Monthly Archives: May 2012

उन्नति के सूत्र


(पूज्य बापू जी की परम हितकारी वाणी)

संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को किस तरह पाया जा सकता है – यह ज्ञान यदि पाना हो तो इसके लिए ʹश्रीमदभगवदगीताʹ है। मृत्यु को किस तरह सुधारा जा सकता है – यह ज्ञान यदि पाना हो तो ʹश्रीमदभागवतʹ है।

साधक को अपनी दिनचर्या का विश्लेषण करना चाहिए। महीने भर अथवा साल भर की योजना न बनायें वरन् रोज सुबह योजना बनायें कि ʹआज चाहे कुछ भी हो जाय, बेहोशी में नहीं जिऊँगा, होश में ही जिऊँगा, सजग रहूँगा। जो कुछ भी करूँगा, खाऊँगा, पिऊँगा, लूँगा-दूँगा, उसका परिणाम क्या होगा – इसका पहले विचार करूँगा। मेरी सारी क्रियाएँ, सारी चेष्टाएँ ईश्वर की ओर ले जाने वाली हैं या ईश्वर से विमुख करने वाली है ? ऐसा पहले चिंतन करूँगा।ʹ इस प्रकार विचार करके कर्म करते रहने से साधक को ईश्वराभिमुख होने में सहायता मिलती है।

यदि अपने चिंतन का, अपनी बुद्धि का सदुपयोग करने की कला आ जाये तो मनुष्य संसार में खूब आनंद से, खूब शांति से एवं खूब प्रेम से जी सकता है। स्वर्ग के सुख से भी वह कई गुना ज्यादा सुख पा सकता है। मृत्यु के पहले और बाद भी वह मुक्ति का अनुभव कर सकता है।

ʹभगवदगीताʹ के सोलहवें अध्याय का उद्देश्य ही यह है कि मनुष्य अपने आत्मदेव के ज्ञान को पाकर मुक्त हो जाय। आसुरी वृत्तियों से किस प्रकार बचा जाय, सांसारिक बंधनों से किस प्रकार छूटा जाय और मुक्ति सरलता से मुट्ठी में कैसे आये ? इसके लिए ʹगीताʹ का सोलहवाँ अध्याय दैवी सम्पत्ति में निर्भयता, मौन, तप, आहार-संयम आदि गुण हैं।

जीवन में उन्नति के चार सूत्र हैं। पहली बात है कि निर्भय रहो। शादी-विवाह में इतना खर्च नहीं करूँगा तो बेईज्जती होगी… उधार लेकर भी फर्नीचर नहीं खरीदूँगा तो लोग क्या कहेंगे….ʹ इस प्रकार के कई भय मनुष्य को सताते रहते हैं। जिस काम से तुम्हार चित्त भयभीत होता हो एवं दूसरों की खुशामद करने में लगता हो, उसे छोड़ दो। तुम तो केवल अपने अंतर्यामी परमात्मा को राजी करने का प्रयत्न करो। पफ-पाउडर, लाली-लिपस्टिक आदि से शरीर को नहीं सजायेंगे तो लोग क्या कहेंगे इसकी परवाह न करो। जीवन में निर्भयता लाओ। शराबी कहता है कि ʹचलो मित्र ! शराब पियें।ʹ अब यदि तुम शराब नहीं पीते हो तो मित्र नाराज हो जाते हैं और यदि पीते हो तो तुम्हारी बरबादी होती है। फिर क्या करें ? अरे, मित्र नाराज होते हैं तो होने दो परंतु शराब नहीं पीनी है यह निश्चय दृढ़ रखो। जो लोग तुम्हें खराब काम, हलकी संगति और हलकी प्रवृत्तियों की तरफ घसीटते हैं उनसे निर्भय हो जाओ लेकिन माता-पिता, गुरू, शास्त्र एवं भगवान क्या कहेंगे, इस बात का डर रखो। ऐसा डर रखने से चित्त पवित्र होने लगता है क्योंकि ऐसा डर हलके कामों, हलकी प्रवृत्तियों एवं हलकी संगति से बचाने वाला होता है।

