Monthly Archives: March 2014

विभु तत्त्व को जानकर व्यापक हो जाओ


श्रीराम नवमीः 8 अप्रैल

संत श्री एकनाथ जी महाराज ने ‘भावार्थ रामायण’ के द्वारा तात्त्विक ज्ञान की दृष्टि से भगवान श्रीराम के जीवन-चरित्र का निरूपण किया है, जो अध्यात्म के जिज्ञासुओं तथा आत्मकल्याण के इच्छुकों के लिए बहुत ही उपयोगी है।

भक्त की आत्मानंद में लीन हो जाने की स्थिति का वर्णन करते हुए संत एकनाथ जी महाराज कहते हैं- “जो त्रिभुवन में नहीं समा पाते वे ब्रह्म स्वरूप श्रीराम महारानी कौसल्या के गर्भ में स्थित थे। जो ब्रह्म त्रिभुवन में नहीं समा पाता, वह स्वयं श्रद्धाभाव में समा जाता है। साधक के मन में विशुद्ध भक्ति उत्पन्न होने पर उसे अनुभव होता है कि हृदयरूपी आकाश में सम्पूर्ण ब्रह्म (व्याप्त हो गया) है। श्रीरघुनंदन राम के रूप में पूर्ण ब्रह्म पूर्ण रूप से कौसल्या के गर्भ में आने पर वे अऩ्यान्य बातों के प्रति आत्मीयता का त्याग करके प्रेम से एकांत में रहने लगीं। उनमें देह के प्रति अनासक्त होने के लक्षण दिखाई दे रहे थे। यही अत्यधिक दृढ़ वैराग्य का लक्षण होता है। उन्होंने अपनी कल्पना का दमन करके निर्विकल्प कल्पतरू जैसे राम का आश्रय ग्रहण किया था, अतः निर्विकल्प समाधि-अवस्था को वे प्राप्त हुई थीं।

उनकी प्रवृत्ति सांसारिक बातों से विमुख होकर परमार्थ की ओर हो गयी थीं। वे सृष्टि को आत्मवत् देखने लगी थीं। जैसे किसी योगी को उन्मनी अवस्था प्राप्त हुई हो, इस प्रकार बैठी हुई अपनी धर्मपत्नी को देखकर राजा दशरथ आनंदित हुए। वे बोलेः “मन में जो दोहद (इच्छाएँ) हों, बता दो।” फिर भी उन्होंने उनके अस्तित्त्व को नहीं देखा। उनकी मनोवृत्ति रामस्वरूप में लवलीन थी। इसलिए वे व्यक्त तथा अव्यक्त को नहीं देख रही थीं। उनके उदर में निराकार ब्रह्म गर्भरूप में उदित था। इसलिए उऩ्हें देह के विषय में कोई स्मृति नहीं हो रही थी। वे स्तब्ध होकर श्रीराम को देख रही थीं। यह देखकर राजा ने कहाः “हाय ! यह सुंदरी किस प्रकार भूत-पिशाच की पकड़ में आकर बहक गयी है ! पुत्रप्राप्ति की मेरी कामना किस प्रकार सिद्ध होगी ? पुरुषोत्तम आत्माराम रघुवीर इसे किस प्रकार सिद्धि को प्राप्त करा देंगे ?”

रामनाम सुनते ही कौसल्या ने आँखें खोलीं तो सृष्टि को राममय देखा। उनका सृष्टि से संबंध टूट गया था। देह में विदेह राम व्याप्त थे। जब उऩ्होंने दसों दिशाओं की ओर देखा, तब उनमें रामरूप की मुद्रा अंकित हुई दिखाई। उनके श्वासोच्छ्वास में राम व्याप्त थे। वृक्ष, लताएँ और मंडप सबको वे रामरूप देख रही थीं। जो उदर में उत्पन्न हुए थे, वही समस्त अंगों में छलक रहे थे। उनके लिए समस्त संसार ब्रह्मरूप हो गया था।”

