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सुख-दुःख में स्वस्थ रहें…


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्रीमद् भगवदगीता में आता हैः

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।

ʹजो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाववाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा स्तुति में समान भाववाला है (ऐसा पुरुष गुणातीत कहा जाता है)ʹʹ गीताः 14.24

यह श्लोक बताता है कि हमारे जीवन में उपलब्धि की पराकाष्ठा है समता। यह समता तभी आती है जब हममें अभ्यासयोह हो। अभ्यास का तात्पर्य क्या है ? किसी भी चीज को बार-बार सोच-विचारकर उसमें तदाकार होना-यह अभ्यास है। ऐसा अभ्यास तो बहुत होता है लेकिन अभ्यास में अगर योग न मिले ते वह अभ्यास संसारचक्र में घुमाता है। गीताकार भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।

ʹहे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है।ʹ (गीताः8.8)

अभ्यास तो सभी करते हैं… कोई रोटी बनाने का, कोई पढ़ने का तो कोई सेवा करने का  अभ्यास करते हैं लेकिन जब तक अभ्यास में योग नहीं मिलता तब तक जीव संसार-भट्टी में ही पचता रहता है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ʹहे अर्जुन ! तू ऐसा ज्ञानी बन जो सुख-दुःख और निंदा-स्तुति में सम रहता है। मिट्टी, पत्थर एवं स्वर्ण में जिसको समान भाव रहता है। उसको बाहर से तो भेद दिखता है लेकिन उसके चित्त में से सुवर्ण की आसक्ति और मिट्टी से घृणा, सुख की आसक्ति और दुःख का भय चला जाता है।ʹ

ऐसा पुरुष अपनी आत्मा में स्थित रहता है, वही स्वस्थ कहा जाता है।

जिसको अपनी आत्मा का ज्ञान नहीं है ऐसा मनुष्य दुःख में तो दुःख से अस्वस्थ रहता ही है, सुख में भी स्वस्थ नहीं रहता है। ʹसुख आये तो सदा टिका रहे एवं और ज्यादा बढ़े…..ʹ इस चिंता-चिंता में वह उस प्राप्त सुख को नहीं भोग सकता। इसलिए वह सुख में भी अस्वस्थ रहता है। लेकिन जिनको आत्मज्ञान हो चुका है ऐसे महापुरुष सुख-दुःख दोनों में स्वस्थ रहते हैं।

जो स्वस्थ होता है उसको सुख-दुःख भयभीत नहीं कर सकते। अस्वस्थ व्यक्ति पर ही जहर का असर होता है। जो संपूर्णतः स्वस्थ है वह जहर को भी पचा लेता है। महाबली भीम को जहर दिया गया तो उनका बल बढ़ गया था। जो स्वस्थ होता है उसे संसार में दुःख-मुसीबत के कड़वे घूँट मिलते हैं तो उसकी योग्यता बढ़ती है और संसार के लोगों का प्यार मिलता है तो भी आनंद में रहता है। मीराबाई को जहर का प्याला मिला तो भी स्वस्थ रहीं और प्रेम से तो गिरधर के भजन गाती ही थीं।

सुख-दुःख में स्वस्थ रहना ही योग है। हम भगवान की मूर्ति के आगे फल-फूल रखकर पूजा करते हैं, वह तो अच्छा है लेकिन उसमें योग मिलाना चाहिए, नहीं तो वही अभ्यास सालों तक चलता रहेगा। पूजा अच्छी होगी तो मन स्वस्थ रहेगा और अच्छे से न होगी तो वह दिन बेकार लगेगा एवं मन अस्वस्थ रहेगा। क्यों ? क्योंकि सेवा-पूजा करने का अभ्यास तो है लेकिन उसमें योग नहीं है।

साधना अभ्यास में अगर योग मिल जाये तो साधक सिद्ध पुरुष हो जाये। फिर वह पूजा करे तो भगवान की पूजा है ही और पूजा न करे भी भगवान की पूजा है।

