त्र करे फिर भी वे भयभीत नहीं होते हैं और ग्वाल गोपियाँ प्रेम करती हैं फिर उनमें आसक्त नहीं होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण को माता यशोदा से प्रेम मिलता है और पूतना से जहर मिलता है फिर भी वे जो गति यशोदा को देते हैं वही गति पूतना को भी देते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में सब अपना ही स्वरूप है।
भगवान श्रीरामचन्द्रजी को 14 वर्ष का वनवास दिलाने में जिसने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थई ऐसी मंथरा से मिलने श्रीरामजी स्वयं गये और राजमहल में ले आये। श्रीरामजी के आगे मेघनाथ अपनी बढ़ाई हाँकता है फिर भी वे स्वस्थ हैं और रावण का भाई विभीषण उनकी शरण में आता है फिर भी वे स्वस्थ हैं क्योंकि वे सदैव अपने आत्मस्वरूप में स्थित हैं। ऐसे ही राजा जनक, शुकदेवजी महाराज, रानी मदालसा, गार्गी, सुलभा, नानकजी, कबीरजी, श्रीरामकृष्ण परमहंस आदि अनेकों महापुरुष अपने आत्मस्वरूप में स्थित थे। अब साईं आसाराम की ऐसी आशा है कि ‘आप सब भी स्वस्थ हो जाओ।’
कोई कहे किः ‘बापू ! हमें सर्दी, बुखार आदि कुछ भी नहीं है। हम स्वस्थ हैं।’
नहीं…. हकीकत में तो आपका शरीर स्वस्थ है, आप स्वस्थ नहीं हो। ‘स्व’ में स्थित होना ही ‘स्वस्थ’ होना है। ‘स्व’ हमारी आत्मा है, मुक्ति है, अमरता है। ‘स्व’ हमारा परमात्मा है। ‘स्व’ को पाना हमारा निजी जन्मसिद्ध अधिकार है। यदि उसको प्राप्त कर लें तो हम सदा के लिए स्वस्थ हो जायें। फिर हमारा शरीर बड़े-बड़े महलों में रहे तो हममें उसका अहंकार न आये और झोंपड़ी में रहे तो उसका हमें विषाद न हो क्योंकि हम ‘स्वस्थ’ अर्थात् ‘स्व’ में स्थित हो चुके हैं।
पूरे हैं वो मर्द जो हर हाल में खुश हैं….
मिला अगर माल तो उस माल में खुश हैं।
हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश हैं।
कभी ओढ़े टाट तो कभी बाट में खुश हैं।।
चित्त की समता हमारी आंतरिक शक्तियों को बढ़ाती है जबकि विषमता हमारे बल और ओज को क्षीण कर देती है।
हमारा चित्त यदि अपवित्र होता हो तो उसके दो कारण हैं। वे दो कारण यदि समझ में आ जायें तो चित्त की अपवित्रता दूर हो जाये। एक है सुख की लालसा और दूसरा है दुःख का भय। इन दो कारणों से हमारा चित्त अपवित्र होता है। सुख के दुष्परिणामों से हमारा चित्त अपवित्र होता है। सुख के दुष्परिणामों को जानते हुए भी हम उसकी तीव्रता से प्रभावित होने के कारण उसके प्रति अज्ञानी हो जाते हैं, समझदार होकर भी नासमझी में फिसल जाते हैं, समझदार होकर भी नासमझी में फिसल जाते हैं।
घर से भरपेट भोजन करके निकले। रास्ते में किसी चीज की खुशबू आयी… जानते हैं कि उसे खाने से अम्लपित्त (एसिडिटी) होगी फिर भी खा लिया तो यह हुआ समझदार होकर भी नासमझी का व्यवहार। जगत के सुख में जो फिसल जाता है, वह बुद्धिमान होते हुए भी मूर्ख है।
लेकिन जिन्होंने सुख-दुःख, मान-अपमान और प्रिय-अप्रिय में चित्त की समता को प्राप्त कर लिया है, जो सुख-दुःख को स्वप्नवत् समझते हैं ऐसे ज्ञानी महापुरुष ही ‘स्वस्थ’ हैं।
संसार में सुख-दुःख का सिलसिला तो चलता ही रहता है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ सुख होता है वहाँ दुःख भी अवश्य होता है और जहाँ दुःख होता है वहाँ सुख भी आता ही है। सुख-दुःख तो आते जाते रहते हैं लेकिन हम उनसे मिल जाते हैं इसीलिए सुखी-दुःखी होते रहते हैं। उनसे अलग होकर हम अपने-आपको जान लें तो बेड़ा पार हो जाये… उनके साक्षी होकर हम अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जायें तो कल्याण हो जाये।
संत नामदेव जी महाराज एक ऐसे ही महापुरुष थे जो अपने आत्मस्वरूप में स्थित थे। उनके जीवन में कितनी ही अनुकूलता-प्रतिकूलताएँ आयीं लेकिन वे न तो अनुकूलता में आसक्त होते थे और न ही प्रतिकूलता से भयभीत होते थे।
एक बार उनके घर उनकी पत्नी के दो भाई अतिथि होकर आये। पत्नी ने कहाः
“आप तो पूरा दिन ‘विट्ठल…विट्ठल….’ करते रहते हैं। मेरे भाई आये हैं। उनके भोजन की क्या व्यवस्था करेंगे ? उनको क्या खिलायेंगे ?”