श्री एकनाथ जी महाराज परम अवस्था में पहुँचे साधक के बारे में कहते हैं- “जब साधक को ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो उसे अऩुभव हो जाता है कि ब्रह्मत्व, ब्रह्मांड तथा ब्रह्म से उत्पन्न पंच महाभूत तथा जीव-अजीव की परम्परा ब्रह्म से भिन्न नहीं है। तब वह अऩुभव करता है कि मैं ब्रह्म हूँ, मेरा शत्रु भी ब्रह्म है, मेरे सन्मित्र, बंधुजन ब्रह्म ही हैं।”

ब्रह्म को धारण करने से सर्वत्र ब्रह्मदर्शन की जो दृष्टि, ज्ञानमयी समाधि की जो स्थिति कौसल्या जी की हुई थी, आनंदमयी माँ, रानी मदालसा या साँईं लीलाशाह जी महाराज, कबीर जी, नानक जी व अन्य सत्पुरुषों की हुई थी, वही आपकी भी हो सकती है।

आप भी अपने भीतर आत्माराम को धारण करो। अंतर्मुख होकर तो माई-भाई, रोगी-निरोगी, बाल-वृद्ध, सभी लोग आत्मराम को पा सकते हैं। मनुष्यमात्र आत्मप्राप्ति का अधिकारी है। राजा दशरथ के घर में भगवान राम ने अवतार लिया था पर राम केवल इतने ही नहीं हैं बल्कि जो सदा, सर्वकाल और सर्वदेश में व्याप्त हैं और अपना आत्मा बनकर भी बैठे हैं वही राम हैं।

एक राम घट-घट में बोले, दूजो राम दशरथ घऱ डोले।

तीजो राम का सकल पसारा, ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

जितना हम राम को दिव्य समझकर उनकी उपासना करेंगे, उतने ही हम दिव्यता की ओर बढ़ते जायेंगे। हम राम को जितना व्यापक मानेंगे उतने हम भी व्यापक होते जायेंगे और व्यापक होते-होते एक ऐसी वेला आयेगी जब सारी सीमाएँ, संकीर्णताएँ ध्वस्त होकर असीम रामतत्त्व का, अपने अद्वैत निजस्वरूप का ज्ञान हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2014, पृष्ठ संख्या 20, अंक 255

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क्रूर से डरो नहीं, स्वधर्म छोड़ो नहीं – पूज्य बापू जी


चेटीचंड पर्वः 1 अप्रैल 2014

झूलेलाल जी का वरुण अवतार यह खबर देता है कि कोई तुम्हारे को धनबल, सत्ताबल अथवा डंडे के बल से अपने धर्म से गिराना चाहता हो तो आप ‘धड़ दीजिये धर्म न छोड़िये।’ सिर देना लेकिन धर्म नहीं छोड़ना।

भगवान झूलेलाल को अवतरण सिंधु नदी के किनारे बसने वाले सत्संगी लोगों ने करवाया था। मरख बादशाह जितना महत्त्वकांक्षी था उतना ही धर्मांध और अनाचारी भी था। उसने हिन्दू जाति को समाप्त करने के लिए फरमान निकाला कि ‘या तो हमारे मजहब में आ जाओ या तो मरने को तैयार हो जाओ।’

कई कायर लोगों ने मजहब बदला, हिन्दू धर्म छोड़कर गये। बाकी के लोगों ने सोचा कि  ‘नहीं, यह वैदिक धर्म है, किसी व्यक्ति का चलाया हुआ नहीं है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण का भी चलाया हुआ नहीं है, सनातन है। इसको छोड़कर हम दूसरे धर्म में जायें ? स्वधर्मे निधनं श्रेयः…. अपने धर्म में मर जाना अच्छा है। लेकिन मरना भी कायरता है, डटे रहें, टक्कर लेनी चाहिए।’ ऐसा सत्संग में सुना था। गये समुद्र के किनारे। 40 दिन का व्रत रखने का संकल्प लिया कि 40 दिन भगवान को पुकारेंगे।