भगवान श्रीकृष्ण जी कुछ करते हैं वह योग हो जाता है क्योंकि वे सुख-दुःख में स्वस्थ हैं। कंस उनकी कितनी भी निंदा करे, उनके खिलाफ षड्यन्त्र करे फिर भी वे भयभीत नहीं होते हैं और ग्वाल गोपियाँ प्रेम करती हैं फिर उनमें आसक्त नहीं होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण को माता यशोदा से प्रेम मिलता है और पूतना से जहर मिलता है फिर भी वे जो गति यशोदा को देते हैं वही गति पूतना को भी देते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में सब अपना ही स्वरूप है।

भगवान श्रीरामचन्द्रजी को 14 वर्ष का वनवास दिलाने में जिसने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थई ऐसी मंथरा से मिलने श्रीरामजी स्वयं गये और राजमहल में ले आये। श्रीरामजी के आगे मेघनाथ अपनी बढ़ाई हाँकता है फिर भी वे स्वस्थ हैं और रावण का भाई विभीषण उनकी शरण में आता है फिर भी वे स्वस्थ हैं क्योंकि वे सदैव अपने आत्मस्वरूप में स्थित हैं। ऐसे ही राजा जनक, शुकदेवजी महाराज, रानी मदालसा, गार्गी, सुलभा, नानकजी, कबीरजी, श्रीरामकृष्ण परमहंस आदि अनेकों महापुरुष अपने आत्मस्वरूप में स्थित थे। अब साईं आसाराम की ऐसी आशा है कि ‘आप सब भी स्वस्थ हो जाओ।’

कोई कहे किः ‘बापू ! हमें सर्दी, बुखार आदि कुछ भी नहीं है। हम स्वस्थ हैं।’

नहीं…. हकीकत में तो आपका शरीर स्वस्थ है, आप स्वस्थ नहीं हो। ‘स्व’ में स्थित होना ही ‘स्वस्थ’ होना है। ‘स्व’ हमारी आत्मा है, मुक्ति है, अमरता है। ‘स्व’ हमारा परमात्मा है। ‘स्व’ को पाना हमारा निजी जन्मसिद्ध अधिकार है। यदि उसको प्राप्त कर लें तो हम सदा के लिए स्वस्थ हो जायें। फिर हमारा शरीर बड़े-बड़े महलों में रहे तो हममें उसका अहंकार न आये और झोंपड़ी में रहे तो उसका हमें विषाद न हो क्योंकि हम ‘स्वस्थ’ अर्थात् ‘स्व’ में स्थित हो चुके हैं।

पूरे हैं वो मर्द जो हर हाल में खुश हैं….

मिला अगर माल तो उस माल में खुश हैं।

हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश हैं।

कभी ओढ़े टाट तो कभी बाट में खुश हैं।।

चित्त की समता हमारी आंतरिक शक्तियों को बढ़ाती है जबकि विषमता हमारे बल और ओज को क्षीण कर देती है।

हमारा चित्त यदि अपवित्र होता हो तो उसके दो कारण हैं। वे दो कारण यदि समझ में आ जायें तो चित्त की अपवित्रता दूर हो जाये। एक है सुख की लालसा और दूसरा है दुःख का भय। इन दो कारणों से हमारा चित्त अपवित्र होता है। सुख के दुष्परिणामों से हमारा चित्त अपवित्र होता है। सुख के दुष्परिणामों को जानते हुए भी हम उसकी तीव्रता से प्रभावित होने के कारण उसके प्रति अज्ञानी हो जाते हैं, समझदार होकर भी नासमझी में फिसल जाते हैं, समझदार होकर भी नासमझी में फिसल जाते हैं।

घर से भरपेट भोजन करके निकले। रास्ते में किसी चीज की खुशबू आयी… जानते हैं कि उसे खाने से अम्लपित्त (एसिडिटी) होगी फिर भी खा लिया तो यह हुआ समझदार होकर भी नासमझी का व्यवहार। जगत के सुख में जो फिसल जाता है, वह बुद्धिमान होते हुए भी मूर्ख है।

लेकिन जिन्होंने सुख-दुःख, मान-अपमान और प्रिय-अप्रिय में चित्त की समता को प्राप्त कर लिया है, जो सुख-दुःख को स्वप्नवत् समझते हैं ऐसे ज्ञानी महापुरुष ही ‘स्वस्थ’ हैं।

