पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी
मानव जन्म बड़ा कीमती है। समस्त साधनों का धाम व मोक्ष का द्वार यह मनुष्य-शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। संत तुलसीदास जी कहते हैं-
बड़ें भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाई न जेहिं परलोक सँवारा।। (श्री रामचरित. उ.कां. 42.4)
इस मनुष्य जीवन को यदि सही ढंग से सद्गुरुओं के मार्गदर्शन के अनुसार जिया जाय, उसी के अनुसार जप, ध्यान, साधनादि किये जायें तो केवल आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं, वरन् भौतिक दृष्टि से भी हम पूर्णतया सफल हो सकते हैं। इतना ही नहीं, हम परब्रह्म परमात्मा का दीदार भी कर सकते हैं। जो बाह्य वस्तुएँ पाकर सुखी होना चाहता है, जो अपने जीवन में बीड़ी, सिगरेट, शराब आदि का आदर करता है, उसके जीवन में खिन्नता, अशांति और बेचैनी व्याप्त हो जाती है। किंतु जो व्यक्ति सत्संग का, ऋषियों का, उनके बताये गये जीवन जीने के सिद्धान्तों का आदर करता है उसका जीवन प्रेम, आनंद, शांति और प्रसन्नता से परिपूर्ण हो जाता है। आप हजारों रूपये लेकर बाजार घूमो और प्रसन्नता देने वाले साधन-वस्तुएँ खरीदो। उनसे आपको इतना आनंद नहीं आयेगा जितना कि सत्शिष्य को सद्गुरुओं के दर्शन व सत्संग से आता है।
सुकरात के प्रति सहानुभूति रखने वाले कई सेठ एक दिन सुकरात को लेकर बड़े-बड़े बाजारों, स्टोरों में दिन भर घूमे। ‘चाहे करोड़ों तक का सामान भी यदि सुकरात खरीदेंगे तो हम अभी ही उसका भुगतान कर देंगे’, यह सोचकर उन्होंने जवाहरात, फर्नीचर, खाद्य वस्तुओं आदि एक-से-एक मनलुभावनी चीजोंवाले स्टोर दिखाये। संध्या हो गयी। अभावग्रस्त जीवन जीने वाले सुकरात ने दिन भर घूमने के बाद भी कुछ नहीं खरीदा। सेठों को अत्यंत आश्चर्य हुआ। सुकरात ने सब स्टोरों में घूमने के बाद आश्चर्य को भी आश्चर्य में डाले ऐसा नृत्य किया। सेठों ने आश्चर्य से पूछाः “आपके पास न फर्नीचर है, न सुखी जीवन की कुछ सामग्री है। हमें कई दिनों से तरस आ रहा था इसलिए आपको स्टोरों में घुमाया और बार-बार हम कहते थे कि ‘कुछ भी खरीद लो ताकि हमें सेवा का कुछ मौका मिले।’ अब आप और हम घूम के थक गये। आपने खरीदा तो कुछ नहीं और अब मजे से नृत्य कर रहे हैं !”
भारतीय तत्त्वज्ञान के प्रसाद से प्रसन्न हुए उस तृप्तात्मा सुकरात ने कहाः “तुम्हारे पास ऐहिक सुख-साम्राज्य होने पर भी तुम उतने सुखी नहीं जितना बिना वस्तु, बिना व्यक्ति और बिना सुविधा के मैं सुखी हूँ, इस खुशी में मैं नाच रहा था।”
अभावग्रस्त परिस्थिति और कुरुप शरीर में सुकरात इतने सुखी और सुरूप तत्त्व में पहुँचे थे कि कई सुखी व सुरूप उनके चरणों के चाकर होने से अपने को भाग्यशाली मानते थे। अद्भुत है आत्मविद्या ! काली काया, ठिंगना कद, शरीर में आठ-आठ वक्रताएँ…. ऐसे कुरुप शरीर में भी अष्टावक्र जी परमात्मस्वरूप की मस्ती से अंदर से इतने सुरुप हुए कि विशाल काया व विशाल राज्य के धनी जनक उनके शिष्य कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। सुकरात का शिष्य होने से प्लेटो भी गौरव का अनुभव करता था। क्या तुम अपने उस आत्मा के सौंदर्य को पाना चाहते हो ? प्रेमरस प्यालियाँ पीना चाहते हो ? जन्म-जन्म की कंगालियत मिटाना चाहते हो ?…. तो उस आत्मधन परमेश्वर-प्रसाद को पाये हुए महापुरुषों को खोजो। प्लेटो की नाईं सुकरात को, जनक की नाईं अष्टावक्र को, नरेन्द्र की नाईं रामकृष्ण को, सलूका-मलूका की नाईं कबीर को, बाला-मरदाना की नाईं नानकजी को खोजो। अटूट श्रद्धा, दृढ़ पुरुषार्थ, पवित्र और निःस्वार्थ प्रेम से उन महापुरुषों के साथ जुड़ जाओ, फिर देखो मजा ! कोहिनूर देने वालों से कंकड़-पत्थर माँगकर अपने अहं के पोषक नहीं, राग-द्वेष के शिकार नहीं, सच्चे तलबगार….