आये हुए सभी लोग किनारे पर एकटक देखते-देखते पुकारते- ‘हे स्रर्वेश्वर ! तुम अब रक्षा करो। मरख बादशाह तो धर्मींध है और उसका मूर्ख वजीर ‘आहा’, दोनों तुले हैं कि हिन्दू धर्म को नष्ट करना है। लेकिन प्रभु ! हिन्दू धर्म नष्ट हो जायेगा तो अवतार बंद हो जायेंगे। मानवता की महानता उजागर करने वाले रीति रिवाज सब चले जायेंगे। आप ही धर्म की रक्षा के लिए युग-युग में  अवतरित होते हो। किसी भी रूप में अवतरित होकर प्रभु हमारी रक्षा करो। रक्षमाम् ! रक्षमाम् !! ॐ….’ फिर शातं हुए तो इन्द्रियाँ मन में गयीं और मन बुद्धि में और बुद्धि भगवान में शांत हुई। ऐसी-ऐसी आराधना, पूजा, प्रार्थनाएँ कीं।

एक दिन संध्या के समय समुद्र की उन सात्त्विक लहरों के बीच झूलेलाल जी का प्राकट्य हुआ। शीघ्र ही अवतार लेकर आने का आश्वासन, सांत्वना व हिम्मत देते हुए उन्होंने कहाः “तुम भूखे हो, प्रसाद खा लो – मीठे चावल, कोहर, मिश्री और नारियल। मरख बादशाह को बोल दो कि मैं  नसरपुर में ठक्कर रत्नराय के यहाँ आ रहा हूँ।”

सप्ताह हुआ होगा कि आकाशवाणी ने सत्य का रूप लिया। नसरपुर में ठक्कर रत्नराय के यहाँ संवत् 1117 के चैत्र शुक्ल पक्ष की द्वितीया को उस निराकार ब्रह्म ने माता देवकी के गर्भ से साकार रूप लिया। और मरख बादशाह को सन्मार्ग दिखाकर उसे धर्मांतरण करने से रोका।

झूलेलाल भगवान के अवतार ने भी बहुत सारे लोगों को सत्संग द्वारा उन्नत किया। झूलेलाल भगवान के भाई थे – सोमा और भेदा। दोनों को उन्होंने कहाः “तुम भी चलो, लोगों को जरा भलाई के रास्ते लगायेंगे।” लेकिन वे बोलेः “अरे ! यह कथा का काम तुम करो। हम तो कमायेंगे, धंधा करेंगे।” वे तो धंधे में लगे लेकिन ये तो जोगी गोरखनाथजी के सम्पर्क में आ गये व उनसे गुरुमंत्र लिया। गोरखनाथजी ने झूलेलालजी को कहाः ”जैसा मैं अमर योगी हूँ ऐसे ही तुम भी अमर होओगे।” तब से नाम पड़ गया ‘अमरलाल’।

तो चेटीचंड महोत्सव मानव-जाति को संदेश देता है कि क्रूर व्यक्तियों से दबो नहीं, डरो नहीं, अपने अंतरात्मा-परमात्मा की सत्ता को जागृत करो। परिस्थितियों से हार मत मानो, परिस्थितियों के प्रकाशक शुद्ध परमात्मा के ज्ञान में, परमात्म-प्रेरणा में, परमात्म-शांति में आओ।

सिंधी लोग जल और ज्योत की उपासना करते हैं। जल द्रवरूप होता है, शीतलता देता है अर्थात् आपका हृदय द्रवीभूत हो और उसमें भगवान की शीतलता आये। ज्योत प्रकाश देती है और प्रेरणा देती है कि सुख  में भी फँसो नहीं, दुःख में भी फँसो नहीं। किसी भी परिस्थिति में फिसलो नहीं, फँसो नहीं, प्रकाश में जियो, ज्ञान में जियो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2014, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 255

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जब भगवान तक पहुँची चिट्ठी – पूज्य बापू जी


एक बालक था मुकंद और उसके भाई का नाम था अनंत। अनंत और उनके पिताजी के  नाम पत्र आते लेकिन  नन्हा मुकुंद सोचता कि ‘मेरे को कोई पत्र ही नहीं लिखता !’ अनंत उसे चिढ़ाता था कि “तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखता। मुझे कितना मित्र पत्र लिखते हैं, पिता जी को भी कितने लोग पत्र लिखते हैं ! तेरे को कोई पूछता ही नहीं।”

मुकुंद भगवान की मूर्ति के आगे बैठ के बोलताः “प्रभु !  मुझे कोई पत्र नहीं लिखता तो तुम ही लिख दो न एक पत्र ! अच्छा! तुम नहीं लिखोगे ? मैं पहले लिखूँ ऐसा !”