संसार में सुख-दुःख का सिलसिला तो चलता ही रहता है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ सुख होता है वहाँ दुःख भी अवश्य होता है और जहाँ दुःख होता है वहाँ सुख भी आता ही है। सुख-दुःख तो आते जाते रहते हैं लेकिन हम उनसे मिल जाते हैं इसीलिए सुखी-दुःखी होते रहते हैं। उनसे अलग होकर हम अपने-आपको जान लें तो बेड़ा पार हो जाये… उनके साक्षी होकर हम अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जायें तो कल्याण हो जाये।

संत नामदेव जी महाराज एक ऐसे ही महापुरुष थे जो अपने आत्मस्वरूप में स्थित थे। उनके जीवन में कितनी ही अनुकूलता-प्रतिकूलताएँ आयीं लेकिन वे न तो अनुकूलता में आसक्त होते थे और न ही प्रतिकूलता से भयभीत होते थे।

एक बार उनके घर उनकी पत्नी के दो भाई अतिथि होकर आये। पत्नी ने कहाः

“आप तो पूरा दिन ‘विट्ठल…विट्ठल….’ करते रहते हैं। मेरे भाई आये हैं। उनके भोजन की क्या व्यवस्था करेंगे ? उनको क्या खिलायेंगे ?”

नामदेवजीः “तू भोजन की चिंता क्यों करती है ? अभी दोपहर को आये हैं। शाम तक के भोजन की व्यवस्था तो है। कल एकादशी को उपवास है। ठाकुरजी का जो प्रसाद होगा, वही उन को देंगे और हम भी उसे ग्रहण करेंगे। परसों की दोपहर आने में 48 घंटों की देर है, उसकी अभी से चिंता क्यों करती है ? अभी तो ‘विट्ठल…. विट्ठल…’ करो।”

वह तो संसार में सत्यबुद्धि रखने वाली थी अतः चिंता करती रही किन्तु नामदेव जी चले भगवान विट्ठल के मंदिर में। ‘विट्ठल….. विट्ठल….’ का कीर्तन करते-करते वे तो विट्ठल के ध्यान तल्लीन हो गये, उनके साथ एकाकार हो गये और भूल ही गये कि कीर्तन कर रहे हैं.. उनका देहाध्यास छूट गया।

अब विट्ठल को चिंता हो गयी नामदेव के व्यवाहरिक सम्बन्धों की। वे उनके घर एक सेठ के वेश में गये एवं उनकी पत्नी से उन्होंने पूछाः

“नामदेव कहाँ हैं?”

पत्नीः “विट्ठल के मंदिर में गये हैं।”

सेठः “उनको ये थैली देना और कहना कि जितने सोने के सिक्के उपयोग में लेने हों, उतने ले लें। पाँच-छः महीने बाद आऊँगा। थोड़े बहुत सिक्के बचे होंगे तो ले जाऊँगा, नहीं तो कोई बात नहीं। ….और नामदेव को मेरा प्रणाम कहना।”

उनकी पत्नी को अत्यन्त आश्चर्य हुआ ! उसने पूछाः “आपका नाम क्या है ?”

सेठः “तुमको जो नाम रखना हो वह रख सकती हो।”

पत्नीः “मैं मेरे पतिदेव से क्या कहूँगी कि यह थैली कौन लाया है ?”

सेठः “नामदेवजी से कह देना कि केशवसेठी नाम के सेठ आये थे, वे यह थैली दे गये हैं।”

संध्या हुई। नामदेव जी महाराज ध्यान से उठे एवं घर आये। केशवसेठी जो कह गये थे वे सारी बातें पत्नी ने उनको बताईं।

सुख-दुःख में स्वस्थ रहने वाले नामदेवजी को पहचानने में देर न लगी कि केशवसेठी के रूप में स्वयं विट्ठल ही यह थैली दे गये हैं। वे बोलेः “उपयोग में लाने को ही कह गये हैं न ? प्रभात होने दे।”