हरि डर गुरु डर जगत डर, डर करनी में सार।

रज्जब डरिया सो उबरिया, गाफिल खायी मार।।

जीवन में निर्भयता आनी ही चाहिए। झूठे आडम्बरों से बचने के लिए भी निर्भय बनो। आप मेहमानों को भिन्न-भिन्न प्रकार के अच्छे-अच्छे एवं तले हुए व्यंजन न खिला सको तो कोई बात नहीं, चिंता मत करो। परंतु यदि तुम सच्चे दिल से, एक प्रेमभरी नजर से, पानी के एक प्याले से भी मेहमान का आदर-सत्कार कर सको तो वह तुम्हारे यहाँ से उन्नत होकर जायेगा।

तुम लोगों की परवाह मत करो कि ʹऐसा नहीं करेंगे तो लोग क्या कहेंगे….ʹ अरे ! तुम अपनी नाक से श्वास लेते हो कि लोगों की नाक से ? अपने जीवन का आयुष्य खर्चते हो कि लोगों के जीवन का ? हम एक-दूसरे से ऐसे बँध गयें हैं, ऐसे बंध गये हैं कि शराब-कबाब आदि की पार्टियों से भले अपना व दूसरों का सत्यानाश होता हो फिर भी ʹलोग क्या कहेंगे ?ʹ के भूत से ग्रस्त हो जाते हैं एवं अपनी हानि करते रहते हैं। इसीलिए ʹगीताʹ में कहा गया हैः अभयं सत्त्वसंशुद्धिः। निर्भय एवं सत्त्वगुणी बनो। कायर, डरपोक एवं रजो-तमोगुणी मत बनो।

मैं घूमने जाता हूँ तो कभी कुत्ते भौंकने लगते हैं। मेरा तो विनोदी स्वभाव है। कुत्ते भौंकते हैं तब यदि मैं खड़ा रह जाता हूँ तो उनकी पूँछ दबी हुई पाता हूँ लेकिन जानबूझकर विनोद में दौड़ने लगता हूँ तो कुत्ते तो मेरा पीछा करते ही हैं, साथ में उनके छोटे-छोटे पिल्ले भी मेरा पीछा करने लग जाते हैं।

दुःख एवं मुसीबतें डरपोक मनुष्य का ही पीछा करती है, जबकि निर्भय व्यक्ति के सामने उनकी पूँछ दब जाती है। अतः दुःख एवं मुसीबतों को बुलाना हो तो भयभीत रहो और उनकी पूँछ दबानी हो तो निर्भय बनो।

भगवान से, गुरु से, माता-पिता से, शास्त्र से भले अनुशासित रहो परंतु जो हलका संग कराके पतन करा दें, उनसे निर्भय रहना चाहिए। उनसे किनारा करके निर्भयतापूर्वक अपने जीवन में अच्छे संस्कारों को पकड़े रहना चाहिए।

दूसरी बात है कि हृदय शुद्ध रहे ऐसा आहार-विहार और चिंतन करो। कहा भी गया है कि “जैसा खाओ अन्न, वैसा बनता मन।” साधक को अपने आहार पर खूब ध्यान देना चाहिए। ʹआहारʹ शब्द केवल भोजन के लिए ही नहीं है वरन् आँखों से, कानों से, नाक से, त्वचा से जो ग्रहण किया जाता है, वह भी आहार के ही अंतर्गत आता है। अतः उसमें सात्त्विकता का ध्यान रखना चाहिए।

तीसरी बात है तप। हमारे जीवन में तपस्या भी होनी चाहिए। सुबह भले ठंड लगे फिर भी सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान कर लो। देखो, इससे हृदय में कितनी प्रसन्नता और सत्त्वगुण बढ़ता है। फिर थोड़ा ध्यान करो। यह तप हो जाता है। सत्संग अथवा सत्कर्म के समय थोड़ा तन-मन-धन तो अवश्य खर्च होता है किंतु वह तुम्हारी तपस्या बन जाती है।

