सदगुरु महिमा

सदगुरु महिमा


मैं उन गुरुदेव को नमस्कार करता हूँ जो संसाररूप हाथी के लिए सिंह के समान हैं, जो संसार में तथा एकांत में समदृष्टि से सदा-सर्वदा पूर्ण बने रहने वाले हैं, जिनकी कृपा से साधकों को देह में रहते हुए भी देह दिखाई नहीं पड़ती तथा संसाररूप अन्धड़ देखते-देखते समाप्त हो जाता है, जिनके कृपाकटाक्ष से अलक्ष वस्तु बिना लक्ष्य के लक्षित हो जाती है तथा साक्षीभाव विस्मरण हो जाता है।

उन्होंने बिना प्राणों के ही जीवनदान दिया, बिना मारे ही मृत्यु को मार दिया, मेरी चर्मदृष्टि को लेकर अदृश्य दिखा दिया तथा मेरे सारे शरीर में ही दर्शन करने की क्षमता उत्पन्न कर दी। मेरे देह में रहते हुए मुझे विदेही कर दिया और अन्त में वह विदेहीपन भी समाप्त कर दिया और फिर विदेही होना ना होना दोनों ही समाप्त होकर जो था वही शेष बच गया। भाव के साथ अभाव नष्ट हो गया, निःसन्देहता के साथ सन्देह भी निकल गया, विस्मय विस्मय में ही डूब गया तथा स्वानन्द  भी पागलपन की अवस्था प्राप्त हो गयी। मैं वहाँ प्रेम के कारण ही भक्त बना था लेकिन उस भक्ति में ही मुझे देव की उपस्थिति दिखलाई पड़ी। अतः भज्य, भजक और भजन इनका अन्त मुझे दिखाई पड़ने लगा। नमन में ही नमस्कार किया तथा नमस्कार करने वाला कहाँ गया, यह भी समझ में नहीं आया। जिसे नमस्कार करना चाहिए वह वस्तु भी अदृश्य हो जाने पर मैं स्वतः तद्रूप बन गया। दृश्य और द्रष्टा इन दोनों को समाप्त करके दर्शन भी समाप्त हो गया। अब इधर-उधर केवल देव ही देव व्याप्त हो गये। अतः भक्त भाव को भूल गया और देव भी देव स्वभाव भूलकर देवत्व को छोड़ बैठे। सर्वत्र देवस्वरूप भरा होने के कारण भक्तस्वरूप देव में ही मिल गया तथा देव व भक्त दोनों के बीच में अभेदभाव स्थापित होकर एकमात्र अनन्त स्वरूप ही शेष बच गया।

त्याग के सहित अत्याग लय हो गया, भोग के साथ अभोग उड़ गया, योग के साथ अयोग डूब गया तथा योग्यता का अहंभाव भी समाप्त हो गया। ऐसा होते हुए भी एक विशेष बात यह है कि सायुज्य स्थिति में जो दासभाव बनाए रखता है उसका आनन्द-रस अतर्क्य और अविनाशी होता है। शिवो भूत्वा शिवं यजेत्…. इसी अवस्था का द्योतक है। इस अवस्था को प्राप्त हुए बिना केवल बोलना ही रहता है। ऐसे बोलने से स्वरूप का भजन प्राप्त होने वाला नहीं है। इस अभेदभाव के सुख में नारद भी आनंद से गाते व नाचते हैं। शुक-सनकादि जो सभी स्वस्वरूप के भक्त हुए हैं वे इसी सुख के कारण हुए हैं।

जिस प्रकार सागर में ज्वार आने पर सागर का जल खाड़ियों में भर जाता है, उसी प्रकारर देव ने मुझे निजभक्त बना डाला है। समुद्र व नदी इन दोनों का जल एक ही होता है लेकिन जिस स्थान पर इनका संगम होता है उस स्थान की शोभा कुछ विशेष ही होती है। इसलिए ऐक्यरूप से परमेश्वर के भजन का सुख दुगुना हो जाता है। शरीर के दायें और बायें अंग अलग-अलग कहे जाते हैं, पर इन दोनों से बोध एक ही शरीर का होता है, उसी प्रकार देव और भक्त में ऐसा भेद दिखाई पड़ने पर भी देवपन में दोनों को ऐक्य ही स्पष्ट अनुभव में आता है। मेरे गुरुदेव जनार्दन स्वामी ने मुझे अपनेपन का मान देकर अद्वैतभक्त बना डाला तथापि काया, वाचा और मन से सर्व प्रकार से प्रेरणा करके वे ही मुझसे सब व्यवहार करवाते हैं। वे ही जनार्दन मेरे मुख के मुख बन गये हैं। मेरी दृष्टि के सम्मुख मूर्तिमन्त होकर वे ही खड़े रहते हैं। उनका कौतुक बड़ा विलक्षण है।

श्री एकनाथ जी महाराज सदगुरुकृपा से कृतकृत्य हुए। अपने हृदय की कृतकृत्यता का वर्णन गुरु-स्तुति के रूप में करते हुए वे कहते हैं-

“हे चित्स्वरूप सदगुरुराज ! आपको नमस्कार है…. ‘ऐसा कहकर जैसे ही मैंने सदभाव से आपके श्रीचरणों में नमस्कार किया वैसे ही आपने ‘तू’ पन निकालकर मेरा ‘मैं’ पन नष्ट कर दिया। आपके श्रीचरणों की कठोरता कितनी अपूर्व है कि जीव का जो लिंगदेह वज्र से भी नहीं टूट सकता, उसी को आपने अपने चरणस्पर्श मात्र से विदीर्ण कर डाला। बलि ने आपके केवल श्रीचरणों का स्पर्श किया था, उसको भी आपने पाताल में पहुँचा दिया। महाबली लवणासुर को भी अपने श्रीचरणों से नष्ट कर दिया। आपके श्रीचरण वास्तव में अत्यन्त तीखे हैं। आपके श्रीचरणों का स्पर्श कालियनाग को होते ही उसके सारे विष का शोषण हो गया और वह पूर्ण रूप से निर्दोष बन गया। आपके कठिन श्रीचरणों का स्पर्श शकटासुर को मिलते ही  उसके सारे पाप-बन्ध टूट गये और उसका जन्म मरण ही छूट गया। बड़े-बड़े बलवान भी आपके श्रीचरणों की धाक मानते हैं। शिला बनकर पड़ी हुई अहिल्या का उद्धार आपने अपने श्रीचरणों से ही किया। दानशूर नृग राजा गिरगिट बनकर पड़े हुए थे। कृष्णावतार में आपके श्रीचरणों का दर्शन होते ही वे नृगराज भी मिथ्या संसार के जन्म-मरण से छूट गये। जो दास प्रेम से आपके श्रीचरणों का चिन्तन करते हैं, उनका मनुष्य धर्म ही समाप्त हो जाता है। यमलोक उजाड़ हो जाता है तथा उन्हीं श्रीचरणों से जीव का जीवपन समाप्त हो जाता है। आपके श्रीचरणों का तीर्थ शंकरजी ने अपने मस्तक पर धारण किया तो वे जगत के प्राणहरण करने वाले बन गये तथा उसकी राख को बड़े भक्तिभाव से अपने अंगों में लगाकर नग्न हो शमशान में विचरण करने लगे। आपके श्रीचरणों की करनी ही ऐसी है। वह जब शिव का शिवपना ही नहीं रहने देती तो जीव का जीवपना रह ही कैसे सकता है  ?

(श्री एकनाथी भागवत के 11वे स्कन्ध से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्चच 2001, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 99

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