प्रभात हुई। नामदेव जी साधु-संतों को आमंत्रित करके भण्डारा कर दिया। सोने की कुछ मुहरें बाकी थी किन्तु वे भी उन्होंने बाँट दीं। एक शाम को सोने की मुहरों से भरी थैली आयी एवं दूसरी शाम होने से पहले ही वह खाली हो गयी।

नामदेव जी की पत्नी को हुआ किः ‘इतनी गरीबी में सोने के सिक्के मिले फिर भी उन्हें बचाकर रखे नहीं। अच्छा हुआ कि उनमें से दो कटोरी मुहरें निकालकर मैंने अलग रख दिये हैं, नहीं तो वे भी बँट जाते।

नामदेव जी को इस बात का पता नहीं था लेकिन वे जिसका ध्यान करते थे उस सर्वेश्वर को तो सब पता था। उसने जिस थैली में सोने की मुहरें छिपाकर रखी थी वह उसे देखने गयी। थैली खोलकर देखी तो कोयले ! उसे आश्चर्य हुआ कि थैली की गाँठ लगाकर रखी थी फिर कोयले कैसे हुए ?

वह लज्जा से भर उठी। आखिर उससे रहा न गया। उसने अपने पतिदेव को सारी बातें बता दीं-

“आपके लिए केशवसेठी जो स्वर्ण मुहरें दे गये थे उनमें से दो कटोरी मुहरें मैंने छुपाकर रख दी थीं क्योंकि आप तो सोने और मिट्टटी को समान जानते हैं। आप सभी मुहरें बाँट दोगे इस डर से उन्हें छुपा रखी थीं लेकिन जब मैंने थैली खोलकर देखी तो उसमें से कोयले निकले !”

नामदेवजीः वे मुहरें सोने से कोयले बन सकती हैं तो कोयले से सोना भी बन सकती हैं…  इसमें क्या बड़ी बात है ? उन्हें इधर ले आ । ”

पत्नी ले आयी। नामदेव जी ने जैसे ही हाथ घुमाया वैसे ही कोयले की वे मुहरें तुरन्त पहले जैसी सोने की हो गयीं।

नामदेव जी की पत्नी को बड़ा पश्चाताप हुआ किः ‘जिनके हाथ घुमाते ही कोयला सोना हो गया ऐसे भगवद्स्वरूप पति को मैं दिन रात परेशान करती रहती हूँ।’ उसने क्षमा माँगी।

नामदेवजी सुख-दुःख में स्वस्थ रहे तो प्रकृति भी उनके अनुकूल हो गयी एवं अनुकूलता में भी आसक्त न हुए तो प्रतिकूल पत्नी भी धीरे-धीरे उनकी भक्त होने लगी।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सुंदर कहा हैः

समदुःखसुखःस्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2001, पृष्ठ संख्या 5-8, अंक 99

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सदगुरु महिमा


मैं उन गुरुदेव को नमस्कार करता हूँ जो संसाररूप हाथी के लिए सिंह के समान हैं, जो संसार में तथा एकांत में समदृष्टि से सदा-सर्वदा पूर्ण बने रहने वाले हैं, जिनकी कृपा से साधकों को देह में रहते हुए भी देह दिखाई नहीं पड़ती तथा संसाररूप अन्धड़ देखते-देखते समाप्त हो जाता है, जिनके कृपाकटाक्ष से अलक्ष वस्तु बिना लक्ष्य के लक्षित हो जाती है तथा साक्षीभाव विस्मरण हो जाता है।

