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सप्तचक्रों के ध्यान के लाभ


शरीर में आध्यात्मिक शक्तियों के सात केन्द्र हैं जिन्हें ‘चक्र’ कहा जाता है । ये चक्र चर्मचक्षुओं से नहीं दिखते क्योंकि ये हमारे सूक्ष्म शरीर में होते हैं । फिर भी स्थूल शरीर के ज्ञानतंतुओं-स्नायुकेन्द्रों के साथ समानता स्थापित करके इनका निर्देश किया जाता है । इन चक्रों का ध्यान करने से निम्नलिखित लाभ होते हैं ।

1. मूलाधार चक्रः इस चक्र का ध्यान धरने वाला साधक अत्यन्त तेजस्वी बन जाता है । उसकी जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है और वह निरोगता प्राप्त करता है । पटुता, सर्वज्ञता और सरलता उसका स्वभाव बन जाता है ।

2. स्वाधिष्ठान चक्रः इस चक्र का ध्यान करने वाला साधक सारे रोगों से मुक्त होकर संसार में सुख से विचरण करता है । वह मृत्यु पर विजय पाता है । उसके शरीर में वायु संचारित होकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है ।

3. मणिपुर चक्रः इसके ध्यान से साधक के समस्त दुःखों की निवृत्ति होती है और उसके सारे मनोरथ सिद्ध होते हैं । यह काल पर विजय पा लेता है अर्थात् काल को भी चकमा दे सकता है । जैसे – योगी चाँगदेव जी ने काल की वंचना कर चौदह सौ वर्ष तक आयुष्य भोगा था ।

4. अनाहत चक्रः इसके ध्यान से अपूर्व ज्ञान व त्रिकालदर्शिता प्राप्त होती है । स्वेच्छा से आकाशगमन करने की सिद्धि मिलती है । देवताओं व योगियों के दर्शन होते हैं ।

5. विशुद्धाख्य चक्रः इसके ध्यान से चारों वेद रहस्यसहित समुद्र के रत्नवत् प्रकाश देते हैं । इस चक्र में अगर मन लय हो जाय तो मन-प्राण अन्तर में रमण करने लगते हैं । शरीर वज्र से भी कठोर हो जाता है ।

6. आज्ञा चक्रः आज्ञा चक्र में ध्यान करते समय जिह्वा ऊर्ध्वमुखी (तालू की ओर) रखनी चाहिए । इससे सर्व पातकों का नाश होता है । उपरोक्त सभी पाँचों चक्रों के ध्यान का समस्त फल इस चक्र का ध्यान करने से प्राप्त हो जाते हैं । वासना के बंधन से मुक्ति मिलती है ।

7. सहस्रार चक्रः इस सहस्रार पद्म में स्थित ब्रह्मरंध्र का ध्यान धरने से परम गति अर्थात् ‘मोक्ष’ की प्राप्ति होती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2008, पृष्ठ संख्या मुख्य पृष्ठ का भीतरी पन्ना अंक 181

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जिसके बिना जीवन अधूरा….- पूज्य बापू जी


चित्त की विश्रांति से सामर्थ्य प्रकट होता है और सामर्थ्य का सदुपयोग करने से निर्भयता आती है । चित्त की विश्रांति प्रभुरस को प्रकट करने वाली कुंजी है । चित्त की विश्रांति प्रसाद की जननी है । विश्रांति साधन ब्रह्मज्ञान कराने में समर्थ है । जैसे – काम करते-करते थक जाते हैं फिर आराम करते हैं तो काम करने की शक्ति संचित होती है । बोलते-बोलते थक जाते हैं फिर नहीं बोलते तो बोलने की शक्ति संचित होती है । दिन भर परिश्रम करते हैं, अपनी ऊर्जा खर्च होती है और रात को कुछ नहीं करते – सो जाते हैं तो दूसरे दिन काम करने की ऊर्जा संचित होती है । यह सबके अनुभव की बात है ।