चौथी बात है मौन। प्रतिदिन 2-4 घंटे का मौन रखो। इससे तुम्हारी आंतरिक शक्ति बढ़ेगी, तुम्हारी वाणी में आकर्षण आयेगा। जो पतंगे की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं एवं व्यर्थ की बक-बक करते रहते हैं उनके चित्त में न शांति होती है, न क्षमा, न विचारशक्ति होती है और न ही अनुमान शक्ति। वे बिखर जाते हैं। स्त्रियों को तो मानो ज्यादा बोलने का ठेका ही मिला हुआ है। सास-बहू में, अड़ोस-पड़ोस में व्यर्थ की गप्पें मारकर वे स्वयं ही झगड़े पैदा कर लेती हैं। यदि झगड़े न भी होते हों तो फालतू बातें तो होती ही हैं। उन बेचारियों को पता ही नहीं होता कि व्यर्थ की बातें करने से प्राणशक्ति एवं वाक्शक्ति का ह्रास होता है।

अतः साधक को चाहिए कि वह मौन रखे। मौन से बहुत लाभ होता है। यदि एक बार भी तुम लम्बे समय तक मौन रखो तो अंदर का आनंद प्रकट होने लगेगा। विचारशक्ति, अनुमान शक्ति के अलावा धैर्य, क्षमा, शांति आदि सदगुण भी आऩे लगेंगे।

गुजराती में कहावत हैः न बोल्यामां नव गुण। अर्थात् न बोलने में नौ गुण हैं, झगड़े उत्पन्न करते हैं और अपनी आयु क्षीण करते हैं। किसी के साथ बात करो तो कम से कम, स्नेहयुक्त एवं सारगर्भित बात करो। इससे तुम्हारी वाणी का एवं तुम्हारा प्रभाव पड़ेगा।

ब्रह्मज्ञानी महापुरुष एक स्मितभरी नजर डालते हैं और पूरा जनसमुदाय तन्मय हो जाता है। अरे ! मनुष्यों की तो क्या बात, ब्रह्मलोक तक के देवी-देवता भी उनके अऩुकूल हो जाते हैं। हम उनका माहात्म्य नहीं जानते इसीलिए ʹहा… हा…ही….ही….ʹ में अपना जीवन गँवा डालते हैं। हमें पता ही नहीं है कि हमारे भीतर कितना खजाना भरा पड़ा है और हम कितना, किस प्रकार उसे खर्च कर रहे हैं !

ज्ञानवानों का स्मित ऐसा अनोखा होता है जिससे कोई भी सहज में ही उनके प्रति अहोभाव से भर जाता है। श्रीकृष्ण अपनी स्मितभरी नजर डालकर बंसी बजाते थे तो सब ग्वाल-गोपियों के चित्त सहज में ही पवित्र हो जाते थे। उसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की स्मितभरी नजर से लोगों का चित्त पवित्र होने लगता है।

निगाहों से निहाल हो जाते हैं,

जो संतों की निगाहों में आ जाते हैं।

तुम भी अपनी दृष्टि ऐसी ही बनाओ। ऐसा नहीं कि व्यर्थ का इधर-उधर भटकते रहो, व्यर्थ बोलते रहो एवं अपने ज्ञानतंतुओं, अपनी रक्तवाहिनियों, अपने शरीर एवं मन को सताते रहो।

जीवन में निर्भयता, आहारशुद्धि, तप एवं मौन – ये गुण आ जायें तो जीवन काफी उन्नत हो जाय और यह काम तुम कर सकते हो। युद्ध के मैदान में अगर अर्जुन यह काम कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकते ? अर्जुन तो कितनी विपत्तियों के बीच था, फिर भी श्रीकृष्ण ने उसको गीता का उपदेश दिया था। तुम्हारे आगे कितनी झंझटें नहीं हैं भाई ! बस, कमर कस लो इन दैवी गुणों को अपनाने के लिए…. निर्भयता, आहार-संयम, तप एवं मौन को आत्मसात करने के लिए।