उन्होंने बिना प्राणों के ही जीवनदान दिया, बिना मारे ही मृत्यु को मार दिया, मेरी चर्मदृष्टि को लेकर अदृश्य दिखा दिया तथा मेरे सारे शरीर में ही दर्शन करने की क्षमता उत्पन्न कर दी। मेरे देह में रहते हुए मुझे विदेही कर दिया और अन्त में वह विदेहीपन भी समाप्त कर दिया और फिर विदेही होना ना होना दोनों ही समाप्त होकर जो था वही शेष बच गया। भाव के साथ अभाव नष्ट हो गया, निःसन्देहता के साथ सन्देह भी निकल गया, विस्मय विस्मय में ही डूब गया तथा स्वानन्द  भी पागलपन की अवस्था प्राप्त हो गयी। मैं वहाँ प्रेम के कारण ही भक्त बना था लेकिन उस भक्ति में ही मुझे देव की उपस्थिति दिखलाई पड़ी। अतः भज्य, भजक और भजन इनका अन्त मुझे दिखाई पड़ने लगा। नमन में ही नमस्कार किया तथा नमस्कार करने वाला कहाँ गया, यह भी समझ में नहीं आया। जिसे नमस्कार करना चाहिए वह वस्तु भी अदृश्य हो जाने पर मैं स्वतः तद्रूप बन गया। दृश्य और द्रष्टा इन दोनों को समाप्त करके दर्शन भी समाप्त हो गया। अब इधर-उधर केवल देव ही देव व्याप्त हो गये। अतः भक्त भाव को भूल गया और देव भी देव स्वभाव भूलकर देवत्व को छोड़ बैठे। सर्वत्र देवस्वरूप भरा होने के कारण भक्तस्वरूप देव में ही मिल गया तथा देव व भक्त दोनों के बीच में अभेदभाव स्थापित होकर एकमात्र अनन्त स्वरूप ही शेष बच गया।

त्याग के सहित अत्याग लय हो गया, भोग के साथ अभोग उड़ गया, योग के साथ अयोग डूब गया तथा योग्यता का अहंभाव भी समाप्त हो गया। ऐसा होते हुए भी एक विशेष बात यह है कि सायुज्य स्थिति में जो दासभाव बनाए रखता है उसका आनन्द-रस अतर्क्य और अविनाशी होता है। शिवो भूत्वा शिवं यजेत्…. इसी अवस्था का द्योतक है। इस अवस्था को प्राप्त हुए बिना केवल बोलना ही रहता है। ऐसे बोलने से स्वरूप का भजन प्राप्त होने वाला नहीं है। इस अभेदभाव के सुख में नारद भी आनंद से गाते व नाचते हैं। शुक-सनकादि जो सभी स्वस्वरूप के भक्त हुए हैं वे इसी सुख के कारण हुए हैं।

जिस प्रकार सागर में ज्वार आने पर सागर का जल खाड़ियों में भर जाता है, उसी प्रकारर देव ने मुझे निजभक्त बना डाला है। समुद्र व नदी इन दोनों का जल एक ही होता है लेकिन जिस स्थान पर इनका संगम होता है उस स्थान की शोभा कुछ विशेष ही होती है। इसलिए ऐक्यरूप से परमेश्वर के भजन का सुख दुगुना हो जाता है। शरीर के दायें और बायें अंग अलग-अलग कहे जाते हैं, पर इन दोनों से बोध एक ही शरीर का होता है, उसी प्रकार देव और भक्त में ऐसा भेद दिखाई पड़ने पर भी देवपन में दोनों को ऐक्य ही स्पष्ट अनुभव में आता है। मेरे गुरुदेव जनार्दन स्वामी ने मुझे अपनेपन का मान देकर अद्वैतभक्त बना डाला तथापि काया, वाचा और मन से सर्व प्रकार से प्रेरणा करके वे ही मुझसे सब व्यवहार करवाते हैं। वे ही जनार्दन मेरे मुख के मुख बन गये हैं। मेरी दृष्टि के सम्मुख मूर्तिमन्त होकर वे ही खड़े रहते हैं। उनका कौतुक बड़ा विलक्षण है।

श्री एकनाथ जी महाराज सदगुरुकृपा से कृतकृत्य हुए। अपने हृदय की कृतकृत्यता का वर्णन गुरु-स्तुति के रूप में करते हुए वे कहते हैं-

