Monthly Archives: August 2002

सनातन धर्म की महिमा


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

सनातन धर्म की स्थापना किसी साधु-संत, जती-जोगी या तपस्वी ने की, ऐसी बात नहीं है। यहाँ तक कि भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण या अन्य अवतारों ने भी सनातन धर्म की स्थापना नहीं की बल्कि श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसी विभूतियाँ सनातन धर्म में प्रकट हुईं। सनातन धर्म तो उनके पूर्व भी था।

वशिष्ठजी महाराज ने बताया कि इस तरह का यज्ञ करो और उसमें श्रृंगी ऋषि को आमंत्रित करो क्योंकि वे बड़े संयमी हैं। यज्ञ में आहुति देने वाले जितने अधिक संयमी-सदाचारी होते हैं, यज्ञ उतना ही प्रभावशाली होता है। श्रृंगी ऋषि को लाना बड़ा कठिन कार्य था। बड़े यत्न से उन्हें लाया गया। उनके द्वारा यज्ञ सम्पन्न हुआ, यज्ञपुरुष खीर का कटोरा लेकर प्रकट हुए। वह दैवी प्रसाद माँ कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा ने लिया। उसी से भगवान श्री राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का प्राकट्य हुआ। सनातन धर्म श्रीराम के पहले था तभी तो यह व्यवस्था हुई।

432000 वर्ष बीतते हैं तब कलियुग, 864000 वर्ष बीतते हैं तब द्वापरयुग, 1296000 वर्ष तब त्रेतायुग और 1728000 वर्ष बीतते हैं तब सतयुग पूरा होता है। इस प्रकार कुल मिलाकर 4320000 वर्ष बीतते हैं तब एक चतुर्युगी मानी जाती है। ऐसी 71 चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक मन्वंतर और ऐसे 14 मन्वंतर बीतते हैं तब एक कल्प होता है। अर्थात् 194 चतुर्युगियाँ बीतती हैं तब एक कल्प यानी ब्रह्माजी का एक दिन होता है। ऐसे ब्रह्मा जी अभी 50 वर्ष पूरे करके 51वें वर्ष के प्रथम दिन के दूसरे प्रहर में हैं। अर्थात् सातवाँ मन्वंतर, अट्ठाईसवीं चतुर्युगी, कलियुग का प्रथम चरण चल रहा है। कलियुग के भी 5228 वर्ष बीत चुके हैं।

जैसे दिव्य इतिहास हमने सनातन धर्म में देखा, वैसा और किसी संस्कृति अथवा धर्म में आज तक नहीं देखा-सुना।

सनातन धर्म और वेद अपौरुषेय है अर्थात् उनका प्राकट्य किसी पुरुष के द्वारा नहीं हुआ है।

अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भी भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन की महिमा का खुले दिल से गान किया है।

पादरी लैंडविटर (थियोसोफिकल सोसायटी के मान्य संत) ने कहा है- “भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने से पूर्व आंतरिक संतोष नहीं मिला था। ईसाई और इस्लाम मत में श्रद्धा तो दिखी, पर विवेक की तुष्टि नहीं हुई। पाश्चात्य दर्शन में विवेक मिला, पर संवेदनाओं की प्यास न बुझी। भारतीय दर्शन में दोनों का योग है, यह वास्तव में योगी है।

जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक शोपेनहावर ने कहा है- “विश्व के संपूर्ण साहित्यिक भण्डार में से किसी ग्रंथ का अध्ययन मानव-विकास के लिए इतना उपयोगी और ऊँचा उठाने वाला नहीं है जितना कि उपनिषदों की विचारधारा का अवगाहन। इस सागर में डुबकी लगाने से मुझे शांति मिली है तथा मृत्यु के समय भी शांति मिलेगी।”
दाराशिकोह (औरंगजेब के बड़े भाई) उपनिषदों का अध्ययन करते थे। एक दिन वे मस्ती में झूम रहे थे। उनकी भतीजी ने पूछाः “चचा जान ! आप नशा तो करते नहीं हैं, फिर ऐसे मस्त कैसे हो रहे हैं ?”