नामदेवजीः “तू भोजन की चिंता क्यों करती है ? अभी दोपहर को आये हैं। शाम तक के भोजन की व्यवस्था तो है। कल एकादशी को उपवास है। ठाकुरजी का जो प्रसाद होगा, वही उन को देंगे और हम भी उसे ग्रहण करेंगे। परसों की दोपहर आने में 48 घंटों की देर है, उसकी अभी से चिंता क्यों करती है ? अभी तो ‘विट्ठल…. विट्ठल…’ करो।”
वह तो संसार में सत्यबुद्धि रखने वाली थी अतः चिंता करती रही किन्तु नामदेव जी चले भगवान विट्ठल के मंदिर में। ‘विट्ठल….. विट्ठल….’ का कीर्तन करते-करते वे तो विट्ठल के ध्यान तल्लीन हो गये, उनके साथ एकाकार हो गये और भूल ही गये कि कीर्तन कर रहे हैं.. उनका देहाध्यास छूट गया।
अब विट्ठल को चिंता हो गयी नामदेव के व्यवाहरिक सम्बन्धों की। वे उनके घर एक सेठ के वेश में गये एवं उनकी पत्नी से उन्होंने पूछाः
“नामदेव कहाँ हैं?”
पत्नीः “विट्ठल के मंदिर में गये हैं।”
सेठः “उनको ये थैली देना और कहना कि जितने सोने के सिक्के उपयोग में लेने हों, उतने ले लें। पाँच-छः महीने बाद आऊँगा। थोड़े बहुत सिक्के बचे होंगे तो ले जाऊँगा, नहीं तो कोई बात नहीं। ….और नामदेव को मेरा प्रणाम कहना।”
उनकी पत्नी को अत्यन्त आश्चर्य हुआ ! उसने पूछाः “आपका नाम क्या है ?”
सेठः “तुमको जो नाम रखना हो वह रख सकती हो।”
पत्नीः “मैं मेरे पतिदेव से क्या कहूँगी कि यह थैली कौन लाया है ?”
सेठः “नामदेवजी से कह देना कि केशवसेठी नाम के सेठ आये थे, वे यह थैली दे गये हैं।”
संध्या हुई। नामदेव जी महाराज ध्यान से उठे एवं घर आये। केशवसेठी जो कह गये थे वे सारी बातें पत्नी ने उनको बताईं।
सुख-दुःख में स्वस्थ रहने वाले नामदेवजी को पहचानने में देर न लगी कि केशवसेठी के रूप में स्वयं विट्ठल ही यह थैली दे गये हैं। वे बोलेः “उपयोग में लाने को ही कह गये हैं न ? प्रभात होने दे।”
प्रभात हुई। नामदेव जी साधु-संतों को आमंत्रित करके भण्डारा कर दिया। सोने की कुछ मुहरें बाकी थी किन्तु वे भी उन्होंने बाँट दीं। एक शाम को सोने की मुहरों से भरी थैली आयी एवं दूसरी शाम होने से पहले ही वह खाली हो गयी।
नामदेव जी की पत्नी को हुआ किः ‘इतनी गरीबी में सोने के सिक्के मिले फिर भी उन्हें बचाकर रखे नहीं। अच्छा हुआ कि उनमें से दो कटोरी मुहरें निकालकर मैंने अलग रख दिये हैं, नहीं तो वे भी बँट जाते।
नामदेव जी को इस बात का पता नहीं था लेकिन वे जिसका ध्यान करते थे उस सर्वेश्वर को तो सब पता था। उसने जिस थैली में सोने की मुहरें छिपाकर रखी थी वह उसे देखने गयी। थैली खोलकर देखी तो कोयले ! उसे आश्चर्य हुआ कि थैली की गाँठ लगाकर रखी थी फिर कोयले कैसे हुए ?
वह लज्जा से भर उठी। आखिर उससे रहा न गया। उसने अपने पतिदेव को सारी बातें बता दीं-
“आपके लिए केशवसेठी जो स्वर्ण मुहरें दे गये थे उनमें से दो कटोरी मुहरें मैंने छुपाकर रख दी थीं क्योंकि आप तो सोने और मिट्टटी को समान जानते हैं। आप सभी मुहरें बाँट दोगे इस डर से उन्हें छुपा रखी थीं लेकिन जब मैंने थैली खोलकर देखी तो उसमें से कोयले निकले !”
नामदेवजीः वे मुहरें सोने से कोयले बन सकती हैं तो कोयले से सोना भी बन सकती हैं… इसमें क्या बड़ी बात है ? उन्हें इधर ले आ । ”
पत्नी ले आयी। नामदेव जी ने जैसे ही हाथ घुमाया वैसे ही कोयले की वे मुहरें तुरन्त पहले जैसी सोने की हो गयीं।
नामदेव जी की पत्नी को बड़ा पश्चाताप हुआ किः ‘जिनके हाथ घुमाते ही कोयला सोना हो गया ऐसे भगवद्स्वरूप पति को मैं दिन रात परेशान करती रहती हूँ।’ उसने क्षमा माँगी।
नामदेवजी सुख-दुःख में स्वस्थ रहे तो प्रकृति भी उनके अनुकूल हो गयी एवं अनुकूलता में भी आसक्त न हुए तो प्रतिकूल पत्नी भी धीरे-धीरे उनकी भक्त होने लगी।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सुंदर कहा हैः
समदुःखसुखःस्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2001, पृष्ठ संख्या 5-8, अंक 99
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