आप जिसके हितैषी है, उसकी उन्नति देखकर आपके हृदय में प्रसन्नता होती है और उसका पतन देखकर आपके हृदय को ठेस पहुँचती है। किंतु गुरुजन, संतजन तो किसी एक दो के नहीं, वरन् मानवमात्र के हितैषी होते हैं। सद्गुरुओं के मार्गदर्शन में जीवन जीने से मनुष्य समस्त आपदाओं से पार हो जाता है। तब काल भी अपना सिर कूटता है गुरुओं के प्रसाद को देखकर। वह सोचता है कि ‘मैंने कई बार इस जीवन को मारा था किंतु अब गुरुओं के, संतों के प्रसाद को पाकर यह जीव जीवन-मरण के पाश से मुक्त हो जायेगा। मेरा शिकार चला गया….।’ संत कबीर जी कहते हैं-
मन कि मनसा मिट गयी, अहं गया सब छूट।
गगन मण्डल में घर किया, काल रहा सिर कूट।।
सदगुरुओं के सान्निध्य से जीव को जन्म-जन्मांतरों का जो भ्रम था कि ‘मैं देह हूँ…. जगत सच्चा है’ वह दूर हो जाता है। अपने शरीर को सदा टिकाये रखने की वासना निवृत्त हो जाती ह। क्योंकि जीव को पता चल जाता है कि ‘मैं सदा हूँ, अमर हूँ, मेरे वास्तविक स्वरूप का कभी नाश नहीं होता और शरीर किसी का भी होकर सदा नहीं टिकता।
मैं आनंदस्वरूप हूँ। आनंद किसी बाह्य वस्तु में नहीं है वरन् मेरा अपना आपा ही आनंदस्वरूप है। आज तक मैं जो सोच रहा था कि वस्तुओं में सुख है, पद-प्रतिष्ठा में सुख है, विदेशों के, विलासी देशों के वातावरण में सुख है। वह सुख न था, मेरी ही भ्रांति थी। ऋषिकृपा से, गुरुकृपा से मेरी वह भ्रांति दूर हो गयी और अब पता चला कि सब पदों का जो बाप है वह आत्मपद मैं ही हूँ। सब सुख जहाँ से प्रगट होते हैं वह सुखस्वरूप, वह आनंदस्वरूप आत्मा मैं ही हूँ।
जब गुरुओं का प्रसाद मिलता है, भीतरी रस जब मिलने लगता है, अंतर्यामी परमात्मा का स्वभाव जब प्रगट होने लगता है तब इस जीव की ‘मैं’ पने की समस्त भ्राँतियाँ, वासनाएँ मिट जाती हैं और वह चिदाकाशरूपी गगनमण्डल में अपना घर कर लेता है अर्थात् अपने आपको अपने घर में ही पा लेता है। अभी तक तो वह अपने को हाड़-मांस के घर में मान रहा था। जबकि हाड़-मांस का घर ईंट-चूने के घर के सहारे और ईंट-चूने का घर पृथ्वी के सहारे था। पृथ्वी जल पर, जल तेज पर, तेज वायु पर और वायु आकाश के सहारे थी। आकाश भी महत्तत्त्व के सहारे, महत्तत्त्व प्रकृति के सहारे था और हम प्रकृति से प्रेरित होकर जन्म-मरण के चक्र में जी रहे थे, किंतु गुरुओं की कृपा से अब हमें पता चला है कि प्रकृति चल रही है, हम अचल हैं। ऐसे निजस्वरूप में जगाने वाले सदगुरुओं के चरणों में हमारे कोटि-कोटि प्रणाम हैं….।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 221
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