“हे चित्स्वरूप सदगुरुराज ! आपको नमस्कार है…. ‘ऐसा कहकर जैसे ही मैंने सदभाव से आपके श्रीचरणों में नमस्कार किया वैसे ही आपने ‘तू’ पन निकालकर मेरा ‘मैं’ पन नष्ट कर दिया। आपके श्रीचरणों की कठोरता कितनी अपूर्व है कि जीव का जो लिंगदेह वज्र से भी नहीं टूट सकता, उसी को आपने अपने चरणस्पर्श मात्र से विदीर्ण कर डाला। बलि ने आपके केवल श्रीचरणों का स्पर्श किया था, उसको भी आपने पाताल में पहुँचा दिया। महाबली लवणासुर को भी अपने श्रीचरणों से नष्ट कर दिया। आपके श्रीचरण वास्तव में अत्यन्त तीखे हैं। आपके श्रीचरणों का स्पर्श कालियनाग को होते ही उसके सारे विष का शोषण हो गया और वह पूर्ण रूप से निर्दोष बन गया। आपके कठिन श्रीचरणों का स्पर्श शकटासुर को मिलते ही  उसके सारे पाप-बन्ध टूट गये और उसका जन्म मरण ही छूट गया। बड़े-बड़े बलवान भी आपके श्रीचरणों की धाक मानते हैं। शिला बनकर पड़ी हुई अहिल्या का उद्धार आपने अपने श्रीचरणों से ही किया। दानशूर नृग राजा गिरगिट बनकर पड़े हुए थे। कृष्णावतार में आपके श्रीचरणों का दर्शन होते ही वे नृगराज भी मिथ्या संसार के जन्म-मरण से छूट गये। जो दास प्रेम से आपके श्रीचरणों का चिन्तन करते हैं, उनका मनुष्य धर्म ही समाप्त हो जाता है। यमलोक उजाड़ हो जाता है तथा उन्हीं श्रीचरणों से जीव का जीवपन समाप्त हो जाता है। आपके श्रीचरणों का तीर्थ शंकरजी ने अपने मस्तक पर धारण किया तो वे जगत के प्राणहरण करने वाले बन गये तथा उसकी राख को बड़े भक्तिभाव से अपने अंगों में लगाकर नग्न हो शमशान में विचरण करने लगे। आपके श्रीचरणों की करनी ही ऐसी है। वह जब शिव का शिवपना ही नहीं रहने देती तो जीव का जीवपना रह ही कैसे सकता है  ?

(श्री एकनाथी भागवत के 11वे स्कन्ध से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्चच 2001, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 99

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परम मंगल किसमें है ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु….हमारा संकल्प शिव संकल्प हो अर्थात् मंगलकारी संकल्प हो।

मंगलकारी संकल्प क्या है ? परम मंगलकारी परमात्मा को पाना। मनुष्य को विचार करना चाहिए किः ʹमेरे ऐसे दिन कब आयेंगे जब मैं संसार को मिथ्या समझकर अपने शाश्वत् तत्त्व आत्मा में आराम पाऊँगा… हर्ष और शोक से पार रहूँगा ?ʹ

मुस्कराकर गम का जहर, जिनको पीना आ गया।

ये हकीकत है कि जहाँ में, उनको जीना आ गया।।

आप सदैव प्रसन्न रहो। आपके हृदय में अनंत अनंत ब्रह्माण्डों का नायक परमात्मा मौजूद है और आप जरा जरा सी बात में परेशान हो रहे हो ? जगन्नियन्ता आपके साथ है और आप चुल्लु भर पानी के लिए चिल्ला रहे हो ? आपके भीतर अमृत का दरिया लहरा रहा है और आप नाली के पानी के लिए मनौतियाँ मान रहे हो ?

उठो….जागो अपनी महिमा में। कोई जीता है दुनिया के लिए तो कोई भोगों के लिए, कोई आता है आने के लिए तो कोई जाता है जाने के लिए… लेकिन भगवान का प्यारा आता भी भगवान के लिए है और जाता भी भगवान के लिए है, हँसता भी भगवान के लिए है और रोता भी भगवान के लिए है, खाता भी भगवान के लिए है और पीता भी भगवान के लिए है। जिसका लक्ष्य परमात्म-प्राप्ति हो, उसकी हर चेष्टा प्रभु के लिए हो जाती है।

संत कँवरराम जी कहते हैं-

तू ही थम्भो तू ही थूणी। तू ही छपर तू ही छाँव।।

ʹहे प्रभु ! तू ही मेरे जीवन का खंभा है, तू ही छप्पर है और तू ही मेरे जीवन की छाया है। तू मेरे जीवन का सर्वस्व है।ʹ