अभी अपराधियों से पूछताछ करने वालों ने एक नया तरीका खोज लिया है । पहले तो अपराधी को मार-पीटकर सच्ची बात उगलवाते थे । अब अपराधी को रात को सोने नहीं देते तो वह इतना विह्वल हो जाता है कि कोई भी गोपनीय बात छुपा नहीं सकता । सच्ची बात बोलकर वह जान छुड़ा लेता है तो मानना पड़ेगा कि अपराधी व्यक्ति को भी आराम चाहिए ।

आराम तीन प्रकार का होता हैः स्थूल आराम, सूक्ष्म आराम और वास्तविक आराम ।

स्थूल आरामः काम करके थके हैं और नींद आयी, यह स्थूल आराम है ।

सूक्ष्म आरामः कर्म ऐसे सुन्दर, सुहावने मंगलकारी करें कि हृदय में संतोष मिले । आपको भूख लगी है, भोजन की थाली तैयार है परंतु आपने देखा कि कोई व्यक्ति है जो अपने से भी ज्यादा भूखा या दुखियारा है । यदि खुद को थोड़ा भूखा रखकर भी आपने उसको खिला दिया तो उसको तो भूख की पीड़ा से आराम मिलेगा परंतु आपको सूक्ष्म आराम मिलेगा । ऐसे ही माता-पिता व मित्रों के काम आ गये, संस्कृति व धर्म के काम आ गये तो उसमें स्थूल आराम तो नहीं होता, कठोर परिश्रम होता है । जैसे गुरु गोविन्दसिंह जी के बेटे दीवाल में चुने जा रहे थे, उनका स्थूल आराम तो तबाह हो रहा था, मौत आ रही थी लेकिन आत्मसंतोष हो रहा था कि अपने धर्म के लिए दीवाल में चुन जा रहे हैं । बहू कैसी भी हो, सास उसे बेटी समझकर बड़ा दिल रख के उससे व्यवहार करती है, ‘बहू मेरे साथ बुरा व्यवहार करती है किंतु मैं तो बुरा व्यवहार नहीं करूँगी । उसकी गति वह जाने ।’ – ऐसा सोचती है अथवा बहू सास की सब बातें सहन कर लेती है और अपनी तरफ से सास के साथ मंगलमय व्यवहार करती है तो उनको एक प्रकार का आत्मसंतोष का आराम मिलता है ।

लालबहादुर शास्त्री, मोरारजी भाई देसाई जैसे कोई नेता जिन्होंने अपने क्षेत्र में कार्य किया हो, उन्हें चुनाव में हारने पर भी इस प्रकार का आत्मसंतोष होता है कि चलो भाई ! हम तीन बार जीते, चौथी बार हार गये अथवा कभी मंत्री नहीं बने तो भी कोई बात नहीं, हमने अपने इलाके के लोगों की सेवा की है ।’ लेकिन इससे जीवात्मा का परम कल्याण नहीं होता । वह तो होता है वास्तविक आराम पाने से ही ।

वास्तविक आरामः चतुर्मास में देवशयनी एकादशी से देवउठी एकादशी तक भगवान नारायण क्षीरसागर में लेटे-लेटे वास्तविक आराम पाते हैं और उनके संकल्प के प्रभाव से सृष्टि चलती है । आप रात्रि को निद्रा में आराम पाते हैं और सुबह प्रभात काल में जो निर्णय करते हैं वे अच्छे होते हैं तथा झंझटों से बचाने वाले होते हैं । रात्रि की निद्रा को अगर आप योगनिद्रा बनाने में सक्षम हो जायें तो स्थूल आराम के साथ सूक्ष्म आराम और सूक्ष्म आराम के साथ वास्तविक आराम तक आप पहुँच सकते हैं । वास्तविक आराम पाने के लिए ही मनुष्य जन्म मिला है । नींद तो भैंसा भी कर लेता है, पक्षी भी अपने घोंसले में आराम कर लेते हैं । हर जीव को निद्रा चाहिए और वह कर लेता है । स्थूल आराम करना कोई बड़ी बात नहीं है । सूक्ष्म आराम करना कुछ-कुछ अच्छाई है किंतु जिसने वास्तविक आराम पा लिया उसने अपना और अपनी सात पीढ़ियों का वास्तविक कल्याण कर लिया ।