ʹहम क्या करें ? हम तो गृहस्थी हैं…. हम तो संसारी हैं….. हम तो नौकरीवाले हैं….ʹ अरे ! तुम्हारे साथ संसार की जितनीत झंझटें हैं, उससे ज्यादा झंझटें पहले के समय में थीं। फिर भी हिम्मतवान, बुद्धिमान पुरुषों ने समय बचाकर विकारों एवं बेवकूफियों पर विजय पा ली एवं अपने आत्म-परमात्मा, अपने रब को पहचान लिया।

प्रह्लाद के जीवन में कितनी मुसीबतें आयीं ! फिर भी वे अडिग रहीं, निर्भय रहीं, हताश-निराश न हुई तो कितनी उन्नत हो गयी !

तुम भी उन्नत हो सकते हो, अपने आपको जान सकते हो। शर्त इतनी ही है कि दैवी गुणों को बढ़ाओ, पुरुषार्थ करो एवं सत्संग अवश्य करो। सत्संग से ही तुम्हें अपने दैवी गुणों को विकसित करने की प्रेरणा मिलेगी, प्रोत्साहन मिलेगा, मार्गदर्शन मिलेगा, उत्साह उभरेगा। निर्भयता, आहारशुद्धि, वाणी का संयम एवं तप – इन दैवी गुणों का विकास तुम्हारे लिए उन्नति का द्वार सहजता से ही खोल देगा। अतः आज से, अभी से दृढ़ता से लगो। लगोगे न ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अंक 233, मई 2012, पृष्ठ संख्या 18, 19, 20

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परम उन्नतिकारक श्रीकृष्ण-उद्धव प्रश्नोत्तरी


(पूज्य बापूजी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

उद्धव जी ने भगवान श्रीकृष्ण से कहाः “हे मधुसूदन ! आपकी ज्ञानमयी वाणी सुनकर जीव के जन्म-जन्म के पाप मिट जाते हैं। आपकी करूणा-कृपा द्वारा जीव अज्ञान-दशा से जागकर आपके ज्ञान से एकाकार होता है। हे परमेश्वर ! मुझे यह बताइये, ʹऋतʹ किसे कहते हैं ?”

श्रीकृष्ण बोलेः “एक तो सत्य बोले। जो समझा, जो जाना, उसके अंदर कुछ कपट न मिलाये, जैसे का तैसा बोले लेकिन वे सत्य वचन किसी को चुभने वाला न हों, प्रिय हों। वाणी तू-तड़ाके की न हो, मधुर हो, इसे ʹऋतʹ बोलते हैं।”

सत्य, प्रिय, मधुर – ये तीनों मिलाकर ʹऋतʹ होता है। सत्य बोलो, मधुर बोलो और हितकारी बोलो। कटु न बोलो, असत्य न बोलो लेकिन माँ और गुरु के लिए यह कानून नहीं लगता। माँ बेटे को बोलती हैः ʹदेख बेटा ! दवा पी ले, अच्छी है, मीठी-मीठी है।ʹ होती कड़वी है लेकिन झूठ बोली माँ- ʹमीठी है।ʹ

ʹऐ महाराज ! ओ पुलिसवाले ! इसको पकड़ के ले जाओ, दवा नहीं पीता। दवा नहीं पियेगा तो तेरी ये आँख निकालकर कौवों को दे दूँगी और यह नाक काटकर कुतिया बेचारी भूखी है उसी को दे दूँगी।ʹ अब कैसा-कैसा बोलती है – कटु, अप्रिय, झूठ लेकिन बच्चे के हित के लिए बोलती है तो उसको पाप नहीं लगता। असत्य न बोलें, कटु न बोलें लेकिन किसी के हित के लिए बोलना पड़ता है तो उसका दोष नहीं लगता।

उद्धव जी कहते हैं- ʹहे गोविन्द ! हे गोपाल ! हे अच्युत ! पवित्रता क्या है ?”