आज से आप भी अपने आत्मदेव को जीवन का सर्वस्व समझकर, संसार-स्वप्न से जागकर अपना तो कल्याण करें, अपने कुल का भी उद्धार कर लें।

जिनको आत्मदृष्टि नहीं मिली है उऩके लिए आकारवाले देव की भावना की गयी है और हम जैसी भावना करते हैं वैसा ही फल भी मिलता है। आत्मज्ञान भावना का फल नहीं है, वह तो बहुत ऊँची अवस्था है। जिन्होंने उस अवस्था का अनुभव किया है, उनके नाम से मानी हुई मनौतियाँ प्रकृति पूरी करती है। उनके नाम से भक्त कुछ करते हैं तो वह फलीभूत हो जाता है। उनका नाम लेने से मन पवित्र होने लगता है।

आत्मज्ञान ऐसा पवित्र में पवित्र है, उत्तम में उत्तम है, पाने में सुगम है, धर्मयुक्त है एवं प्रत्यक्ष फल देने वाला है। शांति प्रत्यक्ष है, आनंद प्रत्यक्ष है, माधुर्य प्रत्यक्ष है। ऐसे आत्मज्ञान को प्राप्त ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की कृपा से ही परम मंगल होता है।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्यं परं मंगलम्।

जप-तप, व्रत-अनुष्ठान एवं देवताओं के वरदान से मंगल हो सकता है लेकिन परम मंगल तो ब्रह्मवेत्ता सदगुरु की कृपा पचाने से ही संभव है।

ब्रह्म ज्ञान का मार्ग बड़ा न्यारा है। आपका चित्त अपरिपक्व है तो उसमें राग-द्वेष आदि की खटाई पड़ी रहती है लेकिन गुरुकृपा से जब वह परिपक्व होता है तो उसमें मधुरता आती है। जब तक चित्त की परिपक्व अवस्था नहीं आये, तब तक आदर से साधन करना चाहिए। गुरु का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। आत्मज्ञान के बाद भी शिष्य को गुरुदेव की शरण नहीं छोड़नी चाहिए।

श्रीगुरुगीता में आया हैः

यावत्कल्पान्तको देहस्तावद्देवि गुरु स्मरेत्।

गुरलोपो न कर्त्तव्यः स्वच्छन्दो यदि वा भवेत्।।

ʹहे देवी ! देह कल्प के अन्त तक रहे तब तक श्री गुरुदेव का स्मरण करना चाहिए और आत्मज्ञानी होने के बाद भी (स्वच्छन्द अर्थात् स्वरूप का छन्द मिलने पर भी) शिष्य को ब्रह्मज्ञानी गुरुदेव की शरण नहीं छोड़नी चाहिए।ʹ

बुद्धिमान्, पवित्रात्मा वही है जो आत्मज्ञान के लिए यत्न करता है। आत्मा परमात्मा हमसे दूर नहीं है, उसकी प्राप्ति कठिन नहीं है। उसके लिए कहीं जाना नहीं है और कुछ पाना भी नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है, केवल उस आनंदस्वरूप का अनुभव करना है। वह सत् चित् आनन्द स्वरूप है। सत्स्वरूप है कि देहादि में परिवर्तन होता है और वे नष्ट भी होते हैं लेकिन उस परमात्मा का अस्तित्त्व सदा रहता है। चित्स्वरूप है कि अंतःकरण में उस चेतन की अनुभूति होती है। जो सत् है, वह चेतन है और जो चेतन है वह ज्ञान स्वरूप है। बिना ज्ञान के चेतन जड़ हो जायेगा और बिना चेतन के ज्ञान शून्य हो जायेगा। अतः जो चेतन है वही ज्ञान है, चेतन के बिना ज्ञान नहीं होता। आत्मा आनन्दस्वरूप है इसीलिए थोड़ी-थोड़ी सुख की झलकें आती हैं। उस सच्चिदानंद आत्मस्वरूप में जाग जाओ तो बस, हो गया काम पूरा।

मेहनत तो आप लो भी करते हैं और ज्ञानी भी करते हैं लेकिन ज्ञानी की मेहनत ठीक निशाने पर है इसलिए उनको शाश्वत फल मिलता है। आपकी मेहनत ठीक निशाने पर नहीं है इसलिए वह मजदूरी हो जाती है और आपको उसका नश्वर फल मिलता है। एक गाड़ी की जगह दो गाड़ी आ गयी…. एक करोड़ की जगह दो करोड़ हो गये… एक की जगह दो बेटे हो गये… आखिर क्या  ? जब तक परमात्मा का ज्ञान नहीं हुआ, तब तक सब कुछ मिल जाये फिर भी क्या फायदा ?