दाराशिकोहः “बेटी ! यह मस्ती नशे की नहीं, दिव्य ज्ञान की है। उपनिषदों को पढ़ने के बाद मुझे अनुभव हो रहा है कि आत्मज्ञान की मस्ती कितनी गहरी होती है !”
फ्रांस के इतिहास-लेखक विक्टर कजीन ने कहा है- “परमेश्वर का वास्तविक ज्ञान प्राचीन हिन्दू रखते थे, इस बात से कभी इन्कार नहीं हो सकता है। उनका दर्शनशास्त्र (तत्त्वज्ञान), उनके विचार इतने उत्कृष्ट, इतने उच्च, इतने यथार्थ और सच्चे हैं कि यूरोपीये लेखों से उनकी तुलना करना ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ठीक मध्याह्नकालीन सूर्य के पूर्ण प्रकाश में स्वर्ग से चुरायी हुई प्रोमीथीयन आग (Promethean fire) का झुटपुटा उजाला !

जब हम ध्यानपूर्वक पूर्वीय, विशेष करके भारतवर्षीय काव्य और दर्शनशास्त्र की पुस्तकें पढ़ते हैं, जिनका विस्तार और प्रचार अभी-अभी यूरोप में होने लगा है, तब हमें उनसे बहुत सी सच्चाइयाँ मिलती हैं और वे सच्चाइयाँ ऐसी हैं कि यूरोपीय दर्शन के निष्कर्ष उनकी तुलना में बिल्कुल हेच (तुच्छ) ठहरते हैं। यूरोपीय बुद्धि की अपंगता और भारतीय दर्शन की गंभीरता ऐसी महान है कि हमें पूर्व (भारत) के दर्शनशास्त्र के सामने मजबूरन घुटने टेकने पड़ते हैं।”

पाश्चात्य दार्शनिक श्लेगल ने लिखा है- “हिन्दू विचार के मुकाबले में यूरोपीय दर्शनशास्त्र की सर्वोच्च डींगें ऐसी प्रतीत होती हैं जैसे विराट पुरुष के सामने एक बावन अंगुल का बौना !”

वेदान्त दर्शन के विषय में श्लेगल का कहना है- “मनुष्य का दिव्य स्वरूप उसे निरंतर इसलिए समझाया और चित्त में धारण कराया जाता है कि इससे मनुष्य अपने स्वरूप की ओर लौटने के लिए परिश्रम की पराकाष्ठा करे, इस जीवन-प्रयास में अपने को सजीव प्रोत्साहित करे तथा अपने को इस विचार में प्रवृत्त करे कि प्रत्येक व्यापार, उद्यम का एकमात्र मुख्य उद्देश्य अपने निजस्वरूप (आत्मा) से पुनः मिलाप और योग प्राप्त करना है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 116
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शम ही परम आनंद है…..


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-
“हे राम जी, शम ही परम आनंद, परम पद और शिवपद है। जिस पुरुष ने शम को पाया है सो संसार-समुद्र से पार हुआ है। उसके शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। हे राम जी ! जैसे चंद्र उदय होता है तब अमृत की किरणें फूटती हैं और शीतलता होती है, वैसे ही जिसके हृदय में शमरूपी चंद्रमा उदय होता है, उसके सब पाप मिट जाते हैं और वह परम शांतिमान हो जाता है।

शम देवतारूपी अमृत के समान कोई अमृत नहीं है। शम से परम शोभा की प्राप्ति होती है। जैसे पूर्णमासी के चंद्रमा की कांति परम उज्जवल होती है, वैसे ही शम को पाकर जीव की कांति उज्जवल होती है।

जिस पुरुष को शम की प्राप्ति हुई है वह वंदना करने योग्य और पूजने योग्य हो जाता है।”

