(संत तुलसीदास जी जयंतीः 13 अगस्त)
संत तुलसीदास जी काशी में प्रवचन करते थे। दूर-दूर तक उनकी ख्याती फैल चुकी थी। कहते हैं जहाँ गुलाब वहाँ काँटे, जहाँ चन्दन वहाँ विषैले सर्प, ऐसे ही जहाँ सर्वसुहृद लोकसंत वहाँ निंदक-कुप्रचारकों का होना स्वाभाविक है। उसमें भी विधर्मियों की साजिश के तहत हमारे ही संतों के खिलाफ, संस्कृति व परम्पराओं के खिलाफ हमारे ही लोगों को भड़काने का कार्य अनेक सदियों से चलता आया है। काशी में तुलसीदासजी की बढ़ती ख्याति देखकर साजिशों की श्रृंखला को बढ़ाते हुए काशी के कुछ पंडितों को तुलसीदासजी के खिलाफ भड़काया गया। वहाँ कुप्रचारकों का एक टोला बन गया, जो नये-नये वाद-विवाद खड़े करके गोस्वामी जी को नीचा दिखाने में लगा रहता था। परंतु जैसे-जैसे कुप्रचार बढ़ता, अनजान लोग भी सच्चाई जानने के लिए सत्संग में आते और भक्ति के रस से पावन होकर जाते, जिससे संत का यश और बढ़ता जाता था।
अपनी सारी साजिशें विफल होती देख विधर्मियों ने कुप्रचारक पंडितों के उस टोले को ऐसा भड़काया कि उऩ दुर्बुद्धियों ने गोस्वामी जी को काशी छोड़कर चले जाने के लिए विवश किया। प्रत्येक परिस्थिति में राम-तत्त्व का दर्शन व हरि-इच्छा की समीक्षा करने वाले तुलसीदास जी काशी छोड़कर चल दिये। जाते समय उन्होंने एक पत्र लिख के शिवमंदिर के अंदर रख दिया। उस पत्र में लिखा था कि ʹहे गौरीनाथ ! मैं आपके नगर में रहकर रामनाम जपता था और भिक्षा माँगकर खाता था। मेरा किसी से वैर-विरोध, राग-द्वेष नहीं है परंतु इस चल रहे वाद-विरोध में न पड़कर मैं आपकी नगरी से जा रहा हूँ।ʹ
भगवान भोलेनाथ संत पर अत्याचार कैसे सह सकते थे ! संत के जाते ही शिवमंदिर के द्वार अपने-आप बन्द हो गये। पंडितों ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया पर द्वार न खुले। कुछ निंदकों के कारण पूरे समाज में बेचैनी-अशांति फैल गयी, सबके लिए संत-दर्शन व शिव-दर्शन दोनों दुर्लभ हो गये। आखिर लोगों ने भगवान शंकर से करुण प्रार्थना की। भोलेनाथ ने शिवमंदिर के प्रधान पुजारी को सपने में आदेश दियाः “पुजारी ! स्वरूपनिष्ठ संत मेरे ही प्रकट रूप होते हैं। तुलसीदास जी का अपमान कर निंदकों ने मेरा ही अपमान किया है। इसीलिए मंदिर के द्वार बंद हुए हैं। अगर मेरी प्रसन्नता चाहते हो तो उन्हें प्रसन्न कर काशी में वापस ले आओ वरना मंदिर के द्वार कभी नहीं खुलेंगे।”
भगवान अपना अपमान तो सह लेते हैं परंतु संत का अपमान नहीं सह पाते। निंदक सुधर जायें तो ठीक वरना उऩ्हें प्रकृति के कोप का भाजन अवश्य बनना पड़ता है।
अगले दिन प्रधान पुजारी ने सपने की बात पंडितों को कह सुनायी। समझदार पंडितों ने मिलकर संत की निंदा करने वाले दुर्बुद्धियों को खूब लताड़ा और उन्हें साथ ले जाकर संत तुलसीदासजी से माफी मँगवायी। सभी ने मिलकर गोस्वामी जी को काशी वापस लौटने की करूण प्रार्थना की। संत श्री के मन में तो पहले से ही कोई वैर न था, वे तो समता के ऊँचे सिंहासन पर आसीन थे। करूणहृदय तुलसीदासजी उन्हें क्षमा कर काशी वापस आ गये। शिवमंदिर के द्वार अपने-आप खुल गये। संत दर्शन और भगवद्-दर्शन से सर्वत्र पुनः आनंद-उल्लास छा गया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 15, अंक 247
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