श्रीकृष्ण बोलेः “किसी भी कर्म का अपने आप में आरोप न करना। ʹमैंने पुण्य किया है, मैंने पाप किया है, मैंने बिच्छु मारा है, मैंने साँप मारा है, मैंने प्याऊ लगाया है, मैंने दान दिया है…” – किसी भी प्रकार का अभिमान न करना। किसी भी कर्म का अभिमान अपने में थोपना नहीं – यह अपने चित्त को निर्मल बनाने के लिए ʹपवित्रताʹ कही जाती है।”

उद्धवजी ने कहाः “परमेश्वर ! आपकी मधुमय वाणी सुनने से मेरी शंकाएँ निवृत्त होती हैं और आप सूझबूझ के धनी हैं। हे भगवान ! संन्यास किस को कहते हैं ?”

श्रीकृष्ण कहते हैं- “अनात्म वस्तुओं का त्याग ही संन्यास है। जिसने इच्छाओं, वासनाओं, अनात्म शरीर और वस्तुओं को ʹमैं-मेराʹ मानना छोड़ दिया है वह संन्यासी है।”

गीता (6.9) में भी भगवान ने कहा हैः

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।

स संन्यासी च योगी च न निग्निर्न चाक्रियः।।

किसी कर्म के फल का आश्रय न लेकर दूसरों की भलाई के भाव से कर्म करे। भगवान की प्रीति के भाव से कर्म करने वाला संन्यासी हो जायेगा।

ʹमैं अब साधु हो गया हूँ, अग्नि को नहीं छुऊँगा। अब मैं काम-धंधा नहीं करता हूँ, कोई क्रिया नहीं करूँगा।ʹ – इसको संन्यासी नहीं बोलते हैं। अनात्म शरीर, अनात्म वस्तुओं व अनात्म संसार की आसक्ति को जिसने त्याग दिया है वह संन्यासी है।

उद्धवजी ने कहाः “प्रभु ! आपकी अमृतभरी वाणी सुनकर मेरी तो शंकाएँ निवृत्त हो ही रही हैं, साथ ही जगत के लोगों को भी इस ज्ञान से बहुत लाभ होगा। हे परमेश्वर ! असली धन क्या है ?”

श्रीकृष्ण कहते हैं- “जो इहलोक और परलोक में हमारे साथ चले, हमारी रक्षा करे वह धर्म ही असली धन है।” धर्म ही सच्चा धन है। नकली धन तो नकली शरीर के लिए चाहिए लेकिन असली धन जीवात्म के लिए चाहिए। धन तो असली धन जीवात्मा के लिए चाहिए। धन तो तिजोरी में, बैंक में रहता है। मृत्यु आ गयी तो धन साथ में नहीं चलता।

साथी हैं मित्र हैं, गंगा के जलबिन्दु पान तक।

अर्धांगिनी बढ़ेगी तो केवल मकान तक।

परिवार के सब लोग चलेंगे श्मशान तक।

बेटा भी हक निभा देगा अग्निदान तक।

केवल धर्म ही साथ निभायेगा दोनों जहान तक।।

केवल धर्म ही यहाँ और परलोक तक साथ चलता है। जो साथ नहीं छोड़ता वह धर्म है। किसी को न सताने का व्रत लेना धर्म है। धर्म के दस दिव्य लक्षण हैं। अपने जीवन में कैसी भी परिस्थिति आये तो भी धैर्य न छोड़ें। क्षमा का सदगुण – यह धर्म का दूसरा लक्षण है। इन्द्रियाँ और मन इधर-उधर भागे तो दम मार के उनको सही रास्ते लगाना, यह तीसरा लक्षण है। अस्तेय (चोरी न करना) धर्म का चौथा लक्षण है। भीतर भी पवित्र भाव और बाहर भी पवित्र खानपान, यह धर्म का पाँचवाँ लक्षण है। छठा है इन्द्रियों को संयत करना और सातवाँ लक्षण है कि बुद्धि ज्ञानमय हो, भगवन्मय, सात्त्विक हो। आठवाँ है विद्या, वेदशास्त्रों की विद्या। नौवाँ है सत्य बोलना और दसवाँ है अक्रोध। धर्म के ये दस लक्षण हैं।