जिसका शम सिद्ध हो गया अर्थात् जिसने मन को शांत करने की कला पा ली, वह वंदना करने योग्य और पूजने योग्य है। तुकाराम जी महाराज की वंदना की जाती है, एकनाथ जी महाराज का आदर का होता है, ज्ञानेश्वर महाराज का दर्शन करने के लिए लोग कतार में खड़े रहते हैं क्योंकि ये सब शमवान पुरुष हैं।

मन को शांत करने का नाम शम है, इंद्रियों पर नियंत्रण पाने का नाम दम है, भगवान के रास्ते चलते कठिनाइयाँ सहने का नाम तितिक्षा है, भगवान में आस्था रखने का नाम श्रद्धा है, बुद्धि को सब प्रकार से ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना समाधान है तथा भगवान के रास्ते में विघ्न डालने वाले व्यसन और बुराइयों को त्यागने का नाम उपरति है। ईश्वर के रास्ते जाने के लिए जो दुर्गुण छोड़ दिये और फिर उनमें नहीं पड़े तो यह उपरति हो गयी। जिसके हृदय में छः गुण आ जाते हैं उसके हृदय में आत्मशांति आने लगती है और वह परम पद को पाने में सफल हो जाता है।

इसी आत्मशांति को पाने के लिए प्राचीन काल में बड़े-बड़े राजे-महाराजे राजपाट को छोड़कर, सिर में खाक डालकर, हाथ में कटोरा लेकर भिक्षा माँगना स्वीकार करते थे। महापुरुषों की कृपा पाने के लिए राजे-महाराजे उनके आश्रम में बर्तन भाँडे माँजते थे, झाड़ू-बुहारी करते थे…. आत्मशांति ऐसी ऊँची चीज है।

जिन महापुरुषों के सम्पर्क से आत्मधन मिलता है, जिनसे आत्मशांति मिलती है, जो शमवान पुरुष हैं, उन महापुरुषों की भली प्रकार सेवा करनी चाहिए। उन महापुरुषों के आशीर्वाद हमारे हजारों जन्मों के पाप-ताप मिटाते हैं और लाखों-लाखों संस्कारों को निवृत्त करके भगवद्भक्ति का अंकुर उभारते हैं, हममें भगवत्प्राप्ति की प्यास जगाते हैं।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! जैसा आनंद शमवान को होता है, वैसा अमृत पीने वाले को भी नहीं होता।”

जो आनंद और शांति शमवान को होती है, वैसा आनंद और शांति अमृतपान करने वाले देवताओं के पास भी नहीं होती। कैसी महिमा है शमवान पुरुष की !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 6, अंक 116
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विषय विकारों से वैराग्य करें….


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के तेरहवें अध्याय के आठवें श्लोक में आता हैः

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।

‘इस लोक तथा परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना (यह ज्ञान है)।’

‘इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम्… इन्द्रियों के अर्थ में वैराग्य करें। वैराग्य घृणा का नाम नहीं है, उपेक्षा का नाम वैराग्य नहीं है और द्वेषबुद्धि का नाम भी वैराग्य नहीं है। वरन् इन्द्रियों के अर्थ में अर्थात् इन्द्रियों के विषय में से राग हटाने का नाम वैराग्य है।

इन्द्रियों का अर्थ है – ‘विषय’। ‘विषय’ किसको बोलते हैं ? संस्कृत भाषा में जो जीव को बाँध ले अथवा जिसमें जीव बँध जाय, उसे ‘विषय’ कहते हैं और ये विषय पाँच हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। कहीं देखकर आसक्ति हो जाती है तो कहीं सूँघकर, कहीं चखकर आसक्ति हो जाती है तो कहीं सुनकर या स्पर्श करने पर…. और यह आसक्ति ही जीव को बंधन में डालती है।