उठाया कागज, पेन और लिखा कि प्रभु ! मैं तो आपका भक्त हूँ, आप मेरे हैं। आप मेरे को एक चिट्ठी लिखो।’ इस प्रकार का भावनाभरा पत्र लिखा, और भी बहुत सारी बातें लिखीं। और ‘सर्वेश्वर, सर्वव्यापक भगवान नारायण वैकुण्ठाधिपति को मिले’ – ऐसा पता लिखकर वह पत्र डाक के डिब्बे में डाल दिया।

2 दिन, 4 दिन, 10 दिन हुए तो मुकुंद ने डाकिये से पूछाः “मेरी कोई चिट्ठी नहीं है ? मेरे भाई की तो चिट्ठियाँ आती हैं, मेरी अभी तक नहीं आयी ?”

बोलेः “नहीं, तुझे कोई पत्र लिखता ही  नहीं।”

10 दिन और बीते। मुकुंद पूजा के कमरे में जाकर भगवान को बोलाः “प्रभु ! 20 दिन हो गये तुमको चिट्ठी लिखे। एक उत्तर भी नहीं दिया तुमने ! तुम व्यस्त होगे। सारी सृष्टि की व्यवस्था करते होगे पर मैं किसी को क्या बताऊँगा ? मेरा भाई मुझे चिढ़ाता है, ‘तुझे कोई चिट्ठी नहीं लिखता।’ अनंत को बोलने के लिए कुछ तो आप चिट्ठी लिखो न ! हे अच्युत ! हे गोविन्द ! हे हरि ! हे प्रभु जी ! एक चिट्ठी लिखो न….!”

जैसे माँ-बाप के आगे बच्चे रोते हैं ऐसे ही भगवान की तस्वीर के आगे मुकुंद रोता गयाः “आप चिट्ठी भी नहीं लिखते ! मैं आपका नहीं हूँ क्या ?…” बालक-हृदय….! मुकुंद निर्दोष भाव से भगवान के आगे अपनी व्यथा रखता हैः “मैं तुम्हारी चिट्ठी की राह देखता हूँ और तुम मुझे पत्र नहीं लिखते हो ? श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव… वासुदेवाय वासुदेवाय….!”

जो संसार के आगे रोते हैं, वे रोते ही रहते हैं लेकिन जो भगवान के लिए रोते हैं, तड़पते हैं उनका रूदन व तड़प मिट जाती है और उनका रोना सदा के लिए हँसने में बदल जाता है। हम भी रोये थे। मुकुंद की नाईं नहीं तो दूसरे तरीके से।

मुकुंद रोते-रोते भगवान के आगे चुपचाप, सुनसान…. सो गया। प्रकाश… प्रकाश… भगवान की मूर्ति से तेज निकला। वे देखता है कि भगवान उसके निकट आ रहे हैं, सांत्वना दे रहे हैं और फिर मूर्ति में समा गये। आवाज आयीः “ये बाहर की लेखनी और बाहर की चिट्ठियाँ बाहर की दुनिया के लिए हैं, तू तो मेरा है, मैं तेरा हूँ।”

उसको हुआ कि ‘भगवान ने पत्र नहीं लिखा तो कोई बात नहीं, खुद आ गये।’ अब उसकी भगवान के प्रति आस्था बढ़ गयी। जब साधक साधना करता है, एकटक भगवान या गुरु को देखता है तो उसको मानसिक दिव्यताओं के अनुभव होने लगते हैं।

जो जरा-जरा बात में झूठ बोलते हैं, उनकी मंत्रजप की शक्ति बिखर जाती है। जरा-जरा बात में कामी, क्रोधी, लोभी, मोही हो जाते हैं तो उनकी साधना की शक्ति क्षीण हो जाती है लेकिन आप थोड़े दिन मौन रह के थोड़ी साधना करो, कितनी शक्ति उभरती है अंदर !

मुकुंद को गुरु जी ने जो बताया था वह उसका पालन करता, नियमित अभ्यास करता, ध्यान व ॐकार का जप करता। और सत्यसंकल्पशक्ति थी, संयमी था तो बड़ी शक्ति आयी ! वही मुकुंद आगे चल के परमहंस योगानंद जी के नाम से प्रसिद्ध हुए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद,  मार्च 2014, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 255

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