दुनिया के तमाम श्रेष्ठ ग्रंथों में विश्व-साहित् में सबका मंगल चाहने वाले सर्वोपरि ग्रंथ हैं चार वेद । वेद कहते हैं-

ॐ द्यौः शांतिरन्तरिक्षं शांतिः पृथिवी शांतिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।।

‘स्वर्गलोक, अन्तरिक्षलोक तथा पृथ्वीलोक हमें शान्ति प्रदान करें । जल शांतिप्रदायक हो, औषधियाँ तथा वनस्पतियाँ शांति प्रदान करने वाली हों । सभी देवगण शांति प्रदान करें । सर्वव्यापी परमात्मा सम्पूर्ण जगत में शांति स्थापित करें । शांति भी हमें परम शांति प्रदान करे ।’ (यजुर्वेदः 36.17)

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ।।

‘सभी सुखी हों, सभी नीरोगी रहें, सभी सबका मंगल देखें और किसी को भी किसी दुःख की प्राप्ति न हो ।’

पशुओं को, पक्षियों को, पेड़-पौधों को भी सुख-शांति मिले । सबको सुख-शांति व वास्तविक आराम मिले ।

वास्तविक आराम के बिना जो कुछ मिलेगा वह एक दिन छीना जायेगा । आज तक जो आपने जाना है, पाया है और आज के बाद जो जानोगे, पाओगे वह सब मृत्यु के एक झटके में छूट जायेगा लेकिन जो वास्तविक तत्त्व है उसको एक बार जान लो या पा लो तो मौत का बाप और तैंतीस करोड़ देवता व भगवान नारायण मिलकर भी उसे छीन नहीं सकते । भगवान नारायण सहित सब देवता मिलें और देवताओं तथा भगवान नारायण का आधारस्वरूप आत्मा (वास्तविक आराम) नहीं मिला तो जीवन अधूरा है । उर्वशी अप्सरा को ठुकराने की ताकत रखने वाले अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण मिले, फिर भी उसका रुदन चालू था । 16000 राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में विवाह सम्पन्न करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उतने ही रूप बना लिये और उतने ही रूप गर्गाचार्यों के भी बना दिये थे । ऐसे समर्थ श्रीकृष्ण जिसके सारथी हैं, ऐसे अर्जुन को भी जब तक वास्तविक तत्त्व का ज्ञान नहीं मिला तब तक उसके सर्व दुःखों की निवृत्ति नहीं हुई और जब वास्तविक तत्त्व का ज्ञान हुआ, वास्तविक आराम मिला तो वही अर्जुन कहता हैः

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा…..

‘मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है ।’ (गीताः 18.73) अर्थात् अपने शुद्ध, बुद्ध, नित्य, मुक्त आत्मस्वभाव की स्मृति ।

आपकी पत्नी राज़ी हो गयी, पति राज़ी हो गया, बॉस राज़ी हो गया, लोगों ने तालियाँ बजाकर आपका ‘वोट बैंक’ पक्का कर दिया तो भी आप पूरे निश्चिंत नहीं हो सकते । कुछ भी मिल जाय फिर भी सारे दुःखों की निवृत्ति और पूर्ण सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । मदालसा रानी ने अपने चारों बेटों को वास्तविक आराम दिला के ब्रह्मज्ञानी बना दिया । ‘गुरुवाणी’ में आता हैः

पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा का नाउ ।

नानक पूरा पाइआ पूरे के गुन गाउ ।।

जिस मनुष्य ने अटल नाम वाले पूर्ण प्रभु का स्मरण करके आत्मारामी सद्गुरुओं की कृपाप्रसादी को पचाया है, उसे पूर्ण प्रभु मिल गया है । पूर्ण पुरुषों से पूर्ण स्वरूप का ज्ञान पाकर, अपनी पूर्णता की अनुभूति कराने वाले साधन को समझकर सजाग हो जाना चाहिए, अपनी पूर्णता का अनुभव करना चाहिए ।

पूर्ण परमात्मा की आराधना करके उसमें शांत होना सीखो, सम होना सीखो तो आपका परम मंगल हो जायेगा, परम कल्याण हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2008 पृष्ठ संख्या 2-4

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