संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
सनातन धर्म की स्थापना किसी साधु-संत, जती-जोगी या तपस्वी ने की, ऐसी बात नहीं है। यहाँ तक कि भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण या अन्य अवतारों ने भी सनातन धर्म की स्थापना नहीं की बल्कि श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसी विभूतियाँ सनातन धर्म में प्रकट हुईं। सनातन धर्म तो उनके पूर्व भी था।
वशिष्ठजी महाराज ने बताया कि इस तरह का यज्ञ करो और उसमें श्रृंगी ऋषि को आमंत्रित करो क्योंकि वे बड़े संयमी हैं। यज्ञ में आहुति देने वाले जितने अधिक संयमी-सदाचारी होते हैं, यज्ञ उतना ही प्रभावशाली होता है। श्रृंगी ऋषि को लाना बड़ा कठिन कार्य था। बड़े यत्न से उन्हें लाया गया। उनके द्वारा यज्ञ सम्पन्न हुआ, यज्ञपुरुष खीर का कटोरा लेकर प्रकट हुए। वह दैवी प्रसाद माँ कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा ने लिया। उसी से भगवान श्री राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का प्राकट्य हुआ। सनातन धर्म श्रीराम के पहले था तभी तो यह व्यवस्था हुई।
432000 वर्ष बीतते हैं तब कलियुग, 864000 वर्ष बीतते हैं तब द्वापरयुग, 1296000 वर्ष तब त्रेतायुग और 1728000 वर्ष बीतते हैं तब सतयुग पूरा होता है। इस प्रकार कुल मिलाकर 4320000 वर्ष बीतते हैं तब एक चतुर्युगी मानी जाती है। ऐसी 71 चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक मन्वंतर और ऐसे 14 मन्वंतर बीतते हैं तब एक कल्प होता है। अर्थात् 194 चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक कल्प यानी ब्रह्माजी का एक दिन होता है। ऐसे ब्रह्मा जी अभी 50 वर्ष पूरे करके 51वें वर्ष के प्रथम दिन के दूसरे प्रहर में हैं। अर्थात् सातवाँ मन्वंतर, अट्ठाईसवीं चतुर्युगी, कलियुग का प्रथम चरण चल रहा है। कलियुग के भी 5228 वर्ष बीत चुके हैं।
जैसे दिव्य इतिहास हमने सनातन धर्म में देखा, वैसा और किसी संस्कृति अथवा धर्म में आज तक नहीं देखा-सुना।
सनातन धर्म और वेद अपौरुषेय है अर्थात् उनका प्राकट्य किसी पुरुष के द्वारा नहीं हुआ है।
अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भी भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन की महिमा का खुले दिल से गान किया है।
पादरी लैंडविटर (थियोसोफिकल सोसायटी के मान्य संत) ने कहा है- “भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने से पूर्व आंतरिक संतोष नहीं मिला था। ईसाई और इस्लाम मत में श्रद्धा तो दिखी, पर विवेक की तुष्टि नहीं हुई। पाश्चात्य दर्शन में विवेक मिला, पर संवेदनाओं की प्यास न बुझी। भारतीय दर्शन में दोनों का योग है, यह वास्तव में योगी है।
जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक शोपेनहावर ने कहा है- “विश्व के संपूर्ण साहित्यिक भण्डार में से किसी ग्रंथ का अध्ययन मानव-विकास के लिए इतना उपयोगी और ऊँचा उठाने वाला नहीं है जितना कि उपनिषदों की विचारधारा का अवगाहन। इस सागर में डुबकी लगाने से मुझे शांति मिली है तथा मृत्यु के समय भी शांति मिलेगी।”
दाराशिकोह (औरंगजेब के बड़े भाई) उपनिषदों का अध्ययन करते थे। एक दिन वे मस्ती में झूम रहे थे। उनकी भतीजी ने पूछाः “चचा जान ! आप नशा तो करते नहीं हैं, फिर ऐसे मस्त कैसे हो रहे हैं ?”
दाराशिकोहः “बेटी ! यह मस्ती नशे की नहीं, दिव्य ज्ञान की है। उपनिषदों को पढ़ने के बाद मुझे अनुभव हो रहा है कि आत्मज्ञान की मस्ती कितनी गहरी होती है !”
फ्रांस के इतिहास-लेखक विक्टर कजीन ने कहा है- “परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान प्राचीन हिन्दू रखते थे, इस बात से कभी इन्कार नहीं हो सकता है। उनका दर्शनशास्त्र (तत्त्वज्ञान), उनके विचार इतने उत्कृष्ट, इतने उच्च, इतने यथार्थ और सच्चे हैं कि यूरोपीये लेखों से उनकी तुलना करना ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ठीक मध्याह्नकालीन सूर्य के पूर्ण प्रकाश में स्वर्ग से चुरायी हुई प्रोमीथीयन आग (Promethean fire) का झुटपुटा उजाला !
जब हम ध्यानपूर्वक पूर्वीय, विशेष करके भारतवर्षीय काव्य और दर्शनशास्त्र की पुस्तकें पढ़ते हैं, जिनका विस्तार और प्रचार अभी-अभी यूरोप में होने लगा है, तब हमें उनसे बहुत सी सच्चाइयाँ मिलती हैं और वे सच्चाइयाँ ऐसी हैं कि यूरोपीय दर्शन के निष्कर्ष उनकी तुलना में बिल्कुल हेच (तुच्छ) ठहरते हैं। यूरोपीय बुद्धि की अपंगता और भारतीय दर्शन की गंभीरता ऐसी महान है कि हमें पूर्व (भारत) के दर्शनशास्त्र के सामने मजबूरन घुटने टेकने पड़ते हैं।”
पाश्चात्य दार्शनिक श्लेगल ने लिखा है- “हिन्दू विचार के मुकाबले में यूरोपीय दर्शनशास्त्र की सर्वोच्च डींगें ऐसी प्रतीत होती हैं जैसे विराट पुरुष के सामने एक बावन अंगुल का बौना !”
वेदान्त दर्शन के विषय में श्लेगल का कहना है- “मनुष्य का दिव्य स्वरूप उसे निरंतर इसलिए समझाया और चित्त में धारण कराया जाता है कि इससे मनुष्य अपने स्वरूप की ओर लौटने के लिए परिश्रम की पराकाष्ठा करे, इस जीवन-प्रयास में अपने को सजीव प्रोत्साहित करे तथा अपने को इस विचार में प्रवृत्त करे कि प्रत्येक व्यापार, उद्यम का एकमात्र मुख्य उद्देश्य अपने निजस्वरूप (आत्मा) से पुनः मिलाप और योग प्राप्त करना है।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 116
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