‘इन्द्रियों के अर्थ में’ अर्थात् जब हम विषयों में आसक्ति करते हैं तब अनर्थ हो जाता है। इसीलिए भगवान कहते हैं कि इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम्….. इसका मतलब यह नहीं कि आप देखना, सुनना, चखना आदि बंद कर दो। नहीं, केवल उन विषयों से राग हटा दो।

विषय भी दो प्रकार के होते हैं-

पहला है दृष्ट विषय – जैसा कि व्यास जी ने कहा हैः खान-पान, पहनावा, ऐश्वर्य और स्त्री में आसक्ति, यह दृष्ट विषय है। जो दिखता है उसमें आसक्ति होना – यह दृष्ट विषय है।

दूसरा है, अदृष्ट विषय। जब मृत्यु होगी तब शरीर प्रकृति में लय हो जायेगा। लेकिन मरने के बाद बिहिश्त (स्वर्ग) मिलेगा, शराब के चश्मे मिलेंगे, हूरें (अप्सराएँ) मिलेंगी…. ये अदृष्ट विषय हैं।

यहाँ के सुख-भोग का अर्थात् दृष्ट विषय का त्याग इसलिए किया कि स्वर्ग में सुख-भोग मिलेगा तो समझो तुम्हारी तपस्या स्वर्गीय सुख-भोग के लिए आसक्ति हो गयी। अतः दृष्ट और अदृष्ट दोनों विषयों से वैराग्य होना चाहिए।

वैराग्य उत्पन्न होता है विवेक से। विवेक क्या है ? ऐसा समझना कि सत्य क्या है, मिथ्या क्या है ? शाश्वत क्या है, नश्वर क्या है ? नित्य क्या है, अनित्य क्या है ? इसी का नाम विवेक है। विवेक से वैराग्य उत्पन्न होता है। यह संसार दिखने भर को है, वास्तविक नहीं है। वास्तव में तो केवल एक परमात्मा ही सत्य है, शेष सब माया है, ऐसे विचार से विवेक जागता है।

संसार की चीजों की भी इच्छा न करें तथा स्वर्ग के सुख को पाने की भी इच्छा न करें वरन् केवल ईश्वर को ही पाने की इच्छा करें और जब ईश्वर के मार्ग पर चलने का एक बार मन में ठान लें, फिर घबरायें नहीं, पीछे हटे नहीं। मीराबाई ने एक बार ठान लिया तो चल पड़ी।

गुजराती में कहा गया हैः

हरि नो मारग छे शूरा नो नहीं कायर नूं काम जोने।

ईश्वर का मार्ग कायरों का मार्ग नहीं है, यह शूरवीरों का मार्ग है। 5 साल के ध्रुव ने ठान लिया तो लग पड़ा और ईश्वर को पा के ही रहा। 11 साल के प्रह्लाद ने अनेक कष्ट झेले लेकिन ईश्वर को पाकर ही रहा….

भाई कहता थाः “समय से दुकान पर आया करो।”
मैंने कहाः “अपने नियम पूरे करके ही आ सकता हूँ, नहीं तो यह चला।”
“अच्छा, 12 बजे तक आ जाना।”
“12 बजे का वचन दिया है – इस चिंता में मैं नहीं रह सकता।”
“अच्छा, दिन में एक बार तो आ जाना।”
“नहीं।”
“अच्छा, सप्ताह में एक बार आ जाया करना।”
फिर सप्ताह में एक बार जाना भी हमको भारी पड़ने लगा तो हम घर छोड़-छाड़कर चल दिये।
एक बार दृढ़ निश्चय कर लो तो फिर उस पर डट जाओ।

भाई, भाई के दोस्त तो समझाते ही थे, साथ ही भाई अन्य व्यापारी लोगों से भी कहता कि ‘इतना बढ़िया भाई है फिर भी शादी को मानता नहीं था…. शादी करा दी तो दुकान पर नहीं आता है, संसारी नहीं बनता, पूजा के कमरे में बैठा रहता है, मंदिर में चला जाता है…. आप लोग जरा समझाओ।’