उद्धवजी ने पूछाः “प्रभु ! आपकी दृष्टि में यज्ञ किसको बोलते हैं ?”

भगवान ने हँसते हुए कहाः “उद्धव ! सभी यज्ञों में उत्तम, श्रेष्ठ यज्ञ है मेरे साथ प्रीति करना, मेरा ज्ञान पाना, मेरा सत्संग सुनना।”

“गीता” में भगवान ने कहा हैः यज्ञानां जपयज्ञोस्मि। ʹयज्ञों में जपयज्ञ तो मेरा ही स्वरूप है।ʹ सारे यज्ञों से उत्तम यज्ञ यही है कि व्यक्ति को भगवान के नाम की दीक्षा मिल जाय और मंत्र का अर्थ समझकर वह जप करे। जिसने गुरुदीक्षा ली है और जप करता है तो तीर्थ बोलते हैं- “हम किसको पवित्र करें ? जपयज्ञ करने वाला गुरुदीक्षा से सम्पन्न साधक तो हमको ही पवित्र करने वाला है।” मंदिर कहते हैं- ʹय तो चलता फिरता मंदिर है क्योंकि इसके हृदय में भगवान के नाम का जप भी है, भगवान की प्रीति भी है और गुरु का दिया हुआ मंत्र भी है।ʹ मंदिर के देवता भी बोलते हैं कि ʹयह तो स्वयं चलता-फिरता है।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 24,25

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नींबू से स्वास्थ्य-लाभ


नींबू उत्तम पित्तशामक, वातानुलोमक, जठराग्निवर्धक व आमपाचक है। यह अम्लरसयुक्त (खट्टा) होने पर भी पेट में जाने के बाद मधुर हो जाता है। मंदाग्नि, अजीर्ण, उदरवायु, पेट में दर्द, उलटी, कब्ज, हैजा आदि पेट के रोगों में यह औषधवत काम करता है। हृदय, रक्तवाहिनियों व यकृत (लीवर) की शुद्धि करता है। इसमें पर्याप्त मात्रा में स्थित विटामिन ʹसीʹ रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाता है। यह जंतुनाशक भी है। प्रातः खाली पेट नींबू का रस पानी में मिलाकर पीने से आँतों में संचित विषैले पदार्थ नष्ट हो जाते हैं तथा रक्त शुद्ध होने से सम्पूर्ण शरीर की ही सफाई हो जाती है, मांसपेशियों को नया बल मिलता है। इससे शरीर में स्फूर्ति व ताजगी आती है।

औषधीय प्रयोग

दाँतों के रोगः नींबू के रस को ताजे जल में मिलाकर कुल्ले करने से दाँतों के अनेक रोगों में लाभ होता है। मुख की दुर्गंध दूर होती है।

निचोड़े हुए ताजे नींबू के छिलके से दाँतों को रगड़ने से अथवा छिलकों को सुखाकर कूट-पीस के उससे मंजन करने से दाँत मजबूत, साफ व सफेद हो जाते हैं।

नींबू का रस, सरसों का तेल व पिसा नमक मिलाकर रोज मंजन करने से दाँतों के रोग दूर होकर दाँत मजबूत व चमकदार होते हैं।

पायरिया में मसूड़ों पर नींबू का रस मलते रहने से रक्त व मवाद का स्राव रूक जाता है।

पुरानी खाँसीः एक चम्मच नींबू के रस में दो चम्मच शहद मिलाकर लेने से पुरानी खाँसी में लाभ होता है।