जेकर मिले त राम मिले, ब्यो सब मिल्यो त छा थ्यो?

दुनिया में दिल जो मतलब, पूरी थियो त छा थ्यो ?

ʹअगर मिले तो उस आत्माराम का सुख मिले, आत्मदेव का ज्ञान मिले, आत्मदेव की स्मृति आ जाये। दूसरा भी जो मिलेगा वह कब तक टिकेगा ?ʹ

दुःख आये तो उसको देखे, उससे दुःखी न हों और सुख आये तो उसको देखे, उससे दुःखी न हों और सुख आये तो उसको देखे, उसमें फँसे नहीं तो समझो आत्मदेव की स्मृति है। ऐसे ही मान मिले और उसका अहंकार न हो तथा अपमान मिले और उसका विषाद न हो तो समझो आत्मदेव की स्मृति है।

आत्मज्ञान अपना आपा है अतः उसकी स्मृति तो आसान है। रोज उसकी स्मृति आती है। सुबह उठते हैं तो सबसे पहले मन में यही भाव उठता है किः ʹमैं हूँ।ʹ ʹमैं फलाना हूँ… मैं बी.ए. हूँ….ʹ यह सब बाद में आता है। ʹमैं हूँʹ वही तो आत्मा है, परमात्मा है। ʹभगवान है कि नहीं?ʹ इसमें संशय हो सकता है… ʹस्वर्ग है कि नहीं?ʹ इसमें संशय हो सकता है लेकिन ʹमैं हूँ कि नहीं?ʹ इसमें कोई संशय नहीं है।

जगत की वस्तुओं का ज्ञान पाना कठिन है क्योंकि हम उन्हें भूल भी जाते हैं लेकिन अपने-आपको कहाँ भूलते हैं ? गहरी नींद में कुछ नहीं रहता। फिर भी जब उठते हैं तब बोलते हैं कि बड़ी गहरी नींद आयी।ʹ लेकिन गहरी नींद को देखने वाला, उसका आनंद लेने वाला तो था। आनंद की झलक उसी आत्मा से मिलती है। मन बदल जाता है तो फिर आनंद की वह झलक नहीं मिलती लेकिन आत्मा तो ज्यों-का-त्यों रहता है। झलक लेने के बजाय झलक के मूल उस आनन्दस्वरूप को पहचानकर उसमें टिक जायें तो आपका तो कल्याण हो ही जायेगा, जो आपके दर्शन करेगा उसका भी मंगल हो जायेगा।

परमात्मा का वह नित्य नवीन आनंद, रस एवं माधुर्य घट-घट में है। ऐसा परमात्मा जो सत् , चित् एवं आनंदस्वरूप है, वही हमारी आत्मा होकर बैठा है और आज तक हमने उसे जानने का प्रयास नहीं किया तो हम बुद्धिमान होते हुए भी बुद्धू हैं।

भाषा, कला आदि का ज्ञान अंत में व्यर्थ हो जाता है लेकिन परमात्मा का ज्ञान एक बार भी हो जाये तो फिर सदा-सदा के लिए सब दुःखों से मुक्ति दिला देता है।

श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थेः “पहले सत्स्वरूप ईश्वर को जान लो फिर दुनिया का ज्ञान जानना। पहले सत्स्वरूप ईश्वर को पा लो फिर दुनिया का जो पाना है, पा लेना।”

फिर जानना क्या और पाना क्या ? प्रकृति तो आपकी दासी होकर रहेगी। सब वस्तुएँ आपके चरणों में न्यौछावर हो जायेंगी…. परम मांगल्य के द्वार खुल जायेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2001, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 99

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