तब व्यापारी लोग मुझे समझाने आते कि ‘भाई ! तुम सुधर जाओ। तुम्हारा एक ही भाई है।’

वे लोग मुझे अपने घर ले जाते और अपना पूजा का कमरा दिखाते हुए कहतेः “हम भी पूजा पाठ करते हैं। हम तुमको पूजा करने से रोकते नहीं हैं। देखो, फलाने कैसे करोड़पति बन गये ? तुम्हारी थोड़ी सी युक्ति से भाई ऊँचा उठ रहा है। तुम जाने की बात करते हो तो बेचारा रोता है। तुम सुधर जाओ।”
मैंने कहाः “बस, हम सुधर गये। हम जहाँ हैं वहीं ठीक हैं।”
दृष्ट और अदृष्ट से वैराग्य करें। वैराग्य का मतलब है स्त्री-पति, खान-पान आदि दृष्ट और स्वर्ग आदि के अदृष्ट विषयों के प्रति आकर्षण न होना। दोस्ती-दुश्मनी नहीं, ग्रहण-त्याग नहीं।

कुछ लोग त्यागी तो होते हैं लेकिन जड़ त्यागी होते हैं। एक ने कसम खा ली कि ‘हम बिल्कुल त्यागी वैरागी रहेंगे। किसी स्त्री ने छू लिया तो हम 5 दिन का उपवास करेंगे।’
फिर वह तपस्या करने चला गया। उसकी माँ को पता चला तो वह आयी और उसके सिर-कंधे पर हाथ घुमाते, सहलाते हुए बोलीः “बेटा ! घर चल।”
बेटे ने तो कसम खा ली थी।

माँ भी तो स्त्री है। उसने 5 दिन का उपवास रखा। अरे ! जिस माँ से तू पैदा हुआ उस माँ ने छू लिया तो क्या हुआ ? ये है थोपा हुआ त्याग। राग तो फँसाता ही है थोपा हुआ त्याग भी एकतरफा बना देता है।

श्री कृष्ण न तो मन-इन्द्रियों के राग में फँस मरने को कहते हैं और न द्वेष में फँस मरने को कहते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं-

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।

इन्द्रियों के विषय में वैराग्य करें और अहंकार न करें। अहंकार किसी बात का न करें। न धन का अहंकार, न सौंदर्य का, न विद्वता का, न सत्ता का, न पद का, न जाति का, न त्याग का, न वैराग्य का…. किसी का भी अहंकार न करें। अहंकार तुम्हें एक सीमित दायरे में ले आयेगा और जब तुम सीमित दायरे में आ जाओगे तो व्यापक परमात्मा से दूर हो जाओगे…..
आगे भगवान कहते हैं-

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।

जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि आदि में दुःख होता है ?

जैसे कुम्हार के भट्ठे (आंवां) में घड़ा पकता है, वैसे ही गर्भाग्नि में शरीर पकता है। माता-पिता के द्रवरूपी रज-वीर्य से निर्मित अस्थि-मांसमय शरीर गर्भाग्नि में ही पककर बनता है। 8-10 माह तक शरीर का निर्माण होता है फिर जन्म के समय भी बड़ी पीड़ा होती है। इसी प्रकार मृत्यु भी कष्टदायी ही होती है और रोग तथा वृद्धावस्था कितनी कष्टदायी होती है यह तो सभी जानते ही हैं।

शरीर को कितना भी खिलाओ-पिलाओ, अंत में यह साथ नहीं देता। अतः इस शरीर के पीछे व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिए वरन् संसार दुःखमय है और विकार दोषमय हैं – ऐसा विचार करके अपना समय और शक्ति सुखस्वरूप, चैतन्यस्वरूप, अपने शाश्वत आत्मस्वरूप की ओर लगाना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 116
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