जुकामः गुनगने पानी में नींबू का रस व शहद मिलाकर पीने से शीघ्र लाभ होता है।

सिरदर्दः नींबू के दो समान टुकड़े कर उन्हें थोड़ा गर्म करके सिर व कनपटियों पर लगाने से सिरदर्द में आराम मिलता है।

गले की तकलीफें- गले की सूजन, गला बैठ जाना आदि में गर्म पानी में नींबू का रस व नमक मिलाकर गरारे करने चाहिए। जिन्हें खाँसी में पतला कफ निकलता हो उनको यह प्रयोग नहीं करना चाहिए।

उच्च रक्तचापः किसी भी प्रकार से नींबू के रस का प्रयोग करने से रक्तवाहिनियाँ कोमल व लचकदार हो जाती हैं। हृदयाघात (हार्ट-अटैक) होने का भय नहीं रहता व रक्तचाप सामान्य बना रहता है।

नींबू का रस, शहद व अदरक का रस तीनों एक-एक चम्मच गुनगुने पानी में मिलाकर सप्ताह में 2-3 दिन पियें। यह पेट के रोग, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग के लिए एक उत्तम टॉनिक है।

बाल गिरनाः नींबू का रस सिर के बालों की जड़ों में रगड़कर 10 मिनट बाद धोने से बालों का पकना, टूटना या जुएँ पड़ना दूर होता है।

सिर की रूसीः सिर पर नींबू का रस और सरसों का तेल समभाग मिलाकर लगाने व बाद में दही रगड़कर धोने से कुछ ही दिनों में सिर की रूसी दूर हो जाती है।

पेटदर्द, मंदाग्निः एक गिलास पानी में दो चम्मच नींबू का रस, एक चम्मच अदरक का रस व शक्कर डालकर पीने से पेटदर्द में आराम होता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है, भूख खुलकर लगती है।

मोटापा एवं पुराना कब्जः एक गिलास गुनगुने पानी में एक नींबू का रस एवं दो चम्मच शहद डालकर पीने से शरीर की अनावश्यक चर्बी कम होती है एवं पुराना कब्ज मिटता है।

दाद-खाजः नींबू का रस में इमली के बीज पीसकर लगाने से लाभ होता है।

त्वचा-विकारः नींबू के रस में नारियल का तेल मिलाकर शरीर पर उसकी मालिश करने से त्वचा की शुष्कता, खुजली आदि रोगों से लाभ होता है।

अजीर्णः भोजन से पूर्व अदरक, सेंधा नमक व नींबू का रस मिलाकर लें।

पित्त विकारः नींबू के शरबत में अदरक का रस व सेंधा नमक मिलाकर सुबह खाली पेट लें।

स्वास्थ्य-प्रदायक पेयः एक गिलास गुनगुने पानी में एक नींबू का रस व 25 तुलसी के पत्तों का रस मिलाकर सुबह खाली पेट पीने से हृदय की रक्तवाहिनियों का अवरोध () दूर हो जाता है। यह प्रयोग हफ्ते में 2-3 बार नियमित रूप से करें। इससे अतिरिक्त चर्बी की गाँठें () भी पिघल जाती हैं।

मोटे व्यक्तियों व हृदयरोगियों के लिए यह प्रयोग वरदानस्वरूप है। स्तन की गाँठें, गर्भाशय की गाँठें, अंडाशय गाँठ () में भी इस प्रयोग के अदभुत लाभ मिले हैं। इस स्वास्थ्य-प्रदायक पेय में 2 से 3 सफेद मिर्च का चूर्ण मिलाकर पीने से कैंसर की गाँठों में (अर्बुद) में भी लाभ मिलता है। इसके साथ गोझरण अर्क का सेवन, पथ्यकर आहार व प्राणायाम आवश्यक है।

सावधानीः कफ, खाँसी, दमा, शरीर में दर्द के स्थायी रोगियों को नींबू नहीं लेना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 31,32

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